कृष्ण भारत के पूर्वी हिस्से को पश्चिम से जोड़ने वाले कालजयी महापुरुष हैं। वे अपने बड़े भाई हलधर के साथ गोपाल रूप में भारतीयता को सुदृढ़ करते हैं।
भारत की रीढ़ कृषि और ऋषि हैं। गोपाल रूप में वे कृषि जीवन की बेहतरी के लिए समर्पित है। समर्पण का भाव इतना कि लोग इन्हें गोवर्धन बुलाने लगे। कुरुक्षेत्र में धर्म की स्थापना के लिए केशव अर्जुन को जागृत करते है तब उन्हें एक मंत्रद्रष्टा, एक ऋषि के रूप में हम पाते है।
अर्जुन को जागृत करने के लिए किया गया संबोधन देश जागरण का मंत्र बन गया। शंकराचार्य ने गीता के अध्यात्म तत्त्व को उभारकर तत्कालीन परिस्थिति में भारत को एक सूत्र में बाँधा वहीं जब देश पराधीनता की रस्सी की जकड़न में होने के साथ साथ मानसिक रूप से भी पंगु बनाया जा रहा था तब विवेकानंद, तिलक , गांधी और श्री अरविंद ने गीता के माध्यम से ही देश को जागृत, उद्बोधित और स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया।
कृष्ण मुझे आत्मसंयम के मूर्त रूप जान पड़ते हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में वो पत्तल उठाने का काम करते है। यह काम सहज तो है पर सरल नहीं। आज हम सभी जो ख़ुद को ‘अन्य’ बनाकर यह सोचते है कि सामने वाला हमारे बारे में क्या सोचेगा ; कृष्णा इस मानसिकता से दूर रहने का संदेश आज के नेताओं, बाबाओं की तरह केवल वचन से नहीं वरन् अपने कर्म से भी देते हैं। शिशुपाल की सौ गलतियों के बाद भरी सभा में ही दंड देना इस बात का संकेत है कि काम उचित अवसर में ही ऐसे करना की कोई उँगली न उठा पाए और सब तक संदेश भी पहुँच जाए।
कृष्ण सबके है पर किसी के नहीं हैं। गोपियों को छोड़ कर गए तो वापस लौट के कभी नहीं आए लेकिन अपनी छाप ऐसी छोड़ के गए कि उद्धव जैसा ज्ञानी भी उन्हें नहीं समझा पाया और ‘सगुण का चेरा’ बनकर गोकुल से मथुरा लौटा।
कृष्ण सभी कलाओं से परिपूर्ण है लेकिन मुझे लगता है कि कृष्णा को स्पर्श करके ही सभी कलाएँ पूर्णता को प्राप्त करती हैं। प्रेमी, मित्र , ज्ञानी, राजनीतिज्ञ, योध्दा सब में कृष्ण अग्रगण्य है। ऐसे पूर्णपुरुष को चंडीदास, जयदेव, विद्यापति सूर और मीरा ने अपनी भक्ति विवेक व कृष्ण के प्रति जैसी उनकी प्रीत थी उस रूप में याद किया है।आज के समय जब मजहबी विरोध चरम पर हैं। तब रसखान याद आते हैं जो मानुष होकर गोकुल के गाँव में बसना चाहते है-
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥
नज़ीर अकबराबादी याद आते हैं जो किशन कन्हैया का बालपन वर्णन ऐसे करते हैं मानों आगरा से गोकुल जाकर कृष्ण के साथ खुद को महसूस करते हो। देखिए उनका एक पद जिसमें उन्होंने माखन चोरी के दृश्य को प्रस्तुत किया है
थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा॥
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥
कवयित्री ‘ताज’ याद आती है जो कृष्ण के प्रति अपनी दीवानगी को डंके की चोट में स्वीकार करती है
सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी ,तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं /
देव पूजा ठानों में निवाज हूं भुलानी तजे कलमा कुरान साडे गुगन गहूंगी मैं।/
स्यामला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये /तेरे नेह दाग में निदाग हो दहूंगी मैं।/
नंद के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै, हूं तो मुगलानी हिंदूआनी ह्वे रहूंगी मैं”
कृष्ण के रास रचैया और मुरली बजैया रूप से अलग दिनकर ने कृष्ण के विस्तार स्वरूप का वर्णन किया है। जो शांति के लिए याचना करते है लेकिन रण से भी पीछे नहीं हटते। दुर्योधन को चेतावनी के स्वर में कहते है
याचना नहीं अब रण होगा
कृष्ण के जीवन में आदर्श महत्वपूर्ण है लेकिन वो यथार्थ को नज़रंदाज़ नहीं करते बल्कि उसमें रम कर अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए तत्परता से प्रयत्नशील होते है। इसी कारण भारत ही नहीं विश्व के विद्वानों, नायकों के नक्षत्रमंडल में कृष्ण को सबसे अलग जगह मिलती है।
गौरव गौतम
छात्र- दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पर्क- 6263610187