गौरव गौतम
20 वी शताब्दी के अंतिम दशक में मार्शल मैक्लूहन ने ग्लोबल विलेज अर्थात् विश्व ग्राम की अवधारणा दी। संचार साधनों व अन्य माध्यमों की वजह से विश्व एक गाँव बन गया है। इसी समय तत्कालीन सोवियत संघ में मिखाईल गोर्बाच्योव की ग्लास्नोस्त, पैरेस्त्रोइका व उस्कोरोनी की नीतियों के कारण सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीत युद्ध समाप्त हुआ। रूस तथा पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी विस्तार का समापन हुआ । फ्रैंसिस फुकुयामा जैसे बड़े चिंतकों ने कहा कि यह इतिहास का अंत हैं। क्योंकि इतिहास में वर्ग संघर्ष समाप्त हो गया है। निर्णायक तौर पर पूंजीवाद ही बचा रह गया है क्योंकि साम्यवाद पराजित हो गया है। फलतः इतिहास को आगे ले जाने की शक्ति वर्ग संघर्ष नहीं है। यह युग बीत गया हैं। फ्रैंकफर्ट स्कूल के सिद्धांतकारों ने कहा कि अब युग का नेतृत्व तकनीक करेगी क्योंकि उत्पादन की नई शक्ति यही है।
पिछले सदी के अंतिम समय ही में हुई चेर्नोबिल, भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाओं ने पर्यावरण की चिंता को केंद्र में ला दिया जिसमें रिचल कारसन की कृति ‘द साइलेंट स्प्रिंग’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अंतिम समय के दौरान ही सतत विकास लक्ष्यों की बात की जाने लगी।
भारतीय परिदृश्य की बात करे तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर है। राजनीति में मंडल, कमंडल और व्यापार प्रमुख मुद्दे थे। साहित्य विशेषतः हिंदी भाषा के साहित्य में अस्मिता और विमर्श संबंधी लेखन ने जोर पकड़ा।
अब सवाल यह है कि इस 21वी सदी में जनजातीय समाज कहा है? बात यदि अमेरिका की करें तो यह बात केवल किताबी रह गयी है कि वहाँ के मूल निवासी रेड इंडियन है। इस जनजाति का दिनों- दिन दायरा और जनसंख्या सिमटती जा रही है। अफ्रीका महाद्वीप जहाँ से मानव का उद्गम माना जाता है वहाँ के जनजातियों की स्थिति अत्यंत दारूण, त्रासद और हृदयविदारक है।
भारत की 2011 की जनगणना के मुताबिक जनजातियों की कुल संख्या 10,42,81034 है जो कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में जनजाति की संख्या प्रदेश की कुल जनसंख्या का 21.10 प्रतिशत है।
स्वतंत्रता के बाद से देश में लगातार सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीति निर्माण और उन पर क्रियान्वयन भी किया जा रहा है। जिसमें संसाधनों का उपयोग कर जीवन स्तर सुधारने के लिए सरकार व संगठन प्रयत्नशील है। किन्तु यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इस विकास की सबसे ज्यादा कीमत जनजाति समाज ने चुकाई। चाहे भारत के आधुनिक मंदिर बाँधो का निर्माण हो या किसी MNC का प्लांट लगाना हो विस्थापित जनजातियों को ही होना पड़ता है। इसका उदाहरण हम सरदार सरोवर डैम और ओडिशा में लगने वाले ऐलुमिनियम प्लांट में देख सकते है।
आज जनजाति समाज की मुख्य समस्या विस्थापन ही है जिसके कारण भूमिहीनता, खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी की समस्या में तो वृद्धि हो ही रही है। सामाजिक अलगाव और मनोवैज्ञानिक जैसी समस्या में भी निरंतर वृद्धि हो रही है।
जनजाति समाज प्रकृति की लय, ताल और संगीत का अनुसरण करता है। यह समाज जल, जंगल, ज़मीन और जानवरों को मनोरंजन और सम्मोहन की नजरों से नहीं देखता बल्कि प्रकृति से एकात्म महसूस करता है। पर्यावरणीय नकारात्मक बदलाव से सबसे ज्यादा जनजाति ही प्रभावित होती है जिससे इनके साहित्य में प्रकृति की परवाह सबसे ज्यादा होती है जिसे जंसिता केरकेट्टा की इस कविता में देखा जा सकता है जिसका शीर्षक ‘परवाह’ है –
माँ
एक बोझा लकड़ी के लिए
क्यों दिन भर जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
देर शाम घर लौटती हो?
माँ कहती है :
जंगल छानती,
पहाड़ लाँघती,
दिन भर भटकती हूँ
सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए।
कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!
देखा जा सकता है कि एक पेड़ को बचाने के लिए यह कितना संघर्ष करते है। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त व्यवस्था वनों के संरक्षण और संवर्धन के नाम पर जनजातियों को ही अलगाती है।
एक सवाल यह भी उठता है कि क्या जनजातियों का केवल शोषण ही किया गया? उन्हें सताया ही गया? इनकी तरक्की, बढ़ोतरी और उन्नति के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया? सरकार और इतर समाज क्या इनके लिए उदासीन है ? यदि नहीं तो इनके उठान, उत्थान के लिए क्या प्रयास किए गए;क्या किए जा रहे है और इन प्रयासों की सार्थकता कितनी है।
संविधान सभा में जयपाल जी ने आदिवासी समुदाय के हित व हक के लिए अपनी बात रखी जिससे संविधान में आदिवासी समुदाय के लिए प्रावधान रखा गया। पेसा अधिनियम के अंतर्गत भी निचले स्तर में सुधार के लिए प्रयास किया जा रहा है।
मध्यप्रदेश में भी जनजाति संग्रहालय, बादल भोई आदिवासी संग्रहालय, वन्या प्रकाशन व अनेक योजनाओं के अंतर्गत जनजाति समाज की संस्कृति का संरक्षण, संवर्धन व प्रसार कर रही है। जनजाति समाज में शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए एकलव्य मॉडल स्कूल, कस्तूरबा गाँधी आवासीय विद्यालय, गुरुकुलम् केंद्र आदि की स्थापना की गई है। शंखनाद योजना के माध्यम से शिक्षा का प्रसार किया जा रहा है।
दीनदयाल चलित योजना, अरुणिमा योजना, जननी एक्सप्रेस आदि के माध्यम से स्वास्थ की स्थिति में सुधार लाने का प्रयास किया जा रहा है।
उपरोक्त प्रयासों के अन्य माध्यम से भी जनजाति समाज को जागरूक किया जा रहा है जिनमें आदिवासी रचनाकारों- निर्मला पुतुल,अनुज लुगुन – की महत्वपूर्ण भूमिका है।
हम स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव मना चुके हैं लेकिन अभी भी ज्यादातर लोगों की मानसिकता यही है कि जनजाति समुदाय असभ्य और पिछड़ा हुआ है। लेकिन हमारा ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए कि जहाँ देश का औसत लिंगानुपात 943 है वही जनजाति समुदाय का 990 है। वर्षों से यह माँग हो रही है कि सेक्स एजुकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए जबकि जनजाति समुदाय में युवागृह की व्यवस्था है जिसे मुडिया जनजाति घोटुल उंराव जनजाति ‘धुमकोरिया’ तथा बिरहोर जनजाति के लोग ‘गितुआना’ कहते है।
अत: 21 वी शताब्दी में सतत विकास के लक्ष्य की प्राप्ति में जनजाति समाज की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है बशर्ते ‘दाता’ की भावना से छुटकारा पाया जाए। जनजाति समाज में अभी भी व्यक्ति में उपभोक्ता से ज्यादा मनुष्यता है जो विकास की उस अंधी दौड़ से बचा के ले जाती है जो विनाश की ओर जाता है जिसका रूप हम कोरोना महामारी के रूप में देख सकते है।
गौरव गौतम
छात्र- दिल्ली विश्वविद्यालय
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