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भूख : जतिन द्वारी

भूख : जतिन द्वारी

भूख ! कितनों के लिए बस एक साधारण सा शब्द है, लेकिन कितनों के लिये मौत का फ़रमान लेकर आने वाला यमराज का दूत। हाँ पर भूख से मरने वाला मौत से घबराता नहीं है बल्कि जीवन में हर रोज मरने के दर्द से मुक्ति दिलाने वाले हमदर्द से हमेशा मिलना चाहता है। फिर भी उस तड़पन से लड़ने को दिन रात दौड़ते हुए सूरज को चुनौती देता रहता है। रात आते ही सूरज भी थककर सो जाता है पर मानव को तो अब भी भूख को बुझाने के लिए संघर्ष करना है।
क्या धूप! क्या थकान रात के 11 बजे सड़क पर भटकते संतोष के चेहरे पर उतावलापन कैसा? बक्से पर कुछ लेकर साईकिल पर सवार है और तेजी से चला जा रहा है शायद किसी हड़बड़ी में है, और उसके रवैये से लग रहा है कि किसी की जान बक्से पर लेकर चल रहा है।
संबलपुर जैसे बड़े शहर में रात के 11 बजे तो चूल्हे में आग लगाने का समय होता है पर कुछ दिनों से दिनचर्या तो दूर की बात है जीवन ही उल्टी गति से चल रहा है। महामारी के डर ने मानो हर एक के घर के सामने लक्ष्मण रेखा खिंच रखा है और गेट कह रहा है कि – अब इसे लांघ कर गए तो सिर्फ खुद के लिए नहीं पूरे वंश के लिए खतरा मोड़ लोगे। लक्ष्मण रेखा के वजह से आज रास्ते पर मुर्देघर सी चुप्पी है । इसी समय अपना बॉक्स लेकर संतोष गली में पागल सा कुछ ढूँढ रहा था। सूनसान गली में एक आदमी को आते हुए देख कर हल्का सा मुस्कुराते हुए उसने कहा :-
“भैया ये D7 किस तरफ है?”
आदमी ने एक दफा संतोष को देख कर कहा – “मालूम नहीं।”

ये शब्द केवल शब्द नहीं निराशा के बज्र का प्रहार था जो मामूली मिट्टी के मटके जैसे इंसान के असहाय मन को तोड़ अनगिनत टुकड़े कर गया। संतोष अपने कर्मों को कोसता हुआ बची खुची हिम्मत और ताकत जुटाते हुए आगे बढ़ने लगा।
संतोष केवल व्यक्ति नहीं ऐसे व्यक्तित्व का नाम है जो हर किसी के नजरों में आदर्श का प्रतिरूप है। बचपन से ही अपने जीवन के समस्याओं को अवसर मानता संतोष केवल पढ़ाई ही नहीं हर एक काम में अनन्य था। एक अच्छा छात्र, आदर्श बेटा संतोष अपने पूरे जीवन में गर्व और गौरव लाने में तत्पर रहा। 12वीं के परीक्षा में पूरे जिले में अपना नाम जपवाने वाला संतोष पढ़ाई के लिए संबलपुर जैसे शहर में आ गया था। मन में शिक्षा प्राप्त कर समाज के निचले और कुचले कहे जाने वाले साधारण जनमानस जिनके अंदर भारत बसता है, उन्हें सही दर्जा दिलाने को कुछ भी कर गुजरने का सपथ ले चुका था। इन्हीं पलों को याद करते भटकते संतोष को आशा की किरण के रूप में कहीं पर D लिखा दिख जाता है। पर यहां तो D-57 और उसे D-7 जाना था। इतने में उसका वो जज़्बा उसे याद आ जाता है, जो यहां आते समय साथ लेकर आया था।
संबलपुर के गर्व कहे जाने वाले संस्थान में दाखिला लेने के बाद उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी दिमाग के भूख को जगाने के लिए पेट के आग को बुझाना। उसे याद आ गया था गांव में कहते थे – कि जब वो पढ़ाता है ऐसा लगता है कौटिल्य पढ़ा रहे हैं। अब उसने निर्णय ले लिया है कि वह बच्चों को पढ़ायेगा और सिखाते हुए सीखेगा। समय के साथ ईमानदारी और लगन के माध्यम से खुद का नाम ऊंचा करने लगा। अब चूल्हे के साथ साथ समाज के लिए समय और पैसे जेब में से बाहर आने लगे, लेकिन खुशहाली की उम्र ही क्या होती है? महामारी के रूप में आपदा बनकर संसार को डराने के लिए कोरोना आ गया। एक ऐसा समय जहां एक दूजे को छूने से डर लगता था। घर बाजार से लेकर चूल्हे में भी ताला लगाना पड़ा। अपने हाथों से देश बनाने वालों के हाथों को जैसे किसी ने काटा हो और इसीलिए निवाला मुँह से होते हुए पेट तक नहीं पहुंच रहा।
संतोष अखबारों में बढ़ते महामारी के बारे में रोज पढ़ता था और वह चिंतित भी था कि उसके साधन तो मिल जाएंगे, पर उनका क्या होगा जो रोज कमाते और खाते हैं। संतोष को बारी-बारी से यह खबर मिलती है कि कुछ दिनों तक पढ़ाई बंद रहेगी और आपको स्थिति सुधरने के बाद बुला लिया जाएगा।
स्थिति सुधरेगी और बुलाया जाएगा पर यहां D-7 की खोज में उसकी स्थिति बिगड़ती जा रही थी। सामने उसे दीवार पर 7 लिखा दिखायी दिया और उसने झट से पहुंच कर दरवाजे को खटखटाया।
जब महामारी ने पूरे समय को ही बदल दिया था तो संतोष किसका दरवाजा खटखटाये? घर में जैसे-तैसे करके सदस्यों का पेट भरता है और अगर अब संतोष अपने साधन खत्म होने का खबर सुनाएगा तो वहां पहाड़ टूट जाएगा इसीलिए कहता है सब ठीक है पहले से ही सारे इंतेजाम हो चुके हैं। दो दिन तक पेट में हड़ताल है और उसी समय ये बात कहने के लिए उसे कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी यह बस वही जाने। भूख ने उसे संसार के सबसे बड़े दर्द के साथ भेंट कराया । रास्ते पर चलते हुए वह एक रेस्टोरेंट में Required Delivery Boy के पोस्टर को इस तरह देखता है जैसे पिक बादल को देख रहें हो।
संतोष देख रहा है कि दरवाजा खुलेगा और बॉक्स को देने के बाद वह शाबाशी के साथ हाथ और बॉक्स के अंदर रखे भोजन के बीच में बाधा को तोड़ पायेगा। दरवाजा खुला और वहां से एक बुजुर्ग आदमी आकर फटकारते हुए बोले :-
“कैसे बेशर्म लोग हो 30 मिनिट में D-7 आने का मुफ़्त का वादा करते हो और घंटे भर के बाद ठंडा खाना लाते हो !” और वह आदमी खाने को पालतू कुत्ते रॉकी को दे कर दरवाजा बंद कर देता है।
संतोष अपने उपवास को गालियों से तोड़ कर ऊपर देखता है और कहता है।

“मुझे या भूख किसी को तो मार दिया होता।” और फिर अगले ठिकाने की ओर वह संतोषमय भाव से चल पड़ता है।

जतिन द्वारी
शोधार्थी – तमिलनाडु केंद्रीय विश्वविद्यालय
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