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मैं लिख रहीं हूँ काली स्याही से कि मुझें ज़माना भी कोरा नसीब नहीं हुआ:ममता

मैं लिख रहीं हूँ काली स्याही से कि मुझें ज़माना भी कोरा नसीब नहीं हुआ:ममता

“मेरा नाम सआदत हसन मंटो है।
औऱ मैं एक ऐसी जगह पैदा हुआ था
जो अब हिंदुस्तान में है।
मेरी माँ वहाँ दफ़न है
मेरा पहला बच्चा भी
जो अब मेरा वतन नहीं ।”

मंटो ने 230 कहानियां लिखी है 67 रेडियो नाटक 22 ख़ाके (शब्द चित्र) 70 लेख। यही मंटो का योगदान है जिसें भुलाया नहीं जा सकता आज भी कई फ़िल्मों में मंटो के अफ़सानों की मार्मिकता को निर्देशित किया जाता है।

मंटो को जिंदगी बहुत कम मिली 11 मई 1912 से लेकर 18 जनवरी 1955 तक, लेक़िन जिन्दगी कम थी पर शब्दों से लबालब भरी थीं। वो कहता ज़माने से ज्यादा था।उर्दू इश्क़ अल्फाजी से अलग मंटो ने वेश्या की गाली को लिखा तब समाज के लोग बेहयाई से कान मोड़ते रहें लेकिन मंटो ने निडर यथार्थ लिखा क्योंकि न बोलना उन्हें गवारा नहीं था।

“वैश्या पैदा नहीं होती,बनाई जाती है या ख़ुद बनती है।जिस चीज़ की मांग होगी मंडी में जरूर आएगी “

यह समाज की उस लालची इच्छा को दर्शाता है जहाँ वो लड़की को जलेबी की तरह समझता है दाम लगाता है।इस तरह वैश्या को वैश्य व्यापार से जोड़ा गया है।और उसके पीछे का वो मानव जिसने सजीव निर्जीव का भेद ख़त्म कर इस चेतनशील संवेदना को कौड़ी के भाव निर्यात कर दिया, इसे ही ‘देह की कीमत’ कहते है बाजार में।

मंटो की कहानी में रोमांस पत्ती पर पड़ी बूंदों कि तरह नहीं है वो चमड़ी और झुर्रियों पर पड़ते चुंबन की कहानी है।पात्र अपने सख्त होंठो से उसके जिस्म को चूम रहा है और सोच रहा है,इसका बदन मेरी पत्नी से अलग है नरम नहीं और ये सभी देशी विदेशी लड़कियों से अलग है…
“एक घाटन लड़की ” इस तरह के रोमांस बिंदु की कहानी “बू” है! जिसमें पात्र उसके बदन की बू में सम्भोग की संतुष्टि पा रहा है,उसके जिस्म के कड़े बालों में उलझ रहा है,आप जब ये कहानी पढ़ते है तो ठंडी आहें भरते है बदन में कपकपी होती है सांसे और धड़कने बढ़ जाती है।अगर ये अल्फ़ाज़ पत्नी के लिए है तो समाज का सरताज़ ये जमाना आप को माफ़ कर सकता है लेकिन ये शब्द किसी और लड़की के लिए है तो आप पर अश्लीलता का आरोप लगाया जाएगा।

लेकिन मंटो का पाठक समझता है ये सच्चाई है जो लिख दी गई है कोठे से उठाकर कागज़ पर प्रत्यक्ष सबूतों की तरह ,शरीफ़जादो को डर है ये लिफ़ाफ़ा खुल न जाये घर की दहलीज पर इसलिये इसे छुपाने के लिए मंटो पर मुकदमे दर्ज होते रहे वो रिहा होते रहे कि उन्हें पढ़ा जा रहा था ,उनकी क़िताब अलमारी में नहीं बिस्तर में तकिये के नीचे छुपाकर रखी जाती थी किसी सच्चाई की तरह।

पोनोग्राफी और मंटो की कहानी में अंतर है यह मंटो की क़लम कैमरे की तरह कमरें में नहीं है।वो खिड़की से कूदकर सोसाइटी के कपड़े पहने नंगे लोगों को दिखा रही है ,जो लोगों की चादर खिंचकर तमाशा बनाता है सड़क पर सरेआम।इसलिए मंटो कहते हैं-
“मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी, मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता,क्योंकि यह मेरा काम नहीं है,दर्जियों का काम है।”

मंटो ने भारत विभाजन पर सबसे अधिक लिखा है,जिसमें दो सियासत की मूर्खता को पागल लोंगो की समझदारी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इस तरह की कहानी है
“टोबाटेक सिंह”
जिसमें ज़मीन जन्म मृत्यु के बोध को बयां किया गया है। इसका एक पात्र है बिशन सिंह जो हमेशा अपनी बड़बड़ाहट में कहता है – ” ऊपर दी गुड़ गुड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुर्र फिट्टे- मुँह”।
पागल के लिए ये हिन्दुस्तान और पाकिस्तान ओछे शब्द है वो बस अपनी ज़मीन को जानता है जहां उसका घर था।’टोबाटेक ‘
जब पागल इस प्रेम को नहीं भुला पाया तब समझदारों ने प्रेम की ज़मीन पर बॉर्डर बना दिया । जिसे मंटो ने बस सियासत की खोखलेबाजी समझी औऱ लिखते रहे दुधमुंहे बच्चें का दर्द जिसकी माँ पाकिस्तान औऱ हिंदुस्तान नाम पर विभाजित कर दी गई जन्मोजन्मान्तर तक।

मंटो ने उस सच्चाई के बारे में लिखा जिस पर लोग नहीं लिखते,मंटो ने बिनब्याही कुँआरी माँ के बारे में लिखा है ।इसी संदर्भ में यदि मंटो की भाषा शैली पर भी बात करें तो दर्द मवाद की तरह शब्दों में उतर जाता है, जिस पर मक्खी भिनक रहीं है शब्द आपको दर्द की गहराई तक पहुँचा देंगे।भाषा उर्दुनुमा है शब्द चौराहे की भाषा , पर सभ्य समाज हमेशा मंटो की भाषा शैली से डरता रहा, संस्था को मंदिर समझा, पर मंदिर के अंदर बाहर वाले लोग हमेशा मंटो को पढ़ते रहे बिना किसी अकादमी सहायता के यही मंटो की लेखनी की विशेषता है ।
आप यदि “सड़क के किनारे “ कहानी की भाषा पर जब गौर करेंगे तो एक बिनब्याही माँ के संतान होने की दुश्चिंता को समझेंगे और बच्चें के जन्म के बाद स्तन में कुनमुनाते दूध के चूने कि पीड़ा भी ,और टांगो का गोद बन जाने का दर्द भी ।औऱ फिर उसी माँ का बच्चें को फेंक देना ताकि किसी को पता न चलें कि वो उसकी बेटी है जो धोखेबाज प्रेमी से जन्मी है । किसी ने उस बच्ची को मरने से बचा लिया है लेकिन उसकी आँखें नीली है जैसे उसके पिता कि थीं ।और बिनब्याही माँ उसकी आँखों को देखकर कह रहीं थी– “आसमान आज भी उसकी आँखों की तरह नीला है”
जहां बच्ची को फेंका गया है लोग कहे रहे है इसकी आँखें नीली है,जो अतीत वर्तमान की सच्चाई को बयां कर रही है जिसे छुपाने के नाम पर फेंक दिया गया है यह है-मंटो की भाषा शैली।

मंटो ने आम इंसान के आदर्शवाद को बख़ूबी उसके अंदाज में प्रस्तुत किया है जो हमें हैरान करती है इस प्रकार कि कहानी है “बारिश” जिसमें एक लड़का एक लड़की से पहली नज़र में प्रेम कर लेता है और फिर उसे चुंबन करता है जब उसे पता चलता है कि वो वैश्या है तब उसें उस लड़की से नफरत होने लगती है ,सीनें का उबाल थम जाता है वैश्या को छूने के कारण अब उसकी नसें गुस्से से तन गई है ये है आज के प्रेमी ।यही पर मंटो समाज में प्रेम की पवित्रता के पैमाने के साथ उसकी नीचता को बयां करते है, जहां स्त्री की योनि शुचिता प्रेम की कसौटी है ।जहाँ स्त्री को रस औऱ रसहीन के पैमाने में पुरुष तौलता है प्रेम भी इन परीक्षा से बच नहीं पाया यही मंटो प्रेमी की पितृसत्ता को बयां करते है बस एक चुंबन के माध्यम से।

मंटो के कलेजे से विभाजन का दर्द कभी नहीं गया वो नासूर की तरह उनकी कहानी में घुसपैठिये की तरह ज़बरन आ जाता,बिस्तर के एक सिराहने अगर दो युगल होते तो दुसरें सिरहाने बिजली की कौंध जो दंगे की तरह लोगों को झटके दे रहीं थी।इसी तरह की कहानी है “ठण्डा गोश्त” इसमें ईश्वर सिंह कुलवंत का पति है जो उसे शारीरक रूप से संतुष्ट नहीं कर पा रहा है इसका मुख्य कारण है उसके गांव में दंगे के वक्त ईश्वर सिंह ने एक मृत शरीर के साथ बलात्कार किया था जिसका शरीर शीत की तरह ठंडा पड़ गया था । कहने को तो कहावत है कि शेर भी मरे जानवर का शिकार नहीं करता लेकिन ये मानव दानव है जिसनें दंगे के नाम पर अपनी हवस पूरी की है ।
आप इस पंक्ति से समझ सकते है स्त्री पुरूष के लिए क्या है “हम औरत उसी को समझते है जो हमारे घर की हो ,बाकि हमारे लिए कोई औरत नहीं होती बस गोश्त की दुकान होती है,और हम इस दुकान के बाहर खड़े कुत्तों की तरह होते है,जिसकी हवस ज़दा नज़रे हमेशा गोश्त पर टिकी रहती है”
आप शायद विमर्श में चले जाएं लेकिन मंटो का पात्र बेशर्म है,बेहिचक बोल रहा है आपको सोचना चाहिए पर्दे लगाने से क़िरदार नहीं मर जायेंगे,आज भी बलात्कार की मानसिकता को प्रवचन से नहीं ज़मीनी स्तर पर आज़ाद सोच के तहत ख़त्म करना होगा।

मंटो की कहानी में स्त्री भी अपना स्वर रखती है चाहें वो ठंडा गोश्त की कुलवंत हो या फिर “हतक” की सौगंधी! एक पात्र माधव उसकी दलाली करता है वैश्यावृत्ति में ,और प्रेम का आडंबर भी करता है जब सौगंधी इस षड्यंत्र को समझ जाती है तब उससे अपनी सारी ज़िल्लत का बदला लालत – मलालत खरी खोटी के साथ लेती रहीं। जब उसको अपने स्वालम्बी होने का भान हुआ तब उसने माधव को नहीं बख्शा ।जो उसी के ढुकड़ो पर पल रहा था और बस महज़ पुरुष होने के नाते आँख भी दिखा रहा था तब सौगंधी कहती है ” तेरी पकौड़ा ऐसी नाक,ये तेरा बालों भरा माथा,ये तेरा मुँह की बॉस,ये तेरे बदन का मैल “जो उसकी सालों की पीड़ा को माधव के चरित्र-चित्रण द्वारा प्रस्तुत कर रहा है , ये शब्द स्फुटन विरोध है सालों की चुप्पी का ।वैसे किसी का भी शारीरिक रूप से अपमान करना उचित नहीं है परंतु सदियों से झेलती स्त्री अपमान का प्रतिरोध करती है तो उसके स्वर से अमृतवर्षा की चाह रखना भी एक तरह का आदर्शवाद होगा या फिर समाज से कटा उदाहरण होगा। यही मंटो के पात्र है जो बोल देते है फिर चाहें जितनी पंचायत करें आप।

मंटो ने उस स्त्री के दर्द को भी बयां किया है जो विभाजन में गोश्त की तरह बाँट दी गई ,हम बस बात कर सकते है पर उस स्त्री की पीड़ा नहीं समझ सकते जो दस दिन पाकिस्तान में और दस दिन हिन्दुस्तान में आजी,खाला,मां बनी,महबूबा बनी, फिर रखैल बनीं, बाद में उसे फ़लाने की बहन के रूप में चिन्हित किया गया फिर उन्हें इज्ज़त के नाम पर क़बूल नहीं किया तो मयखाने का जाम बन गई,फिर अपहरण औऱ बलात्कार की फाइल में उनकी सलवार पड़ी रहीं जिसको बार बार खोला गया,आपके लिए विभाजन था मर्दों के लिए औरत की लूट।
मंटो ने ठीक कहा है “मर्द औरत में अदाएं तवायफ़ वाली और वफ़ाए कुत्तों वाली चाहता है।”

मंटो ने गोली /काली सलवार /खोल दो /बादशाही का खत्मा/फूंदने/बिजली पहलवान/ऊपर-नीचें/ चुगद/दो कोमें/धुँआ/दरमियाँ/नंगी आवाजें/बारिश/हतक -अत्यधिक कहानी लिखी है । इन कहानी में आपको नर में नारायण और राक्षस दोनों भाव सम्मिलित मिलेंगे, यही मंटो को जिंदा रखतीं है जहाँ आदर्शवाद को सवालों के कटघरे में खड़ा किया जाता है।यदि आप समाज के मख़ौल को उठाकर सच्चाई देखनें की क्षमता रखते है तो बेहिचक मंटो को पढ़ें समाज केवल प्यारे सम्बन्धो का घोंसला ही नहीं बल्कि इनमें वो लोग भी है जो रोज़ निकल जाते है किसी के गुलिस्तां को बर्बाद करने के लिए।हम सब बहुत ही आवरण में जी रहें हैं।अगर समय रहते हमनें इस आवरण को नहीं हटाया तो सामान्य-सी बात एक दिन अपराध में तब्दील हो सकती है।

“अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ये ज़माना नाक़ाबिल-ए- बर्दास्त है।”
-(सआदत हसन मंटो)

ममता

छात्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय