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कंचन रॉय की कहानी- पूर्णिमा

कंचन रॉय की कहानी- पूर्णिमा

पूर्णिमा अपने अंतःस्थलों के गहराइयों में खोई न जाने क्या ढूँढ रही है? उसका मन आकुल होकर बारंबार अपने से प्रश्न कर रहा है-क्या यही गति थी ‘मेरे जीवन की’? कोई समीप न पाने से वह कुछ क्षण रो लेती है।फिर कुछ देर बाद जब उसकी चेतना सजग होती है तो वह घर के चारों दिशाओं को टोहती हुई, फिर कुछ अपने-आप से बड़बड़ाती हुई कहती है ……ओह! जैसे यह गाड़ी पटरी से ही उतर गई हो…..बिखरे घर में एक-एक सामान को फिर से उठाकर उसी जगह रख देती है।जिससे कमरा पहले जैसा हो जाएं……फिर वह नीचे हॉल में आकर बैठ जाती है।ग़ोलदार सोफ़ो के बीच एक मेज़ रखा था।उस पर कुछ पुराने अख़बार और एक काग़ज़ पर दवाईयों के नाम लिखें थे।

‘अरे! ये क्या दीपक इसे फिर से ले जाना भूल गएं’ ?

दीवारों पर तरह-तरह के फ़ोटोग्राफ़्स टंगे थे। वॉल पर लगी अपनी और दीपक की तस्वीर को देख …उसे अपने उन्माद भरे यौवनावस्था की बीसवीं श्रृंखला ……जहां से उनके रिश्ते की शुरूआत होती है।

पूर्णिमा भाभी ….राधिका आओ ….कैसे आना हुआ ?

‘भैया कहाँ हैं?’

वहीं,आज चार दिन हो गए हैं ….दीपू ने फ़ोन किया था।उन्होंने बताया की मरीजों से फ़ुर्सत नहीं है …..दो दिन और लग जायेंगे …..

और कुछ नहीं बताया?

अब बात कचहरी तक  पहुंच गई है,उनका दवाब है……   ‘केस’ वापिस लो…..

दीपू कहाँ है?

अभी यहीं तो था ….अरे! हाँ….याद आया फिज़िक्स की क्लास से अब आता ही होगा।

स्लैब पर कबूतरों के जोड़ो के लिए कुछ अनाज और पानी रखने के बाद जैसे ही वह कमरें में राधिका के पास जा रही थी।तभी नीचे से कुछ आवाज़े बड़ी तेजी से आने लगी……

सीढ़ियों पर खड़ी एक स्त्री कहती है -‘इन काग़ज़ो पर साइन करके दीपक को मुक्त करो……..

तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई घर तकआने की ?

ये कहने की देर थी कि गली में इकट्ठे सारे लोग समझ गए कि – ‘वही नर्स है ‘  अस्पताल वाली ……. लिफ़ाफ़े को खोलकर पढ़ते हुए पूर्णिमा –

अब यही रह गया था बाकी …..

राधिका भरे कंठ से पूछती है …क्या है…भाभी इसमें ….

“डीवोर्स के पेपर हैं……”

राधिका जब हमारी शादी को सिर्फ एक साल हुआ था।तभी तुम्हारे भैया से कहा था…..केन्द्रीय विद्यालय में टीचर की वेकेंसी निकली हुई है।वहां आज मेरा इंटरव्यू है…..तुम तो सारे दिन अस्पताल में रहते हो।मैं स्कूल ज्वाइन कर लूंगी तो मेरी भी कुछ बोरियत हटेगी…..

‘पुन्नू …..मैं अभी हूँ। तुम्हें किस चीज़ की कमी है’।

दीपक इधर रात-दिन अच्छे अस्पताल में अपोईंट   होने के लिए रात-रातभर क़िताबों में डूबे रहते और मैं भी उनके संग जागा करती रहती थी।रात न जाती कि चार-पाँच बार तो काॅफी ही हो जाया करती थी।साल भर बाद फिर दीपू ……और न जाने कैसे….बीस साल का ये  सफ़र , गृहस्थी में कैसे बीत गए …कुछ पता ही नहीं चला।

स्लैब पर कबूतरों के जोड़ो के लिए अनाज और पानी ….रख के आती हूं।

बीते छुट्टियों के दिन आज भी मुझे याद है -जब मैं यहां आई थी। ‘भैया के बाइक के हाॅर्न की आवाज़ को  सुनते ही …. भाभी ने कैसे हाॅल के गेट पर ताला चढ़ाया और आप ऊपर आ गई और मुझसे कहती जा रही थी कि -भैया मेरे बारे में पूछे तो कहना घर पर नहीं है ….बाहर गई हैं ….और कैसे आप पीछे से झपट पड़ी’।

दीपू …कब से तुम्हारी राह देख रही थी …..बुआ अभी आता हूं।

अरे !भैया कैसी चल रही है तैयारी ….इस बार तो तुम्हारी मूंछें भी आ गई हैं….अब तो काॅलेज जायेंगे साहब……

दीपू शांत पथिक की तरह सर हिलाकर कमरे से बाहर चला जाता है। शाम पाँच बजे डाकिया ‘पूर्णिमा मलिक’ आप ही हैं……आपकी सुनवाई हो गई है ,मुकादमा आपने जीत लिया है।घर का आधा हिस्सा आपका है।

गली में तरह -तरह की चर्चाएं होने लगी थी।सोते,उठते,बैठते बस यही-एक ने कहा -किराए से दीपू की पढा़ई का खर्चा निकल जाएगा।दूसरे ने कहा-इनके पास ज़ायदाद थी तो उसके लिए मुकादमा लड़ा।राधिका इन बातों को सुन झुंझला उठी……भाभी एक बार भैया से बात तो करो।

भैया आप चुपचाप क्यों खड़े हैं ….एक बार आप ही भाभी से बात कर लिजिए। मेज़ की ओर पुन्नू इशारा करके जाने को होती है।अरे!नहीं भाभी ……भैया …..

अगली सुबह पूर्णिमा ने स्लैब से कबूतरो का घोंसला हटा दिया था।उसने सुन लिया था कि ‘जिस घर में कबूतरों का वास होता है वह घर मसान बन जाता है।’

कंचन रॉय

छात्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय