“हम चाहते हैं हमारा जीवन रंगों से भरा रहे, यह सतरंगी खुशियां जो प्रेम करने और जीने की स्वतंत्रता है; पर समाज से बगावत!”
यह लेख अंजना और सभी सतरंगी साथियों को समर्पित…✍️
सामान्यतः समलैंगिकता का अर्थ किसी व्यक्ति का समान लिंग के लोगों के प्रति यौन और रोमांच पूर्वक रूप से आकर्षित होना है। समलैंगिकता यौन विपरीतता के नाम से भी जाना जाता है। पुरुष के प्रति पुरुष का यह आकर्षण पुरुष समलिंगी या ‘गे’ कहा जाता है और जो महिला किसी अन्य महिला के प्रति आकर्षित होती है उसे महिला समलिंगी या लेस्बियन कहा जाता है। जो लोग महिला और पुरुष दोनों के प्रति आकर्षित होते हैं उन्हें उभयलिंगी (Bisexual) कहा जाता है। कुल मिलाकर समलैंगिक, उभयलिंगी और किन्नर (ट्रांसजेंडर) लोगों को मिलाकर LGBTQ समुदाय बनता है।
हालांकि जब हम इस विषय की तह तक जाते हैं तो जानवरों में यह अधिक मिलती है, जिसे समलैंगिकता का मूलभूत और स्वाभाविक आधार कहा जा सकता है। यह स्तनपान कराने वाले विभिन्न प्राणियों में और जैसे कि हमें आशा करनी चाहिए विशेष रूप से वानरों में, जिससे मनुष्य का विकास माना जाता है; आमतौर से पाई जाती है। अतः संकीर्ण मानसिकताओं का फैशन कह कर इस भाव को निकृष्ट बनाना और नकारना गलत है जबकि प्राचीन काल से ही मनुष्य में भी समलैंगिकता प्रख्यात रहा है, जिसमें समलैंगिक मैथुन की बहुत सी मूर्तियां या चित्र हमारे समकक्ष मौजूद है,जिसमें खजुराहो का मंदिर इसका उदाहरण है।कई बार कई सभ्यताओं में इसे श्रद्धा की दृष्टि से भी देखा जाता रहा है। जैसे लगभग चार हज़ार वर्षों पहले असीरियन उससे परिचित थे और मिस्रवासी अपने देवताओं होरस और सेत को समलैंगिक मैथुनकारी बताते हैं।
इसके अलावा समलैंगिकता का सैनिकों से भी गहरा सम्बन्ध है।प्राचीन कार्थेजीनियवासियों, डोरियन और सिथियन समाजों में और बाद के नार्मन लोगों ने उसे सैनिको के लिए भी आदर्श गुण माना,जिनमें यूनानी भी थे पर ईसाई धर्म के आते-आते सभी धर्मों में और स्थानों में यह बदनाम हो गया। जस्टिनीयन के काल के बाद ही समलैंगिकता को अप्राकृतिक व्यभिचार यानी अपराध के रूप में स्वीकार किया गया और इस अपराध के लिए राज्य द्वारा गिरजों में कड़ी से कड़ी धार्मिक सजा यहां तक कि जिंदा जला देने की सजा रखी गई।परंतु इसके बाद भी यह मध्य युग में मठों और मंदिरों में पनपती रही। इसी कारण धार्मिक ग्रंथों में प्रायश्चित संबंधी अध्यायों में इसका लगातार उल्लेख मिलता है।
मुगल काल में हरमों में बहुत सी स्त्रियां समलैंगी या उभयलिंगी रही हैं। यहां तक कि किन्नर स्त्रीयों(ट्रांसजेंडर) के साथ भी अपनी सेक्सुअल सेटिस्फेक्शन को पूर्ण करते मिलती है।
यही नहीं भारत में सामंती व्यवस्था में भी समलैंगिकता मौजूद थी।सामंती, पूंजीपति, ठाकुर या ब्राह्मण के मनोरंजन के साधन में लौंडा नाच की प्रसिद्धि को हम देख सकते हैं,जिसमें पुरुष के अंदर कुछ तथाकथित स्त्री गुण जैसे लचीली कमर, चिकना शरीर इत्यादि को देख शारीरिक संबंध बनाते हैं या यौन शोषण करते हुए मिलते हैं। यह सब धर्म, तथाकथित नैतिकता और आदर्श की चादर को ओढ़ते हुए छुपते छुपाते होता था। ताज्जुब की बात यह है कि प्रेमचंद सामंती व्यवस्था के बारे में लिखते रहे परंतु उनके साहित्य में यह बातें मौजूद नहीं है।
1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक शासन के दौरान धारा 377 को ”अप्राकृतिक अपराध”(Unnatural offences) करार कर अधिनियमित किया गया। दरअसल ये कानून धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर बनाया गया था। तब ईसाइयत में भी समलैंगिकता को अपराध ही माना जाता था। जबकि इससे पहले भारत में समलैंगिकता को दंडित नहीं किया जाता था। परंतु 1861 में इसे अपराध मानते हुए 10 साल की सज़ा का प्रावधान किया गया। परंतु सोलहवीं शताब्दी में समलैंगिकता को अपराध करार करने वाले कानून को कई दशक पहले ही अमेरिका और यूरोप में खत्म कर दिया गया पर भारत में बना रहा। 1860 में लॉर्ड मैकाले द्वारा लाये गए आई. सी.पी के कानून की इस धारा को हटाने में 157 साल लग गए।
खैर! शुरू में इस पर बहुत विवाद हुआ कि यह भाव जन्मजात है या वातावरण जन्य(अन्य प्रभाव के कारण)।क्राफ्ट एबिंग के विचारों के प्रभाव के पहले यह मत प्रचलित था कि समलैंगिकता बाह्य प्रभावों से उत्पन्न होता है, जिसके कारण उसे अपराध या पाप मान लिया गया। इसी कड़ी में आगे जुड़ते हुए जी.वी हैमिल्टन बंदरों और लंगूरों का अध्ययन करने के बाद लिखते हैं कि “अपरिपक्व उम्र के नर बंदर आवश्यक रूप से एक ऐसे काल में से गुजरते हैं जिसमें वे प्रकट रूप से और करीब-करीब नीरवच्छिन रूप से समलैंगिक ही होते हैं। यौन परिपक्वता प्राप्त करने के बाद एकाएक यह युग समाप्त हो जाता है वह भिन्नलैंगिक मिथुन की दिशा में प्रवाहित हो जाता है।” (हैवलॉक एलिस – ‘यौन मनोविज्ञान’; पृष्ठ न.177,178)
इस विषय में अधिक अध्ययन करने पर, क्राफ्ट एबिंग समलैंगिकता और उभयलैंगिकता के दोनों प्रकारों(जन्मजात और वातावरण जन्य) को माना। जन्मजात में बचपन में ही हार्मोनल बदलाव एल.जी.बी.टी का कारण बनते हैं। शारीरिक विशेषताएं ही परिस्थितियां पैदा करती हैं। जीव विज्ञान के अनुसार स्त्री और पुरुष यौन में कोई विशेष अंतर नहीं होता बल्कि कुछ हार्मोनल्स ऐसे होते हैं जो दैहिक तत्वों पर एक समान प्रभाव डालते हैं। फलतः जैविक तत्वों के आधार पर स्त्री और पुरुष की रचना होती है। हम देखते है कि पुरुष में कुछ अवयव स्त्री गुण के आधार पर होते है और उनके पुरुष अवयव धीरे धीरे बढ़ते है। ये ही समान रूप से स्त्री के साथ भी होता है। समाज में व्याप्त स्त्री और पुरुष गुणों की तथाकथित मान्यताओं के अनुसार वह जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ के तौर पर दो स्त्रियां जो प्रेम में होती है या विवाह करती है जिसमें एक लड़की पुरुष की भूमिका अदा करती है (जैसा समाज में पुरुष व्याप्त है) और एक स्त्री की ही भूमिका में रहती है। परंतु उन दोनों के मध्य जो प्रेम संचार होता है,उसका आधार उनकी रुचि और उनकी सेक्सुअल सेटिस्फेक्शन है। ऐसे ही ‘गे’ में भी व्याप्त है।
बाल मनोविज्ञान में इसका अध्ययन करें तो समाज में स्थित ऐसी ही और बातें सामने आती है। इसी समाज से एक बच्चा सीखता है। समाज से उसे सेक्स सम्बन्धी रहस्य का भी पता लगता है। वह सेक्स को एक खेल की तरह समझ कर अपनी सेक्सुअल डिजायर पूर्ण करता है, परंतु यह बात उसे पता होता है कि ये खेल गुप्त रखा जाता है। कई बार सीखने के दौरान वह अपने लिंग के साथ भी सम्बन्ध स्थापित करता है पर उनमें से कुछ, वयस्क होने के बाद अपने इस यथार्थ को स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि इसमें समाज की अहम भूमिका होती है और जो अपने भीतर के इस बदलाव को, अपने यथार्थ को समझ लेता है उसे समाज जीने नहीं देता।
पुरुष की क्रूरता, पितृसत्ता, या मर्दों का औरत से नफरत करना इत्यादि बातें वातावरणजन्य स्थितियां है। सीमोन के ‘The second sex’ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि वेश्याओं में अत्याधिक समलैंगिक या उभैयलिंगी स्त्रियां होती है, क्योंकि वह पुरुष के क्रूर व्यवहार और कठोरता से खिन्न हो जाती है। उनके पास तरह तरह के पुरुष आते है और यह क्रूरता तथा कठोरता उन पुरुषों द्वारा हार्ड सेक्स और शोषणकारी यौन उत्पीड़न से पनपती है। वह कोमलता की तलाश में अपने ही लिंग की ओर झुकती है। ऐसा हर किसी के साथ नहीं होता, ये खास भाव उन्हीं में देखने के लिए मिलेगा जिनमें जन्म से ही मौजूद होगा। परन्तु कई बार अपने यथार्थ को वह स्वयं नहीं जान पाते, परिस्थितियां या बाह्य वातावरण उसे समलैंगिकता या उभैयलैंगिकता के उभरने का कारण बनती है और उसके यथार्थ से रु-ब-रु कराती है। पुरुषों के साथ भी ऐसा ही होता है। कुछ समलैंगिक पुरुष स्त्री को नपसंद करने का कारण उसके मासिक धर्म और स्त्री की गंध को बताते है। छात्रवास में रह रहे लड़कों के सर्वे के दौरान इस बात का पता चला है। इसका एक उदाहरण प्रदीप सौरभ की रचना ‘तीसरी ताली’ में भी मिलती है जो सच्ची घटना पर आधारित है परंतु उसके चरित्र काल्पनिक है।
ऐसे सिनेमा ने भी समय-समय पर इन मुद्दों को उभारने का प्रयत्न किया है और सेंसर बोर्ड द्वारा उन फिल्मों पर प्रतिबंध भी लगता रहा है। जिनमें प्रमुख ‘फायर’ है; जिसमें शबाना और नंदितादास लेस्बियन की भूमिका अदा करती है जिसका कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता से खिन्नता है। उन्हें सामाजिक विरिधों का सामना करना पड़ता है। अपने परिवार से भी वह बहिष्कृत कर दी जाती है। इसी कड़ी में दूसरी फिल्म ‘अनफ्रीडम’ है, जो सत्य घटना पर आधारित है। इसमें भी दो स्त्रियों के प्रेम को समाज द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता। इस अपराध में दोनों को जेल में डाल दिया जाता है। अंत में जेल में ही उनके ट्रीटमेंट या थेरेपी के नाम पर उनका सामूहिक रेप करवाया जाता है। ताज्जुब की बात यह कि उनमें से एक लेस्बियन के पिता रेप के लिए सहमति ही नहीं देता वरन अपनी आंखों के सामने ही अपनी बेटी का रेप होते देखता है। स्त्री को इस दौरान यौन शोषण का भी सामना करना पड़ता है।
2019 में बनी फिल्म ‘377 Abnormal’ और 2016 में बनी फिल्म ‘अलीगढ़’ ने इस विमर्श में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 2 जुलाई 2009 में 377 धारा को हटाने के बाद इसे दुबारा भारतीय संविधान में लागू कर दिया गया था। जिसका विवरण ‘अलीगढ़’ में मिलता है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में मराठी के प्रो.श्रीनिवास रामचन्द्र पर आधारित यह सीरीज़ है। इसकी एक महत्वपूर्ण और सुंदर पंक्ति जो अपनी ओर ध्यान खिंचती है। जब जर्नलिस्ट प्रोफेसर से पूछता है कि, आप ‘गे’ है?
प्रोफेसर उत्तर देता है, ‘मुझे इसका मतलब समझ नहीं आता बाबा।’
जनर्लिस्ट फिर बोलता है, ‘तो आप गे नहीं है?’
प्रोफेसर उत्तर देता है कि, “कोई मेरी फीलिंग्स को सिर्फ तीन अक्षर में कैसे बांधकर समझ सकता है! एक कविता की तरह भावात्मक, एक तीव्र इच्छा, जो आपके काबू से बाहर होती है।”
इसी कड़ी में प्रोफेसर जर्नलिस्ट से सवाल करता है, ‘किन किन कवियों को पढा है तुमने? कभी कविता का अर्थ समझा है?’
“कविता शब्दों के अंतराल में मिलती है, साइलेंसिज़(silences) में, पॉसिस(pouses) में ,और फिर लोग अपने अपने हिसाब से अर्थ निकालते है; अकॉर्डिंग टू देयर एज़, मेज्योरिटी एंड अंडरस्टैंडिंग(according to their age, majority and understanding). और अंत में प्रोफेसर को समाज की प्रताड़ना मृत्यु की ओर ले जाती है।
हाल ही में अंजना हरीश जो बाएसेक्सुअल थी, उसके परिवार वालों द्वारा थेरेपी की जबरन ने उसे आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया। इसे ‘आत्महत्या’ न कह समाज द्वारा हत्या करना ही कहेंगे। जिसके कारण बहुत लोग अपने सत्य को स्वीकार करने से हिचकते है, उन्हें प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है। ये समाज न-काबिल-ए बर्दाश्त है जो समाज के यथार्थ को देख नहीं सकता।तथाकथित आदर्श, नैतिकता और धर्म के आवरण और आडम्बर में समाज के खुलेपन और प्रेम की आज़ादी को एक खास तरह के बंधन में कैद करना चाहते हैं, उसी ढर्रे पर रखकर तौला जाता रहा है। अतः कटघरे में भारतीय समाज को होना चाहिये पर समाज कटघरे में उसे रखता है जिसे बेड़ियों में बंद करना चाहता है। इसीलिए भारतीय समाज में समलैंगिकता जैसे संवेदनशील मुद्दों की लगातार अनदेखी होती रही है।हमें इस बात की भी समझ होनी जरूरी हैै कि ये अप्राकृतिक नहीं है और न ही यह कोई बीमारी या अपराध है। बल्कि यह एक भाव है जो जन्म के साथ मौजूद होती है। हां, यह ज़रूर हो सकता है कि बाह्य कारणों से अपने यथार्थ का आभास बहुत बाद में हो। हालांकि 2018 में LGBQTIA+ ने अपनी जीत हासिल की पर इसने अपनी पूर्णता हासिल नहीं की है, इसलिए इस विमर्श को उभारने की ज़रूरत है। अभी इसे अपराध की श्रेणी से तो बाहर कर दिया गया है पर भारतीय मानसिकता में यह अभी भी अपराध ही बना हुआ है।अब ‘नॉर्मल’ लगने तक के सफ़र को तय करना है। अंततः जो जैसा है उसे समाज मे वैसे हीं स्वीकृति मिलनी चाहिये।तभी व्यक्ति अपने अस्तिव को स्वीकार कर पायेगा। जर्मन के एक महान दार्शनिक Johann wolfgang von Goethe ने कहा है:-
I m what I am
So, take me, as I am
Similarly, No one can escape their individuality
- सहायक ग्रंथ:-
- 1) सीमोन द् बउवार- ‘स्त्री उपेक्षिता'(अनुवाद- प्रभा खेतान)
- 2)हैवलॉक एलिस – ‘यौन मनोविज्ञान’ (Hindi translation of psychology of Sex)
- 3) Mole- ‘The sexual life of the child’
ज्योति ‘विप्लव’
शोधार्थी – जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली