hello@mukhyansh.com

हिंदी ललित निबन्धों में वर्णित कृष्ण-कथा के संदर्भ – सुजाता कुमारी

हिंदी ललित निबन्धों में वर्णित कृष्ण-कथा के संदर्भ – सुजाता कुमारी

हिन्दी ललित निबंधों में वर्णित कृष्ण-कथा के संदर्भ

हिंदी निबंध में ललित निबंध को एक ख़ास स्थान प्राप्त है। इस प्रकार के निबंधों में लालित्य का प्रभाव देखने को मिलता है । यह रम्य विधा के रूप में भी प्रसिद्ध है। वैसे तो ललित निबंध की शुरुआत हजारीप्रसाद द्विवेदी से मानी जाती है । किंतु भारतेंदु युग से हीं सूक्ष्म रूप में इस तरह के निबंधों का लेखन शुरू हो गया था । ललित निबंधों में कृष्ण के भावपूर्ण लीलाओं का चित्रण भी कई निबंधकारों ने किया है । विद्यानिवास मिश्र लालित्य शब्द को कृष्ण और राधा के रम्य रूपों के सम्बंध में चर्चा करते हुए लिखते हैं कि – “लालित्य का सम्बंध उस ‘ललिता’ से है, जो एक ओर शिवशक्ति की समंजसता है, दूसरी ओर वह स्वयं श्रीकृष्ण का पूर्व रूप है और तीसरी ओर दर्पण में जड़ी राधा की वह छवि है जिस पर यह अनुभव करते हुए कि प्रियतम उसे देख रहे हैं- राधा मोहित हो जाती है और वह छवि ललिता बन जाती है । इन सभी कथाओं के ललिता और लालित्य का संबंध समरसता, लीला, लीला का संबंध उत्कंठा और स्वरूप-विमर्श से है । यह सब एक रचना में मिल जाए, यह दुर्लभ है । ललित रचना दुर्लभ है । ललित रचना बिरली ही होती है, मगर रंगीन शब्दावली के बल पर भाव-रंजना के बल पर कोई ललित बनना चाहे तो वह अलग बात है ।”[1]

इस तरह हम देखते हैं कि ललित निबंध भावों से परिपूर्ण और सौन्दर्य तत्व को अपने अंदर समाहित किए हुए रहता है जिसे पढ़कर पाठक लालित्य भाव से भर जाता है । भावों की इस दुनिया में रहकर  पाठक  कब विचार में गोता लगाकर आ जाता है? यह उसे भी मालूम नहीं पड़ता । यही विशेषता ललित निबंध और ललित निबंधकारों को खास बनाती है ।

भारतीय संस्कृति में वैसे तो कई तरह के अवतारों की चर्चा की जाती है । किन्तु राम और कृष्ण दो ऐसे अवतार हैं जो अवतार न रहकर लोक के अंग हो गए हैं । लोक में कृष्ण की कल्पना जितनी पुरानी है उतनी ही व्यापक भी । लोक में स्थापित होने के पीछे जो ठोस कारण है वह है इनकी लीला । आरंभिक दौर में जो कृष्ण से सम्बद्ध साहित्य लिखे गए उसमें उनका दुष्ट दमन वाला चरित्र प्रमुख था और साथ हीं भक्तों की रक्षा करना और उन्हें मझधार से निकालना भी । लेकिन धीरे-धीरे यह दुष्टों के दमन वाला रूप दबता चला गया और लीला प्रधान रूप सामने आता गया । हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि – “श्रीकृष्णावातार के दो मुख्य रूप हैं । एक में वे यदुकुल के श्रेष्ठ वीर रत्न वीर है, राजा है, कंसारि है; दूसरे में वे गोपाल है, गोपीजनवल्लभ है, ‘राधधर-सुधापन शालि-वनमाली’ है । प्रथम रूप का पता बहुत पुराने ग्रंथों से चल जाता है, पर दूसरा रूप अपेक्षाकृत नवीन है । धीरे-धीरे यह दूसरा रूप ही प्रधान हो गया है और पहला रूप गौण ।”[2]

भारत की संस्कृति में कृष्ण की छवि अलग है क्योंकि उनकी कथाएं लोक के मन में जड़ित हैं।ठीक उनके कंठहारों की तरह । उनसे जुड़ी कथाओं ने सभी पीढ़ियों को समृद्ध किया है। चाहे वह कृष्ण की बाल लीला हो या उनकी गोवर्धन पर्वत उठाने वाली बात । इन दोनों ही बातों ने कृष्ण को लोगों से और अधिक जोड़ा है ।  विद्यानिवास मिश्र इस संदर्भ में लिखते हैं कि – “श्री कृष्ण हमारे भाव पुरुष है, उनकी लीला हमारे भाव जगत में घटती ही रहती है । कभी उसका विराम नहीं होता । यही नहीं, जीवन का कोई ऊर्जात्मक पक्ष नहीं है जो कृष्ण में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त न हुआ हो । बाल-सुलभ चपल और स्फूर्ति से लेकर प्रौढ़ पुरुष कि परिणत स्थितप्रज्ञता और निस्संग करुणा तक जितने भी गुण हो सकते हैं, वे सभी श्री कृष्ण में मूर्तिमान  है ।”[3]

कृष्ण का रूप सभी को आकर्षित करता है । लोक में कृष्ण के अलग-अलग रूपों का वर्णन है। उनका स्वभाव जगत का उद्धार करने वाला था । उन्होंने सोलह हजार अपहरित नारियों का न सिर्फ उद्धार किया बल्कि उसे स्वीकृति भी प्रदान की ।   लोक अपने आप को कृष्ण से सम्बद्ध होकर देखता है । यही कारण है कि विद्यानिवास मिश्र अपने निबंधों में बताते हैं कि – “सोलह हजार अपहृत नारियों को स्वीकार करने का साहस अलौकिक शक्ति से नहीं आता; लोकसंग्रही शक्ति से आता है । श्री कृष्ण महाभारत में इतना बाद दाव रखते हैं, दुर्योधन के सामने, मुझ निरस्त्र को लो या मेरी शस्त्र सन्नद्ध नारायणी सेना लो, पहले चयन का ढिकर तुम्हें है और दुर्योधन आसुरी संपत्ति के मद में उन्मत सेना चुनता है, श्री कृष्ण को नहीं चुन पाता । वह सर्वात्मा वासुदेव को नहीं चुनता, उनका परिग्रह चुनता है । आज भी चयन कि छूट हममें से प्रत्येक के सामने है, हम श्रीकृष्ण को ग्रहण करें या श्री कृष्ण के बाहरी स्वरूप को ।”[4]

कृष्ण का जन्म लोक में बहुत प्रचलित दिन है जिसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है । यह दिन जन्माष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है । इस दिन पर अलग-अलग स्थानों पर मेले लगते है जहाँ बड़े से लेकर बूढ़े तक सभी उसमें शामिल होते हैं। इसको ठीक उसी ढंग से मनाया जाता है जैसे हमारे घर के किसी बच्चे का जन्मदिवस हो। जन्म से लेकर उसके छठे दिन को भी ठीक उसी ढंग से मनाया जाता है । इससे यही प्रतीत होता है कि कृष्ण लोक के अंतर तक समाए हुए हैं। इस संदर्भ में विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं कि – “हम श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाते हैं, जन्मदिन नहीं, क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव का अनुभव करना चाहते हैं, श्रीकृष्ण-लीला का गाँ साक्षी के रूप में करते हैं । लीला उनके सामने घटित होती रहती है । हमारी निरक्षर या अर्द्ध-निरक्षर ग्रामीण जनता श्रीकृष्ण का ध्यान कजली या होली के उत्सवों में प्रत्यक्ष उपस्थिति के रूप में प्रत्यक्ष उपस्थिति के रूप में करती है, किसी पूर्वपुरूष या किसी जातीय अतीत इतिहास नायक के रूप में नहीं ।”[5]

कृष्ण को अवतारी पुरुष नहीं माना जाता बल्कि वे एक भाव हैं जिनमें लोगों की श्रद्धा बसती  है । वे ब्रह्मांड में सभी जगह व्याप्त हैं । भारतीय साहित्य को अगर हम देखें तो कृष्ण की कथा भिन्न-भिन्न भाषाओं में देखने को मिलती है । भारतीय संस्कृति में सबसे प्रचलित त्योहार होली में भी हम कृष्ण का स्मरण करते हैं । यही वह दिन है जब गोपियाँ कृष्ण के साथ रास रचाती हैं, नाचती- गाती हैं । मिश्र जी लिखते हैं कि – “ होली का पर्व तो श्री कृष्ण के राधामय हो जाने का पर्व है । इसके अलावा वह कुछ है ही नहीं । केवल उन्हें ओढनी पहनाकर, उनकी बेनी गूँथकर, उनके भाल पर बिंदी लगाकर, मांग काढ़कर नवेली राधा बनाने तक कि बात नहीं है । उनकी मुरली रखती है । गोपियाँ नवेली बने कृष्ण को ऐसे छेड़ती हैं, उनका अंग-अंग मथ डालती हैं, उन्हें ऐसा रंग देती हैं कि सँवराई पूरी कि पूरी धक जाती है और कहती है – लला फिर आइयो खेलन होरी ।”[6]

होली की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि यह त्योहार मैत्री और प्रेम का है । लेकिन अब इस त्योहार में एक सूनापन दिखाई देता है ।  

कृष्ण बाल लीलाओं से लेकर प्रौढ़ चिंतन का विषय है। वे हर वर्ग, हर परिस्थिति के लिए उपयोगी हैं । विद्यानिवास मिश्र की यह खासियत थी कि वे लोककथाओं से सम्बद्ध विषय को अपने निबंध का आधार बनाते हैं और फिर किसी व्रत-त्योहार के माध्यम से पौराणिक चरित्रों की चर्चा भी करते हैं ।

भारतीय संस्कृति में कृष्ण के गोवर्धन उठाने वाले प्रसंग की बहुत चर्चा है । जनता में बारिश के कहर से त्राहिमाम मचा हुआ था किन्तु कृष्ण ने इन्द्र के द्वारा भेजे गए इस विपदा से आम जनों को बचाया । यही कारण है कि मध्यकाल के साहित्य में कृष्ण की चर्चा खूब हुई है किन्तु इन्द्र इस साहित्य से उपेक्षित रहे हैं । अगर उन्हें याद भी किया जाता है तो बहुत गर्व के साथ नहीं । लोक साहित्य में हर स्थान पर कृष्ण के विजय की चर्चा मिलती है और इन्द्र के पराजय की । हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि – “हिमालय के पाद देश में नेपाल और तिब्बत की तराइयों में इन्द्र-नृत्य और कृष्ण-नृत्य, दोनों का ही प्रचलन है । जब श्री कृष्ण नृत्य शुरू होता है तो इन्द्र नृत्य समाप्त हो जाता है, इस प्रकार इन्द्र की पराजय को और भी मूर्तिमान कर दिया जाता है ।”[7]

अतः हम देखते हैं कि हिन्दी ललित निबंधों में कृष्ण के बाल रूप से लेकर उनके प्रौढ़ रूप का वर्णन मिलता है । कृष्ण लोक मानस में कितने चर्चित हैं और लोक उन्हें किस तरह अपनाए हुए है यह संदर्भ भी इन निबंधों में खूब मिलता है । इस प्रकार के संदर्भ लोगों को जोड़ने का काम करते हैं । लोक ईश सत्ता के परिचायक ऐसे नायकों के जीवन प्रसंगों को अपने जीवन से सम्बद्ध कर प्रेरणा ग्रहण करता है ।

सुजाता कुमारी
Email- mukhyansh@gmail.com
Facebook – https://www.facebook.com/profile.php?id=100008736520530&mibextid=ZbWKwL

सुजाता द्वारा लिखे हुए अन्य लेखों का लिंक –

संदर्भ ग्रंथ –


[1] लोक और वेद में डूबा व्यक्ति : आचार्य विद्यानिवास मिश्र, राममूर्ति त्रिपाठी, अमृतपुत्र, संपा – डॉ . कुमुद शर्मा, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण – 2001

[2] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, संपादन- मुकुंद द्विवेदी, पृष्ठ- 286, चौथा संस्करण – 2013, राजकमल प्रकाशन

[3] भारतीयता की पहचान, विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ – 105, संस्करण- 1994, वाणी प्रकाशन

[4] भारतीयता की पहचान, विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ – 106, संस्करण- 1994, वाणी प्रकाशन

[5] भारतीयता की पहचान, विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ – 105, संस्करण- 1994, वाणी प्रकाशन

[6] शिरीष कि याद आयी , विद्यानिवास मिश्र, पृष्ठ – 16, संस्करण- 1995, प्रभात प्रकाशन

[7] हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, संपादन- मुकुंद द्विवेदी, पृष्ठ- 68, चौथा संस्करण – 2013, राजकमल प्रकाशन