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हिन्दी निबंधों में वर्णित शिव-चरित्र – सुजाता कुमारी

हिन्दी निबंधों में वर्णित शिव-चरित्र – सुजाता कुमारी

किसी भी समाज या देश को भावनात्मक और संवेदनात्मक रूप से जोड़े रखने के लिए कुछ ऐसे प्रतीकों मानबिन्दुओं की प्रत्येक समय में आवश्यकता रहती है, जिसके समग्र स्वरूप के तले राष्ट्र या समाज में एकत्व की भावना विद्यमान रहती है । उस एकत्व की भावना से राष्ट्र के विकास को और अत्यधिक बल मिलता है । भारतीय संस्कृति में नायक को आधार बना कर उसका ध्यान करना, उस पर गर्व करना आरंभिक दौर से ही प्रचलित रहा है । नायक इसलिए बनाए जाते हैं ताकि उनके चरित्र में विद्यमान सात्विक पक्षों को अपने दैनिक जीवन में उतारा जा सके । धार्मिक दृष्टि से समृद्ध इस देश में पौराणिक चरित्र उपासना के साथ-साथ समाज के रीति-रिवाजों में शामिल होकर सामाजिकता में घुलमिल गए । भारत में कई ऐसे आदर्श चरित्र हुए हैं जिनका संबंध किसी क्षेत्र विशेष तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि उनकी उपस्थिति अखिल भारतीय स्वरूप में रही है । राम, कृष्ण और शिव ऐसे चरित्र हैं जिनकी उपस्थिति सम्पूर्ण भारत वर्ष में फैली हुई है । उक्त चरित्र न केवल लोक कथा, दंत कथा, लोक-गीतों तक सीमित है बल्कि समाज इन्हें ईश-सत्ता का द्योतक बताकर उन्हें अपने पूजा स्थलों में भी स्थापित किए हुए है ।  ये चरित्र सिर्फ मंदिरों तक सीमित नहीं है बल्कि लोक-मानस के दिनचर्या में भी विद्यमान है । जिनके चरित्र में लोक-रंजन व लोक-रक्षणा के प्रसंगों को भारत का जनमानस पीढ़ी दर पीढ़ी इसे अपने वंशजों को विरासत के रूप में सौंपता रहा है । उक्त पौराणिक चरित्र वर्तमान में प्रतीक या मानबिन्दु बनकर राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना को एकमेव बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं । उक्त चरितों में ‘शिव-चरित’ भारतीय समाज में विशेष महत्ता लिए हुए है ।

समाज में आने वाले प्रत्येक वर्ग के लोग ‘शिव’ से प्रभावित हैं । जहाँ उच्च वर्ग शिव की बुद्धिमता से प्रभावित है वहीं निम्न वर्ग उनके भावात्मक रूप से प्रभावित है । शिव की उपासना या मान्यता को राज्याश्रय अखिल भारतीय स्वरूप में मिला । भारतीय ज्ञान प्रणाली में त्रिगुणात्मक सत्ता के स्वरूप में शिव का उल्लेख प्रमुख रूप से है पर शिव का चरित्र राम व कृष्ण के चरित्र की भाँति अवतार-अवधारणा का आधार लेकर विकसित नहीं हुआ बल्कि शिव के चरित्र का प्रसार शैव-संप्रदायों(दक्षिण में नयनार, उत्तर में – कापालिक, नाथ संप्रदाय)  व राज्याश्रय (दक्षिण में चोल, उत्तर में गुहिलोत) के कारण अधिक हुआ, क्योंकि शिव सिर्फ एक देवता के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हैं बल्कि उनका जुड़ाव लोक से है, अर्थात जो मंगलकारी है वही शिव है । उनके लिए जिस ‘संहारक’ शब्द का प्रयोग किया जाता है वे सिर्फ उतने तक सीमित नहीं थे बल्कि उनको लोक भिन्न-भिन्न रूपों में देखता है । रामविलास शर्मा लिखते हैं – “किसी भी देवता और उसकी शक्तियों के लिए शिव का प्रयोग हो सकता है । अन्न शिव है, वह शिवाभिः ऊतिभिः अपनी मंगलमय शक्तियों के साथ आये । इन्द्र सखा और शिव है । अश्विनी देवों की मैत्री शिव है  । इस शब्द का सबसे महत्त्वपूर्ण व्यवहार अग्नि के संदर्भों में हुआ है । कवि अग्नि में कहता है : देवो देवानामभवः शिवः सखा- तुम देवों के देव और मंगलकारी सखा हुए : शिवो दूतो विवस्वतः – तुम शिव हो, देवों के दूत हो, वसुओं के स्वामी हो कविप्रशस्तः अतिथिः शिवो नः- अग्नि कवियों द्वारा प्रशंसित, अतिथि और हमारे लिए शिव है  शिवो भवा वरूथ्यः अग्नि स्तुत्य और शिव हो दोषा शिवः – अग्नि रात्रि में शिव (मंगलकारी) होता है अधम्मा नत्रिवरूथः शिवो भव — “और तीनों संरक्षणों से युक्त तू [अग्नि ] हमारे लिए सुखकर हो” वह (देवेभिः सजूः नः शिवः अस्तु ) देवों के साथ रहनेवाला अग्नि हमारे लिए कल्याण करनेवाला हो” ; शिवा नः सख्या सन्तु भ्रात्राऽग्ने देवेषु युष्मे– “देवों के साथ तथा तेरे साथ हम लोगों की मैत्री और भ्रातृभाव मंगलजनक हो ।”[1]

कई स्थानों पर शिव के अस्तित्व को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं, यह भी पूछा जाता रहा है कि शिव वैदिक देवता हैं या प्रागवैदिक? इसकी पड़ताल  रामधारी सिंह दिनकर इस भांति करते हैं – “विचारने की मुख्य बात यह कि मोहनजोदड़ों और हरप्पा की खुदाई में योगस्थ शिव की मूर्तियाँ भी मिली है, जिनसे यह अनुमान होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में शिव की पूजा प्रचलित थी ।”[2]

वे इसी मान्यता को बलवती करते हुए कहते हैं कि – “संभवतः, जब आर्यों का द्रविड़ों के साथ विवाह-संबंध होने लगा, तब द्राविड़ स्त्रियों के साथ शिव की भावना आर्यों के घर में पहुँची  और, यद्यपि, आर्य पंडित और पुरोहित इस भावना के प्रसार को अनेक उपायों से रोकना चाहते थे, तथापि गृहों में नारियों की प्रधानता होने के कारण, आर्य-परिवारों में भी यह भावना बढ़ती ही गयी ।”[3]

इन कथनों से यही सिद्ध होता हीं है कि शिव भारत के वैदिक काल से पूर्व भी भारत के जनजीवन में व्याप्त व स्वीकार्य थे । बाद में चलकर आर्य और द्रविड़ों के संस्कृतियों में समन्वय होने से उनका और भी अधिक विस्तार हुआ । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि शिव चरित्र का विस्तार दक्षिण व उत्तर भारत में किस प्रकार प्रचलित हुआ । वहीं जब हम शिव संबंधी आर्य और द्रविड़ नामों की तुलना करते हैं तो पाते हैं कि शिव की  कल्पना करीबन आर्येत्तर कल्पना है जो मुख्यतः द्रविड़ों के संस्कार से आयी है । तमिल में शिव का नाम ‘शिवन’ है जिसका अर्थ है – लाल या रक्त वर्ण । वहीं प्राचीन काल में शिव का आर्य नाम ‘नील-लोहित’ मिलता है  । ऋग्वेद में अगर रुद्र का अर्थ देखा जाए तो वह भी लाल ही होता है । दिनकर लिखते हैं कि – “इसी प्रकार, संस्कृत के शंभू शब्द की तुलना तमिल के ‘सेम्बू’ शब्द से की जाती है, जिसका तमिल में अर्थ तांबा या लाल धातु होता है । इसलिए, अनुमान है कि द्रविड़ों के यहाँ जो ताम्रवर्ण के प्रतापी देवता थे, वही आर्यों के मरुतस्वामी रुद्र से मिल गए तथा औष्ट्रिक जातिवालों के पास जो जंगली देवता थे, उनके भी गुण, धीरे-धीरे, आकर रुद्र – शिव की भावना के साथ, जुड़ने लगे। इस तरह, बहुत काल के बीत जाने पर, शिव का रूप अत्यन्त विकसित हो गया और उसके एक छोर पर तो आर्यों की रुद्र सम्बन्धी दार्शनिक भावना प्रतिष्ठित हुई, जिसे आर्य और द्रविड़, दोनों जातियों के शिष्ट वर्ग ने अपनाया और दूसरे छोर पर शिव के पारिवारिक रूप, उनके अवढर और दयालु होने की बात तथा उनके योगेश्वर, भूतेश और फक्कड़ एवं अघोर होने की कथाएँ आ जुड़ीं, जिनसे जन-साधारण को सन्तोष मिलने लगा ।”[4]

भारतीय साधना में भक्ति और ध्यान दो पक्षों की चर्चा है, और इसी साधन रूप ने शिव को अनेक नाम रूपों में साधा है । जिसमें कुछ नाम रूपों की चर्चा विद्यानिवास मिश्र अपने निबंध “भारतीय आराध्य शिव के नाम” में करते हैं । वे लिखते हैं कि – उनका बड़ा पुराना नाम रुद्र है । रुद्र का अर्थ है लाल, दूसरा अर्थ है रोने वाला, दोनों की दशा में यह सृष्टि के मनोवेग का ही रूप है । रुद्र ब्रह्माण्ड के अहेरी हैं, उन्होंने मृग के रूप में भयवश दौड़ते ब्रह्मा का आखेट किया और उस मृग का सिर ही कट कर मृगशिरा नक्षत्र बन गया  । उन्होंने यह सहन नहीं किया कि रचनेवाला अपनी रचना पर आसक्त हो, इसी से रचने वाले का मस्तक या अहंकार काटकर अलग कर दिया और शरीर को बना दिया सन्ध्या, ध्यान की वेला । जो अहेरी होगा वह जंगल में विचरण करेगा ही और जंगली पशुओं को अपने वश में रखने वाला होगा, वह पशुपति होगा ही । शिव का दूसरा प्रसिद्ध नाम है पशुपति, पशु अर्थात् सहज आवेग, मन की उद्दाम आकांक्षाएँ, पशुपति इनको पाश से बाँधकर रखते हैं। या यों कही आवेगों का बवंडर, आकुल प्राणों का व्यापार पशुपति के डेरे पर आकर शान्त हो जाता है। पशुपति अहेरी के पास धनुष होगा ही होगा, पशुपति अहेरी के पास धनुष होगा ही होगा, पशुपति के धनुष का नाम ही अलग है, पिनाक, दूसरा नाम है अजगव । बड़ा पुराना धनुष है । इससे उनका नाम पिनाकी है। अहेरी की वेशभूषा भयंकर होती है, कौड़ियों और कपालों की माला पहनते हैं, वे कपर्दी और कपाली कहे जाते हैं। कपाल का अर्थ खप्पर भी है, हाथ में खप्पर लिये घूमते रहते हैं। जहाँ जहाँ भय है, वहाँ-वहाँ भय को भगाने वाले भूतनाथ पहुँचे रहते हैं। ऐसे के साथ चलेंगे भी कितने भूत-प्रेत, बेताल, जीवन की अतृप्त आकांक्षाएँ, भरी हुई वासनाएँ और पूरा जुलूस सामने आ जाए तो मूर्छा आ जाए । विचारी सास के हाथ से परछन की थाली ही गिर पड़ीं, हिमालय के यहाँ खलबली मच गई, जाने कैसे दूल्हा गौरी को ब्याहने आया है। पर जो जंगली पशुओं को, पाशविक वृत्तियों को, प्रेतों को, जीवन की अतृप्तियों को शरण देता है, वह कृपालु तो हो ही जाएगा, उसके मन में सबका कल्याण सबका हित करने का भाव होगा ही, सबका उद्धार वह करना चाहेगा ही, वह मृड होगा, मृड का अर्थ है कृपा करनेवाला ।”[5] 

इस तरह कई नामों के अर्थ विद्यानिवास मिश्र बताते हैं, साथ ही कारण भी देते चलते हैं । कुछ लोग उन्हें शिव शंकर और शिव-शंभू कहकर शिव को और मंगलकारी बना देते हैं । क्योंकि शम का अर्थ ही होता है कल्याण करने वाला । शिव के रंग में रंग जाने के लिए, शिवमय होने के लिए बनावटीपन छोड़ना होता है, छल-कपट से दूर रहना होता है, सरल, सीधा और करुणामय भाव होना चाहिए । तभी हम भोलेनाथ के निकट पहुँच सकते हैं ।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिव को ‘राष्ट्रीय एकता’ के प्रतीक के रूप में देखा है । वे मानते हैं कि – यह देश सांस्कृतिक रूप से न जाने कितने वर्षों से अखंड रहा है । इस देश में कितनी ही बार राजनीतिक उथल-पुथल हुए, विदेशी आक्रमण हुए, बावजूद इसके यह देश जस-के-तस स्थिर रहा, डिगा नहीं तो इसका एक कारण ‘शिव’ भी हैं । जिस इतिहास तक हम पहुँच सके हैं वहाँ तक हमें शिव का अस्तित्व मिलता है । ऋग्वेद में भी शिव का जिक्र मिलता है । यजुर्वेद में शिव के अन्य भी कई नाम मिलते हैं जैसे – महापिनाकी, कर्पदी, नीलग्रीव या नीलकंठ । शिव का वर्णन पुरानी संहिताओं में भी वैसे ही मिलता है जैसे आगे चलकर  रामायण और महाभारत में मिलता है । सिंधु घाटी की सभ्यता में भी शिव का अस्तित्व विराजमान मिलता है । वहीं पुराणों में कई स्थानों पर असुर जाति के शक्तिशाली नेताओं को भी शैव कहते हैं । ‘महादेव’ जिस नाम से वे लोक में प्रचलित है। यह नाम भी अथर्ववेद से ही मिलने लगता है । शिव के रूप में आर्य, द्रविड़, किरात और शवर-निषादों के विश्वास भी सम्मिलित है । मुस्लमान शैव योगी भी शिव को उतना ही मानते थे, जितना हिन्दू । चाहे तत्वदर्शी विद्वान हो या कोई दार्शनिक सबने शिव के उपस्थिति की चर्चा की है । 1921 की मनुष्य-गणना के अनुसार यह देखा जाता है कि उस समय सिर्फ पंजाब में ही 31,158 मुस्लिम नाथ पंथ योगी थे । यही बताने के लिए पर्याप्त है कि शिव केवल एक जाति या एक धर्म के पूरक नहीं थे । बल्कि समस्त जाति के लोग उन्हें उसी भाव से पूजते हैं, स्मरण करते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि – “शिव की पूजा उत्तर में हिमालय गिरी शृंखला  से लेकर दक्षिण में कुमारिका अंतरीप तक अबाध गति से चलती आयी है । देश और काल में इतनी व्यापकता कम ही मिलेगी । शिव सही अर्थों में राष्ट्रीय देवता हैं । इस महादेवता के रूप में समूचे भारत वर्ष का विश्वास मूर्तिमत्त हुआ है । दर्शन, काव्य नृत्य, मूर्ति, चित्र, वास्तु, संगीत – जो कुछ भी भारतवर्ष की श्रेष्ठ देन है, उन सब पर ही इस महादेवता का प्रभाव है । शिव नाम भारतवर्ष के उन सब कुछ को हमारे सामने खड़ा कर देता है जो महान है, जो उदात्त है, जो ओजस्वी है, जो ज्वलंत है, जो महिमान्वित है । इस नाम के इर्द-गिर्द भारतीय मानव-मंडली कि जीवंत चेतना चक्कर मारती रहती है ।”[6]

जब शिव का जिक्र आता है तो ‘शिवत्व’ शब्द की भी चर्चा होती है । इस शब्द का उल्लेख दैनिक-जीवन में भी किया जाता है । जिसका तात्पर्य यह है कि – स्वयं विष पीकर औरों के लिए अमृत छोड़ जाना । खुद भले हीं भूतों से घिरे रहे किन्तु अपने भक्तों को देवत्व प्रदान करना । कहने का अर्थ यह है कि शिव इस ढंग के देवता हैं, जो खुद पीड़ा सहकर अपने भक्तों को आनंद देने वाले हैं । शिव ने भारत को कैसे एक सूत्र में बांधते हैं इसका उदाहरण एक और स्थान पर मिलता है । सती के शव को लेकर शिव ने जो तांडव किया उस शव के खंड जितने स्थानों पर गिरे वहाँ शाक्त पीठ बने जिसकी संख्या चौरासी है । ये पीठ असम से सिंध तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए हैं । लोक मानस में न सिर्फ शिव की चर्चा होती है बल्कि उनके परिवार की भी चर्चा होती है । चाहे वह पार्वती हों, कार्तिकेय हो या गणेश हो सभी की पूजा होती है, उनका स्मरण किया जाता है । लोक मंगल के किसी भी पर्व में उनके पुत्र गणेश का नाम सबसे पहले आता है । छोटे से छोटे गाँव में शिव का मंदिर मिल जाता है । यहाँ तक की दूर किसी पहाड़ के दुर्गम स्थलों पर भी शिव की प्रतिमा मिल जाती है । शिव सिर्फ मंदिरों तक ही सीमित नहीं है लोकमानस किसी छोटे-से-छोटे पत्थर को भी शिव का दर्जा देकर अपनी आस्था उसके साथ जोड़ता है, और प्रतिदिन उस पर जल, फूल चढ़ाता है । उनकी पूजा में किसी महंगे प्रसाद की भी जरूरत नहीं पड़ती वे इतने औढरदानी हैं कि वे प्राकृतिक चीजों से ही खुश हो जाते हैं , यथा- फूल, बेलपत्र, भांग, धतूर आदि ।

अतः उक्त शोध से सहज हीं निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी निबंधकारों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से भारतीय समाज के ऐसे अनूठे सांस्कृतिक, धार्मिक वैभव को अपने निबंधों में चित्रित कर साहित्य में भारतीय तत्व-मीमांसा (सत, रज, तम- ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के पहलुओं को   उजागर करने का कार्य किया है । वर्णित संदर्भों से यह ज्ञात होता है कि हिन्दी निबंधकारों ने केवल पौराणिक चरित्रों का वर्णन ही नहीं किया बल्कि भारतीय दर्शन संस्थान पर पड़े प्रभावों को भी रेखांकित किया है । निबंधकारों ने ‘शिव’ को राष्ट्रव्यापी चरित्र बता कर आर्य, अनार्य के भेद को मिटाकर शिव-चरित्र के माध्यम से आर्य-अनार्य जीवन पद्धति में शिव के माध्यम से पड़े समन्वयात्मक प्रभाव को भी अपने निबंधों में वर्णित किया है । भारत के विविधतामयी समाज, जिसमें उच्च वर्ग से लेकर कबीलाई समाज तक में ‘शिव’ चरित्र की उपस्थिति के कारणों की पड़ताल भी इन निबंधों में देखने को मिलती है ।


संदर्भ-सूची :

[1] भारतीय साहित्य की भूमिका, रामविलास शर्मा, 2017 , छठा संस्करण, राजकमल प्रकाशन, पृ. सं. – 123  

[2] संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, 2017, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. सं. – 68

[3] संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, 2017, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. सं. – 68

[4] संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, 2017, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. सं. – 69

[5] भारतीयता की पहचान, विद्यानिवास मिश्र, 2017 , वाणी प्रकाशन, दिल्ली, , पृ. सं. – 92-93

[6] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली (9),  सम्पादन- मुकुंद द्विवेदी, 2013 , चौथा संस्करण, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली,  पृ. सं.- 348

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