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समलैंगिकता:चाहत से त्याग तक का सफर: पुनित कुमार

समलैंगिकता:चाहत से त्याग तक का सफर: पुनित कुमार

दिल और दिमाग के मध्य

दिल और दिमाग के बीच ऐसा क्या होता है,जिसके कारण हम ठहर जाते हैं…
क्या यह एक संघर्ष है,या फिर इसे प्रतिद्वंदिता की संज्ञा दी जा सकती है?
काफ़ी मुश्किल हैं, दोनों के मध्य किसी एक को चुनना,
क्या दोनों सौदा नहीं कर सकते?
दोनों में शक्ति या दबाव किसका आधिक होता है?

निरंतर यह सवाल लोगो को परेशान करते रहते है, कभी कभी तो मेरे दिमाग को भी जरूरत से ज्यादा सोचने पर मजबूर करता है कि क्या सही , क्या गलत? कौन सा रास्ता चुने?
एक रास्ता है जो समाज के प्राचीन ढाँचे से निर्मित है,जो समाज के लिए आदर्श है,दूसरा वह है जिसमें हमें खुशी मिलेगी।लेकिन खुशियों की ‘कीमत’ बड़ी चुकानी पड़ेगी।
इस रास्ते में अपनी इच्छाओं के लिए अपने परिवार,दोस्त, समाज सबसे बैर करना पड़ता है।और सबसे पहले अपने
वर्तमान अस्तित्व को खोने का भय होता है। सच में इतना भी आसान नहीं होता खुद को समलैंगिकता के ढाँचे में रखना…

निरंतर दिल में भावनाओं का सैलाब आता रहता है,जिसमें ओत-प्रोत होने का मन करता है,परंतु उस समय समाज के द्वारा बनाया गया बांध इतना मज़बूत होता है कि भावना को एक लंबे अरसे तक रोकने में कामयाब रहता है।

इन सब के बीच, सवाल यह है कि समाज तो खुश है लेकिन क्या वह व्यक्ति खुश है,संतुष्ट है अपने जीवन से? संतुष्टि तो बहुत दूर है।वो तो अब कुंठित भाव से ग्रसित हो जाता है, सब के साथ होने के बाद भी वो अकेला महसूस करता है,देखने में खुश और निरंतर अपनी भावना से लड़ता रहता है।बीतते समय के साथ वो खुद को दोषी भी मानने लगता है।हालात इस कदर रहता है कि वो समाज के लिए अपनी खुशी से समझौता करने को तैयार हो जाता है।

अन्य लोगो को स्वतंत्र रूप से प्रेम करते देख उसका मन भी सोचता है की मैं क्यों नहीं कर सकता?उसको भी अधिकार है प्रेम का।उसी वक़्त मस्तिष्क से एक आवाज आती है? क्या मै तैयार हूं?सबका सामना करने के लिए,परिवार , दोस्त और समाज के बीच सम्मान का स्थान प्राप्त कर सकेगा,या बस मज़ाक,खिल्ली बन कर रह जाएगा…

निर्णय यह आता है कि गलत है,मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है।परिवार पर कलंक लगेगा।मैं हँसी का पात्र बनूँगा…
बस यही सोचकर वो रुक जाता है,और फिर सोचते-सोचते उसका दिल गुमशुदा होने लगता है।और यह गुमसुम रहना धीरे-धीरे अकेलेपन की ओर ले जाता है।अकेला भौतिक जगत से नहीं,केवल मन से,खुद से लागातार पूछते रहना क्यों गलत है,या इस भावना का वक्त के साथ अंत हो जाएगा…

दिमाग का जब तक दबाव रहता है वह समाज के नियम का पालन करता है कोशिश के बाद भी दोनों बहनों को बचाना सफल नहीं हो पाता अब निर्णय तो उसे करना ही होता है कि समाज को जिताना है या अपने भावना को…
समाजिक बंदिशें कैसे तय कर सकते हैं कि कोई सही है या गलत?

समलैंगिकता की बात होती है तो चरित्र को तो घसीट कर लाया जाता है।खैर लोगों से इससे अधिक अपेक्षा करना भी ठीक नहीं होगा।उसको अपमानित करना हीनता भाव से देखना गालियों से इज्जत देना इतना अन्याय पूर्ण व्यवहार किया जाता है कि जीवित मन खुद ही दफ़न हो जाता है।

क्या चरित्र का सम्बन्ध ‘यौनिकता’ से है?सेक्स पर आधारित होता है? कौन देगा इस प्रश्न का जवाब किस से पूछना चाहिए इतने क्रूर समाज में खुद को बचाना अपने ख्वाबों को संजोना नामुमकिन सा लगता है उम्मीद है किसी पर इसका प्रभाव होगा तो शायद कुछ जिंदगियां बच जाए जीते जी ‘मरने’ से।

पुनित कुमार

छात्र, दयाल सिंह कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय