उजाड़ से शुरू हुई ज़िंदगी उजाड़ पर ही खत्म हो तो इससे दुखद किसी के लिए भी क्या हो सकता है? जो घर बसा ही ना हो उसका सामान लेकर भी दूसरे वैसे घर में जाना जो अपना नहीं है। वह कभी भी टूट सकता है, बिखर सकता है। और इसी बिखरन के बीच में “बसंती”- एक चिड़िया सी लड़की, बे-वजह फुदकने वाली, बिना राग ताल के स्वर पर स्वर को उड़ेलने वाली, असल जिंदगी को भी सिनेमा समझने वाली, अपने मन के हर धागे को श्यामा बीबी के सामने खोल देने वाली। बिना इस भय के कि वह गांठ पर गांठ ही बांधेंगी, सुलझाने का प्रयास नहीं करेगी। एक ऐसा बाप जो 50 साल के लंगड़े आदमी से 3 बार पैसे लेकर बेटी को बेच देता है। दो बार वह बहाना बनाकर उससे न ब्याहुता होने में सफल रहती है। एक शादी होते घर में वह बर्तन माँजने जाती है। जहाँ उसे खाना बनाने वाला “दीनू” मिलता है। बर्तन माँजने में वह बसंती की मदद करता है। लड़कियों को सहयोग भाता है वह भी तब जब आपको बार-बार ठोकर मिला हो और उसी वक्त सड़क पार कराने में आपका कोई साथ दे। बसंती मोहित हो जाती है। दीनू के साइकिल पर बैठकर वह इस गुमान से पूरे मुहल्ले में घूमती है, कि जैसे उसको भी कोई सहारा मिल गया हो। वह खरगोश सी तेज धावने वाली लड़की बसंती दीनू के साथ भाग जाती है। दीनू हॉस्टल में काम करता रहता है। सबके आँखों से बचाकर वह बसंती को होस्टल के अंधेरे कमरे में रखता है। अंधेरे में ही चाँद की रौशनी के बीच बिना किसी ताम-झाम के बसंती, दीनू से ब्याह कर लेती है, जिस ब्याह में वह अकेली है,जहाँ ना सिंदूर है ना ही मंगलसूत्र, और ना ही सूत्र में बंधने वाला वह प्रेमी। जिसे वह अपना पति मान चुकी है। समय- बे-समय वह बसंती के शरीर से खेलता है। उसकी मनाही पर वह कहता है “तुम्हें लाया किसलिए हूँ?”। भावना में बहती उस नदी सी धारा वाली लड़की को दीनू शरीर से ज़्यादा कुछ नहीं समझता। अचानक एक दिन वह बताता है कि वह शादी सुदा है। बेकूफियत की सीमा पार इस लड़की को इस बात से दुःख तो होता है लेकिन वह अपनी तुलना में उसकी पत्नी को कम आँकती है। और उसे अपने साथ लाने को कहती है। उसे लगता है कि वह गाँव की गँवार लड़की की तुलना में तो श्रेष्ठ ही है। दीनू का सारा ध्यान तो उसी पर रहेगा। हॉस्टल से भगाए जाने पर दोनों ही दीनू के एक दोस्त के पास जाते हैं। सुबह की रौशनी होते ही वह देखती है दीनू गायब है। उसका दोस्त बताता है कि 300 में दीनू, बसन्ती को उसके हाथ बेच गया है। उसके चंगुल से आज़ाद हो बसंती श्याम बीबी के घर पहुँचती है। जहाँ श्याम बीबी को वह अपना मान रही होती है। लेकिन वह कबका अपनापन खो चुकी होती है। श्याम बीबी बसंती को बताती है कि तुम तो गर्भवती हो। वह बताती है कि मैंने तो पहले ही कहा था- दीनू सही लड़का नहीं है, देखो छोड़ कर भाग गया ना। लेकिन हर बार धोखा खायी हुई इस बसंती को लगता है- दीनू जरूर लौटेगा। एक दिन बसंती का बाप चौधरी उसे पकड़ कर ले जाता है और लंगड़े दर्जी से उसकी शादी करवा देता है। शादी के लिए उसके बाप ने 1200 रुपये लिए थे अब पेट में बच्चा है, और वह बच्चा तो लंगड़े का ही होगा इसलिए 300 रुपया और अधिक लेता है। लंगड़ा कई रंग-बिरंगे कपड़े बसंती को पहनाता है। अचानक एक दिन अपने बेटे के साथ बाजार में घूमते समय उसे दीनु दिख जाता है। वह लँगड़े को छोड़ फिर दीनू के साथ भाग जाती है। वहाँ वह पाती है कि दीनू अपनी गर्भवती पत्नी रुक्मी के इलाज के लिए आया है। बसन्ती और वे दोनों पति-पत्नी साथ रहने लगते है। मौके-बे-मौके दीनू बसंती को पिटता भी रहता है। वह एकलौती कमाने वाली थी। इसलिए कुछ दिनों तक धौंस जमा पाती है। इस बार रुक्मी का गर्भ रुक जाता है और वह एक लड़के को जन्म देती है। बसंती के मन में यह बराबर रहता है कि शायद वह बच्चा मर जाए। अचानक एक दिन वह बच्चा बीमार पड़ता है रुक्मी बसन्ती को ही उसके रोग का कारण बताती है, भागते हुए उस बच्चे को लेकर बसंती डॉक्टर के पास जाती है। और उस बच्चे को सही सलामत बचाकर रुक्मी के पास ले आती है। थोड़े दिन तक सब अच्छा चलता है। बसंती तंदूर का एक दुकान भी खोल लेती है। लेकिन धीरे-धीरे रुक्मी का तेवर बदलने लगता है। वे दोनों पति-पत्नी बसन्ती को छोड़कर अपने गाँव चले जाते है।
बसन्ती लटपटाती चाल में मुहल्ले में निकलती है जहाँ कोई उसे चोर कहता है कोई कुछ, उसे काम से भी निकाल दिया जाता है। वह बाहर जब देखती है तो पाती है पुलिस वाले सारे झुग्गियों और ठेलों को तोड़ रहे हैं। थोड़े समय बाद वह पाती है कि उसके तंदूर के ठेले को भी तोड़ दिया गया होगा। जीवन के मैदान में वह सहजता से ही सारे धोखे को झेल जाती है। और ऐसा लगता है कई खेल होने के बाद भी उस मैदान पर वह बसन्ती- हर ऋतु में घास सी हीं खिल जाएगी। खरपतवार सी हटाई जाएगी। लेकिन फिर उग आएगी।
सुजाता कुमारी