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एक ऐसा निबन्धकार जिसने एक ही धारा अपनाई, और वह धारा उसी की पूरक हो गयी- सुजाता कुमारी

एक ऐसा निबन्धकार जिसने एक ही धारा अपनाई, और वह धारा उसी की पूरक हो गयी- सुजाता कुमारी

उनका मानना था कि- मैं अपने गाँव की धरती के  हृदय से एक जीवित परम्परा का चयन करने चला हूँ। परंतु अतिशय विनय और अतिशय प्रीति के साथ… अब एक किनारे जम रहा हूँ।

उनके निबंधों को पढ़ने के बाद उनकी ही कही यह बात ग़लत लगती है – वो किनारे जमने वाले नहीं धारा को चीर कर आगे बढ़ने वाले व्यक्ति थे।

मैं बात कर रही हूँ अतीत/ वर्तमान/ और भविष्य को एक साथ जीने वाले व्यक्ति- ‘कुबेरनाथ राय’ की। जिसे पढ़ने, लिखने समझने का मतलब है – भारतीय लोक/ग्राम को  समझना। उनकी ख्याति ललित निबन्धकार के रूप में ही रही है। उनका नाम ललित निबंध के साथ ऐसे जुड़ गया है कि दोनों संज्ञाएँ एक-दूसरे की सखी सी लगती है। ललित निबन्ध के संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं- ललित निबन्ध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य दोनों है। एक ही साथ, आगे पीछे के क्रम में नहीं।

ये हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की अगली कड़ी के रूप में हमारे सामने आते हैं- एक निबंधकार दूसरे निबंधकार को बेहतर समझ सकता है इसलिए इनके संदर्भ में विवेकी राय जी के एक कथन को देखिए। जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि कुबेरनाथ राय किस ढंग के निबंधकार थे।-
‘कुबेरनाथ राय निबंध साहित्य, विशेषकर ललित निबंध के कीर्तिमान हैं। उन्होंने इस विधा की आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की परंपरा को अपनी गौरवशाली सृजन-शृंखला से प्रतिष्ठित किया है। इनके निबंधों में गंभीर पांडित्य, चिंतन, अन्वेषण और विश्लेषण के साथ भावावेश की अजस्र ऊर्जा लक्षित होती है। इनकी ऊँचाइयों को छानते हुए भी वे गाँव की जमीन से निरंतर जुड़े होते हैं, यह उनकी अन्यतम विशेषता है। ग्राम-संस्कृति के माध्यम से बृहत्तर भारतीय संस्कृति की खोज वाली विचार प्रवण दृष्टि कुबेरनाथ राय में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। खेत-खलिहान की आत्मीयता, ग्राम-संस्कृति के सूक्ष्म रस-गंधों की पहचान, वर्तमान विकृति के भीतर से आदिम सांस्कृतिक स्रोतों का अन्वेषण और सबको वैदिक जीवन से जोड़ते हुए अप्रतिहत जीवन के प्रवाह रूप में उपस्थित करना लेखक की अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण है।’

वे अपने निबंधों में वेद से लेकर आज तक की समस्त सांस्कृतिक चेतना का विवेचन, विश्लेषण तथा समन्वय तो करते हीं है। साथ ही गुण-दोषमय संस्कृति का परिदृश्य भी उनके द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। वे अपने युग-परिवेश की समस्याओं को इतिहास-पुराण के संदर्भ में एक नए दृष्टि से देखने का काम करते हैं।

इनके समय पर एक दृष्टि डाली जाए-

इनके  निबंध लेखन का समय वही था जब हिंदी साहित्य में नवलेखन का आंदोलन चरम पर था। कहने का तात्पर्य है- नयी कविता, नयी कहानी,अकहानी आदि का दौर। जिसमें प्रामाणिक अनुभूतियों पर बल दिया जा रहा था।

राजनीति में इस समय कांग्रेस प्रशासन से लोगों का मोहभंग हो चुका था। बासठ के चीन-भारत युद्ध ने मोहभंग की स्थिति पर अपनी मुहर लगा दी। यहीं से समाज में कटाव और आत्मस्थ होने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। साहित्य में अंधकार, पलायन, अलगाव, व्यक्तित्व-विभाजन, की अनुगूँज सुनाई पड़ने लगी। उपन्यास, कहानी, और हिंदी की कई अन्य विधाओं में अपनी शैली को तोड़कर नयी-नयी शैलियों का अन्वेषण होने लगा।

वहीं कुबेरनाथ राय को नवलेखन में क्रोध लोभ और काम की ही अभिव्यक्ति अधिक दिखाई देती है। उसमें उन्हें प्रीति और विश्वास का अभाव दिखाई देता है। डॉक्टर महेंद्र राय इस चिंता को व्यक्त करते हुए लिखते हैं- “उन्होंने  सर्वदा लक्षित किया कि आज पश्चिमी विचारक जहाँ मानव-जाति के सामने उपस्थित आस्था और विश्वास के संकट को लेकर चिंतित है,वहाँ हम पश्चिमी प्रभाव में इन्द्रिय सत्य को ही सबसे बड़ा सत्य मानते जा रहे हैं। जबकि हमारे बहुत सारे अहम प्रश्नों का उत्तर मनुष्य की सीमाबद्ध क्षुद्र बुद्धि के पास नहीं है। इनका समाधान भावना कल्पना और अंतर्दृष्टि के द्वारा ही हो सकता है।”
(निवेदिता-रजत जयंती अंक- डॉक्टर महेन्द्रनाथ राय- पृष्ठ संख्या-251)

तमाम भिन्नताओं के बावजूद भी वो अपने युग के साथ थे। उन्होंने अपने निबन्धों में भाषा को सर्वथा नयी भंगिमा प्रदान की।उनकी निबन्ध की भाषा भी कविता सी लगती है,जिसमें कई राग समाये हो।निबन्ध जैसी विधा में भी उन्होने मानव के मन की गहराई को स्पर्श कर लिया है। उनके निबंध की एक विशेषता यह भी है की  इन्हें पढ़कर उस समय के कला, और संस्कृति को भी हम अच्छे से समझ सकते हैं।

साहित्य उनके लिए शौक और आनन्द का साधन नहीं था। वे साहित्य से प्राप्त आनन्द को मोक्ष के समकक्ष रखते थे। वे स्वयं ही कहते हैं- साहित्य भी एक अर्थ में मोक्ष है, क्योंकि यह भी इसी प्रकार की मनोभूमि उपलब्ध कराता है, यद्यपि अल्पकाल के लिए हम विकलता, उत्तेजना, भय और निराशा की व्यक्तिगत कथाओं से अतृप्तियों से ऊपर उठ जाते हैं, ऐसी मनोभूमि में जहाँ कुछ करने या पाने की विकलता नहीं रहती बल्कि एक स्वादिष्ट शांति और सुखद निष्क्रियता का अनुभव होता है।  इसी से मैं शिल्प और साहित्य के माध्यम से उपलब्ध आनंद को या तो चतुर्थ पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ का सहचर मानता हूं अथवा पंचम पुरुषार्थ मानता हूं।
(कुबेरनाथ राय- विषाद योग- पृष्ठ संख्या- 234)

कुबेरनाथ राय एक सजग साहित्यकार थे। भाषा का प्रश्न भी उनके लिए एक गंभीर प्रश्न था। निबंध को लेकर एक बात सत्य है कि उसे वही समझ सकता है जो साहित्यिक ज्ञान रखता हो, लेकिन कुबेरनाथ राय ने इस धारणा को तोड़ा। और कुछ ऐसे निबंध लिखें जिसे आम जन भी समझ सके, पढ़ सके। वे लिखते भी हैं,- मैं गाँवगाँवनदीनदीवनवन घूम रहा हूँ।मुझे दरकार है भाषा की।मुझे धातु जैसी ठनठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए।मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषामुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा।मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषामुझे चाहिए काकचक्षु जैसी सजग भाषामुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषामुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी तालप्रमाण झंप लेती हुई भाषामुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नतभाषामुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषामुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्स्ना में जंबुकों कें मंत्र पाठ जैसी बिफरती हुई भाषामुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीतगोसाईंजी के अयोध्याकाण्डऔर कबीर की ‘साखी’  जैसी भाषामुझे चाहिए गंगाजमुनासरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषामुझे चाहिए कंठ लग्न यज्ञोपवीत की प्रतीक हविर्भुजासावित्री जैसी भाषा……।” 

कुबेर नाथ राय के निबंध संग्रहों के नाम देखिए- प्रिया नीलकंठी, गंधमादन, रस आखेटक, विषाद योग, निषाद बाँसुरी, पर्ण मुकुट, महाकवि की तर्जनी, कामधेनु, मराल, अगम की नाव, रामायण महातीर्थम, चिन्मय भारत : आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्र, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि अभिसार, वाणी का क्षीरसागर, उत्तरकुरु, अन्धकार में अग्निशिखा

1968 में प्रिया नीलकंठी नामक ललित निबंध संग्रह के माध्यम से हिंदी साहित्य में उन्होंने प्रवेश किया इस निबंध संग्रह का प्रकाशन वर्ष 1968 है। भारतीय जन जीवन के परंपरागत स्वरूप में जो बदलाव आज हो रहा है उसकी समूची अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा ही प्रिया नीलकंठी के निबंधों की सृजन प्रेरणा है।

यहाँ मैं कुछ निबंध संग्रहों के विषय संक्षेप में मुख्य बातें लिख रही हूँ-

रस आखेटक के निबंधकार में रस की परिभाषा को एक नए आयाम में व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है।रस आखेटक नामक रचना में संकलित निबंधों में विशुद्ध रस है। आखेट लीला कभी मधुर दिखाई देती हैं कभी कोमल तो कभी क्रुद्ध।वैसे भी- ‘रस’ और ‘शील’ राय जी के दो प्रिय शब्द थे- एक अवधारणात्मक पद के रूप में उन्होंने इन दोनों का बार-बार प्रयोग किया है। ‘रस आखेटक’ में उन्होंने लिखा है- ‘मैं मानता हूँ और भरत मुनि भी मानते हैं कि हर एक अनुभव में रस है।’

गन्ध-मादन निबन्ध संग्रह के अधिक से अधिक निबन्धों में निबन्धकार ने आधुनिक भारत में फैले हुए जीवन-मूल्यों के विघटन पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए अपने विचारों को बड़ा ही गहराई के साथ प्रस्तुत किया है।इसके साथ ही निबन्धकार ने हिप्पियों के जीवन जीने के व्यवहार पर भी अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनसे पाठकों के परिचित कराने का सफल प्रयास किया है।

वहीं विषाद-योग में संकलित निबन्धों की विशेषता यह है कि इनमें विषय की विविधता है। राय जी ने पौराणिक प्रसंगों को ही अपने निबन्ध का विषय बनाया है जिसके कारण निबन्धों में हमें सांस्कृतिक चेतना के भी दर्शन होते हैं। इन निबन्धों में उन्होंने 1960 के भारत के युवाओं को अलग ढंग से देखते हुए उनके आक्रोश को व्यक्त किया है।निबन्ध के कुछ पात्र जैसे-मंगरू।

निषाद बाँसुरी में राय जी के गाँव निषाद ही उनकी प्रेरणा के केंद्र हैं। कहीं रंगा माझी, कहीं चन्दर माझी, कहीं चन्दर माझी के गुरु रामदेव जी ही उनके निबन्धों में छापे हुए है। इस संग्रह में किरात संस्कृति और निषाद संस्कृति का विश्लेषण बड़ी ही मनोरंजकता के साथ किया है। इन निबन्धों के माध्यम से निबन्धकार ने भूख-रोग और निराशा,दुर्दशा से आक्रांत आज के गाँवों को एक नया उल्लास प्रदान करने का प्रयत्न किया है।

संपाती के बेटे निबंध में संपाती को माध्यम बनाकर राय जी स्थिति को व्यक्त करते हैं। संपाती एक पौराणिक पात्र है जो सूर्य को छूने का प्रयत्न करता है और अपना पंख गँवा बैठता है। राय जी मानते थे कि पैगम्बर या साहित्यकार ऐसे संपाती हैं जो अपने पंखों के जल जाने पर भी हार नहीं मानते। चारों और पराजय, निराशा, रिक्तता या दुर्गंध ही क्यों ना हो तो भी वे पछताते नहीं है। इससे भिन्न एक दूसरा वर्ग भी है जटायु की तरह जो हमेशा सत्य की खोज में चलते हैं तेज के स्पर्श की इच्छा होते हुए भी चुनौती स्वीकार करके सूर्य तक जाने का साहस नहीं करते।

महाकवि की तर्जनी 18 निबन्धों का संग्रह है। इस संग्रह में संकलित सभी निबन्ध रामकथा से सम्बंधित हैं। इस संगह में बाल्मीकि रामायण, रघुवंशम, उत्तररामचरित, माधव चरित,  माधवकंदली इत्यादि रामचरितमानस से सम्बंधित निबन्ध है। निबन्धकार ने 7 बाल्मीकि परम्परा पर विचार करते हुए सात वाल्मीकियों का उल्लेख किया है- प्रजापति कवि, शुक्र उशना, महर्षि च्वयन, प्राचेतस, वाल्मीकि, वेद व्यास और रत्नाकर।  

वहीं कामधेनु निबन्ध संग्रह में उषा की षोडसी नववधू के रूप में और सूर्य को उसके साथ चलनेवाले आखेटक के रूप में बताकर उन दोनों के मध्य कल्पना के स्तर पर एक वार्तालाप कराया गया है। राक्षस के रूप में राय जी ने मेघों का मानवीकरण करके उषा के अपहरण करने और सूर्य के उस पर क्रुद्ध हो जाने की घटना का उल्लेख भी किया है।

मन पवन की नौका की शुरुआत हीं राय जी संवाद से करते हैं। वो भी एक ब्राम्हण और यजमान के बीच का संवाद। बाद में अपने बचपन को याद करते हुए एक किंवदंती का सहारा लेते हैं। और बताते हैं कि एक ऐसी लकड़ी थी जिसके सहारे जहाँ चाहो वहाँ पहुँच जाओ।मनपवन लोक कथाओं में एक लकड़ी का नाम है। बंगाल, असम में मनपवन और भोजपुरी प्रदेश में उसके लिए औन-पौन शब्द चलता है।इस निबन्ध में
— राजपुत्र अपने यारों से कहता है कि वह सोने के केशवाली या हीरे मोती के कणों की हँसी बरसाने वाली या पद्म सम्पुट में छिपी या ऐसी कोई उस राजकन्या को पा नहीं लेगा जो सात समुद्र, तेरह नदी पार के राज में बसती है। तो वह जहर माहुर खाकर प्राण त्याग कर देगा। बंधुगण चिंतित होते हैं और उनमें से एक कहता है- “मुझे कोई मन पवन की सवा बित्ता लकड़ी ला दे तो मैं पक्षीराज नौका तैयार कर दूंगा, जो मनवेग से चलेगी और मन चाहे घाट पर जा लगेगी- इस तरह से वे कथाएँ आगे बढ़ती हैं।लेखक यह कहना चाहता है कि इस प्रकार की नाव जो मन पवन की लकड़ी के समान है,जो कहने के साथ ही इच्छित स्थान पर पहुँचा दे।

वहीं मराल निबन्ध संग्रह में वो राजनीति, गाँधी जी के विचार, उनके कार्य, आज के मनुष्य की क्या जिम्मेदारियां है इस पर विचार करते हैं।

कुबेरनाथ राय का जन्म भोजपुरी भाषी क्षेत्र गाजीपुर जिले के गंगातटवर्ती गाँव ‘मतसा’ में हुआ था। पारिवारिक संस्कार वैष्णव था। वे एक किसान परिवार से थे। यही कारण था कि वो गाँव, लोक, भाषा तथा वहाँ के किसानों के साथ सदा जुड़े रहे। जहाँ गांधी ने किसान को सौर-मंडल का सूर्य कहा है वहीं राय जी किसान को ‘संस्कृति का शेषनाग’ कहते हुए लिखते हैं – “छोटे-छोटे किसान ही संस्कृति के शेषनाग हैं – सबका भार वहन करने का इनका उत्तरदायित्व है। जो शेषनाग पृथ्वी का समस्त भार अपने फन पर लिए हुए हैं, उनकी एक ही करवट सबकी धड़कन बंद कर सकती है”

अपने पहले निबन्ध संग्रह ‘प्रिया नीलकंठी’ से लेकर आखिरी संग्रह ‘आगम की नाव’ तक वे लागातार ‘साहित्य व उसके’ दायित्व को परिभाषित करते रहे।भले ही उन्होंने एक ही विधा यानी निबंध ही अधिक लिखा वो भी वैसे निबंध जो ललित श्रेणी में आते हैं- लेकिन उनकी यही ख़ासियत रही की उन्होंने क़रीबन मुद्दों को इसी में समेट लिया है।

उन्होंने कुछ कविताएँ लिखी जो उनके काव्य संकलन ‘कंठामणि’ में संकलित है।

सामयिक प्रासंगिकता के पक्ष पर जब हम ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि- उनका कोई भी निबंध सामयिक प्रासंगिकता वाला नहीं है जो शीघ्र ही कालक्रम में विच्छिन होकर अपनी अर्थवत्ता गँवा बैठे। उनके निबंधों का मूल्य शाश्वत है। किसी भी युग में वह पाठक को रस और चिंतन-मणि प्रदान करने में सक्षम है।उन्होंने वर्तमान जीवन में विद्यमान मानवीय विसंगतियों, छल-छद्म, भ्रष्टाचार, साहित्यिक दिशाहीनता आदि दोषों से सम्बंधित निबंध लिखें हैं। किसी ने ठीक ही कहा है- ”कुबेरनाथ राय अल्पजीवी नहीं है।’