भगवान सिंह ने ‘अपने-अपने राम’ नाम से किताब लिखी है इस शीर्षक से यह स्पष्ट है कि भारत के भावनायक राम को ‘जाकि रही भावना जैसी” के अनुरूप ही लोक में देखा, समझा एवं पूजा जाता है। जैसे तुलसी के आराध्य को अपनी ‘भावना’ के अनुरूप लोग मानते है वैसे ही तुलसीदास को भी। तुलसीदास को लेकर अलग -अलग विचारधारा वालों में तो मतैक्य है ही समान विचारधारा के लोगों के मध्य भी है।
कुछ विद्वान आलोचकों के अनुसार तुलसी वर्ण व्यवस्था के समर्थक, नारी निंदक है जिसके लिए वे निम्न कथन को आधार बनाते है
“नारि सुभाव सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।। अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महं मैं मतिमंद अघारी।।। सहज अपावन नारि।।।। नारि हानि विशेष क्षति नाहीं।।। ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।।
वर्णव्यवस्था के समर्थन में
” पूजहि विप्र सकल गुण हीना ।
शुद्र न पूजहु वेद प्रवीणा ।। “
वहीं कुछ विद्वान, आलोचक तुलसी पर लगे इन आरोपों का खंडन करते है और वे निम्न कथन को आधार बनाते हैं-
(नारी संबंधी आरोपों का खंडन)
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।
नारी सिखावन करसि न काना ।।
एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।।
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।।
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी।
कहहिं बिरंचि रची कत नारी।।
(वर्णव्यवस्था सम्बन्धी आरोपों का खंडन)
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।
कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा।
जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
राजघाट सब बिधि सुंदर बर।
मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर॥
इसी तरह की कुछ और पंक्ति चुनकर तुलसी को ‘वंदनीय’ या ‘निंदनीय’ बनाने का कार्य किया जाता है और कुछ इससे भी एक कदम आगे जाकर तुलसी की तुलना कबीर से कर देंगे और एक को प्रगतिशील दूसरे को प्रगतिविरोधी ठहरा देंगे।
उपर्युक्त विवाद के कारण तुलसी की कविता पर बात गौण रूप में ही की व लिखी पढ़ी जाती है ज्यादातर अपने कथ्य के समर्थन के लिए।
केवल विवाद के लिए वाद की पद्धति से अलग डॉ. नंदकिशोर नवल ने अपनी कृति ‘तुलसीदास’ में उनकी कविता को केंद्र में रखकर उन पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। नवल जी इस बात पर विशेष जोर देते है कि ” कविता का विचार क्या, विचारधारा से भी कोई अनिवार्य विरोध नहीं है, लेकिन ये कविता की कसौटी नहीं हो सकते। कविता की कसौटी चित्रण और उसमें पाई जानेवाली नाटकीयता एवं गहराई ही हो सकती है।” इसी कसौटी पर ‘तुलसीदास’ नामक कृति पर कवि को परखा गया हैं। इस कृति में लेखक ने उद्धरण बहुत दिया है “यह जानते हुए भी कि उद्धरणबहुल आलोचना अच्छी नहीं होती”। इसका कारण लेखक का “उद्देश्य नई पीढ़ी को तुलसीदास की ताकत से परिचित कराना हैं।” ताकत से परिचित कराने का कारण ऊपर वर्णित विवाद को तुलसी की कविता की अपेक्षा ज्यादा वरीयता देना रहा है।
नवल जी ने इस किताब में आलोचक से ज्यादा रसज्ञ पाठक के तौर पर कविता की व्याख्या, विश्लेषण और मूल्यांकन किया है। यद्यपि नवल जी ने प्राक्कथन में ही कहा है कि “मेरी यह पुस्तक स्वांत:सुखाय ही लिखी गयी है” लेकिन पूरी कृति में कविता की व्याख्या, विश्लेषण और मूल्यांकन में आलोचना के सूत्र अनुस्यूत हैं।
नवल जी ने तुलसीदास की प्रमाणिक बारह कृतियों – रामलला नहछू, रामाज्ञाप्रश्न, जानकीमंगल, रामचरितमानस, पार्वतीमंगल, गीतावली, विनयपत्रिका, कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण, दोहवाली, कवितावली और हनुमान बाहुक – पर तीन निबंधों में विचार किया है जो है- अन्य काव्य, रामचरितमानस और पत्रिका।
‘अन्य काव्य’ शीर्षक निबंध में रामलला नहछू जिसमें राम के यज्ञोंपवीत के समय सम्पन्न होने वाले नहछू संस्कार का वर्णन है के सम्बन्ध में नवल जी ने लिखा है ” स्वभावत: यह किसी भी दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं है। ” रामलला नहछू में कई बार राम को दूलह कहा गया है जिससे कई लोग यह मानते है कि उक्त अवसर राम विवाह का है। इस भ्रम का निराकरण नवल यह कहते हुए करते है कि “अवध जनपद में जिस बालक का यज्ञोंपवीत संस्कार सम्पन्न होता है, उसे भी दुलह या ‘दूल्हा’ कहा जाता है। बिहार में उस बालक को ‘बरूआ’ कहते है। निश्चय ही यह ‘वर’ शब्द का तद्भव हैं”।
रामलला नहछू में नवल जी को “महाकवि के आगमन की पदचाप नहीं सुनाई पड़ती” लेकिन “रामाज्ञाप्रश्न’ से तुलसीदास की काव्य-क्षमता के दर्शन होने लगते हैं। वह अभिव्यक्ति के स्तर पर भी है और अनुभूति के स्तर भी। ” इस कृति की रचना तुलसी ने अपने मित्र गंगाराम ज्योतिष को एक चिंता से मुक्त करने के लिए की थी। यह शकुन विचारने की पुस्तक है।
आज- कल कुछ चतुर सुजान यह कहते है की भगवान राम ने न ही शंबूक-वध किया था और न ही अपनी पत्नी सीता को वनवास दिया था। उनके अनुसार यह राम के चरित्र को धूमिल करने के लिए रचा गया है इसमें कोई सत्यता नहीं है इसके लिए वे यह भी एक तर्क देते है कि तुलसीदास ने दोनों घटनाओं का जिक्र तक नहीं किया हैं।
इन चतुर सुजानों को रामाज्ञाप्रश्न के इन दोहों को भी पढ़ना चाहिए –
बिप्र एक बालक मृतक राखेउ राम दुआर।
दंपति बिलपत सोक अति आरत करत पुकार।।
बिबुध बिमल बानी गगन, हेतु प्रजा अपचारु।
राम राज परिनाम भल कीजिय बेगि बिचारु।।
‘हेतु प्रजा अपचारु’ का स्पष्ट अर्थ है कि ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु का कारण प्रजा में किसी व्यक्ति का ‘दूषित आचरण’ करना था।
‘कोसल पाल कृपाल चित बालक दीन्ह जिआइ’ से भी स्पष्ट है कि राम ने बालक को जिंदा कर दिया।
तुलसी ने ऊपर उल्लेखित दोहे में शंबूक-वध का संकेत किया है और नीचे उल्लेखित दोहे में सीता वनवास का स्पष्ट उल्लेख हैं
सती सिरोमनी सीय तजि, राखि लोग रुचि राम।
सहे दुसह दुख सगुन गत प्रिय बियोगु परिनाम॥
शुद्ध हिंदी के नाम पर अरबी, फारसी और तुर्की के शब्दों को ढूँढ ढूंढ़कर अलग करने की भी बात होती रहती है । हमें तुलसी साहित्य से यह सीखना चाहिए कि ‘कुछ शब्द अश्वमेध के घोड़े की तरह होते है। सीमाओं को वे नहीं मानते उन्हें रोकना आसान नहीं है क्योंकि यह शब्द हमारी जबान पर चढ़ चुके है। तुलसी ने अपने समय में प्रचलित ‘साहिब’, ‘गरीब’ जैसे अरबी शब्दों का एवं ‘नवाज’ जैसे फारसी शब्दों का प्रयोग किया है।
रामलला नहछू और रामाज्ञाप्रश्न’ के अलावा ‘जानकी मंगल’, ‘पार्वती मंगल’
‘रामचरितमानस’ और बरवै रामायण भी अवधी भाषा में रचित ग्रंथ हैं।
नवल जी के अनुसार “बरवै रामायण में कविता का स्तर विषम हैं।” ‘माता प्रसाद गुप्त’ ने इसीलिए इसे एक संग्रह ग्रंथ माना है। इस ग्रंथ की रचना तुलसी ने रहीम से प्रेरित होकर की ।
‘जानकी मंगल’, ‘पार्वती मंगल’ नवल जी की दृष्टि में अत्यंत मनोहर काव्य है इनमें जानकी व पार्वती के विवाह का वर्णन है। जानकी मंगल’ में रीति नायिकत्व की झलक मिलती है। इस ग्रंथ की अनेक उक्तियों को तुलसी ने रामचरितमानस में यथावत ले लिया है जैसे “बर मिलौ सीतहि सांवरो हम हरषि मंगल गावहि”। कुछ जगह मानस की कथावस्तु से फेर-फार है। इसमें परशुराम राम को तब मिलते हैं, जब वे बारात के साथ आयोध्या लौट रहे है।
‘पार्वती मंगल ‘ को आधार बना नवल जी ने महाकवि कालिदास से तुलना की है। ध्यातव्य है कि कालिदास ने भी कुमारसंभव में पार्वती का वर्णन किया है। नवल जी कहते है कि “कालिदास की काव्य -संवेदना काफी कुछ वन्य और नागर थी, जबकि तुलसीदास की काव्य- संवेदना मूलत: ग्रामीण।
(2)
‘गीतावली’ और ‘दोहवाली’ को नवल जी तुलसीदास की “बुद्धि- प्रसूत रचना” मानते है। इनके अनुसार इन रचनाओं में तुलसी ने “शब्द -योजना, छंद -योजना और तुक -योजना में अपनी असाधारण क्षमता का प्रदर्शन किया है, लेकिन पदों में उस शक्ति का अभाव है, जिसे संस्कृत के आचार्यों ने प्रतिभा का पर्याय माना है।” क्योंकि गीतावली के बाल वर्णन में “न सूर जैसी मर्मस्पर्शिता है और न ही कल्पनाजनित चित्रमयता।”
नवल के अनुसार “तुलसीदास तभी मार्मिक पद रच पाते हैं, जब वे कथा का आधार लेकर चलते हैं।”
नवल जी “कृति का साक्षात्कार “करने वाले आलोचक है। इसी कारण कृति का समग्रता में मूल्यांकन करते है वे नामवर सिंह की इस बात से सहमत है कि आलोचना केवल लंबे- लंबे लेख लिखना नहीं हैं बल्कि पेंसिल से एक लाइन खींच देना भी आलोचना हैं।
‘गीतावली’,’कवितावली’,कृष्णगीतावली और हनुमान बाहुक में नवल जी तुलसी की पंक्तियों को उद्धित कर उसकी व्याख्या करते हैं और तुलसी के कवित्व से पाठकों को परिचित कराते हैं। इसी विधि के कारण तुलसी के वे रूप भी पाठकों के सामने आते हैं जो ज्यादातर विद्वान ओझल कर देते है जैसे तुलसी की कविता में मौजूद हास्य उनकी भक्ति और महिमा में दब जाता हैं। कवितावली’ में जब तुलसीदास राम वनगमन का वर्णन करते हैं तब ऋषि- मुनियों के प्रति गंभीर पूज्य भाव रखते हुए भी विनोद करने से नहीं चूकते वे खुद हँसे बिना पाठकों के भीतर हास्य की हिलोर उत्पन्न कर देते है, –
“बिंधि के बासी उदासी तपी ब्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी ‘तुलसी’ सो कथा सुनि भे मुनिबृंद सुखारे।।
ह्वै हैं सिला सब चंदमखीं परसें पद मंजुल कंज तिहारे।
कीन्ही भली रघुनायकजू! करूना करि काननको पगु धारें।।”
( 3)
रामचरितमानस एक ऐसी कृति हैं कि उत्तर भारत में जो लोग यह भी नहीं जानते कि यह तुलसीदास की कृति हैं वे भी इसकी पंक्तियों से परिचित होते है यह जाने बिना भी की पंक्ति मानस की हैं।
विलियम क्रुक ने 1896 में लिखा –
“तुलसीदास की रामायण को छोड़कर शायद किसी भी अन्य रचना को उत्तर भारत के हिंदुओं के बीच वैसी लोकप्रियता हासिल नहीं है, जैसी कबीर के बीजक को”
इस ग्रंथ की महत्ता यह भी है कि यह विद्वानों की सभा और किसानों की चौपाल;दोनों जगह समान भाव से पढ़ा -सुना जाता हैं। इसकी प्रशंसा में रहीम ने लिखा हैं –
“रामचरित मानस
संतन जीवन प्रान,
हिंदुआन को वेद सम,
तुर्कहि प्रगट कुरान”
पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जो लिखते है कि “मैंने विश्व का ढेर सारा श्रेष्ठ साहित्य नहीं पढ़ा, लेकिन मुझे उसका कोई अफसोस नहीं हैं क्योंकि मैंने रामचरित मानस पढ़ा है”
प्रसिद्ध इतिहासकार ‘वेन्सेंट स्मिथ’ ने ‘‘इन्हें अपने युग का सर्वश्रेष्ठ पुरूष माना है और इन्हें अकबर से भी महान इस कारण स्वीकार किया है कि इन्होनें जो करोड़ो मानव हृदयों पर शाश्वत विजय अपनी रचनाओं द्वारा प्राप्त की है उनके सामने सम्राट अकबर की राजकीय विजय नगण्य है।’’
रहीम से लेकर उग्र तक ने जहाँ इस कृति की प्रसंशा की हैं बाबा रामचंद ने असहयोग आंदोलन के दौरान इस ग्रंथ की पंक्तियों से लोगों को जागृत किया वहीं नारीवादी, दलित चिंतक, मार्क्सवादी विचारकों के साथ साथ वेद- मार्गावलम्बी महर्षि दयानंद ने इस कृति को पतित माना है।
नवल जी ऊपर वर्णित कथ्यों एवं तथ्यों से परिचित थे लेकिन आतंकित नहीं ।
1948 -1949 में जब नवल चौथे- पाँचवें के छात्र थे तब चौपाया छंद में रचित “भए प्रगट कृपाला” कविता स्कूल में प्रार्थना के रूप में गाई जाती थी। ‘तब अति रहेउ अचेत’ के कारण नवल तब काव्यानंद उठाने की स्थिति में नहीं थे लेकिन “जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा” जैसी पंक्ति उन्हें “झनझना देती” थी।
1958 में जब नवल जी ने बाबू रामसोहाग सिंह के साथ बैठ कर रामचरितमानस को पढ़ा। “तबसे तुलसीदास का प्रभाव प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर ही होता गया। “
स्पष्ट है कि नवल जी ने पहले तुलसी के कथ्य को पढ़ा था बाद में आलोचना जिसके कारण वे आलोचना के सार- सार को गहने व थोथा को उड़ाने; दोनों में सक्षम थे।
नवल जी का मानना हैं कि “तुलसीदास का महत्व उनके कुछ अप्रिय और कर्कश विचारों में नहीं, उनकी वैष्णव भक्ति में है जो सभी ऊपरी भेद- भावों को बहा ले जाती है। ” इसी क्रम में वे आगे कहते है कि “मानस की अंतरंग भावधारा भक्ति ही है जिसे समझे बगैैर तुलसीदास की ‘क्रांतिकारिता’ को नहीं समझा जा सकता।
शुक्ल जी तुलसी को ‘लोकमंगल’ का कवि हजारी प्रसाद द्विवेदी “समन्वय का अपार हृदय वाला कवि” रामविलास शर्मा ‘किसान जीवन का कवि मानते है’ जबकि नवल जी ने तुलसीदास का महत्व इस कारण माना हैं कि उन्होंने संस्कृत से अलग हिंदी के लिए एक ‘नया काव्यशास्त्र’ दिया। “संस्कृत के किसी आचार्य ने ‘लोकमंगल’ या लोकहित की बात नहीं कही है। ‘व्यव्हारविदे’ से उनका आशय राजा आदि के साथ किए गए आचार का परिज्ञान करने से है। साधारणीकरण के प्रसंग में आचार्यों ने कविगण को लोकविरुद्ध बातें कहने से मना किया है। ” तुलसीदास की निम्न लिखित पंक्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं-
“मनि मानिक मुकदमा छबि जैसी।
अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ।
नृप किरीट तरुनी तनु पाई।
लहहिं सकल सोभा अधिकाई।
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीें।
उपजहिं अनत छबि लहहीं । “
“इनमें कविता के पाठकों के हृदय में ही सुशोभित होने की बात है। स्पष्टत: यह संस्कृत की उस रीति- काव्य की परम्परा का विरोध है, जो कविता को विशेषज्ञों की चीज़ समझती थी। “
नवल जी ने मानस के सप्त सोपनों से जो स्थल उन्हें विशेष प्रिय थे उसे उद्धरित किया है और पाठकों को भी इसमें भागीदार बनाया हैं। भागीदार बनाने का कारण बिना लेख को शास्त्रीय बनाये पाठकों को तुलसी काव्य के सौंदर्य का दर्शन कराने की बलवती इच्छा का होना हैं।
बालकांड में सबसे बड़ा आकर्षण नवल जी के अनुसार “जनक और परशुराम के साथ लक्ष्मण का संवाद है, वैसे ही अयोध्या कांड का सबसे बड़ा आकर्षण कैकेयी – मंथरा संवाद है।” नवल जी कहते है कि कैकेयी – मंथरा एक तरह से ‘टिपिकल’ चरित्र है। बावजूद इसके इनका आकर्षण दुर्निवार है।
लक्ष्मण को नवल ने तत्वज्ञ माना हैं किंतु मानस में उनका यह रूप उभरकर नहीं आया हैं। सीता में निर्णय लेने की क्षमता है जिसके कारण राम को वनगमन के समय लक्ष्मण को मारीच वध के समय एवं रावण को अशोक वाटिका में सीता के आगे झुकना पड़ा। “सीता राम की अनुचरी या उनकी छायामात्र नहीं थी, क्योंकि वे राम हो, या लक्ष्मण, या फिर रावण, कोई उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं कर सका।
अरण्यकांड में राम के विरहाकुल मानवीय रूप पर कालिदास के पुरूरवा का प्रभाव (नकल नहीं) नवल जी ने माना है।
“मंदोदरी श्रवण ताटंका। सोई प्रभु जनु दामिनी दमंका ” में मौजूद तुक को देखकर नवल जी कहते हैं कि तुलसी “शब्दों को लट्टू की तरह नचाते हैं।”रावण- अंगद संवाद नवल की दृष्टि में तुलसीदास की वाग्प्रहार- क्षमता, वक्रोत्ति और व्यंग्योत्ति का असाधारण उदाहरण है।”
“जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने” जैसी पंक्तियों पर हर्षित होकर नवल जी कह उठते हैं कि “यह बिंब तुलसीदास की नवीन कल्पना शक्ति का अपूर्व प्रमाण है।”नवल जी डॉ. शर्मा की इस बात से सहमत है कि “तुलसीदास का जोर भाषा की शक्ति पर था, उसकी निरर्थक मजावट पर नहीं”
“साक बनिक मनि गुन गन जैसें”, “सूखत धान परा जनु पानी”, “जनु छुइ गयउ पाक बरतोरु” जैसी अनेक पंक्तियों को उनके संदर्भ के साथ पढ़ने पर नवल जी ने जोर दिया हैं इससे उन लोगों की शिकायत दूर हो जायेगी जो मानते है कि तुलसी ने पुराने उपमानों से ही काम चलाया हैं।
नवल जी ने तुलसी कविता के “अरथ अमित अति आखर थोरे” को अपनी कृति में प्रस्तुत किया हैं आज लोकतांत्रिक भारत में भी “विनय पत्रिका” की यात्रा में राजतंत्र से कम यातना नहीं हैं। संस्कृति की रक्षा का हौआ खड़ा कर धर्म – संप्रदाय के बीच की दरार को खाई में परिवर्तित करने की प्रयास मनोयोग से जारी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम सियावर राम का ‘जय श्री राम’ के रूप में उदघोष का तरीका; मर्यादाओं को तार- तार कर रहा है और इसके लिए तुलसी को ही अपने पक्ष मे करने का दिखावा किया जा रहा है तब तुलसी साहित्य के पठन- पाठन, चिंतन- मनन और व्याख्या- विश्लेषण की नितांत अनिवार्यता महसूस होतीं हैं जिसकी तरफ़ नवल जी की कृति एक महत्वपूर्ण व सशक्त कदम है।