hello@mukhyansh.com

हरिवंश राय बच्चन की कविता को हृदय में बैठे प्रिय की स्मृति कहने वाली – ममता

हरिवंश राय बच्चन की कविता को हृदय में बैठे प्रिय की स्मृति कहने वाली – ममता

हरिवंशराय बच्चन की कविता ह्रदय में बैठे प्रिय की स्मृति है – प्रिय प्रकृति में शाश्वत हो गई है – कृत्रिमता को सहने की क्षमता दे रही है।

हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 प्रयागराज में हुआ था,
मृत्यु 18 जनवरी 2003 में मुम्बई में हुई थी।

बच्चन की कविता का संग्रह निशा-निमंत्रण ह्रदय में व्याप्त विशाल अनुभूति है जहाँ कवि ममता की ओट में निर्ममता को ख़ारिज करता है।एकांत की व्याधि को समाप्त करता है साथ ही कवि आत्मनिर्भरता के स्वर में सहभागिता को ख़त्म नहीं होने देता।इस तरह की कविता है “कोई रोता दूर कहीं पर” की इन पंक्ति को देखें——-

इन काली घड़ियों के अंदर,
यत्न बचाने के निष्फल कर,
क़ाल प्रबल ने किसने जीवन का प्यार अवलंब लिया हर?
कोई रोता दूर कहीं पर!

ऐसी ही थी रात अँधेरी,
जब सुख की,सुखमा की ढेरी,
मेरी लूट नियति ने ली थी,करके मेरा तन-मन जर्जर!
कोई रोता दूर कहीं पर!

मित्र-पड़ोसी क्रंदन सुनकर,
आकर अपने घर से सत्वर।
क्या न समझते होंगे चार दुखों का जीवन कहकर?
कोई रोता दूर कहीं पर!”


कहने को तो वही मानवीय दुःख है नियति से हारकर हर कोई रो रहा है लेकिन कवि ने नियति और भाग्यवाद की अनिश्चितता को समझा है और साथ ही क्षण की कौंध को भी जिसकी पीड़ा को बौद्धिक-वर्ग भी नहीं झुठला सकता इसलिए – “कोई रोता दूर कहीं पर “
परन्तु दुःख सभी का है मात्र अकेले हम ही उसके द्योतक नहीं इसलिए ‘सहभागिता’ मानव सहयोग की पूँजी है जिसका बटवारा आवश्यक है। यही बच्चन दुःखवाद से अलग शाब्दिक लय के भीतर भी सारगर्भित अर्थ को प्रस्तुत करते हैं जैसे-
“क्या न इसे समझाते होंगे चार दुखों का जीवन कहकर?”
यहीं कवि समाज की सार्थकता को भी नहीं भूलता और ना हीं दो दूनी चार का पहाड़ा।


बच्चन ने निशा-निमंत्रण में निहित कविता को स्वर्गीय पत्नी श्यामा को समर्पित किया है।साथ ही वह कहते है-


“जीवन के पार क्या होगा,
इसकी चिंता मुझें थी-इस पार,
प्रिये मधु है,तुम हो,उस पार न जाने क्या होगा?

पर नियति को तो मरण से भी अधिक भयंकर एकाकीपन मेरे जीवन मे लाना था। इसी तरह की कविता देखें –

आज रोती रात,साथी।
घन तिमिर में मुख छिपाकर,
है गिरती अश्रु झर-झर,
क्या लगी कोई ह्रदय में तारकों की बात,साथी?
आज रोती रात,साथी!
जब तड़ित-क्रंदन श्रवण कर
काँपती है भूमि थर-थर
सोच,बादल के ह्रदय ने क्या सहे आहत,साथी
आज रोती रात,साथी!
एक उर में आह उठती,
निखिल सृष्टि कराह उठती,रात रोती, भीग उठता भूमि का पट-गात,साथी!
आज रोती रात साथी।

इन कविताओं में एक ही तरह का भावबोध है स्मृति से ऊपजे दुःख का निराकार(समाधान) परन्तु सूक्ष्म कोशिकाओं की तरह भाव के भीतर भाव है जिसे आप प्रिय के वियोग का विलाप नहीं कह सकते। प्रकृति का मानवीकरण भी किया है कहने को तो वही- रूपक,उपमा,उद्दीपन भाव चेष्टा,साधारणीकरण,विभाव, आलम्बन और परंपरा का पालन।पर साथी शब्द पति पत्नी शब्द की संकीर्णता को तोड़कर स्त्री-पुरुष सम्बन्धो में मैत्री भाव की अभिव्यक्ति आधुनिक सन्दर्भ में कवि करता है।आप अपने आदर्शवाद को बच्चन की कविता पर नहीं लाद सकतें।यहाँ पर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध व्यापक अर्थ में है जिससे कवि अपने ह्रदय की बात करता है।बच्चन स्वयं कहते है- साथी शब्द के लिए “मैं आपको सचेत करना चाहूँगा कि इसे यदि रूढ़ अर्थ में लेंगें या इसके पीछे किसी व्यक्ति-विशेष की खोज करेंगे तो आप गलती करेंगे।”

प्रेम वर्गहीन है हर किसी के ह्रदय में प्रेम की स्मृति व्याप्त है।इसलिए इसके महत्व पर भी बात करना आवश्यक है चाहें वो स्त्री पुरुष प्रेम हो या वर्गहीन,लिंगहीन,रंगहीन-प्रेम समाज मे हर आकार के प्रेम की अभिव्यक्ति आवश्यक है ,नहीं तो ये कुंठित व्याधि बन कर अपराध का रूप भी ले सकती है।कविता प्रेम को स्मरण करने की क्षमता देती है आप दूसरों के शब्दों में अपनी अभिव्यक्ति पाते है जिससें आपका दुःख बोझिल नहीं होता उसका सरलीकरण हो जाता है।इस सब में बच्चन की कविता अपनी भूमिका निभाती है।

जीवन नश्वर है पर आप इसे स्मृतियों के बहाने नष्ट नहीं कर सकते स्मृति ऊर्जा देती है सभी के दुःखो को, आत्मसात करने की क्षमता देती है।यदि आप कालकोठरी में जाकर वास लेते है तो यह आपकी कायरता है।आप इसे स्मृति का दंश नहीं कह सकते।
प्रिय की यादे डसती नहीं है वह अमिट होती है निरन्तर दुसरें की सहायता में अपनी सार्थकता ढूढ़ती है।इसी तरह की कविता है-


विश्व को उपहार मेरा!
पा जिन्हें धनपति,अकिंचन,
खो जिन्हें सम्राट,निर्धन,
भावनाओं से भरा है आज भी भंडार मेरा।
विश्व को उपहार मेरा!
थकित,आ जा!व्यथित आ जा!
दलित,आ जा!पतित,आ जा!
स्वागतम किसको न कहता स्वप्न का संसार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
लें तृषित मरु,होंठ तेरे,
लोचनों का नीर मेरे!
मिल न पाया प्यार जिनको आज उनको प्यार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!”

इसी प्रकार बच्चन ने थकित,व्यथित,दलित,पतित सभी के प्रति अपनी सह्रदयता को व्यक्त किया है यही एक मानव का अपने विश्व के लिए सार्थक उपहार हो सकता है।

“मिल न पाया जिनको आज उनको प्यार मेरा!” यही जीवन है यही कविता का उद्देश्य भी।

विचारधारा को दो भागों में विभाजित कर रखा है पर विचारधारा वहीं है-जहाँ मानवता का उत्कृष्ट रूप विद्यमान है।विचारधारा केवल एक है- न्याय की- जिसके केंद्र में सम्पूर्ण सृष्टि है।
बच्चन अपने भावपक्ष को तीन अनुच्छेदो में अत्यधिक व्यक्त करते है।कलापक्ष में तत्सम शब्दावली,अंत्यानुप्रास, लय,रूपक,उपमा,शब्द-योजना,छंद- इत्यादि भरपूर मात्रा में है।और ह्रदय में प्रेम ध्वनि को व्यंजित करने की क्षमता। बच्चन अपनी शैली के संदर्भ में ख़ुद कहते है-
“अंग्रेजी में एक कहावत है- स्टाइल इज द मैन – जैसा जो आदमी, वैसी उसकी शैली।”

बच्चन की रचना इस प्रकार है जिसें पढ़कर आप व्यापक रूप से कवि को जान सकते है। जैसे –

मधुशाला 1935,मधुबाला 1936,मधुकलश 1937,निशा-निमंत्रण 1938,एकांत संगीत -1939,आकुल अंतर 1937,सन्तरागिनी 1945,बंगाल का अकाल 1946,हलाहल 1946,खादी के फूल 1948 ।

बच्चन को हालावाद का प्रवर्तक माना जाता है,साथ ही हिंदी का बायरन भी कहा जाता है।बच्चन स्वयं पर “रुबाइयात उमर खैयाम ” का प्रभाव स्वीकार करते है ।बच्चन में एक तुक मिज़ाजी है जिसे कुछ हद तक मीर,ग़ालिब, ताबाँ,कलीम की तरह मान सकते है। दुनिया को ताने देते है दुनिया के लिए,मस्त- मिज़ाज है दुनिया उनकी सरग़ना है।

क्या किया मैंने, नहीं जो कर चुका संसार अब तक?
वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी?

—-हरिवंशराय बच्चन

ममता
दिल्ली विश्वविद्यालय