जब किसी राष्ट्र की व्यापक संरचना पर किसी चरित्र का प्रभाव स्थापित होता है तो वह चरित्र भी राष्ट्र-चरित्र के रूप में दृष्टिगत होता है । साहित्य में ऐसे चरित्रों के जीवन व उनके मूल्यों का प्रभाव भी प्रत्यक्ष रूप से लक्षित होता है । ठीक इसी तरह महात्मा गांधी जैसे राष्ट्र-नायक का प्रभाव सम्पूर्ण भारतीय साहित्य पर तो पड़ता ही है विश्व-साहित्य भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रहा । हिन्दी-साहित्य में महात्मा गांधी का प्रभाव प्रत्येक विधा पर व्यापक रूप में पड़ा है । कविता से लेकर उपन्यास, आलोचना, जीवनी, संस्मरण आदि साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ ‘हिन्दी निबंध साहित्य’ पर भी दृष्टिगत होता है । रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी काव्य संसार में ओजस्वी नक्षत्र के रूप में विद्यामान तो हैं ही उनके गंभीर विचारणा से पूर्ण निबंध भी हिन्दी-साहित्य की अपूर्व संपदा है । उन्होंने अपने निबंधों में राष्ट्र, समाज, संस्कृति, मानव-जीवन, वैश्विक विषयों, भारतीय-दर्शन आदि पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं । उनके निबंधों में महात्मा गांधी के जीवन व उनके विचारों का व्यापक चिंतन उपस्थित है । जिसकी पड़ताल उक्त शोधालेख में वर्णित है ।
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में महात्मा गाँधी का योगदान अविस्मरणीय है । उनका हर एक कार्य कहीं-न-कहीं स्वतंत्रता आंदोलन की कड़ी बनकर भारतीय समाज में भी नव-परिवर्तन का वाहक बनकर उपस्थित हुआ है । समाजोद्धार उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था, परंतु राष्ट्र को परतंत्रता से बाहर निकालने के लिए जनता का सहज साथ आवश्यक था, इसलिए गांधी के कार्य समाज के उत्थान व राष्ट्र की स्वतंत्रता दोनों महत्ती उद्देश्यों को एक साथ साध रहे थे । दिनकर गांधी के इस योगदान को उल्लेखित करते हुए कहते हैं कि – “गांधी जी ने स्वदेशी और चरखे का प्रचार किया, अछूतोद्धार का आन्दोलन चलाया, खुद जेल गए औरों को जेल भिजवाया, नमक- सत्याग्रह किया, भारत छोड़ो आन्दोलन चलाया और अंग्रेज़ों के लिए यह असंभव बना दिया कि वे भारत को अपने अधीन रख सकें । मगर इन सभी बड़े कामों से भी कहीं बड़ा काम उन्होंने यह किया कि भारत की आत्मा के प्रति उन्होंने सारे संसार में श्रद्धा उत्पन्न कर दी ।”[1]
दिनकर के इस कथन की अंतिम पंक्ति से यह सिद्ध होता है कि गांधी के कार्यों से भारतीय-स्वतंत्रता आंदोलन ने एक आधार तो पाया ही साथ ही इस आंदोलन के प्रति वैश्विक दृष्टि को भी सापेक्ष रूप से प्रभावित किया । दिनकर अपने निबंध में गांधी के कार्य-व्यवहार व जीवन-मूल्यों को भारतीय ज्ञान परंपरा के उदार व उदात्त मूल्यों से जोड़ते हुए कहते हैं कि – “गांधी ने भारत के जिस सत्य को पुनरुज्जीवित किया है, वह खड्ग की शक्ति नहीं, सादगी, सहिष्णुता, प्रेम और सौहार्द की शक्ति है ।”[2] भारत की जनता जब हिम्मत हारी हुई, डरी हुई, मायूस बैठी थी उस समय गांधी उन्हें संबल देते हैं । वे हर प्रयास करते हैं जिससे जनता निर्भीक हो ।
आधुनिक पैमाने की माप-तोल जिन सूट-बूटों से समझी जाती है । गांधी ने उस मानसिकता को सिरे से खारिज किया । उन्होंने आधुनिकता के नए पैमाने गढ़े, जिनका संबंध तन के कपड़े से नहीं, मन के विचार से जुड़ा हुआ था । दक्षिण अफ्रीका के सूट-बूट वाले गांधी जब भारत लौटे तब उन्होंने इस मानसिकता को भली-भाँति समझकर अपने पहनावे में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया । वे जानते थे कि जनता का नायक जनता के जैसा ही होना चाहिए । उनकी इस सूक्ष्म पहचान के कारण ही जनता ने गांधी को अपनी आजादी का नायक बना दिया । इस संदर्भ में दिनकर अपने निबंध ‘वीरता की परंपरा और गांधी-मार्ग’ में लिखते हैं कि – “गांधीजी ने भारत का सबसे बड़ा उपकार यह किया कि उसके मन में समाई हुई भीति को दूर कर दिया । पतलून और टाई पहनने वाले नेताओं के युग में जब उन्होंने किसानों की मिरजई और पगड़ी पहन ली, तब यह निर्भयता का काम था ।”[3]
वर्तमान संदर्भ में भारतीय समाज की संकीर्ण दृष्टि को गांधी-विवेचना के माध्यम से उजागर करते हुए दिनकर ने भारतीय समाज की सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट के अपने निबंध में वर्णित किया है । उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के गांधी व मानवता के गांधी में अंतर स्थापित करते हुए समाज व राजनीति का वास्तविक सत्य प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि – “गांधी ने कहा था, सत्य के बिना अहिंसा चल नहीं सकती । हमने सत्य को तो छोड़ दिया, मगर अपनी कमज़ोरी छिपाने को अहिंसा की चादर और भी गाढ़ी बुनकर ओढ़ ली । जो गांधी हमारी छोटी जरूरतों का गांधी था, उसे हमने नहीं छोड़ा है, मगर जो गांधी मानवता का गांधी था, उसे हमने अपने घर से निकाल दिया है ।”[4]
गांधी के अहिंसावाद को संत-वृत्ति का परिचायक मानकर लोगों ने उन्हें भक्तिकालीन संतों के जैसा ही समझा जबकि उन संतों का व्यवहारिक जीवन-जगत (इहलौकिक) से अधिक नहीं था जबकि ठीक इसके विपरीत गांधी एक ऐसे संत कहे जा सकते हैं जिन्होंने सांसारिकता की अवहेलना न करके राजनीति, समाज व राष्ट्र की बुनियाद पर सीधा हस्तक्षेप किया । इसी बात को पुष्ट करते हुए दिनकर कहते हैं कि – “बुद्ध, ईसा, कबीर और नानक ने मनुष्य की इहलौकिक समस्याओं को महत्व नहीं दिया । उन्होंने आदमी को, भीतर-बाहर से माँज कर, उसका परलोक सुधारना चाहा ।”[5] संतों ने तो ‘संतन को कहा सिकरी सो काम’ कहकर राजनीति से एक निश्चित दूरी बनाये रखी । जिसके परिणामस्वरूप निरंकुश सत्ताओं पर सज्जनता का नियंत्रण नहीं रहा । गांधी जी ने इस मिथक को भी तोड़ने का कार्य किया । जिसे दिनकर अपने निबंध में कुछ इस तरह लिखते हैं – “गांधीजी संसार के पहले संत हैं, जिन्होंने अपने प्रयोग की सारी बुनियाद राजनीति पर रखी । मनुष्य का इलाज वहीं से शुरू किया, जहां कोढ़ का प्रकोप सबसे अधिक है । यदि राजनीति सुधर गई तो सारा मानव-समाज सुधर जाएगा ।”[6] राजनीति के संदर्भ में दिनकर की यह सूक्ष्म दृष्टि गांधी विषयक चिंतन का आधार लेकर न केवल राजनीति में शुचिता की बात करती है बल्कि ऐतिहासिक उदाहरणों के माध्यम से संत या सज्जन वृत्ति को राजनीति, समाज आदि के क्षेत्र में मार्गदर्शक बनने का आह्वान भी करती है ।
दिनकर जैसे वीर-रस के राष्ट्रकवि जो अपने निबंधों में अहिंसावाद के उपासक गांधी के संबंध में उनकी निर्भयता को उल्लेखित करते हैं । यह केवल दिनकर या ‘हिन्दी निबंध साहित्य’ ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय-चिंतना के संदर्भ में अनूठा संयोजन है । वर्तमान राजनीति के परिप्रेक्ष्य में गाँधी जैसे राष्ट्रीय-नायक हाशिये पर जा रहे हैं, ऐसे समय में दिनकर जैसे वीर-रस (युद्ध-प्रियता) से ओतप्रोत कवि युगीन सत्य को उजागर करने का बीड़ा उठाते हैं । दिनकर के गांधी-विषयक सम्पूर्ण चिंतन में गांधी की निर्भीकता का वर्णन है । दिनकर की निबंध-दृष्टि अपनी वैचारिकता के आग्रह से मुक्त होकर गांधी की निर्भीकता को जिस रूप में प्रकट करती है वह हिन्दी-निबंध की उच्च राजनीतिक दृष्टि की द्योतक है । वे गांधी के इस मार्ग की सम्पूर्ण पड़ताल कर कहते हैं कि – “गांधी-मार्ग की पहचान अहिंसा नहीं, धर्मसम्मत वीरता है; प्रार्थना नहीं प्रहार है, पलायन और समाधि नहीं, उद्यम और अभियान है ।”[7]
गांधी की अहिंसा को वर्तमान विमर्शों में कमजोरी का सूचक बताकर पेश किया जा रहा है । इन वर्तमान विमर्शकारों को दिनकर की उक्त पंक्तियों पर मनन करना चाहिए कि अहिंसा भारतीय ज्ञान-परंपरा का सुशोभित आभूषण है । दिनकर लिखते हैं कि – “गांधी-मार्ग की पहचान अहिंसा नहीं, धर्मसम्मत वीरता है; प्रार्थना नहीं, प्रहार है, पलायन और समाधि नहीं, उद्यम और अभियान है ।”[8]
दिनकर ने भारतीय स्वतंत्रता का दौर अपनी आँखों के समक्ष देखा था, वे इस बात से परिचित थे कि गांधी के अहिंसा जैसे सिद्धांत भारतीय ज्ञान-परंपरा से संबंध तो रखते ही हैं वह राष्ट्र व राजनीति में नए हथियारों के रूप में स्थापित भी हुए हैं । दिनकर गांधी के इस नवीन पथ की व्याख्या करते हुए कहते है कि – “संत भी योद्धा होते हैं, यह बात संसार को मालूम थी; किन्तु अहिंसा भी योद्धा का शस्त्र हो सकती है, इसका प्रमाण पहले पहल गांधी जी ही दिया ।”[9]
इधर कुछ समय से गांधी व मार्क्स की तुलना की जाती रही है । इन्हीं संदर्भों को लेकर दिनकर अपने निबंध में गांधी व मार्क्स की इस तुलना पर लिखते हैं कि – “मध्यकालीन संतों का मत था कि मनुष्य का सबसे बड़ा ध्येय निजी मोक्ष है और निजी मोक्ष प्राप्त सर्वोत्तम साधन सन्यास है । मार्क्स ने कहा यह बात गलत है । मोक्ष व्यक्ति का नहीं, समाज का होना चाहिए । तब गांधी जी आए और उन्होंने बताया : ‘मोक्ष तो व्यक्ति का ही होता है, मगर उसका रास्ता सन्यास नहीं, समाज सेवा का कार्य है ।”[10]
कथनानुसार स्पष्ट होता है कि दिनकर की दृष्टि वैषम्य में भी साम्यता को अन्वेषित करने वाली दृष्टि थी, गांधी और मार्क्स की इस विवेचना में दिनकर की समन्वय दृष्टि, गांधी की समन्वय दृष्टि को उजागर कर रही है । जिसमें गांधी को मध्यकालीन संतों की मोक्ष अवधारणा को स्वीकार करते हुए दिखाया गया है, साथ ही उस मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग मार्क्स की समाज संबंधी अवधारणा को बतलाया गया है ।
दिनकर ने गांधी दर्शन के बहाने हिन्दी साहित्य के छायावादी आंदोलन पर गांधी के प्रभाव को नकारते हुए छायावाद की कल्पना को गांधी की कर्म साधना पद्धति के विपरीत बताया । आलोचकों ने छायावाद पर गांधी के जीवन-मूल्यों का प्रभाव दर्शाया है, जिसे दिनकर एक सिरे से अपने निबंध में खारिज करते हुए कहते हैं कि – “असल में, छायावाद को समझने का यह सारा सिलसिला ही बेकार है । छायावाद पर गांधी जी का कोई भी प्रभाव नहीं था। गांधी जी कर्मठता के आराधक थे, छायावाद कल्पकों का कल्पना – विलास था । गांधी जी कला से वैसा ही काम लेना चाहते थे, जैसा काम उससे प्रगतिवादी लेना चाहते हैं, किन्तु छायावाद की मूल प्रवृत्ति की मूल प्रवृत्ति प्रचार के विरुद्ध थी। गांधी जी कृच्छ साधना में विश्वास करते थे, छायावादियों के भीतर भोग की ललक थी, जो छिपाए नहीं छिपती थी ।”[11]
औद्योगीकरण के इस दौर में राष्ट्रों की आपसी प्रतिस्पर्धा तथा समाज में व्यक्तिगत अमीरी की प्रतिस्पर्धा अमीरी-गरीबी के भेद को बढ़ाने वाली सिद्ध हुई है । दिनकर अपने गांधी विषयक विचारों में इस बढ़ते हुए भेद का निदान भी गाँधीवादी दृष्टि से मानते हैं । पूंजीवाद और समाजवाद दोनों ही धाराओं में दिनकर को समाधान का अभाव नजर आता है । वे लिखते हैं कि – “आर्थिक क्षेत्र में जहाँ तक पूँजीवाद बनाम समाजवाद का प्रश्न है, वे लोग स्वार्थी और असत्यभाषी हैं, जो गांधी को पूँजीवाद का त्राता समझते हैं, किन्तु प्रश्न जब नैतिक दृष्टि से देखा जाता है, तब पूँजीवाद और समाजवाद, अमेरिका और रूस दोनों के दोनों एक ही पाप के भागीदार बन जाते हैं, क्योंकि दोनों देशों का समाज यांत्रिकता का समाज है और मनुष्य के व्यक्तित्व का दलन, दोनों ही पद्धतियों से होता है। हाँ, समाजवादी देशों के पक्ष में पुण्य की इतनी बात जरूर है कि ऐसे देश व्यक्तियों से होता है ।”[12] दिनकर अमीरी-गरीबी के भेद पर औद्योगिकता, पूंजीवाद, समाजवाद इन सभी के बीच गांधी के आदर्शजनित नैतिक पथ को समाधान के तौर पर देखते हैं । आदर्शजनित नैतिकता का मार्ग यथार्थवाद की गली से होकर ही गुजरता है, जिसे दिनकर प्रेमचंद व गांधी के विचारों में समाहित पाते हैं । वे लिखते हैं कि – “प्रेमचंद ने गांधी जी का भरपूर समर्थन इसलिए किया कि उनकी भी जड़ भारत के आध्यात्मिक व्यक्तित्व में थी। वे भी सभ्यता के चाकचिक्य पर रीझकर समस्या की तह में पहुँचना चाहते थे और जो भी चिन्तक समस्या की तह में पहुँचेगा, वह यही कहेगा कि सादगी अच्छी, चालाकी बुरी चीज है; संयम श्रेष्ठ, असंयम हीन है; और मनुष्यता की रक्षा के लिए जरूरतों को बढ़ाना नहीं, उन्हें घटाना अधिक योग्य है ।”[13] गांधी विचारों की यह दृष्टि यांत्रिकता व विज्ञान के मसले पर भी समाधान सूचक बनकर खड़ी है ।
अतः हम देखते हैं कि गांधी के विचार व उनकी जीवन प्रेरणा पर दिनकर के निबंधों में विभिन्न राष्ट्रीय एवं वैश्विक परिदृश्यों पर तर्क पूर्ण शैली दृष्टिगत होती है । कविता के दिनकर जो वीर-रस के कवि बनकर उभरते हैं वही दिनकर अपने निबंधों में गांधी के जीवन मूल्यों को उपयोगी सिद्ध करते हुए अपने साहित्य चिंतन में विविधता का भी पोषण करते हैं । उन्होंने अपने निबंधों में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में गांधी के मूल्यांकन को विस्तृत दृष्टि से व्याख्यायित किया है । जिसमें गांधी के स्वतंत्रता संबंधी प्रयासों को समाज-कल्याण का भी कारक बताया है । उन्होंने गांधी विषयक अपनी निबंध दृष्टि में गांधी द्वारा राजनीति में किए गए सूचितापूर्ण नेतृत्व व मार्गदर्शन को भी रेखांकित किया है जो कि वर्तमान राजनीति में विलुप्त सा हो गया है । दिनकर ने अपने निबंधों में गांधी के सत्य, अहिंसा जैसे मूल्यों को निडरता व निर्भीकता से जोड़कर बताया है जिसे समाज अमूमन कायरता समझता है । दिनकर गांधी के आधुनिकता,समाज, विज्ञान, यांत्रिकता, औद्योगिककरण जैसे विषयों पर विचारों को पुनर्व्याख्यायित करते हुए इन सभी पर भारतीय दर्शन के संदर्भों को रेखांकित करते हैं । इन विषयों पर गांधी की दृष्टि को दिनकर समाधानमूलक दृष्टि के रूप में प्रस्तुत करते हैं, साथ ही वे मानते हैं कि गांधी ने वैश्विक स्तर पर इन विचारों से भारतीय पहचान को और अधिक समृद्ध किया है ।
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सुजाता कुमारी
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1. दिनकर रचनावली/ खंड- 6, साहित्यामुखी, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. – 171
3. दिनकर रचनावली/वट-पीपल, खंड- 8, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. -270
4. दिनकर रचनावली/ खंड- 6, साहित्यामुखी, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. -173
5. दिनकर रचनावली/वट-पीपल, खंड- 8, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. -270
9. दिनकर रचनावली/ खंड- 6, साहित्यामुखी, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. – 172-173
10. दिनकर रचनावली/ खंड- 6, साहित्यामुखी, सं- नंदकिशोर नवल, तरुण कुमार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2011, पृ. सं. – 179
13. वही, पृ. सं. – 179