भारतीय समाज में ‘रामकथा’ को सर्वाधिक व्यापक और संकल्प-संवेग मिथकों में गिना जाता है । कुबेरनाथ राय लिखते हैं कि यह रामकथा – “कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी रूप में वास्तविक इतिहास से अवश्य जुड़ा है। केवल यह वाल्मीकि नामक व्यक्ति की कपोल-कल्पना होती तो इतने विस्तृत भूखंड को प्रत्येक जाति और उपजाति की लोक-स्मृति में इस तरह इसका दख़ल सम्भव नहीं होता। यह तो हुई इसके विस्तार की बात। उदातत्ता और गहराई की दृष्टि से भी विचार करें तो पता चलेगा कि रामकथा भारतीय मनीषा का एक अत्यंत विमिश्र उत्पादन है। स्थूल इतिहास के रूप में यह आर्यों की दो सांस्कृतिक धाराओं आदिम और नव्य की संघर्ष-गाथा है।”[1] वे मानते हैं कि जहाँ रावण आदिम आर्यत्व का प्रतिनिधि है और प्रजापति, वैश्वानर अग्नि के उपासक हैं। वहीं रामचंद्र उत्तरवैदिक संस्कृति के, नव्य आर्यत्व के और किरात-निषाद-द्रविड़ से संयुक्त दीक्षित आर्यत्व के प्रतिनिधि हैं।
रामकथा में दाम्पत्य प्रेम की गाथा भी वर्णित है जिसे रवीन्द्रनाथ ‘पारिवारिक जीवन का महाकाव्य’ कहा करते थे। इस तरह के दाम्पत्य का उल्लेख पहले हीं ब्राह्मण-आरण्यक ग्रंथों में हो चुका है, जहां काम और क्रतु (यज्ञ) के प्रमूल्यों का प्रभाव देखने को मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में पत्नी हर प्रकार के यज्ञ में आवश्यक है। इस ग्रंथ की भाषा में कहा जाए तो पत्नी यज्ञ की आधी जंघा है। भारतीय समाज के पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर अगर दृष्टिपात किया जाए तो उस पर रामकथा का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई देता है। कुबेरनाथ राय यह मानते हैं कि रामकथा पर यह प्रभाव ब्राह्मण-आरण्यक संस्कृति की शीलचारिकी से सीधे-सीधे उतारे गये हैं। जिन लोगों ने रामकथा या मिथ्या कहा उन जैसों के लिए हीं कुबेरनाथ राय लिखते हैं कि – “यों रामावतार को ऐतिहासिक मानने का एकमात्र प्रमाण समस्त दक्षिण एशियाव्यापी, सम्प्रदायनिरपेक्ष, नस्लनिरपेक्ष, प्रबल लोक-विश्वास और लोकानुश्रुति है और यह कम मजबूत दस्तावेज नहीं। सारी घटनाएँ मात्र कल्पना-आश्रित होतीं तो लोक- अनुस्मृति की इतनी गहराई में जाकर प्रतिष्ठित नहीं हो पातीं। यह कथा हिन्दू-जैन-बौद्ध, ब्राह्मण-अब्राह्मण, आर्य-आर्येतर, भारतीय-वृहत्तर भारतीय, जम्बूद्वीप-द्वीपान्तर भारत, सर्वत्र लोक-विश्वास का अंग बनकर प्रतिष्ठित है, तो घटना की केन्द्रीय आकृति मिथ्या नहीं हो सकती । इसका वर्तमान रूप मिथकीय अलंकरण ले चुका है। परन्तु सत्य की मजबूत काठी नीचे अवश्य वर्तमान है। अन्यथा यह दीर्घजीवी नहीं हो पाती।”[2]
भारतीयता का उल्लेख करते हुए उसकी सार्थकता को समझाने के लिए कुबेरनाथ राय ने तीन शब्दों का जिक्र किया है। 1. ॐ 2.शिव और 3.राम । राम शब्द जनमानस के बहुत हीं क़रीब है। शिव देवता हैं या बाबा हैं। लेकिन ‘राम’ भाई है, बेटा है, पति है, सबकुछ है। यह भारतीय संस्कृति के जन-जन और कण-कण में बसा हुआ है। ‘राम’ शब्द का मर्म जब हम जान लेते हैं तो समझिए भारतीयता के आदर्श रूप को भी हम जान लेते हैं। राम एक तरीक़े से मनुष्यत्व की चरम सीमा है। सार्थक दृष्टि से भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दम्भ से अलग है। पूर्ण रूप से भारतीय बनने का अर्थ है। राम जैसा बनना। आज के समय में निर्वासन स्थायी भाव है। यह निर्वासन सिर्फ़ साहित्य तक हीं सीमित नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में लोग इस निर्वासन को भोग रहें हैं। लेकिन अलग-अलग देशों में निर्वासन की विधा अलग-अलग है। राम का व्यक्तित्व अनासक्ति या स्व की तटस्थता से है। वहीं आज का मनुष्य अपने आप को स्व की कोटर में हीं बंद कर लिया है, जिससे उसकी प्रतिबद्धता किसी से जुड़ी हुई नहीं है। चाहे वह देश हो, राष्ट्र, समाज, परिवार, प्रेम, दया आदि से वह कटकर हीं जीवन व्यतीत करना चाहता है। हम निर्वासन या अकेलापन को शाप की दृष्टि से नहीं देखते बल्कि यह शाप तब बन जाता है जब इसमें अजनबीपन जुड़ जाता है।
हमारा विश्वास Democracy में हो या Totalitarian पद्धति में, हम चाहे सोशलिस्ट स्टेट में रहें या Communism में, हमें हर हालत में नागरिक ईमानदार हीं चाहिए, अच्छा भाई, अच्छा बेटा और अच्छा पति चाहिए। अब भले ही राजनीतिक व्यवस्था कुछ भी हो लेकिन अर्थव्यवस्था बदलने से यह आवश्यकता बदल नहीं जाती। इन सब गुणों का समाहार हमें राम में दिखाई देता है, इसलिए हमारे आदर्श वहीं है। वे ही पूर्णावतार हैं। उन्हें यह मानना हमारी ऐतिहासिक आवश्यकता भी है।
वैष्णव सम्प्रदाय यह मानता है कि परमात्मा एक निर्गुण सत्ता है, जो नित्य और ध्रुव है। और विश्व-प्रपंच से परे हैं। दूसरी सत्ता यह है कि जो अणु-अणु में है वह विश्वात्मा है। तीसरी सत्ता है, पुरुषोत्तम जिसे ईसाई Personal God या सगुण पुरुष कहते हैं। यही मनुष्य जाति पर करुणा करने के लिए अवतरित होते हैं। वह आकृति और देह को धारण करके मनुष्य रूप में धरती पर आता है। कुबेरनाथ राय लिखते हैं कि- “अवतार में मूल बात है ईश्वर का मानुषीकरण। ईश्वर द्वारा ‘मानुषी चर्या’ का धारण। ईश्वर द्वारा मनुष्य की सीमाओं का वरण। और यह मानुषी सीमाओं का वरण चरमरूप में रामचंद्र ही करते हैं। आदि से अंत तक अपनी मानुषी चर्या का क्षणभर के लिए भी परित्याग नहीं करते, कहीं भी अलौकिक शक्ति, अद्भुत अतिमानवीय ईश्वरीय शक्ति के प्रदर्शन द्वारा POLICE ACTION की तरह, सुदर्शन चक्र मंगाकर काम नहीं करते, सब कुछ को सहज मानुषी ढंग से विकसित होने देते हैं और इस कठोर मानुषी जीवन की सीमाओं के भीतर, ईश्वर की दिव्यता का चरम रूप उद्घाटित कर जाते हैं अतः ‘अवतारत्व’ उनमें पूर्णतः शतप्रतिशत प्रतिष्ठित हो जाता है।[3]
उनका मानना था कि आज के भौतिकवादी युग में जहां पाश्चात्य संस्कृति के आकर्षण में इच्छा शक्ति उन्मत्त होती जा रही है, वैसे समय में हमें एक ऐसे आदर्श चाहिए जो संयमी हो, जिसमें पुरुषार्थ हो। और ऐसे हैं श्री रामचंद्र। वे क्रिया शक्ति के प्रतीक हैं। राम का नाम चाहे वह व्यक्ति हो या फिर समाज दोनों के लिए हीं भवसागर को पार कराने वाली नाव है।
रघुगण शब्द की उत्पत्ति को लेकर वे लिखते हैं कि- “मुझे सन्देह है कि यह ‘रहूगण’ शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं । ‘रहू’ ‘रघु’ का ही प्राकृत रूप है। और ‘गण’ शब्द स्पष्टतः Republic है । अतः रघुओं के गण का यह महा अभियान था । जो कोसल से मिथिला तक पुनः फैल गया। रघुगणों ने स्थानीय विवादों के सहयोग से जिस संस्कृति की नींव डाली वही आज की वर्णाश्रम-संस्कृति या हिन्दूसंस्कृति है। वही भारतीय संस्कृति का प्रधान चेहरा भी है । इसी वंश का सर्वश्रेष्ठ पुरुष था ‘रामचन्द्र’ और इसी पुरुष की जीवनगाथा हमारा राष्ट्रीय महाकाव्य है ।”[4]
अतः जब हम कहते हैं कि रामचन्द्र पूर्णावतार हैं तो हमारा तात्पर्य वाल्मीकि के राम और ‘अध्यात्म रामायण’ के राम के संयुक्त रूप से है । वाल्मीकि की रामायण रस तक और शीलाचारिक पक्ष को उद्घाटित करती है तो अध्यात्म रामायण उसके आध्यात्मिक या दार्शनिक पक्ष को। यह मेरी बात नहीं । यह गोसाँईं जी की बात है। ‘रामत्व’ के गूढ़तम मर्म को गोसाँईं जी से ज्यादा समझने वाला आज तक पैदा नहीं हुआ। और उन्होंने यह निर्णय लिया था कि राम की जो आकृति वे प्रस्तुत करेंगे वह वाल्मीकि और अध्यात्म रामायण की समन्वित छवि होगी और यही छवि ‘पूर्णावतार’ है। वे भी इसी छवि को पूर्णावतार मानते रहे । रामाख्यमीशं हरिम्। “तो जब मैं राम को पूर्णावतार मानता हूँ तो मेरा तात्पर्य वाल्मीकि की अध्यात्म रामायण के समन्वित ‘राम’ अर्थात् ‘मानस’ के ‘रामाख्मीशं हरिम्’ से ही है । और इसका कारण यह है कि यह ‘सत्ता’ के तीनों सोपानों, रस, शील और अध्यात्म पर अपनी चरम पूर्णता के साथ प्रतिष्ठित है।”[5]
तभी तो कहा जाता है कि मनुष्यता जिस सीमा तक जा सकती है, उसका चरमबिंदु राम में प्रतिष्ठित है। वे मनुष्य थे। लेकिन मनुष्यता का वरन उन्होंने उसी सीमा तक किया जहाँ तक शील और करुणा का सम्बंध है। वे लिखते हैं- “राम का जीवन साक्षात् करुण रस है । वे ईश्वर की तरह अनासक्त, तटस्थ और महिमामय हैं, तो मनुष्य की तरह ‘धीर, वीर, गम्भीर’ है; ‘स्निग्ध, श्यामल, करुण’ है । जब मैं ऐसा सोचता हूँ तो मेरे मन के अन्य अंधकार को चीरती हुई एक छवि हठात् उगती है और मेरे अन्तर में धीरे-घोरे नील पद्म की तरह प्रस्फुटित होती है। उस नीलोत्पल के कोमल स्पर्श से मेरा अस्तित्व विगलित हो कर फिर वायवीय हो जाता है और हलका-हलका सौरभ बन कर मनोरम पम्पासर के धीर समीरण में लीन हो जाता है। तब राम के द्वारा भोगी गयी सारी व्यथा एवं उन के जीवन को सम्पूर्ण करुणा का मैं सहभोगी साक्षी बन जाता हूँ और उस क्षण भर की लघु अवधि में लगता है कि मै भी देवता ही हूँ ।”[6]
रामकथा एक तरह की सविता – कथा है। इसकी प्रकृति सूर्यात्मक है और यह द्यु-मण्डल का काव्य है जो सगुण सृष्टि के विकास का हीं ‘आदि’ रूप है। यही कारण है कि इसे ‘आदिकाव्य’ कहा जाता है। इसका अधिदेवता है विष्णु का सवितारूप जो सोम और अग्नि के ‘विस्तार’ रूपों का आदिबिन्दु है । क्रियाशक्ति प्रधान होने के कारण इसे ‘गार्हस्थ्य’ का महाकाव्य भी कहा जाता है और इच्छाशक्ति को इसमें दबाकर यवनिका के पीछे धकेल दिया गया है। यह बात धनुर्मंग के अवसर पर ही दिखाई दे देती है। रामचन्द्र ने जब धनुष तोड़ा तो उसके तीन खण्ड हो गये । वह शिव-पिनाक त्रिगुणात्मक प्रकृति का प्रतीक था जो शिव के वाम भाग में रहती है। ऊपरवाला खण्ड ज्ञान-खण्ड था जो व्योम में चला गया | नीचेवाला खण्ड इच्छा-खण्ड था जो पाताल में प्रवेश कर गया । रह गया मध्य-खण्ड जो क्रिया – खण्ड था । उसे ही राम ने धरती पर रख दिया। इस काव्य का आदर्श ही है ‘अनासक्त पुरुषार्थ-योग’ | यह इसीलिए गृहस्थ धर्म और नागरिक धर्म का महाकाव्य है । गृहस्थ जीवन का सम्पूर्ण वृत्त इसमें उतर आया है । परन्तु यह कथा के मानवीय धरातल के लिए ही युक्तियुक्त है। कथा के अन्दर अर्थ का त्रिपुर है। मानवीय धरातल पर यह अगर इस कथा को देखा जाए तो पारिवारिक शील के आदर्शों की कथा है। कुबेरनाथ राय यह मानते थे कि इन आदर्शों को तुलसीदास ने अपने ग्रंथ में बखूबी व्यक्त किया है।
राम के विषय में लिखते हुए उन्होंने अपनी भाषा सधी हुई रखी है यह उनकी ख़ासियत थी कि वे विषय के अनुकूल अपनी भाषा को ढ़ाल लेते थे। वे स्वयं लिखते हैं कि- “रचना के क्षेत्र में एक-एक शब्द शताब्दियों के प्रयोग के बाद एक विशिष्ट अर्थ गरिमा पाता है। नयी उपभाषा में ऐसी अर्थ-गरिमा ले आना कि वह सूर-तुलसी के उत्तराधिकार को वहन कर सके और दूसरी और दूसरी ओर संसार के आधुनिक लेखक के समकक्षता से बात कह सके एक ख़ास बड़ा काम था।”[7]
अतः हम देखते हैं कि कई दृष्टियों से कुबेरनाथ राय ने राम के विषय पर लिखा है। और यह कथा पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि सभी दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि रामकथा के भीतर एक सारस्वत धारा बहती है जिसे हम भारत वर्ष कहते हैं। उनके लिए राम कोई राजनीतिक तंत्र के रूप में नहीं थे जिसके विषय में लिखकर वाहवाही पायी जाए। उनके लिए राम चिंता का वह विषय थे जिस पर उन्होंने एक-एक वाक्य शोध करके लिखा है। उन्होंने नव्य आर्य के रूप में भी उन्हें देखने की कोशिश की। अनेक विद्वानों ने राम पर लिखा है लेकिन निबंध के क्षेत्र में जिस ढंग से कुबेरनाथ राय ने उन पर लिखा है वह अमूल्य है। उन्हें पढ़ने वाला पाठक उनके शब्दों की गहराई में इस ढंग से डूबता है कि जब उभरता है तो मोती हासिल करके हीं निकलता है।
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सुजाता कुमारी
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संदर्भ सूची :
1. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
2. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
3. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
4. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
5. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
6. कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, चौथा संस्करण, 2011, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
7. कुबेरनाथ राय, गन्धमादन, 1972, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली