हर रोज़ की तरह सविता उठकर अपने आंगन में बुहारी देने के पश्चात अपनी की हुई बागानी को देखने गई ….खिली-खिली कलियाँ उसमें, उसके हृदय में अपार जीवन- शक्ति का संचार करती है। सीढ़ियों से उतरते के साथ, बिना किसी को देखे, वह ग़ुसलखा़ने की ओर नहाने को चल देती है। यूं तो घर में और भी बहुएँ थी परन्तु सविता में एक अलग तरह की आध्यात्मिकता, भक्ति या शक्ति कह लिजिए जो सबको अपने से ‘वृक्ष’ की डालियों की भांति बांधे रखती थी। चटपट पूजा करके सबके पेट की पूजा का बंदोबस्त करने को ,वह रसोई में सबसे पूछकर क्या-क्या खाना है…
वह सबकी फ़रमायशी भोजन चूल्हें पर से एक-एक करके बनाती और उतारते जाती है।
दिन के दो-पहर बीत चुके थे…पर सविता अपने मशीन पर बैठे- कपड़ो के सीलने का काम करते जा रही थी। शाम को ब्लाउज और सूटों का कलेक्शन तैयार करके ग्राहकों को देना था।एक तरफ अपने काम में मस्त वहीं दूसरी ओर उसकी निग़ाह ‘घड़ी’ के टिक-टिक पर भी स्थिर हो जाती है।
इतने में अक्षु अपना होमवर्क लेकर माँ के पास परिक्रमा
करने लगता है… माँ…
काम करा दो … कल मार पड़ेगी…
सविता की नज़र घड़ी पर फिर दौड़ जाती है।
“माँ आपका काम कब ख़त्म होगा?”
बेटा बस अभी…
माँ मैं नीचे जाऊँ…
नहीं…
सीढियों पर किसी के टप-टप चलने की आवाज़ को सुन सविता अपनी निग़ाह थोड़े समय के लिए वहीं जमा लेती है… और कुछ आश्वस्त होकर कहती है -प्रवीन आ गए आप ?
बेटा अक्ष जाओ पापा के साथ बैठकर होमवर्क कर लो…..
अं अं अं।……..
मेरा प्यारा राजा बेटा…….।।
अक्ष अपना बस्ता टांगकर डैडी……डैडी करता घुड़की जमाकर बैठ गया ।
प्रवीन काम की तालाश में घर से घण्टों गायब रहता है… माथे पर खिंचीं लकीरें सविता समझकर रसोई में ठंडा शरबत बनाने को चली जाती है। वह हमेशा इसी कोशिश में रहती है कि प्रवीन किसी भी यथास्थिति में कुछ ऐसा -वैसा न कर बैठे कि…
ठंडा शरबत लेकर वह प्रवीन को मुस्कुराते हुए हाथों में देती है……यूं तो सविता हमेशा खुश रहती है परन्तु प्रवीन के सामने मुस्कुराने से उसके मन की कई गांठें सुलझ जाती है। हाथ में ट्रे लिये अभी भी वह स्तब्ध खड़ी थी… जब प्रवीन की अच्छी नौकरी थी… वह रोज़ अपना काम ख़त्म करने के बाद घर आता तो बाहों में भर-भर घुमाता और कहता आज सारे काम बंद … दो सिनेमा की टिकटें हैं…
अक्षु माँ… माँ… करके फिर शोर करता पैर पटकने लगा।
कभी माँ…..कभी डैडी…
अक्षु उठकर डैडी के पास जाकर गले लगता …..डैडी मेरे डैडी…
काम करा दो ……मार पड़ेगी……
सविता मशीन पर बैठी दोनों को स्नेहमयी भाव से देखती और मंद ही मंद हँसती जाती है…
बेटा मैं बहुत थक गया हूं…..बाद में…
माँ से कहो करा दें…
अक्षु माँ के पास आकर बैठ गया।बिना हिले-डुले जैसे साधु अपनी तपस्या में लीन हो।
सविता कुछ दवाब भरी आवाज़ में कहती है कि-‘मेरे क्या चार-चार हाथ है जो सब कुछ मैं ही करूँ…’
अक्षु का बाल मन इसे क्या समझ पाता….अनबुझता से कह उठा…..हाँ…..चार-चार हाथ होते हैं…
माँ छुपा लेती हैं…
दोनों के बीच व्याप्त जड़ मौन टूटकर हास्यास्पद हो जाता है……बच्चे की बात आख़िर बच्चे की बात ही होती है ।
कंचन रॉय
छात्रा, शिवाजी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय