निबंध : NET/JRF

उठ जाग मुसाफिर (निबंध) : विवेकी राय

उठ जाग मुसाफिर (निबंध) : विवेकी राय

वहाँ जाते समय कल्पना कर रहा था कि सदा की भाँति तन-मन से पूर्ण स्वस्थ होंगे, पूर्ववत धधाकर सहास मिलेंगे, सदाबहार से दिखेंगे, फुल्ल कुसमित। ऐसी संक्रामक निरोगता कि प्रतिमूर्ति के चाहक-ग्राहक कम नहीं होते। सो घिरे होंगे गाँव के या इधर-उधर के प्रबुद्ध लोगों से। कुछ ले लो इस अंतिम आदमी से। क्या लोगे भाई? कहाँ टिक रहे हैं इनके गुरु गंभीर जीवनानुभव या चिंतन-निष्कर्ष तुम्हारी फटी झोली में? अच्छा, चलो मनोरंजन ही सही। पिछली बार गया तो एक सवाल खड़ा मिला, आपने इतना बड़ा पुस्तकालय गाँव में खड़ा तो कर दिया पर कोई पुस्तक पढ़नेवाला नहीं रहा तो उसका क्या होगा?

प्रश्न सुनकर मास्टर साहब अथार्त् जगदीश बाबू का चीरपरिचित मुक्तहास बिखर गया और आधा उत्तर तो प्रश्नकर्ताओं जैसे इसी में मिल गया कि यहाँ भी कोई प्रश्न है? और यदि है तो इसे स्वयं से पूछो। शेष आधे उत्तर के रुप में पूरे आत्मविश्वास के साथ एक प्रश्न ही उन्होंने उछाल दिया, ‘अरे भाई, रात होती है, अँधेरा होता है तो तुम चाहो या ना चाहो, प्रभात का प्रकाश स्वयंमेव उतर आता है कि नहीं? और फिर वही मुक्त मृदुमंद हास! और तब ऐसा लगा

था जैसे दिनकर की कविता-पंक्तियाँ आकर खड़ी हो मास्टर साहब के पक्ष में गवाही दे रही हैं, ‘जवानी की आँखों में ज्वाला होती है, बुढापे की आँखों में प्रकाश होता है!’  और यही कारण है कि-

जवानी संचय होती है

बुढापा दान होता है

जवानी सुन्दर होती है

बुढ़ापा महान होता है।

लो गाँववालों, बहुत लगन के साथ जवानी में संचित किया यह विशाल पुस्तकालय आयु के पंचानबे पड़ाव पर तुम्हें सौंप रहा हूँ। सँभालो अपनी थाती। और तब वे क्या सचमुच महान् नहीं हो जाते?

लेकिन इस महानता की कल्पना को तब गहरा धक्का लगा जब उन्हें बेहाल हीन स्थिति में देखा।

‘जरा तुषारभिहंता शरीर सरोजिनी?’ पूरा श्लोक मुँह से कढ़ते-कढ़ते रह गया। नहीं, अभी प्राण-भ्रमर उसे छोड़ कहीं जानेवाला नहीं। मात्र निश्चेष्ट उतान पड़े सोए हैं। चौकी पर बिस्तर नहीं। अधोवस्त्र के रूप में मात्र खादी का अंडर विअर है और खादी का ही एक पुराना गमछा ओढ़े-जैसे हैं। वस्त्र दोनों साफ़-सुथरे नहीं। फिर एक धक्का लगा। खादी के चमाचम धवल धुले वस्रों के लिए वे एक प्रतिमान समझे जाते हैं। उत्तराभिमुख बैठकखाने के आगे लता-पत्रादि से घिरे पूरे प्रांगण को घेरकर जो एक अरगनी है वह बराबर आँखों पर चढ़ने वाले कपड़ों, धुलने के बाद सूखने के लिए डाले गए वस्त्रों, धोती, कुरता, बंडी चादर और गमछा आदि से सज्जित मिलती। यह उनकी एक विशिष्ट पहचान रही। आगंतुक उन्हें देखकर अनुमान कर लेता, वे मौजूद हैं।….तो, मौजूद तो वे आज भी हैं पर यह कैसी बीमार बेपहचान मौजूदगी? कोई व्यक्ति पास नहीं है तो क्या मान ले कि-

‘बूढों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें?

लेकिन न आती मौत तो बूढ़े भी क्या करे?

लेकिन, स्थिति ऐसी नहीं थी। वहाँ न तो सेवा करनेवालों का अभाव था और न ही मौत का इन्तजार था। मात्र वे बीमार थे। कभी बीमार न पड़नेवाला आदमी बीमार था। यही कारण था कि ‘आश्रम एक सुहावन पावन’ जैसा वह आवास उदास था। उधर मैं अपने सोच में डूबा था, उधर कई लोग वहाँ पहुँचकर उन्हें जगाने लगे थे, “बाबा, बाबा, यह देखिए, आप से मिलने कौन आए हैं?”

आँखें खोलकर मेरी ओर देखते उन्होंने कहा, ‘शरदचंद्र जी! बैठ जाइए।’ अथार्त वे मुझे पहचान नहीं सके। शरदचंद्र उनके विद्यालय के प्राचार्य का नाम था। बहुत कड़वा सत्य था। भीतर बेचैनी होने लगी। सामने वे ही तो हैं पर यह कौन बोल रहा है? कितना क्रूर, कठोर और दुर्दम है समय के हाथों इस प्रकार झटक दिया जाना! उनके स्वजन ने कान के पास मुँह कर जोर से जब मेरा नाम बताया तो जैसे तरंगित हो गए, सोए-सोए सुपरिचित खुले हुए ऊँचे स्वर में बोले, क्षमा, बारंबार क्षमा,…..हजार बार, क्षमा….. बैठिए…. बैठिए शरीर है न…..ठीक हो जाता है तो पिछली बार की तरह बनारस चला जाएगा।….आप कहेंगे तो आगे इलाहबाद या फिर दिल्ली तक चले चलेंगे।….अरे, आपको चाय पिलाओ, भाई…. भोजन का भी वक्त है….फिर न हो तो आज पुस्तकालय के लिए एक बैठक भी कर लेंगे। बोलते-बोलते एकदम चुप हो गए। लगा कि बोलने में कठिनाई हो रही है। खुले हुए ऊँचे निरोग जैसे स्वर की ठनक तो वही थी पर उसका आत्मविश्वास से पूर्ण पहले जैसा स्वाभाविक ताप नहीं था। और ठंडापन छिप नहीं रहा था। सामनेवाला चकितकारी सत्य बहुत आहत कर रहा था। एक साल के भीतर ही यह क्या हुआ? क्या सचमुच बुढ़ापा अचानक धमककर चकित कर देता है कि अरे, यह क्या हुआ? राष्ट्रीय स्तर के एक विद्यामंदिर के इस तेजस्वी शिक्षक, गाँधीवादी चिंतन और जीवन शैली में आजीवन रसे-बसे सदाबहार, स्वस्थ्य के लिए प्रसिद्ध ग्राम मनीषी तथा सुरुचिपूर्ण सुवेश में सदा साहस मिलनेवाले इस समाजसेवी को ऐसे बेहाल कैसे देख रहा हूँ?  

…लेकीन बेहाल कैसे? संभवतः यह नियति और जिजीविषा का संघर्ष है। अभी यात्राएँ करनी है। पुस्तकालय के भविष्य को सँवारना है। इस बुद्धिजीवी के भीतर कोई कवींद्र दीपित दीख रहा है, ‘मरिते चाहि ना आमि सुंदर भुवने/ मानवेर माझे आमि बाँचिकरे, चाइ….पर विश्व जगतेर माझ खने दाँड़ाइया/ बाजाइबि सौंदर्येर बाँशि।’ मकान जर्जर होने से क्या? मकान मालिक जवान है। वह इस सुंदर संसार को और सुंदर बनाने के लिए जिएगा। यहाँ खड़े होकर बंशी बजाएगा। हाय रोग, हाय दैया करे उसकी बलाय। नहीं, वह रोएगा-धोएगा नहीं पड़ा रहेगा शांत, मौन। कोई शिकवा-शिकायत नहीं। अपने प्रिय कवि कबीर साहब की तरह ‘बेहद के मैदान’ में सोया है। कुछ ‘निरंतर’ हो रहा है। क्या हो रहा है? शायद सुमिरन-भजन? आश्चर्य ?

इधर मैं उनके एक स्वजन से उनकी अप्रत्याशित अवस्था के विषय में जानकारी ले रहा था और उधर अपनी मौज में- जैसे मुझे सुना रहे हैं, उसी अमंद स्वर में, अर्धमूँदी आँखों में, बोलते जा रहे हैं, ‘रामनाम लड्डू, गोपाल नाम घीव….हरि का नाम मिश्री, और घोर-घोर पीव’ ‘झूठे सुख को सुख कहत मानत हैं मन मोद, जगत चबेना काल को’….चहककर ‘अन्तकाल तुम सुमिरन गति’ और फिर चहककर कुछ मौज में-

‘माता बिन आदर कौन करे?

बरखा बिन सागर कौन भरे?

राम बिन दुःख कौन हरे?’

तराने पर विराम लगा तो मैं सामने हाथ जोड़कर खड़ा हुआ, ‘अब चलने की आज्ञा दीजिए।’

‘अच्छा!… अगली बार जल्दी आइए तो अपने साहित्यिक पुस्तकालय पर चौबीस घंटे का हरिकीर्तन कराया जाए।

वही मुद्रा, वही अधमुंदी आँखें, वही निर्भाव में चौकी पर लेटे-लेटे बोलना, जैसे किसी और से नहीं, स्वयं से बोल रहे हैं, आत्मलीन, आत्म संबोधन!

अब मैं बहुत हैरान हूँ। इस ‘रामनाम लड्डू’ सुमिरन भजन, हरिकीर्तन और ‘राम बिना दुःख कौन हरे’ वाली धार्मिक लाइन पर कभी उन्हें इस प्रार्थी भाव में देखा नहीं! फिर दुःख हरने में माता की सनातन भूमि का स्मरण? उनके जीवन और चिंतन शैली को देखते, ये बातें बेमेल पड़ गले से उतर नहीं रही हैं। तो क्या मान ले कि यहाँ ‘हारे को हरि नाम’ वाली स्थिति हैं? मगर हारे कहाँ है। अभी तो मन जवान है, लड़ रहा है, पुस्तकालय की मीटिंग कर रहा है। यात्राएँ कर रहा है! मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। तो, यहाँ जीत ही जीत है, अंत भला तो सब भला। यात्रा के इस पड़ाव की यह श्रेष्ठतम स्थिति है कि आधि-व्याधि सहित मौत को पछाड़कर आदमी अपनी मौज में दहाड़ता रहे। नहीं, यहाँ पराजय का अस्तित्व नहीं है। कहाँ किसी अपनी बिमारी या किसी डॉक्टर या स्वजन की चर्चा हो रही है? चर्चा है ‘गोपाल नाम घीव’ की। अथार्त अगले पड़ाव पर चलते-चलते में घी खाकर तगड़े बन जाएँ। यही आदर्श वीरता है।

यह एक ‘निराला’ संदर्भ है। सत्य है कि ‘रेत सा तन ढह गया है।’ मगर किसका? वह जो एक कल्पित नाम रूप है, क्या उसका, जिसके लिए वह ‘मैं’ का प्रयोग करता हैं? नहीं, ‘मैं अलक्षित हूँ यही कवि कह गया है।’ वह अलक्षित है। यह जो दिखाई पड़ रहा है, जो अगणित बंधनों में जकड़ा है वह नहीं है। गुण और संस्कार ही नहीं, अपना यह ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व, कल्पित संबंध और अर्जित ज्ञान भी महामारक बंधन है! तो अब यह परम पुरुषार्थ देखो, यह निर्बंध असंग पुरुष इस बंधे हुए पुल से गुजर जाने के लिए उद्दत है। यही कारण है कि जीवन भर गाँधी, अरविंद, राधाकृष्णन और कबीर आदि से लेकर दिनकर, पंत, प्रसाद, प्रेमचंद और हजारीप्रसाद आदि को पढ़नेवाला अब स्वयं को पढ़ रहा है-

‘अपना दीप अपने आप अपना जिआ अपना वेद

  अपने अनुभव की राशि विपुल पुराण।’

तो, क्या ‘माता बिन आदर कौन करे?’ उसी का एक महत्वपूर्ण पाठ? अवश्य, बहुत ही महत्वपूर्ण पाठ है। जीवन-यात्रा से थका प्रत्येक यात्री विश्राम चाहता है। उसे माता की परम पावन गोद का आश्रय चाहिए। उसके अन्दर में निर्द्वंद्व विश्राम है और वह निर्विघ्न आश्रय है। उसके आदर में ही विश्राम की और आश्रय की स्थिति है। इसीलिए जीवन की बीहड़ बेला में उसे स्मरण करते हैं। क्रूर कठिन संसार द्वारा झटक दिए जाने पर जब धुँधलके-धुंध में किसी अवांछित हाशिए पर पहुँच गए तो और किसे याद करें? उस आदर का स्मरण मात्र एक दु:खहरण सहलाव है, सांत्वना का बल है, एक रोमांच है, अहोभाव है और हर्षित विराम है। किसी कवि की पंक्तियाँ उमड़ रही हैं-

‘माँ चंदन की गंध है, माँ रेशम का तार,

बंधा हुआ जिस तार में, सारा ही घर द्वार।

यहाँ वहाँ, सारा जहाँ, नापें अपना पाँव,

माँ के आँचल सी नहीं, और कहीं भी छाँव।’

थके, यात्री को अब ठहराव चाहिए, विश्राम चाहिए, माँ की आँचल की छाँव चाहिए। माता बिन आदर कौन करे?

कुल मिलाकर यह निज घर वापस लौटने की लालसा है। पर घर की आपाधापी से, श्रम से छुट्टी मिले। ‘सर्वोहि आत्मगृहे राजा।’ स्वस्थ रहे तो सानंद रहें। जो देखा, जो सुना और जो सोचा-समझा और कुल मिलाकर जो जिया वह सब ‘मोह मूल परमारथ नाहीं।’ और ‘मोह सकल ब्याधिन कर मूला।’ इन्हीं  सारी-सारी ब्याधियों से ग्रस्त ‘दुखिया सब संसार है।’ उलटबाँसी में जीती है। लोगों ने कहा मास्टर साहब ‘बीमार’ हैं। बीमार अथार्त रोगग्रस्त अस्वस्थ। अभी कुछ माह पूर्व तक आँख, कान, दिल-दिमाग, चलना-फिरना, हँसना-बोलना, खाना-पीना और व्यावहारिक जीवन जीना दुरुस्त था तो समझ लिया तंदुरुस्त हैं। वह तन अब दुरुस्त नहीं है, उसके अंग काम नहीं करते हैं। कोई भी व्यक्ति तन नहीं है। वह उसके भीतर, उसका संचालक-नियामक बनकर बैठा है। उसी में स्थित होना, अपने स्व के साथ होना स्वस्थ होना है। जो स्वस्थ होगा वही शांत होगा, ‘निर्माण मोहा’ होगा, निर्द्वंद्व-निश्चेष्ट होगा, बेपहचान होगा और वही बोल सकेगा, ‘माता बिन आदर कौन करे?’ भव-रोग-रोगी माता का नहीं, रोग का, दावा का, डॉक्टर का, अस्पताल का राग अलापता विक्षिप्त रहेगा। कहाँ ऐसी मौज नसीब होगी कि रामनाम लड्डू बाँटे।

तो, मास्टर साहब स्व में स्थित हैं। बाँट रहे हैं, लो दुनिया के लोगों, लड्डू लो, घी-मिश्री लो और फिर परमलाभ के लिए राम का नाम लो। राम बिना दुःख कौन हरे? और मेरे लिए माता का प्यार अलम है। जीवन भर कबीर को पढ़नेवाला अब कबीर को जिएगा। जीवन की यही वरेण्य स्थिति है। जब चाहे चली गई तो फिर चिंता कहाँ टिकेगी और फिर तो ‘मनुवा बेपरवाह!’ क्या मस्ती, “जिसको कछू न चाहिए वह साहन का साहा!” शांहशाह पर संसार की निगाह नहीं पड़ती। वह देखती है, यह शरीर है, बीमार है, अब अधिक नहीं चलेगा। मगर वह रुकता कहाँ है? यह जो है सब नई यात्रा की प्रस्थान प्रक्रिया है। यह ‘वासांसिजीर्णानि’ को त्यागने और ‘नवानि गृह्णाति’ के मध्य का सचल परिदृश्य है। परम पावन है। ‘मृत्यु रे, तुहु मम श्याम सामान!’ रवि बाबू का श्याम ही मास्टर साहब की माता है। तुम्हीं हो माता तुम्हीं पिता हो, अब तुम्हारा प्यार ही वांछित है। संसार पीछे छुट गया। अब कैसा बंधन?

स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में लोग एक गीत गाया करते थे- ‘हम दीवानों की क्या हस्ती, है आज यहाँ कल वहाँ रहे, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले।’ और अब लगता है, उसी गीत की अंतिम पंक्तियों को ये जी रहे हैं-

अब अपना और पराया क्या?

आबाद रहे जीने वाले।

हम स्वयं बंधे थे और स्वयं ही,

सारा बंधन तोड़ चले।

कहाँ चले? माता का प्यार पाने के लिए उनकी गोद में? मगर वह तो बहुत-बहुत पीछे छूट गई। जन्मदात्री माँ की गोद अब असंभव। संभव है उनकी भारतमाता की गोद, प्रकृति माता की गोद। अरे, हम भारतवाशी कितने सौभाग्यशाली हैं और हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है कि आदर, प्यार और दुलार साहित जीवनदात्री हमारी माताओं की विस्तृत सूची है। गंगा, गीता, गायत्री और धरती सहित अनेक देवी-देवताओं की अधिक पवित्र संज्ञाएँ ‘माता’ शब्द से जुड़ती हैं। जन्मदात्री भौतिक माता से कुछ अधिक ही भावात्मक संबंधोंवाली माताओं के स्मरण में रोमांच देखते हैं। भौतिक जीवन की माता कुमाता भी हो जाती हैं। (इस बीसवीं, इक्कीसवीं शताब्दी का आधुनिक दौर इस संदर्भ में बहुत कुख्यात हुआ) परंतु भावात्मक संबंधवाली माताओं का स्नेह-कोष सुपुत्रों के लिए कभी रिक्त नहीं होता। उनका आदर, अवदान और आशीर्वाद बहुत ही शक्तिशाली होता है, साथ ही अकृत्रिम, सहज और निःस्वार्थ! भारतमाता के प्रति भक्ति, समर्पण और सेवा-भाव की तरंगों ने एक तिरंगा इतिहास रच दिया, लिखा, सुना नहीं, वह सब आँखों देखा सच है। समस्त भूगोल, इतिहास और पुराण से जुड़ी माताएँ जन्मदात्री माँ सहित एक भारतमाता के भावों में तब समाहित हो गई थीं। वंदे मातरम्! क्या पता, मास्टर साहब उसी माता की सुधि में अलख जगा रहे हों! माता बिन आदर कौन करे?

हाँ, मैं साक्षी हूँ। मास्टर साहब के जीवन का प्रभात और पूर्वाह्न का जीवन ‘विजयी विश्व तिरंगा’ और ‘भारतमाता जननि हमारी, उसको शीश झुकाएँगे’ जैसे गीतों की गुँजार में रमा था। सबसे पहले पहल उन्हें एक प्रभातफेरी में देखा था। उनके गाँव पर एक बरात में गया था। गरमी का दिन था। वह सारा गाँव आजादी के दीवानों का गाँव है। सुबह लगभग चार बजे समवेत स्वरों की आकर्षक गीत-ध्वनि मेरी मीठी नींद से टकराने लगी। उठकर देखा, एक जुलूस है और वह गाँव की गलियों में घूमते हुए सड़क पर निकल रहा है। हाथों में चक्रांकित तिरंगा झंडा लिये दो कतारों में पंद्रह-बीस लोग हैं। लोगों ने बताया, आगे-आगे जो दो व्यक्ति हैं, कुछ बड़े-बड़े झंडे लिये, एक युवा और एक प्रौढ़ व्यक्ति हैं। उनको लोग संत जी कहते हैं और जो युवक है, कॉलेज में पढता है, उसका नाम जगदीश है। तो, यह था प्रथम दर्शन। परिचय बाद में पुस्तकालय के माध्यम से हुआ। मुझे स्मरण है, उस दिन प्रभातफेरी में लोग गा रहे थे ‘उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है!’

वास्तव में यह ‘उठ जाग’ वाला तथा ‘उत्तिष्ठित जाग्रत’ के प्राक् ऋषि-आह्वान को नए संदर्भों में ध्वनित करनेवाला गीत मास्टर साहब का प्रिय गीत है। अनेक बार इसे उनके मुँह से सूना है। क्या पता जीवन की चढ़ती अवधि का यह राष्ट्रजागरण गीत इस जीवन की उतरी संध्या बेला में आत्मजागरण की कोई मनोवैज्ञानिक लहर बनकर कंठ स्वर में फुट पड़ी हो! माता-बिन आदर कौन करे? जन्मदात्री माँ की ममता भारतमाता में स्थानांतरित-रूपांतरित हो गई हो। ऐसे भाव-रूपांतर स्वाभाविक हैं। उस सेनानी पीढ़ी की भारतमाता के प्रति, स्वाधीनता और नवजागरण के प्रति समर्पित तथा गहरी संशक्ति समय का एक ज्वलंत सत्य हैं।    

आत्म जागरण बनाम राष्ट्र जागरण। गीत की प्रथम कड़ी का भाव प्रवाह दोनों ओर हैं-

उठ जाग मुसाफिर भोर भई,

अब रैन कहाँ सो सोवत है।

जो सोवत है सो खोवत है,

जो जागत है सो पावत है।

किंतु आगे की पंक्तियों की राष्ट्रीय अर्थ में नई व्याख्या की जाती थी। मास्टर साहब कहते गीत में रब का, प्रभु का ध्यान करने की बात कही गई है। हमारा ‘रब’ ‘भारतमाता’ है! हम उसी का ध्यान करते हैं। रही बात ‘पाप’ की तो हम वासियों ने अपनी फुटमत का, गाफिल होने तथा सोए रहने का पाप किया जिसकी करनी भुगत रहे हैं, पराधीन बने हैं। भारतमाता वंदिनी है। और अगली पंक्तियों में जागने, एकजुट होने और कुछ करने का आह्वान है और अंत में कहा गया-

‘जब खेती चिड़ियाँ चुग डारी

फिर पछताए क्या होवत है।’

तो, इस जागरूकता मंत्र ‘उठो जागों’ का राष्ट्र व्यापी मंत्र प्रभात बेला में स्पंदित है। मूल समस्या सो जाने की है इसलिए जागने के बहुआयामी यत्न चल रहे है। कोई भारतमाता का ‘भगत’ भी है और ‘सिह’ भी है तो वह क्या करता हैं। ‘जवानों को जगाने के लिए कौंसिल में बम फेंका’ और फिर फाँसी पर चढ़ने जा रहा है तो भारत माता से विदा माँगता है, बहुत लोकप्रिय गीत था, बिदा कर दो मुझे माता…..! एक निराला कवि है जो इस बात पर तड़प रहा है कि ‘सिहों की ‘माँद’ में आया है आज स्यार’, और फिर वही ‘जागों नगपति, जागों विशाल!’ कोई छायावादी कवि प्रसाद रूप में नवजागरण मंत्र फूँक रहा है, ‘बीती विभावरी जाग रे।’ ‘शुरुआत भारतेंदु ने की, ‘डूबत भारत नाथ बेगि अब जागो।’ उन्होंने परमात्मा को ही पुकार दिया। पुकार सुनि गई। वह परमात्मा आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित होकर और गाँव के किसानों में नवजागरण का अदम्य ज्वार बन उमड़ रहा हैं, जागे हैं, जगा रहे हैं, ‘उठ जाग मुसाफिर….! प्रभात फेरी की यहाँ श्रृंखला, गीत-गुंजार से पहुँचती है, आत्म बलिदान की मंजिल तक,

‘वंदनी माँ को न भूलो, राग में अब मत्त झूलो,    

हों जहाँ बलि शीश अगणित, एक सिर मेरा मिला लो।’

वंदनी भारतमाता स्वतंत्र हुई, परंतु उस त्यागी-बलिदानी और आजादी की दीवानी पीढ़ी-पुत्रों के सपने कहाँ पूर्ण हुए। अब तो भारत माता का नाम लेना भी गुनाह जैसा! उसका नाम का सारा रोमांच वोट तंत्र के बुलडोजर में चंपकर चूर-चूर हो गया। समर्पितों में से कुछ कुंठित हो मर-खप गए, कुछ पथभ्रष्ट हुए ऐसे कि देश को काँटों से बचाते-बचाते फूलों की मालाओं में डूब गए। कुरसी-कमाई, पार्टी-प्रोपर्टी और लोकतंत्र बनाम धनबल तंत्र-बाहुबल तंत्र वाले अंधे युग के भ्रष्टाचार भक्त गा-बजाकर नाच रहे हैं, ‘अब हौं नाच्यौ बहुत गोपाल।’ चोर माचवे शोर! तब मास्टर जैसा व्यक्ति अब क्या बोले? किस सोए देश को जगाए? अब मान ले, पुस्तकालय उसका भारत है। अँधेरी रात के बाद प्रकाश को आना ही है। तब ? घर लौटे, माता बाट देख रही है। माता बिन आदर कौन करे!

‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्या:’ एक शब्द जोड़कर उसे एक उच्चासन प्रदान करे, मातृभूमि!

जन्म दिया माता सा जिसने, किया सदा लालन-पालन

जिसकी मिट्टी जल से ही है, रचा गया हम सबका तन।

पं. मन्नन द्विवेदी गजपुरी की इस कविता में मातृभूमि  अवदानों को, लता द्रुमादि सहित रक्षाकारी उपादानों की ओर संकेत के बाद कवि एक मार्मिक बात कहता है कि माता की गोद तो केवल बचपन में मिलती है, परंतु मातृभूमि तो मृत्युपर्यंत अपना स्नेह लुटाती है और मृत्यु के बाद अशरण-शरण बन अपने में मिला लेती है! अंत में कवि कहता है-

“ऐसी मातृभूमि मेरी है, स्वर्ग से भी प्यारी।

जिसके पद कमलों पर मेरा, तन, मन, धन सब बलिहारी॥”

यह है माता, मातृभूमि, जन्मभूमि, स्वर्गलोक से भी प्यारी,

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, एक जगा हुआ व्यक्ति इसके लिए तड़प रहा है। इस तड़पन में गीता के ऊँचे ज्ञान की गूँज है। यह भूमि (अष्टभेदी प्रकृति में प्रमुख) ही माता है और पुरुष में परमात्मा पिता है। और न कोई माता है और न कोई पिता। वे तो निमित्त मात्र हैं। इसी माता, भूमि, मातृभूमि और सबका भाव जिसके सपनों में डूबा मुसाफिर पूरे देश को जगाता है। माता बिन आदर कौन करे, एक धन्यता का भाव है एक भावभीनी जननी जन्मभूमि की प्रार्थना है, एक मंत्र है, सुमिरन भजन और कीर्तन है, जीवन साधना का सार है, ‘बुद्धिविकुण्ठा नाथ समाप्ताममयुक्तय:, अब आश्रय नहीं तुम्हारा परमाश्रय चाहिए। संसार का आश्रय हार है और परमाश्रय जीवन की जीत है। बस, अब शरण दो माता! एक मर्मस्पर्शी पुकार है। अंतिम परीक्षा की घड़ी में वाल्मीकि की सीताजी ने भी पुकारा था- ‘माधवी देवी विवंर दातुमर्हति’ पृथ्वी माता मुझे अपनी गोद में स्थान दें। माता का आदर मिला। वे उतीर्ण हुईं।

अंत में बता दूँ, उस दिन मास्टर साहब को एक विजेता की स्थिति में देखा। देह-गेह अलीक माया की तरंगे नहीं थीं। स्वयं दु:खी न होना और न दूसरों को दु:खी करना बड़ी बात है। ऐसी विजेता की स्थिति अंत के दिनों में उसी भाग्यवान को प्राप्त होती है जो जीवन में कभी हार नहीं मानता और सर्वजन हिताय उद्देश्य निष्ठ आदर्श जीवन जीता है। यह अन्तकाल बीहड़ कसौटी है। बड़े-बड़े ज्ञानी ध्यानी और जग-सेवी यहाँ आकर टूट जाते हैं। शायद जीवन में बाहर कुछ और रहा और भीतर कुछ और। जब बाहर का संसार बेहाल हुआ तब वह सब जो रहा भीतर बकवासी प्रपंच सूप में उछल आया, विचारों का बुहारन, कूड़ा-करकट। कुसमय की साफ़ सुथरी, सात्विक और सुवासित अभिव्यक्तियाँ व्यक्ति के जीवनव्यापी ऊँचे सोच और उत्कृष्ट चिंतनाभ्यास की फलश्रुति होती हैं। ऐसे जीवन-संबल वाला व्यक्ति राग रहित हो, तो मुक्त हास बिखेर सकता है। जिसको दुनिया डूबता सूरज की साँझ कहती है वह उसका प्रभात होता है। उस प्रभात-शिखर से वह आवाज देता है, उठ जाग मिसाफिर….! और फिर मुक्त हस्त ‘रामनाम का लड्डू’ बाँट मातृस्तवन में खो जाता है, ‘माता बिन आदर कौन करे?’

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