शिवशंभू के चिट्ठे (निबंध) : बालमुकुंद गुप्त
बनाम लार्ड कर्जन |
माई लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भंगड़ को बुलबुल का बड़ा चाव था। गांव में कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे, बालक शिवशम्भु शर्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुल को हाथ पर बिठाकर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमार को बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालक को बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिताने किसी मित्र की बुलबुल किसी दिन ला भी दी तो वह एक घण्टेसे अधिक नहीं रहने पाती थी। वह भी पिताकी निगरानी में।सराय के भटियारे बुलबुलें पकड़ा करते थे। गांव के लड़के उनसे दो दो तीन तीन पैसे में खरीद लाते थे। पर बालक शिवशम्भु तो ऐसा नहीं कर सकता था। पिता की आज्ञा बिना वह बुलबुल कैसे लावे और कहां रखे? उधर मन में अपार इच्छा थी कि बुलबुल जरूर हाथ पर हो। इसी से जंगल में उड़ती बुलबुल को देखकर जी फड़क उठता था। बुलबुल की बोली सुनकर आनन्द से हृदय नृत्य करने लगता था। कैसी-कैसी कल्पनाएं हृदय में उठती थीं। उन सब बातों का अनुभव दूसरों को नहीं हो सकता। दूसरोंको क्या होगा? आज यह वही शिवशम्भु है, स्वयं इसी को उस बाल काल के अनिर्वचनीय चाव और आनन्द का अनुभव नहीं हो सकता।बुलबुल पकड़नेकी नाना प्रकारकी कल्पनाएं मनही मनमें करता हुआ बालक शिवशम्भु सोगया। उसने देखा कि संसार बुलबुलमय है। सारे गांवमें बुलबुलें उड़ रही है। अपने घरके सामने खेलनेका जो मैदान है, उसमें सैकड़ों बुलबुल उड़ती फिरती है। फिर वह सब ऊंची नहीं उड़तीं। बहुत नीची नीची उड़ती है। उनके बैठनेके अड्डे भी नीचे नीचे है। वह कभी उड़ कर इधर जाती हैं और कभी उधर, कभी यहां बैठती है और कभी वहां, कभी स्वयं उड़कर बालक शिवशम्भुके हाथकी उंगलियोंपर आ बैठती है। शिवशम्भु आनन्दमें मस्त होकर इधर-उधर दौड़ रहा है। उसके दो तीन साथी भी उसी प्रकार बुलबुलें पकड़ते और छोड़ते इधर उधर कूदते फिरते है।आज शिवशम्भुकी मनोवाञ्छा पूर्ण हुई। आज उसे बुलबुलोंकी कमी नहीं है। आज उसके खेलनेका मैदान बुलबुलिस्तान बन रहा है। आज शिवशम्भु बुलबुलोंका राजाही नहीं, महाराजा है। आनन्दका सिलसिला यहीं नहीं टूट गया। शिवशम्भुने देखा कि सामने एक सुन्दर बाग है। वहींसे सब बुलबुलें उड़कर आती हैं। बालक कूदता हुआ दौड़कर उसमें पहुंचा। देखा, सोनेके पेड़ पत्ते और सोने ही के नाना रंगके फूल हैं। उनपर सोनेकी बुलबुलें बैठी गाती हैं और उड़ती फिरती हैं। वहीं एक सोनेका महल है। उसपर सैकड़ों सुनहरी कलश हैं। उनपर भी बुलबुलें बैठी हैं। बालक दो तीन साथियों सहित महलपर चढ़ गया। उस समय वह सोनेका बागीचा सोनेके महल और बुलबुलों सहित एक बार उड़ा। सब कुछ आनन्दसे उड़ता था, बालक शिवशम्भु भी दूसरे बालकों सहित उड़ रहा था। पर यह आमोद बहुत देर तक सुखदायी न हुआ। बुलबुलोंका ख्याल अब बालकके मस्तिष्कसे हटने लगा। उसने सोचा – हैं! मैं कहां उड़ा जाता हूं? माता पिता कहां? मेरा घर कहां? इस विचारके आतेही सुखस्वप्न भंग हुआ। बालक कुलबुलाकर उठ बैठा। देखा और कुछ नहीं, अपनाही घर और अपनी ही चारपाई है। मनोराज्य समाप्त हो गया।आपने माई लार्ड! जबसे भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलोंका स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करनेके योग्य काम भी किया है? खाली अपना खयालही पूरा किया है या यहांकी प्रजाके लिये भी कुछ कर्तव्य पालन किया? एक बार यह बातें बड़ी धीरतासे मनमें विचारिये। आपकी भारतमें स्थितिकी अवधिके पांच वर्ष पूरे हो गये अब यदि आप कुछ दिन रहेंगे तो सूदमें, मूलधन समाप्त हो चुका। हिसाब कीजिये नुमायशी कामोंके सिवा कामकी बात आप कौनसी कर चले हैं और भड़कबाजीके सिवा ड्यूटी और कर्तव्यकी ओर आपका इस देशमें आकर कब ध्यान रहा है? इस बारके बजटकी वक्तृताही आपके कर्तव्यकालकी अन्तिम वक्तृता थी। जरा उसे पढ़ तो जाइये फिर उसमें आपकी पांच सालकी किस अच्छी करतूतका वर्णन है। आप बारम्बार अपने दो अति तुमतराकसे भरे कामोंका वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया मिमोरियलहाल और दूसरा दिल्ली-दरबार। पर जरा विचारिये तो यह दोनों काम “शो” हुए या “ड्यूटी”? विक्टोरिया मिमोरियलहाल चन्द पेट भरे अमीरोंके एक दो बार देख आनेकी चीज होगा उससे दरिद्रोंका कुछ दु:ख घट जावेगा या भारतीय प्रजाकी कुछ दशा उन्नत हो जावेगी, ऐसा तो आप भी न समझते होंगे।अब दरबारकी बात सुनिये कि क्या था? आपके खयालसे वह बहुत बड़ी चीज था। पर भारतवासियोंकी दृष्टिमें वह बुलबुलोंके स्वप्न से बढ़कर कुछ न था। जहां जहां से वह जुलूसके हाथी आये, वहीं वहीं सब लौट गये। जिस हाथी पर आप सुनहरी झूलें और सोनेका हौदा लगवाकर छत्र-धारण-पूर्वक सवार हुए थे, वह अपने कीमती असबाब सहित जिसका था, उसके पास चला गया। आप भी जानते थे कि वह आपका नहीं और दर्शक भी जानते थे कि आपका नहीं। दरबारमें जिस सुनहरी सिंहासनपर विराजमान होकर आपने भारतके सब राजा महाराजाओंकी सलामी ली थी, वह भी वहीं तक था और आप स्वयं भलीभांति जानते हैं कि वह आपका न था। वह भी जहांसे आया था वहीं चला गया। यह सब चीजें खाली नुमायशी थीं। भारतवर्षमें वह पहलेहीसे मौजूद थीं। क्या इन सबसे आपका कुछ गुण प्रकट हुआ? लोग विक्रम को याद करते हैं या उसके सिंहासनको, अकबरको या उसके तख्त को? शाहजहांकी इज्जत उसके गुणोंसे थी या तख्तेताऊस से? आप जैसे बुद्धिमान पुरुषके लिये यह सब बातें विचारने की हैं।चीज वह बनना चाहिये जिसका कुछ देर कयाम हो। मातापिताकी याद आते ही बालक शिवशम्भुका सुखस्वप्न भंग होगया। दरबार समाप्त होते ही वह दरबार-भवन, वह एम्फीथियेटर तोड़कर रख देनेकी वस्तु हो गया। उधर बनाना, इधर उखाड़ना पड़ा। नुमायशी चीजोंका यही परिणाम है। उनका तितलियोंकासा जीवन होता है। माई माई लार्ड! आपने कछाड़के चायवाले साहबोंकी दावत खाकर कहा था कि यह लोग यहां नित्य हैं और हम लोग कुछ दिनके लिये। आपके वह “कुछ दिन” बीत गये। अवधि पूरी हो गई। अब यदि कुछ दिन और मिलें तो वह किसी पुराने पुण्यके बलसे समझिये। उन्हींकी आशापर शिवशम्भु शर्मा यह चिट्ठा आपके नाम भेज रहा है, जिससे इन माँगे दिनोंमें तो एक बार आपको अपने कर्तब्य खयाल हो।जिस पदपर आप आरूढ़ हुए वह आपका मौरूसी नहीं – नदीनाव संयोग की भांति है। आगे भी कुछ आशा नहीं कि इस बार छोड़ने के बाद आपका इससे कुछ सम्बन्ध रहे। किन्तु जितने दिन आपके हाथमें शक्ति है, उतने दिन कुछ करनेकी शक्ति भी है। जो कुछ आपने दिल्ली आदिमें कर दिखाया उसमें आपका कुछ भी न था, पर वह सब कर दिखानेकी शक्ति आपमें थी। उसी प्रकार जानेसे पहले, इस देशके लिये कोई असली काम कर जानेकी शक्ति आपमें है। इस देशकी प्रजा के हृदयमें कोई स्मृति-मन्दिर बना जानेकी शक्ति आपमें है। पर यह सब तब हो सकता है, कि वैसी स्मृतिकी कुछ कदर आपके हृदयमें भी हो। स्मरण रहे धातुकी मूर्तियोंके स्मृतिचिह्नसे एक दिन किलेका मैदान भर जायगा। महारानीका स्मृति-मन्दिर मैदानकी हवा रोकता था या न रोकता था, पर दूसरों की मूर्तियां इतनी हो जावेंगी कि पचास पचास हाथपर हवाको टकराकर चलना पड़ेगा। जिस देश में लार्ड लैंसडौन की मूर्ति बन सकती है, उसमें और किस किसकी मूर्ति नहीं बन सकती? माई लार्ड! क्या आप भी चाहते हैं कि उसके आसपास आपकी एक वैसीही मूर्ति खड़ी हो?यह मूर्तियां किस प्रकारके स्मृतिचिह्न है? इस दरिद्र देशके बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती। एक बार जाकर देखनेसे ही विदित होता है कि वह कुछ विशेष पक्षियोंके कुछ देर विश्राम लेनेके अड्डेसे बढ़कर कुछ नहीं है। माई माई लार्ड! आपकी मूर्तिकी वहां क्या शोभा होगी? आइये मूर्तियां दिखावें। वह देखिये एक मूर्ति है, जो किलेके मैदानमें नहीं है, पर भारतवासियों के हृदयमें बनी हुई है। पहचानिये, इस वीर पुरुषने मैदानकी मूर्तिसे इस देशके करोड़ों गरीबों के हृदयमें मूर्ति बनवाना अच्छा समझा। यह लार्ड रिपनकी मूर्ति है। और देखिये एक स्मृतिमन्दिर, यह आपके पचास लाखके संगमर्मरवालेसे अधिक मजबूत और सैकड़ो गुना कीमती है। यह स्वर्गीया विक्टोरिया महारानीका सन् 1858 ई. का घोषणापत्र है। आपकी यादगार भी यहीं बन सकती है, यदि इन दो यादगारोंकी आपके जीमें कुछ इज्जत हो।मतलब समाप्त होगया। जो लिखना था, वह लिखा गया। अब खुलासा बात यह है कि एक बार ‘शो’ और ड्यूटीका मुकाबिला कीजिये। ‘शो’ को ‘शो’ ही समझिये। ‘शो’ ड्यूटी नहीं है! माई लार्ड! आपके दिल्ली दरबारकी याद कुछ दिन बाद उतनी ही रह जावेगी जितनी शिवशम्भु शर्माके सिरमें बालकपनके उस सुखस्वप्नकी है।[‘भारत मित्र’,11, अप्रैल 1903 ई.] |
श्रीमान्-का स्वागत् |
जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है। इसीसे फिर दो वर्षके लिये भारतके वैसराय और गवर्नर जनरल होकर लार्ड कर्जन आते है। बहुतसे विघ्नोंको हटाते और बाधाओंको भगाते फिर एक बार भारतभूमिमें आपका पदार्पण होता है। इस शुभयात्राके लिये वह गत नवम्बरको सम्राट् एडवर्डसे भी विदा ले चुके है। दर्शनमें अब अधिक विलम्ब नहीं है।इस समय भारतवासी यह सोच रहे हैं कि आप क्यों आते है और आप यह जानते भी हैं कि आप क्यों आते हैं। यदि भारतवासियोंका बश चलता तो आपको न आने देते और आपका बश चलता तो और भी कई सप्ताह पहले आ विराजते। पर दोनों ओरकी बाग किसी औरहीके हाथ में हैं। निरे बेबश भारतवासियोंका कुछ बश नहीं है और बहुत बातों पर बश रखनेवाले लार्ड कर्जनको भी बहुत बातोंमें बेबश होना पड़ता है। इसीसे भारतवासियोंको लार्ड कर्जनका आना देखना पड़ता है और उक्त श्रीमानको अपने चलनेमें विलम्ब देखना पड़ा। कवि कहता है -“जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।”अभी भारतवासियोंको बहुत कुछ देखना है और लार्ड कर्जनको भी बहुत कुछ। श्रीमानको नये शासनकालके यह दो वर्ष निस्सन्देह देखनेकी वस्तु होंगे। अभीसे भारतवासियों की दृष्टियां सिमटकर उस ओर जा पड़ी हैं। यह जबरदस्त द्रष्टा लोग अब बहुत कालसे केवल निर्लिप्त निराकार तटस्थ द्रष्टाकी अवस्थामें अतृप्त लोचनसे देख रहे हैं और न जाने कब तक देखे जावेंगे। अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गये, पर दृष्टि नहीं हटाते हैं। उन्होंने पृथिवीराज, जयचन्दकी तबाही देखी, मुसलमानोंकी बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे, शाहजहानी तख्तताऊस और शाही जुलूस देखे। फिर वही तख्त नादिरको उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगजेब देखे, क्लाइव हेस्टिंग्स से वीर अंग्रेज देखे। देखते-देखते बड़े शौकसे लार्ड कर्जनका हाथियोंका जुलूस और दिल्ली-दरबार देखा। अब गोरे पहलवान मिस्टर सेण्डोका छातीपर कितने ही मन बोझ उठाना देखनेको टूट पड़ते हैं। कोई दिखानेवाला चाहिये भारतवासी देखनेको सदा प्रस्तुत हैं। इस गुणमें वह मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसारमें कोई उनका सानी नहीं। लार्ड कर्जन भी अपनी शासित प्रजाका यह गुण जान गये थे, इसीसे श्रीमान्-ने लीलामय रुप धारण करके कितनीही लीलाएं दिखाई।इसीसे लोग बहुत कुछ सोच विचार कर रहे हैं कि इन दो वर्षोंमें भारतप्रभु लार्ड कर्जन और क्या क्या करेंगे। पिछले पांच सालसे अधिक समयमें श्रीमान्-ने जो कुछ किया, उसमें भारतवासी इतना समझने लगे हैं कि श्रीमान्-की रुचि कैसी है और कितनी बातोंको पसन्द करते हैं। यदि वह चाहें तो फिर हाथियोंका एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ जरूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्लीमें निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथीपर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथिवीमें नहीं तो भारतवर्षमें तो और नहीं है। इसीसे फिर किसी हाथीपर बैठनेका श्रीमान्-को और क्या चाव हो सकता है? उससे ऊंचा हाथी और नहीं है। ऐरावतका केवल नाम है, देखा किसीने नहीं है। मेमथकी हड्डियां किसी किसी अजायबखानेमें उसी भांति आश्चर्यकी दृष्टिसे देखी जाती हैं, जैसे श्रीमान्-के स्वदेशके अजायबखानेमें कोई छोटा मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथीकी छोटाई बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो कहीं और सही। क्योंकि दिल्लीमें आतशबाजी खूब चल चुकी थी, कलकत्तेमें फिर चलाई गई। दिल्लीमें हाथियोंकी सवारी हो चुकनेपर भी कलकत्तेमें रोशनी और घोड़ागाड़ीका तार जमा था। कुछ लोग कहते हैं कि जिस कामको लार्ड कर्जन पकड़ते है, पूरा करके छोड़ते है। दिल्ली दरबारमें कुछ बातोंकी कसर रह गयी थी। उदयपुर के महाराणा न तो हाथियोंके जुलूसमें साथ चल सके न दरबारमें हाजिर होकर सलामी देनेका मौका उनको मिला। इसी प्रकार बड़ोदानरेश हाथियोंके जुलूसमें शामिल न थे। वह दरबारमें भी आये तो बड़ी सीधी सादी पोशाकमें। इतनी सीधी सादीमें जितनीसे आज कलकत्तेमें फिरते हैं। वह ऐसा तुमतराक और ठाठ-बाठका समय था कि स्वयं श्रीमान् वैसरायको पतलून तक कारचोबीकी पहनना और राजा महाराजोंको काठकी तथा ड्यूक आफ कनाटको चांदीकी कुरसीपर बिठाकर स्वयं सोनेके सिंहासनपर बैठना पड़ा था। उस मौकेपर बड़ौदा नरेशका इतनी सफाई और सादगीसे निकल जाना एक नई आन था। इसके सिवा उन्होंने झुकके सलाम नहीं किया था, बड़ी सादगीसे हाथ मिलाकर चल दिये थे। यह कई एक कसरें ऐसी हैं, जिनके मिटानेको फिर दरबार हो सकता है। फिर हाथियोंका जुलूस निकल सकता है।इन लोगोंके विचारमें कलाम नहीं। पर समय कम है, काम बहुत होंगे। इसके सिवा कई राजा महाराजा पहले दरबारही में खर्चसे इतने दब चुके हैं कि श्रीमान् लार्ड कर्जनके बाद यदि दो वैसराय और आवें और पांच पांचकी जगह सात सात साल तक शासन करें, तब तक भी उनका सिर उठाना कठिन है। इससे दरबार या हाथियोंके जुलूसकी फिर आशा रखना व्यर्थ है। पर सुना है कि अबके विद्याका उद्धार श्रीमान् जरूर करेंगे। उपकारका बदला देना महत् पुरुषोंका काम है। विद्याने आपको धनी किया है, इससे आप विद्याको धनी किया चाहते हैं। इसीसे कंगालोंसे छीनकर आप धनियोंको विद्या देना चाहते हैं। इससे विद्याका वह कष्ट मिट जावेगा जो उसे कंगालको धनी बनानेमें होता है। नींव पड़ चुकी है, नमूना कायम होनेमें देर नहीं। अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियोंकी निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े न पढ़े उनकी निन्दा न होगी। इस तरह लार्ड कर्जनकी कृपा उन्हें बेपढ़े भी शिक्षित कर देगी।और कई काम हैं, कई कमीशनोंके कामका फैसिला करना है, कितनीही मिशनोंकी कारवाईका नतीजा देखना है। काबुल है, काश्मीर है, काबुलमें रेल चल सकती है, काश्मीरमें अंग्रेजी बस्ती बस सकती है। चायके प्रचारकी भांति मोटरगाड़ीके प्रचारकी इस देश में बहुत जरूरत है। बंगदेशका पार्टीशन भी एक बहुत जरूरी काम है। सबसे जरूरी काम विक्टोरिया मिमोरियलहाल है। सन् 1858 ई. की घोषणा अब भारतवासियोंको अधिक स्मरण रखनेकी जरूरत न पड़ेगी। श्रीमान् स्मृतिमन्दिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरियाका ऐसा स्मारक बनवा देंगे, जिसको देखतेही लोग जान जावेंगे कि महारानी वह थीं जिनका यह स्मारक है।बहुत बातें हैं। सबको भारतवासी अपने छोटे दिमागोंमें नहीं ला सकते। कौन जानता है कि श्रीमान् लार्ड कर्जनके दिमागमें कैसे-कैसे आली खयाल भरे हुए हैं। आपने स्वयं फरमाया थी कि बहुत बातोंमें हिन्दुस्थानी अंग्रेजोंका मुकाबिला नहीं कर सकते। फिर लार्ड कर्जन तो इंग्लैंडके रत्न हैं। उनके दिमागकी बराबरी कर गुस्ताखी करनेकी यहांके लोगोंको यह बूढ़ा भंगड़ कभी सलाह नहीं दे सकता। श्रीमान् कैसे आली दिमाग शासक हैं, यह बात उनके उन लगातार कई व्याख्यानोंसे टपकी पड़ती हैं, जो श्रीमान्ने विलायतमें दिये थे और जिनमें विलायतवासियों को यह समझानेकी चेष्टा की थी कि हिन्दुस्थान क्या वस्तु है? आपने साफ दिखा दिया था कि विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिन्दुस्थान क्या है। हिन्दुस्थानको श्रीमान् स्वयं ही समझे हैं। विलायतवाले समझते तो क्या समझते? विलायतमें उतना बड़ा हाथी कहां जिसपर वह चंवर छत्र लगाकर चढ़े थे? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्च श्रेणीके शासक हैं? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारतको विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायतवालोंको समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान्-का शासन क्या? आश्चर्य नहीं, भविष्यमें ऐसा कुछ उपाय निकल आवे। क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा।भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जनके शासनमें कुछ करना न पड़ेगा। आनन्दही आनन्द है। चैनसे भंग पियो और मौज उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है -कुंडीके नकारे पे खुतकेका लगा डंका।नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका।।पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मणको देना भूल न जाना।[‘भारतमित्र’, 26 नवम्बर, 1904 ई] |
वैसरायका कर्तव्य |
माई माई लार्ड! आपने इस देशमें फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई। विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषोंके चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है। आपमें उक्त तीन गुणोंके सिवा चौथा गुण राजशक्तिका है। अत: आपके श्रीचरण-स्पर्शसे भारतभूमि तीर्थसे भी कुछ बढ़कर बन गई। आप गत मंगलवारको फिरसे भारतके राजसिंहासन पर सम्राट्के प्रतिनिधि बनकर विराजमान हुए। भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देशके मंगलकी इच्छा आपके हृदयमें उत्पन्न करे।बम्बईमें पांव रखते ही आपने अपने मनकी कुछ बात कह डाली हैं। यद्यपि बम्बईकी म्यूनिसिपलिटीने वह बातें सुननेकी इच्छा अपने अभिनन्दनपत्रमें प्रकाशित नहीं की थी, तथापि आपने बेपूछेही कह डालीं। ठीक उसी प्रकार बिना बुलाये यह दीन भंगड़ ब्राह्मण शिवशम्भु शर्मा तीसरी बार अपना चिट्ठा लेकर आपकी सेवामें उपस्थित है। इसे भी प्रजाका प्रतिनिधि होनेका दावा है। इसीसे यह राजप्रतिनिधिके सम्मुख प्रजाका कच्चाचिट्ठा सुनाने आया है। आप सुनिये न सुनिये, यह सुनाकरही जावेगा।अवश्यही इस देशकी प्रजाने इस दीन ब्राह्मणको अपनी सभामें बुलाकर कभी अपने प्रतिनिधि होनेका टीका नहीं किया और न कोई पट्टा लिख दिया है। आप जैसे बाजाब्ता राज-प्रतिनिधि हैं वैसा बाजाब्ता शिवशम्भु प्रजाका प्रतिनिधि नहीं है आपको सम्राट्ने बुलाकर अपना वैसराय फिरसे बनाया। विलायती गजटमें खबर निकली। वही खबर तार द्वारा भारतमें पहुंची। मार्गमें जगह जगह स्वागत हुआ। बम्बईमें स्वागत हुआ। कलकत्तेमें कई बार गजट हुआ। रेलसे उतरते और राजसिंहासनपर बैठते समय दो बार सलामीकी तोपें सर हुईं। कितनेही राजा, नवाब, बेगम आपके दर्शनार्थ बम्बई पहुंचे। बाजे बजते रहे, फौजें सलामी देती रहीं। ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि होनेकी शिवशम्भुके पास नहीं है। तथापि वह इस देशकी प्रजाका यहांके चिथड़ा-पोश कंगालोंका प्रतिनिधि होनेका दावा रखता है। क्योंकि उसने इस भूमिमें जन्म लिया है। उसका शरीर भारतकी मट्टीसे बना है और उसी मट्टीमें अपने शरीरकी मट्टीको एक दिन मिला देनेका इरादा रखता है। बचपनमें इसी देशकी धूलमें लोटकर बड़ा हुआ, इसी भूमिके अन्न-जलसे उसकी प्राणरक्षा होती है। इसी भूमिसे कुछ आनन्द हासिल करनेको उसे भंगकी चन्द पत्तियां मिल जाती है। गांवमें उसका कोई झोंपड़ा नहीं है। जंगलमें खेत नहीं है। एक पत्तीपर भी उसका अधिकार नहीं है। पर इस भूमिको छोड़कर उसका संसार में कहीं ठिकाना भी नहीं है। इस भूमिपर उसका जरा स्वत्व न होनेपर भी इसे वह अपनी समझता है।शिवशम्भुको कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जाननेकी चीज शिवशम्भुके पास कुछ नहीं है। उसके कोई उपाधि नहीं, राजदरबारमें उसकी पूछ नहीं। हाकिमोंसे हाथ मिलानेकी उसकी हैसियत नहीं, उनकी हांमें हां मिलानेकी उसे ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमण्डी ब्राह्मण है। हे राजप्रतिनिधि। क्या उसकी दो चार बातें सुनियेगा?आपने बम्बईमें कहा है कि भारतभूमिको मैं किस्सा-कहानीकी भूमि नहीं, कर्तव्यभूमि समझता हूं। उसी कर्तव्यके पालनके लिये आपको ऐसे कठिन समयमें भी दूसरी बार भारतमें आना पड़ा। माई माई लार्ड! इस कर्तव्यभूमिको हमलोग कर्मभूमि कहते है। आप कर्तव्य-पालन करने आये हैं और हम कर्मो का भोग भोगने। आपके कर्तव्य-पालनकी अवधि है, हमारे कर्मभोगकी अवधि नहीं। आप कर्तव्य-पालन करके कुछ दिन पीछे चले जावेंगे। हमें कर्मके भोग भोगते-भोगते यहीं समाप्त होना होगा और न जाने फिर भी कबतक वह भोग समाप्त होगा। जब थोड़े दिनके लिए आपका इस भूमिसे स्नेह है तो हमलोगोंका कितना भारी स्नेह होना चाहिए, यह अनुमान कीजिये। क्योंकि हमारा इस भूमिसे जीने-मरनेका साथ है।माई लार्ड! यद्यपि आपको इस बातका बड़ा अभिमान है कि अंग्रेजोंमें आपकी भांति भारतवर्षके विषयमें शासननीति समझने-वाला और शासन करनेवाला नहीं है। यह बात विलायतमें भी आपने कई बार हेर-फेर लगाकर कही और इस बार बम्बईमें उतरतेही फिर कही। आप इस देश में रहकर 72 महीने तक जिन बातोंकी नीव डालते रहे, अब उन्हें 24 मास या उससे कममें पूरा कर जाना चाहते है। सरहदों पर फौलादी दीवार बनादेना चाहते हैं, जिससे इस देशकी भूमिको कोई बाहरी शत्रु उठाकर अपने घरमें न लेजावे। अथवा जो शान्ति आपके कथनानुसार धीरे-धीरे यहां संचित हुई है, उसे इतना पक्का कर देना चाहते हैं कि आपके बाद जो वैसराय आपके राजसिंहासनपर बैठे उसे शौकीनी और खेल-तमाशेके सिवा दिनमें और नाच, बाल या निद्राके सिवा रातको कुछ करना न पड़ेगा। पर सच जानिये कि आपने इस देशको कुछ नहीं समझा, खाली समझनेकी शेखीमें रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनोंमें भी कुछ समझें। किन्तु इस देशने आपको खूब समझ लिया और अधिक समझनेकी जरूरत नहीं रही। यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानीका देश नहीं कर्तव्यका देश है, तथापि यहांकी प्रजाने समझ लिया है कि आपका कर्तव्यही कहानी है। एक बड़ा सुन्दर मेल हुआ था, अर्थात आप बड़े घमण्डी शासक हैं और यहांकी प्रजाके लोग भी बड़े भारी घमण्डी। पर कठिनाई इसी बात की है कि दोनोंका घमण्ड दो तरहका है। आपको जिन बातोंका घमण्ड है, उनपर यहांके लोग हँस पड़ते हैं। यहांके लोगोंको जो घमण्ड है, उसे आप समझते नहीं और शायद समझेंगे भी नहीं।जिन आडम्बरोंको करके आप अपने मनमें बहुत प्रसन्न होते हैं या यह समझ बैठते हैं कि बड़ा कर्तव्य-पालन किया, वह इस देशकी प्रजाकी दृष्टिमें कुछ भी नहीं है। वह इतने आडम्बर देख सुन चुकी और कल्पना कर चुकी है कि और किसी आडम्बरका असर उस पर नहीं हो सकता। आप सरहदको लोहेकी दीवारसे मजबूत करते हैं। यहांकी प्रजाने पढ़ा है कि एक राजाने पृथिवीको काबूमें करके स्वर्गमें सीढ़ी लगानी चाही थी। आप और लार्ड किचनर मिलकर जो फौलादी दीवार बनाते हैं, उससे बहुत मजबूत एक दीवार लार्ड केनिंग बना गये थे। आपने भी बम्बईकी स्पीचमें केनिंगका नाम लिया है। आज 46 साल हो गये, वह दीवार अटल अचल खड़ी हुई है। वह स्वर्गीया महाराणीका घोषणापत्र है, जो 1 नवम्बर 1858 ई. को केनिंग महोदयने सुनाया था। वही भारतवर्षके लिये फौलादी दीवार है। वही दीवार भारतकी रक्षा करती है। उसी दीवारको भारतवासी अपना रक्षक समझते हैं। उस दीवारके होते आपके या लार्ड किचनरके कोई दीवार बनानेकी जरूरत नहीं है। उसकी आड़में आप जो चाहे जितनी मजबूत दीवारों की कल्पना कर सकते हैं। आडम्बरसे इस देशका शासन नहीं हो सकता। आडम्बरका आदर इस देशकी कंगाल प्रजा नहीं कर सकती। आपने अपनी समझमें बहुत-कुछ किया, पर फल यह हुआ कि विलायत जाकर वह सब अपनेही मुंहसे सुनाना पड़ा। कारण यह कि करनेसे कहीं अधिक कहनेका आपका स्वभाव है। इससे आपका करना भी कहे बिना प्रकाशित नहीं होता। यहांकी अधिक प्रजा ऐसी है जो अबतक भी नहीं जानती कि आप यहांके वैसराय और राजप्रतिनिधि हैं और आप एक बार विलायत जाकर फिरसे भारतमें आये हैं। आपने गरीब प्रजाकी ओर न कभी दृष्टि खोलकर देखा, न गरीबोंने आपको जाना। अब भी आपकी बोतोंसे आपकी वह चेष्टा नहीं पायी जाती। इससे स्मरण रहे कि जब अपने पदको त्यागकर आप फिर स्वदेश में जावेंगे तो चाहे आपको अपने कितनेही गुण कीर्तन करनेका अवसर मिले, यह तो कभी न कह सकेंगे कि कभी भारतकी प्रजाका मन भी अपने हाथमें किया था।यह वह देश है, जहांकी प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्रके राजतिलक पानेके आनन्दमें मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बनको चले तो रोती रोती उनके पीछे जाती थी। भरतको उस प्रजाका मन प्रसन्न करनेके लिये कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियोंका जुलूस नहीं निकलना पड़ा, बरंच दौड़कर बनमें जाना पड़ा और रामचन्द्रको फिर अयोध्यामें लानेका यत्न करना पड़ा। जब वह न आये तो उनकी खड़ाऊंको सिरपर धरकर अयोध्या तक आये और खड़ाउओंको राजसिंहासन पर रखकर स्वयं चौदह सालतक वल्कल धारण करके उनकी सेवा करते रहे। तब प्रजाने समझा कि भरत अयोध्याका शासन करनेके योग्य है।माई लार्ड! आप वत्कृता देनेमें बड़े दक्ष हैं। पर यहां वत्कृता कुछ और ही वजन है। सत्यवादी युधिष्ठिरके मुखसे जो निकल जाता था, वही होता था। आयु भरमें उसने एक बार बहुत भारी पोलिटिकल जरूरत पड़ने से कुछ सहजसा झूठ बोलनेकी चेष्टाकी थी। वही बात महाभारतमें लिखी हुई है। जब तक महाभारत है, वह बात भी रहेगी। एक बार अपनी वत्कृताओंसे इस विषयको मिलाइये और फिर विचारिये कि इस देशकी प्रजाके साथ आप किस प्रकार अपना कर्तव्यपालन करेंगे। साथ ही इस समय इस अधेड़ भंगड़ ब्राह्मणको अपनी भांग बूटीकी फिकर करनेके लिये आज्ञा दीजिये।[‘भारतमित्र’, 17 सितम्बर, 1904 ई.] |
पीछे मत फेंकिये |
माई लार्ड! सौ साल पूरे होनेमें अभी कई महीनोंकी कसर है। उस समय ईष्ट इण्डिया कम्पनीने लार्ड कार्नवालिसको दूसरी बार इस देशका गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा था। तबसे अब तक आपहीको भारतवर्षका फिरसे शासक बनकर आनेका अवसर मिला है। सौ वर्ष पहलेके उस समयकी ओर एक बार दृष्टि कीजिये। तबमें और अबमें कितना अन्तर हो गया है, क्यासे क्या हो गया है? जागता हुआ रंक अति चिन्ताका मारा सोजावे और स्वप्नमें अपनेको राजा देखे, द्वारपर हाथी झूमते देखे अथवा अलिफलैलाके अबुलहसनकी भांति कोई तरल युवक प्याले पर प्याला उड़ाता घरमें बेहोश हो और जागनेपर आंखें मलते-मलते अपनेको बगदादका खलीफा देखे, आलीशान सजे महलकी शोभा उसे चक्करमें डाल दे, सुन्दरी दासियोंके जेवर और कामदार वस्त्रोंकी चमक उसकी आंखोंमें चकाचौंध लगा दे तथा सुन्दर बाजों और गीतोंकी मधुरध्वनि उसके कानोंमें अमृत ढालने लगे, तब भी उसे शायद आश्चर्य न हो जितना सौ साल पहलेकी भारतमें अंगरेजी राज्यकी दशाको आजकलकी दशाके साथ मिलानेसे हो सकता है।जुलाई सन् 1805 ई. में लार्ड कार्नवालिस दूसरी बार भारतके गवर्नर जनरल होकर कलकत्तेमें पधारे थे। उस समय ईष्ट इण्डिया कम्पनीकी सरकारपर चारों ओरसे चिन्ताओंकी भरमार हो रही थी, आशंकाएं उसे दम नहीं लेने देती थीं। हुलकरसे एक नई लड़ाई होनेकी थी, सेन्धियासे लड़ाई चलती थीं। खजानेमें बरकतही बरकत थीं। जमीनका कर वसूल होनेमें बहुत देर थी। युद्धस्थलमें लड़नेवाली सेनाओंको पांच पांच महीनेसे तनखाह नहीं मिली थी। विलायतके धनियोंमें कम्पनीका कुछ विश्वास न था। सत्तर सालका बूढ़ा गवर्नर जनरल यह सब बातें देखकर घबराया हुआ था। उससे केवल यही बन पड़ा कि दूसरी बार पदारूढ़ होनेके तीनही मास पीछे गाजीपुरमें जाकर प्राण देदिया। कई दिन तक इस बातकी खबर भी लोगोंने नहीं जानी। आज विलायतसे भारत तक दिनमें कई बार तार दौड़ जाता है। कई एक घंटोंमें शिमलेसे कलकत्ते तक स्पेशल ट्रेन पार हो जाती है। उस समय कलकत्तेसे गाजीपुर तक जाने में बड़ेलाटको कितनेही दिन लगे थे। गाजीपुरमें उनके लिये कलकत्तेसे जल्द किसी प्रकारकी सहायता पहुंचनेका कुछ उपाय न था।किन्तु अब कुछ औरही समय है। माई लार्ड! लार्ड कार्नवालिसके दूसरी बार गवर्नर जनरल होकर भारतमें आने और आपके दूसरी बार आनेमें बड़ा अन्तर है। प्रताप आपके साथ साथ है। अंग्रेजी राज्यके भाग्यका सूर्य मध्यान्हमें है। उस समयके बड़ेलाटको जितने दिन कलकत्तेसे गाजीपुर जानेमें लगे होंगे, आप उनसे कम दिनोंमें विलायतसे भारतमें पहुंच गये। लार्ड कार्नवालिसको आतेही दो एक देशी रईसोंके साथ लड़ाई करनेकी चिन्ता थी, आपके स्वागतके लिये कोड़ियों राजा, रईस बम्बई दौड़े गये और जहाजसे उतरतेही उन्होंने आपका स्वागत करके अपने भाग्यको धन्य समझा। कितनेही बधाई देने कलकत्ते पहुंचे और कितने और चलेआरहे हैं। प्रजाकी चाहे कैसीही दशा हो, पर खजानेमें रुपये उबले पड़ते हैं। इसके लिये चारों ओरसे आपकी बड़ाई होती है। साख इस समयकी गवर्नमेण्टकी इतनी है कि विलायतमें या भारतमें एक बार ‘हूं’ करतेही रुपयेकी वर्षा होने लगती है। विलायती मन्त्री आपकी मुट्ठीमें हैं। विलायतकी जिस कन्सरवेटिव गवर्नमेण्टने आपको इस देशका वैसराय किया, वह अभी तक बराबर शासनकी मालिक है। लिबरल निर्जीव हैं। जान ब्राइट, ग्लाडष्टोन, ब्राडला, जैसे लोगोंसे विलायत शून्य है, इससे आप परम स्वतन्त्र हैं। इण्डिया आफिस आपके हाथकी पुतली है। विलायतके प्रधानमन्त्री आपके प्रियमित्र हैं। जो कुछ आपको करना है, वह विलायतमें कई मास रहकर पहलेही वहांके शासकोंसे निश्चय कर चुके हैं। अभी आपकी चढ़ती उमर है। चिन्ता कुछ नहीं है। जो कुछ चिन्ता थी, वह भी जल्द मिट गई। स्वयं आपकी विलायतके बड़े भारी बुद्धिमानों और राजनीति-विशारदोंमें गिनती है, वरंच कह सकते हैं कि विलायतके मन्त्री लोग आपके मुंहकी ओर ताकते हैं। सम्राट्का आप पर बहुत भारी विश्वास है। विलायतके प्रधान समाचारपत्र मानो आपके बन्दीजन हैं। बीच-बीचमें आपका गुणग्राम सुनाना पुण्यकार्य समझते हैं। सारांश यह कि लार्ड कार्नवालिसके समय और आपके समयमें बड़ाही भेद होगया है।संसारमें अब अंग्रेजी प्रताप अखण्ड है। भारतके राजा अब आपके हुक्मके बन्द हैं। उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिये, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइये, उन्हें चाहे विलायत भिजवाइये, चाहे कलकत्ते बुलवाइये, जो चाहे सो कीजिये, वह हाजिर हैं। आपके हुक्मकी तेजी तिब्बतके पहाड़ोंकी बरफको पिघलाती है, फारिसकी खाड़ीका जल सुखाती है, काबुलके पहाड़ोंको नर्म करती है। जल, स्थल, वायु, और आकाशमण्डलमें सर्वत्र आपकी विजय है। इस धराधाममें अब अंग्रेजी प्रतापके आगे कोई उंगुली उठानेवाला नहीं है। इस देशमें एक महाप्रतापी राजाके प्रतापका वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इन्द्र उसके यहां जल भरता था, पवन उसके यहां चक्की चलाता था, चांद सूरज उसके यहां रोशनी करते थे, इत्यादि। पर अंग्रेजी प्रताप उससे भी बढ़ गया है। समुद्र अंग्रेजी राज्यका मल्लाह है, पहाड़ोंकी उपत्यकाएं बैठनेके लिए कुर्सी मूढ़े। बिजली कलें चलानेवाली दासी और हजारों मील खबर लेकर उड़नेवाली दूती, इत्यादि इत्यादि।आश्चर्य है माई लार्ड! एक सौ सालमें अंग्रेजी राज्य और अंग्रेजी प्रतापकी तो इतनी उन्नति हो पर उसी प्रतापी बृटिश राज्यके अधीन रहकर भारत अपनी रही सही हैसियत भी खो दे। इस अपार उन्नतिके समयमें आप जैसे शासकके जीमें भारतवासियोंको आगे बढ़ानेकी जगह पीछे धकेलनेकी इच्छा उत्पन्न हो। उनका हौंसला बढ़ानेकी जगह उनकी हिम्मत तोड़नेमें आप अपनी बुद्धिका अपव्यय करें। जिस जातिसे पुरानी कोई जाति इस धराधाम पर मौजूद नहीं, जो हजार सालसे अधिककी घोर परधीनता सहकर भी लुप्त नहीं हुई, जीती है, जिसकी पुरानी सभ्यता और विद्याकी आलोचना करके विद्वान् और बुद्धिमान लोग आज भी मुग्ध होते हैं जिसने सदियों इस पृथिवीपर अखण्ड-शासन करके सभ्यता और मनुष्यत्वका प्रचार किया, वह जाति क्या पीछे हटाने और धूलमें मिला देनेके योग्य है? आप जैसे उच्च श्रेणीके विद्वान्-के जीमें यह बात कैसे समाई कि भारतवासी बहुत-से काम करनेके योग्य नहीं और उनको आपके सजातीयही कर सकते हैं? आप परीक्षाकरके देखिये कि भारतवासी सचमुच उन ऊंचेसे ऊंचे कामों को कर सकते हैं या नहीं, जिनको आपके सजातीय कर सकते हैं। श्रममें, बुद्धिमें, विद्यामें, काममें, वक्तृतामें, सहिष्णुतामें, किसी बातमें इस देशके निवासी संसारमें किसी जातिके आदमियोंसे पीछे रहनेवाले नहीं हैं। वरंच दो एक गुण भारतवासियोंमें ऐसे हैं कि संसार भरमें किसी जातिके लोग उनका अनुकरण नहीं कर सकते। हिन्दुस्थानी फारसी पढ़के ठीक फारिसवालोंकी भांति बोल सकते हैं, कविता कर सकते हैं। अंग्रेजी बोलनेमें वह अंग्रेजोंकी पूरी नकल कर सकते हैं, कण्ठ तालूको अंग्रेजोंके सदृश बना सकते हैं। पर एक भी अंग्रेज ऐसा नहीं है, जो हिन्दुस्थानियोंकी भांति साफ हिन्दी बोल सकता हो। किसी बातमें हिन्दुस्थानी पीछे रहनेवाले नहीं हैं। हां दो बातोंमें वह अंग्रेजोंकी नकल या बराबरी नहीं कर सकते हैं। एक तो अपने शरीरके काले रंगको अंग्रेजोंकी भांति गोरा नहीं बना सकते और दूसरे अपने भाग्यको उनके भाग्यमें रगड़कर बराबर नहीं कर सकते।किन्तु इस संसारके आरम्भमें बड़ा भारी पार्थक्य होने पर भी अन्तमें बड़ी भारी एकता है। समय अन्तमें सबको अपने मार्ग पर ले आता है। देशपति राजा और भिक्षा माँगकर पेट भरनेवाले कंगालका परिणाम एकही होता है। मट्टी मट्टीमें मिल जाती है और यह जीतेजी लुभानेवाली दुनिया यहीं रह जाती है। कितनेही शासक और कितनेही नरेश इस पृथिवी पर होगये, आज उनका कहीं पता निशान नहीं है। थोड़े थोड़े दिन अपनी अपनी नौबत बजा गये चले गये। बड़ी तलाशसे इतिहासके पन्नों अथवा टूटे फूटे खण्डहरोंमें उनके दो चार चिह्न मिल जाते हैं। माई लार्ड! बीते हुए समयको फिर लौटा लेनेकी शक्ति किसीमें नहीं है, आपमें भी नहीं है। दूरकी बात दूर रहे, इन पिछले सौ सालहीमें कितने बड़े लाट आये और चले गये। क्या उनका समय फिर लौट सकता है? कदापि नहीं। विचारिये तो मानो कल आप आये थे, किन्तु छ: साल बीत गये। अब दूसरी बार आनेके बाद भी कितनेही दिन बीत गये तथा बीत जाते हैं। इसी प्रकार उमरें बीत जावेंगी, युग बीत जावेंगे। समयके महासमुद्रमें मनुष्यकी आयु एक छोटी-सी बूँदकी भी बराबरी नहीं कर सकती। आपमें शक्ति नहीं है कि पिछले छ: वर्षों को लौटा सकें या उनमें जो कुछ हुआ है उसे अन्यथा कर सकें। दो साल आपके हाथमें अवश्य हैं। इनमें जो चाहें कर सकते हैं। चाहें तो इस देश की 30 करोड़ प्रजाको अपनी अनुरक्त बना सकते हैं और इस देशके इतिहासमें अच्छे वैसरायोंमें अपना नाम छोड़ जा सकते हैं। नहीं तो यह समय भी बीत जावेगा और फिर आपका करने धरनेका अधिकारही कुछ न रहेगा।विक्रम, अशोक अकबरके यह भूमि साथ नहीं गई। औरंगजेब, अलाउद्दीन इसे मुट्ठीमें दबा कर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर, इसे लूटके मालके साथ ऊंटों और हाथियोंपर लाद कर न ले जासके। आगे भी यह किसीके साथ न जावेगी, चाहे कोई कितनीही मजबूती क्यों न करे। इस समय भगवानसे इसे एक औरही जातिके हाथमें अर्पण किया है, जिसकी बुद्धि विद्या और प्रतापका संसार भरमें डंका बज रहा है। माई लार्ड! उसी जातिकी ओरसे आप इस देशकी 30 करोड़ प्रजाके शासक हैं।अब यह विचारना आपही के जिम्मे है कि इस देशकी प्रजाके साथ आपका क्या कर्तव्य है। हजार सालसे यह प्रजा गिरी दशामें है। क्या आप चाहते हैं कि यह और भी सौ पचास साल गिरती चली जावे? इसके गिरानेमें बड़ेसे बड़ा इतनाही लाभ है कि कुछ संकीर्णहृदय शासकोंकी यथेच्छाचारिता कुछ दिन और चल सकती है। किन्तु इसके उठाने और सम्हालनेमें जो लाभ हैं, उनकी तुलना नहीं हो सकती है। इतिहासमें सदा नाम रहेगा कि अंग्रेजोंने एक गिरी जातिके तीस करोड़ आदयियोंको उठाया था। माई लार्ड! दोनोंमे जो बात पसन्द हो, वह कर सकते हैं। कहिये क्या पसन्द है? पीछे हटाना या आगे बढ़ाना?[‘भारतमित्र’, 17 दिसम्बर,1904 ई.] |
आशा का अन्त |
माई लार्ड! अबके आपके भाषणने नशा किरकिरा कर दिया। संसारके सब दुःखों और समस्त चिन्ताओंको जो शिवशम्भु शर्मा दो चुल्लू बूटी पीकर भुला देता था, आज उसका उस प्यारी विजयापर भी मन नहीं है। आशासे बँधा हुआ यह संसार चलता है। रोगीको रोगसे कैदीको कैदसे, ऋणीको ऋणसे कंगालको दरिद्रतासे, – इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुषको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होनेकी आशा होती है। चाहे उसे इस जीवनमें क्लेशसे मुक्ति न मिले, पर आशाके सहारे इतना होता है कि वह धीरे-धीरे अपने क्लेशोंको झेलता हुआ एक दिन इस क्लेशमय जीवनसे तो मुक्त हो जाता है। पर हाय। जब उसकी यह आशा भी भंग हो जाय, उस समय उसके कष्टका क्या ठिकाना! -“किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये। जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने।”बड़े लाट होकर आपके भारतमें पदार्पण करनेके समय इस देशके लोग श्रीमान्-से जो जो आशाएं करते और सुखस्वप्न देखते थे, वह सब उड़नछू हो गये। इस कलकत्ता महानगरीके समाचारपत्र कुछ दिन चौंक चौंक पड़ते थे कि आज बड़े लाट अमुक मोड़पर वेश बदले एक गरीब काले आदमीसे बातें कर रहे थे, परसों अमुक आफिसमें जाकर कामकी चक्कीमें पिसते हुए क्लर्कोकी दशा देख रहे थे और उनसे कितनीही बातें पूछते जाते थे। इससे हिन्दू समझने लगे कि फिरसे विक्रमादित्यका आविर्भाव हुआ या अकबरका अमल होगया। मुसलमान खयाल करने लगे, खलीफा हारूंरशीदका जमाना आगया। पारसियोंने आपको नौशीरवाँ समझनेकी मोहलत पाई थी या नहीं, ठीक नहीं कहा जासकता। क्योंकि श्रीमान्-ने जल्द अपने कामोंसे ऐसे जल्दबाज लोगोंको कष्ट-कल्पना करनेके कष्टसे मुक्त कर दिया था। वह लोग थोड़ेही दिनोंमें इस बातके समझनेके योग्य होगये थे कि हमारा प्रधान शासक न विक्रमके रंग-ढंगका है, न हारूं या अकबरके, उसका रंगही निराला है। किसीसे नहीं मिलता।माई लार्ड! इस देशकी दो चीजोंमें अजब तासीर है। एक यहांके जलवायुकी और दूसरे यहांके नमककीं, जो उसी जलवायुसे उत्पन्न होता है। नीरससे नीरस शरीरमें यहांका जलवायु नमकीनी ला देता है। मजा यह कि उसे उस नमकीनीकी खबर तक नहीं होती। एक फारिसका कवि कहता है कि हिन्दुस्थानमें एक हरी पत्ती तक बेनमक नहीं है, मानो यह देश नमकसे सींचा गया है। किन्तु शिवशम्भु शर्माका विचार इस कविसे भी कुछ आगे है। वह समझता है कि यह देश नमककी एक महाखानि है, इसमें जो पड़ गया, वही नमक बन गया। श्रीमान् कभी चाहें तो सांभर-झीलके तटपर खड़े होकर देख सकते हैं, जो कुछ उसमें गिर जाता, वही नमक बन जाता है। यहांके जलवायुसे अलग खड़े होकर कितनोंहीने बड़ी-बड़ी अटकलें लगाई और लम्बे चौड़े मनसूबे बांधे पर यहांके जलवायुका असर होतेही वह सब काफूर हो गये।अफसोस माई लार्ड! यहांके जलवायुकी तासीरने आपमें अपनी पिछली दशाके स्मरण रखनेकी शक्ति नहीं रहने दी। नहीं तो अपनी छ: साल पहलेकी दशासे अबकी दशाका मिलान करके चकित होते। घबराके कहते कि ऐं! मैं क्या हो गया? क्या मैं वही हूं, जो विलायतसे भारतकी ओर चलनेसे पहले था? बम्बईमें जहाजसे उतरकर भूमिपर पांव रखतेही यहांके जलवायुका प्रभाव आपपर आरम्भ होगया था। उसके प्रथम फलस्वरुप कलकत्तेमें पदार्पण करतेही आपने यहांके म्यूनिसिपल कारपोरेशनकी स्वाधीनताकी समाप्ति की। जब वह प्रभाव कुछ और बढ़ा तो अकाल पीड़ितोंकी सहायता करते समय आपकी समझमें आने लगा कि इस देशके कितनेही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरीके लालचसे जबरदस्ती अकालपीड़ितोंमें मिलकर दयालु सरकारको हैरान करते हैं। इससे मजदूरी कड़ी की गई।इसी प्रकार जब प्रभाव तेज हुआ तो आपने अकालकी तरफसे आंखोंपर पट्टी बांधकर दिल्ली-दरबार किया।अन्तको गत वर्ष आपने यह भी साफ कह दिया कि बहुतसे पद ऐसे हैं जिनको पैदाइशी तौरसे अंग्रेजही पानेके योग्य हैं। भारतवासियोंकी सरकार जो देती है, वह भी उनकी हैसियतसे बढ़कर है। तब इस देशके लोगोंने सभक लिया था कि अब श्रीमान्-पर यहांके जलवायुका पूरा सिक्का जम गया। उसी समय आपको स्वदेशदर्शनकी लालसा हुई। लोग समझते चलो अच्छा हुआ, जो हो चुका, वह हो चुका, आगेकी तासीरकी अधिक उन्नतिसे पीछा छूटा। किन्तु आप कुछ न समझे। कोरियामें जब श्रीमान्-की आयु अचानक सात साल बढ़कर चालीस होगई, उस समय भी श्रीमान्-की समझमें आ गया था कि वहीं की सुन्दर आवहवाके प्रतापसे आप चालीस सालके होनेपर भी बत्तीस तेंतीसके दिखाई देते हैं। पर इस देशकी आवहवाकी तासीर आपके कुछ समझमें न आई। वह विलायतमें भी श्रीमान्-के साथ लगी गई और जबतक वहां रहे, अपना जोर दिखाती रही। यहां तक कि फिर आपको एक बार इस देशमें उठा लाई, किसी विघ्न वाधाकी परवा न की।माई लार्ड! इस देशका नमक यहांके जलवायुका साथ देता है, क्योंकि उसी जलवायुसे उसका जन्म है। उसकी तासीर भी साथ साथ होती रही। वह पहले विचार-बुद्धि खोता है। पीछे दया और सहृदयताको भगाता है और उदारताको हजम कर जाता है। अन्तको आंखोंपर पट्टी बांधकर, कानोंमें ठीठे ठोककर, नाकमें नकेल डालकर, आदमीको जिधर तिधर घसीटे फिरता है और उसके मुंहसे खुल्लम खुल्ला इस देशकी निन्दा कराता है। आदमीके मनमें वह यही जमा देता है कि जहांका खाना वहांकी खूब निन्दा करना और अपनी शेखी मारते जाना। हम लोग उस नमककी तासीरसे बेअसर नहीं हैं। पर हमारी हड्डियां उसीसे बनी हैं, इस कारण हमें इतना ज्ञान रहता है कि हमारे देशके नमककी क्या तासीर है। हमलोग खूब जानते थे कि यदि श्रीमान् कहीं दूसरी बार भारतमें आगये तो एक दम नमककी खानिमें जाकर नमक हो जावेंगे। इसीसे चाहते थे कि दोबारा आप न आवें। पर हमारी पेश न गई। आप आये और आतेही उस नमककी तासीरका फल अपने कौंसिल और कानवोकेशनमें प्रगट कर डाला।इतने दिन आप सरकारी भेदोंके जाननेसे, अच्छे पद पानेसे, उन्नतिकी बातें सोचनेसे, सुगमतासे शिक्षा लाभ करनेसे, अपने स्वत्वोंके लिये पार्लीमेण्ट आदिमें पुकारनेसे, इस देशके लोगोंको रोकते रहे। आपकी शक्तिमें जो कुछ था, वह करते रहे। पर उसपर भी सन्तोष न हुआ, भगवानकी शक्तिपर भी हाथ चलाने लगे। जो सत्यप्रियता इस देशको सृष्टिके आदिसे मिली है, जिस देशका ईश्वर “सत्यंज्ञानमनन्तम्ब्रह्म” है, वहांके लोगोंको सभामें बुलाके ज्ञानी और विद्वान्-का चोला पहनकर उनके मुंहपर झूठा और मक्कार कहने लगे। विचारिये तो यह कैसे अधःपतन की बात है? जिस स्वदेशको श्रीमान्-ने आदर्श सत्यका देश और वहांके लोगोंको सत्यवादी कहा है, उसका आला नमूना क्या श्रीमान् ही हैं? यदि सचमुच विलायत वैसाही देश हो, जैसा आप फरमाते हैं और भारत भी आपके कथनानुसार मिथ्यावादी और धूर्त देश हो, तोभी तो क्या कोई इस प्रकार कहता है? गिराके ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादीका काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करने के लिये दूसरे को मिथ्यावादी कहनाही क्या सत्यवादिताका सबूत है?माई माई लार्ड! जब आपने अपने शासक होनेके विचारको भूलकर इस देशकी प्रजाके हृदयमें चोट पहुंचाई है तो दो एक बातें पूछ लेनेमें शायद कुछ गुस्ताखी न होगी। सुनिये, विजित और विजेतामें बड़ा अन्तर है। जो भारतवर्ष हजार सालसे विदेशीय विजेताओंके पांवोंमें लोट रहा है, क्या उसकी प्रजाकी सत्यप्रियता विजेता इंगलेण्डके लोगोंकी सत्यप्रियताका मुकाबिला कर सकती है। यह देश भी यदि विलायतकी भांति स्वाधीन होता और यहांके लोगही यहांके राजा होते तब यदि अपने देशके लोगों को यहांके लोगोंसे अधिक सच्चा साबित कर सकते तो आपकी अवश्य कुछ बहादुरी होती। स्मरण करिये, उन दिनोंको कि जब अंग्रेजोंके देशपर विदेशियोंका अधिकार था। उस समय आपके स्वदेशियोंकी नैतिक दशा कैसी थी, उसका विचार तो कीजिये। यह वह देश है कि हजार साल पराये पांवके नीचे रहकर भी एकदम सत्यतासे च्युत नहीं हुआ है। यदि आपका युरोप या इंगलेण्ड दस साल भी पराधीन हो जाते तो आपको मालूम पड़े कि श्रीमान्-के स्वदेशीय कैसे सत्यवादी और नीति-परायण हैं। जो देश कर्मवादी है, वह क्या कभी असत्यवादीहो सकता है? आपके स्वदेशीय यहां बड़ी-बड़ी इमारतेंमें रहते हैं, जैसी रुचि हो, वैसे पदार्थ भोग सकते हैं। भारत आपके लिये भोग्यभूमि है। किन्तु इस देशके लाखों आदमी, इसी देशमें पैदा होकर आवारा कुत्तोंकी भांति भटक-भटककर मरते हैं। उनको दो हाथ भूमि बैठनेको नहीं, पेट भरकर खानेको नहीं, मैले चिथड़े पहनकर उमरें बिता देते हैं और एक दिन कहीं पड़कर चुप-चाप प्राण दे देते हैं। हालकी इस सर्दीमें कितनोंहीके प्राण जहां-तहां निकल गये। इस प्रकार क्लेश पाकर मरनेपर भी क्या कभी वह लोग यह करते हैं कि पापी राजा है, इससे हमारी यह दुगाति है? माई लार्ड! वह कर्मवादी हैं, वह यही समझते हैं कि किसीका कुछ दोष नहीं है – सब हमारे पूर्व कर्मोका दोष है। हाय। हाय। ऐसी प्रजाको आप धूर्त कहे हैं।कभी इस देशमें आकर आपने गरीबोंकी ओर ध्यान न दिया। कभी यहांकी दीन भूखी प्रजाकी दशाका विचार न किया। कभी दस मीठे शब्द सुनाकर यहांके लोगोंको उत्साहित नहीं किया – फिर विचारिये तो गालियां यहांके लोगोंको आपने किस कृपाके बदले में दीं? पराधीनताकी सबके जीमें बड़ी भारी चोट होती है। पर महारानी विक्टोरियाके सदय बरतावने यहांके लोगोंके जीसे वह दुःख भुला दिया था। इस देशके लोग सदा उनको माता तुल्य समझते रहे, अब उनके पुत्र महाराज एडवर्डपर भी इस देशके लोगोंकी वैसीही भक्ति है। किन्तु आप उन्हीं सम्राट् एडवर्डके प्रतिनिधि होकर इस देशकी प्रजाके अत्यन्त अप्रिय बने हैं। यह इस देशके बड़ेही दुर्भाग्यकी बात है। माई माई लार्ड! इस देशकी प्रजाको आप नहीं चाहते और वह प्रजा आपको नहीं चाहती, फिर भी आप इस देशके शासक हैं और एक बार नहीं दूसरी बार शासक हुए हैं, यही विचार विचारकर इस अधबूढ़े भंगड़ ब्राह्मणका नशा किरकिरा हो-हो जाता है।[‘भारतमित्र’, 25 फरवरी, 1905 ई.] |
एक दुराशा |
नारंगीके रसमें जाफरानी वसन्ती बूटी छानकर शिवशम्भु शर्मा खटिया पर पड़े मौजोंका आनन्द ले रहे थे। खयाली घोड़ेकी बागें ढीली कर दी थीं। वह मनमानी जकन्दें भर रहा था। हाथ-पावोंको भी स्वाधीनता दी गई थी। वह खटियाके तूल अरजकी सीमा उल्लंघन करके इधर-उधर निकल गये थे। कुछ देर इसी प्रकार शर्माजीका शरीर खटियापर था और खयाल दूसरी दुनियामें।अचानक एक सुरीली गानेकी आवाजने चौंका दिया। कन-रसिया शिवशम्भु खटियापर उठ बैठे। कान लगाकर सुनने लगे। कानोंमें यह मधुर गीत बार-बार अमृत ढालने लगा -चलो-चलो आज, खेलें होली कन्हैया घर।कमरेसे निकल कर बरामदेमें खड़े हुए। मालूम हुआ कि पड़ौसमें किसी अमीरके यहां गाने-बजानेकी महफिल हो रही है। कोई सुरीली लयसे उक्त होली गा रहा है। साथही देखा बादल घिरे हुए हैं, बिजली चमक रही है, रिमझिम झड़ी लगी हुई है। वसन्तमें सावन देखकर अकल जरा चक्करमें पड़ी। विचारने लगे कि गानेवालेको मलार गाना चाहिये था, न कि होली। साथही खयाल आया कि फागुन सुदी है, वसन्तके विकाशका समय है, वह होली क्यों न गावे? इसमें तो गानेवालेकी नहीं, विधिकी भूल है, जिसने वसन्तमें सावन बना दिया है। कहां तो चान्दनी छिटकी होती, निर्मल वायु बहती, कोयलकी कूक सुनाई देती। कहां भादोंकी-सी अन्धियारी है, वर्षाकी झड़ी लगी हुई है। ओह। कैसा ऋतु विपर्यय है।इस विचारको छोड़कर गीतके अर्थका विचार जीमें आया। होली खिलैया कहते हैं कि चलो आज कन्हैयाके घर होली खेलेंगे। कन्हैया कौन? ब्रजके राजकुमार और खेलनेवाले कौन? उनकी प्रजा – ग्वालबाल। इस विचारने शिवशम्भु शर्माको और भी चौंका दिया कि ऐं! क्या भारतमें ऐसा समय भी था, जब प्रजाके लोग राजाके घर जाकर होली खेलते थे और राजा-प्रजा मिलकर आनन्द मनाते थे। क्या इसी भारत में राजा लोग प्रजाके आनन्दको किसी समय अपना आनन्द समझते थे? अच्छा यदि आज शिवशंभु शर्मा अपने मित्रवर्ग सहित अबीर गुलालकी झोलियां, भूरेरंगकी चिकारियां लिये अपने राजाके घर होली खेलने जाये तो कहां जाये? राजा दूर सात समुद्र पार है। राजाका केवल नाम सुना है। न राजाको शिवशंभुने देखा, न राजाने शिवशंभुको। खैर राजा नहीं, उसने अपना प्रतिनिधि भारतमें भेजा है, कृष्ण द्वारिकामें हें, पर उध्वको प्रतिनिधि बनाकर ब्रजवासियोंको सन्तोष देनेके लिए ब्रजमें भेजा है। क्या उस राजा-प्रतिनिधिके घर जाकर शिवशंभु होली नहीं खेल सकता?ओफ। यह विचार वैसा ही बेतुका है, जैसे अभी वर्षामें होली गाई जाती थी। पर इसमें गानेवालेका क्या दोष है? वह तो समय समझकर ही गा रहा था। यदि वसन्तमें वर्षाकी झाड़ी लगे तो गानेवालोंको क्या मलार गाना चाहिये? सचमुच बड़ी कठिन समस्या है। कृष्ण है, उध्व है, पर ब्रजवासी उनके निकट भी नहीं फटकने पाते। राजा है, राजप्रतिनिधि है, पर प्रजाकी उन तक रसाई नहीं। सूर्य है, धूप नहीं। चन्द्र है, चान्दनी नही। माई लार्ड नगरहीमें है, पर शिवशम्भु उसके द्वार तक नहीं फटक सकता है, उसके घर चलकर होली खेलना तो विचारही दूसरा है। माई लार्डके घर तक प्रजाकी बात नहीं पहुंच सकती, बातकी हवा नहीं पहुंच सकती। जहांगीरकी भांति उसने अपने शयनागार तक ऐसा कोई घण्टा नहीं लगाया, जिसकी जञ्जीर बाहरसे हिलाकर प्रजा अपनी फरयाद उसे सुना सके। न आगेको लगानेकी आशा है। प्रजाकी बोली वह नहीं समझता, उसकी बोली प्रजा नहीं समझती। प्रजाके मनका भाव वह न समझता है, न समझना चाहता है। उसके मनका भाव न प्रजा समझ सकती है, न समझनेका कोई उपाय है। उसका दर्शन दुर्लभ है। द्वितीयाके चन्द्रकी भांति कभी-कभी बहुत देर तक नजर गड़ानेसे उसका चन्द्रानन दिख जाता है, तो दिखजाता है। लोग उंगलियोंसे इशारे करते हैं कि वह है। किन्तु दूजके चान्दके उदयका भी एक समय है। लोग उसे जान सकते हैं। माई लार्डके मुखचन्द्रके उदयके लिये कोई समय भी नियत नहीं। अच्छा, जिस प्रकार इस देशके निवासी माई लार्डका चन्द्रानन देखनेको टकटकी लगाये रहते हैं, या जैसे शिवशम्भु शर्माके जीमें अपने देशके माई लार्डसे होली खेलनेकी आई इस प्रकार कभी माई लार्डको भी इस देशके लोगोंकी सुध आती होगी? क्या कभी श्रीमान्-का जी होता होगा कि अपनी प्रजामें जिसके दण्ड-मुण्डके विधाता होकर आये हैं किसी एक आदमीसे मिलकर उसके मनकी बात पूछें या कुछ आमोद-प्रमोदकी बातें करके उसके मनको टटोलें? माई लार्डको ड्यूटीका ध्यान दिलाना सूर्यको दीपक दिखाना है। वह स्वयं श्रीमुखसे कह चुके हैं कि ड्यूटीमें बँधा हुआ मैं इस देशमें फिर आया। यह देश मुझे बहुतही प्यारा है। इससे ड्यूटी और प्यारकी बात श्रीमान्-के कथनसेही तय हो जाती है। उसमें किसी प्रकारकी हुज्जत उठानेकी जरूरत नहीं। तथापि यह प्रश्न आपसे आप जीमें उठता है कि इस देशकी प्रजासे प्रजाके माई लार्डका निकट होना और प्रजाके लोगोंकी बात जानना भी उस ड्यूटीकी सीमा तक पहुंचता है या नही? यदि पहुंचता है तो क्या श्रीमान् बता सकते हैं कि अपने छ: सालके लम्बे शासनमें इस देशकी प्रजाको क्या जाना और उससे क्या सम्बन्ध उत्पन्न किया? जो पहरेदार सिरपर फेंटा बांधे हाथमें संगीनदार बन्दूक लिये काठके पुतलोंकी भांति गवर्नमेण्ट हौसके द्वार पर दण्डायमान रहते हैं, या छायाकी मूर्तिकी भांति जरा इधर-उधर हिलते जुलते दिखाई देते हैं, कभी उनको भूले भटके आपने पूछा है कि कैसी गुजरती है? किसी काले प्यादे चपरासी या खानसामा आदिसे कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो? तुम्हारे देशकी क्या चाल-ढाल है? तुम्हारे देशके लोग हमारे राज्यको कैसा समझते हैं? क्या इन नीचे दरजेके नौकर-चाकरोंको कभी माई लार्डके श्रीमुखसे निकले हुए अमृत रूपी वचनोंके सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ या खाली पेड़ों पर बैठी चिड़ियोंका शब्दही उनके कानों तक पहुंचकर रह गया? क्या कभी सैर तमाशेमें टहलनेके समय या किसी एकान्त स्थानमें इस देशके किसी आदमीसे कुछ बातें करनेका अवसर मिला? अथवा इन देशके प्रतिष्ठित बेगरज आदमीको अपने घरपर बुलाकर इस देशके लोगोंके सच्चे विचार जाननेकी चेष्टा की? अथवा कभी विदेश या रियासतोंके दौर में उनलोगोंके सिवा जो झुकझुक कर लम्बी सलामें करने आये हों, किसी सच्चे और बेपरवा आदमीसे कुछ पूछने या कहनेका कष्ट किया? सुनते हैं कि कलकत्तेमें श्रीमान्-ने कोना कोना देख डाला। भारतमें क्या भीतर और क्या सीमाओंपर कोई जगह देखे बिना नहीं छोड़ी। बहुतोंका ऐसाही विचार था। पर कलकत्ता यूनिवर्सिटीके परीक्षोत्तीर्ण छात्रोंकी सभामें चैंसलरका जामा पहनकर माई लार्डने जो अभिज्ञता प्रगट की, उससे स्पष्ट हो गया कि जिन आंखोंसे श्रीमान्-ने देखा, उनमें इस देशकी बातें ठीक देखनेकी शक्ति न थी।सारे भारतकी बात जाय, इस कलकत्तेहीमें देखनेकी इतनी बातें हैं कि केवल उनको भली भांति देख लेनेसे भारतवर्षकी बहुतसी बातोंका ज्ञान होसकता है। माई लार्डके शासनके छः साल हालवेलके स्मारकमें लाठ बननाने, ब्लैक-हालका पता लगाने, अख्तरलोनीकी लाठको मैदानसे उठवाकर वहां विक्टोरिया मिमोरियल-हाल बनवाने, गवर्नमेण्टहौसके आसपास अच्छी रोशनी, अच्छे फुटपाथ और अच्छी सड़कोंका प्रबन्ध करानेमें बीत गये। दूसरा दौर भी वैसेही कामोंमे बीत रहा है। सम्भव है कि उसमें भी श्रीमान्-के दिलपसन्द अंग्रेजी मुहल्लोंमें कुछ और भी बड़ी-बड़ी सड़कें निकल जायें और गवर्नमेण्टहौसकी तरफके स्वर्गकी सीमा और बढ़ जावे। पर नगर जैसा अन्धेरेमें था, वैसाही रहा, क्योंकि उसकी असली दशा देखनेके लिये औरही प्रकारकी आंखोंकी जरूरत है। जब तक वह आंखें न होंगी, यह अंधेर योंही चला जावेगा। यदि किसी दिन शिवशम्भु शर्माके साथ माई लार्ड नगरकी दशा देखने चलते तो वह देखते कि इस महानगरकी लाखों प्रजा भेड़ों और सुअरोंकी भांति सड़े-गन्दे झोपड़ोंमें पड़ी लोटती है। उनके आस पास सड़ी बदबू और मैले सड़े पानीके नाले बहते हैं, कीचड़ और कूड़ेके ढेर चारों ओर लगे हुए हैं। उनके शरीरोंपर मैले-कुचैले फटे-चिथड़े लिपटे हुए हैं। उनमेंसे बहुतोंकी आजीवन पेट भर अन्न और शरीर ढाकनेको कपड़ा नहीं मिलता। जाड़ोंमें सर्दीसे अकड़ कर रह जाते हैं और गर्मीमें सड़कों पर घुमते तथा जहां तहां पड़ते फिरते हैं। बरसातमें सड़े सीले घरोंमें भींगे पड़े रहते हैं। सारांश यह कि हरेक ऋतुकी तीब्रतामें सबसे आगे मृत्युके पथका वही अनुगमन करते हैं। मौतही एक है, जो उनकी दशा पर दया करके जल्द-जल्द उन्हें जीवन रूपी रोगके कष्टसे छुड़ाती है।परन्तु क्या इनसे भी बढ़ कर और दृश्य नहीं है? हां हैं, पर जरा और स्थिरतासे देखनेके हैं। बालूमें बिखरी हुई चीनीको हाथी अपने सूंड़से नहीं उठा सकता, उसके लिये चिंवटीकी जिह्वा दरकार है। इसी कलकत्तेमें इसी इमारतोंके नगरमें माई लार्डकी प्रजामें हजारों आदमी ऐसे हैं। जिनको रहनेको सड़ा झोपड़ा भी नहीं है। गलियों और सड़कों पर घूमते-घूमते जहां जगह देखते हैं, वहीं पड़ रहते हैं। पहरेवाला आकर डण्डा लगाता है तो सरक कर दूसरी जगह जा पड़ते हैं। बीमार होते हैं तो सड़कोंही पर पड़े पांव पीटकर मर जाते हैं। कभी आग जलाकर खुले मैदानमें पड़े रहते हैं। कभी-कभी हलवाइयोंकी भट्टियोंसे चमट कर रात काट देते हैं। नित्य इनकी दो चार लाशें जहां तहांसे पड़ी हुई पुलिस उठाती है। भला माई लार्ड तक उनकी बात कौन पहुंचावे? दिल्ली दरबारमें भी जहां सारे भारतका वैभव एकत्र था, सैकड़ों ऐसे लोग दिल्लीकी सड़कोंपर पड़े दिखाई देते थे, परन्तु उनकी ओर देखनेवाला कोई न था। यदि माई लार्ड एक बार इन लोगोंको देख पाते तो पूछनेको जगह हो जाती कि वह लोग भी बृटिश राज्यके सिटिजन हैं वा नहीं? यदि हैं तो कृपा पूर्वक पता लगाइये कि उनके रहनेके स्थान कहां हैं और बृटिश राज्यसे उनका क्या नाता है? क्या कहकर वह अपने राजा और उसके प्रतिनिधिको सम्बोधन करें? किन शब्दोंमें बृटिश राज्यको असीस दें? क्या यों कहें कि जिस बृटिश राज्यमें हम अपनी जन्मभूमिमें एक उंगल भूमिके अधिकारी नहीं, जिसमें हमारे शरीरको फटे चिथड़े भी नहीं जुड़े और न कभी पापी पेटको पूरा अन्न मिला, उस राज्यकी जय हो। उसका राजप्रतिनिधि हाथियोंका जुलूस निकालकर सबसे बड़े हाथीपर चंवर छत्र लगा कर निकले और स्वदेशमें जाकर प्रजाके सुखी होनेका डंका बजावे?इस देशमें करोड़ों प्रजा ऐसी है, जिसके लोग जब संध्या सवेरे किसी स्थान पर एकत्र होते हैं तो महाराज विक्रमकी चर्चा करते हैं और उन राजा महाराजोंकी गुणावली वर्णन करते हैं, जो प्रजाका दुःख मिटाने और उनके अभावोंका पता लगानेके लिये रातोंको देश बदलकर निकला करते थे। अकबरके प्रजापालनकी और बीरबलके लोकरञ्जनकी कहानियां कहकर वह जी बहलाते हैं और समझते हैं कि न्याय और सुखका समय बीत गया। अब वह राजा संसारमें उत्पन्न नहीं होते, जो प्रजाके सुख दुःखकी बातें उनके घरोंमें आकर पूछ जाते थे। महारानी विक्टोरियाको वह अवश्य जानते हैं कि वह महारानी थीं और अब उनके पुत्र उनकी जगह राजा और इस देशके प्रभु हुए है। उनको इस बातकी खबर तक भी नहीं कि उनके प्रभुके कोई प्रतिनिधि होते हैं और वही इस देशके शासनके मालिक होते हैं तथा कभी-कभी इस देशकी तीस करोड़ प्रजाका शासन करनेका घमण्ड भी करते हैं। अथवा मन चाहे तो इस देशके साथ बिना कोई अच्छा बरताव किये भी यहांके लोगोंको झूठा, मक्कार आदि कहकर अपनी बड़ाई करते हैं। इन सब विचारोंने इतनी बात तो शिवशम्भुके जामें भी पक्की करदी कि अब राजा प्रजाके मिलकर होली खेलनेका समय गया। जो बाकी था, वह काश्मीर-नरेश महाराज रणवीरसिंहके साथ समाप्त होगया। इस देशमें उस समयके फिर लौटनेकी जल्द आशा नहीं। इस देशकी प्रजाका अब वह भाग्य नहीं है। साथही किसी राजपुरुषका भी ऐसा सौभाग्य नहीं है, जो यहांकी प्रजाके अकिंचन प्रेमके प्राप्त करनेकी परवा करे। माई लार्ड अपने शासन-कालका सुन्दरसे सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं, वह प्रजाके प्रेमकी क्या परवा करेंगे? तो भी इतना सन्देश भंगड़ शिवशम्भु शर्मा अपने प्रभु तक पहुंचा देना चाहता है कि आपके द्वार पर होली खेलनेकी आशा करनेवाले एक ब्राहृमणको कुछ नहीं तो कभी-कभी पागल समझकरही स्मरण कर लेना। वह आपकी गूंगी प्रजाका एक वकील है, जिसके शिक्षित होकर मुंह खोलने तक आप कुछ करना नहीं चाहतेबमुलाजिमाने सुलतां कै रसानद, ईं दुआरा? कि बशुक्रे बादशाही जे नजर मरां गदारा।[‘भारतमित्र’,18 मार्च, 1905 ई.] |
बंग विच्छेद |
गत 16 अक्टोबर को बंगविच्छेद या बंगालका पार्टीशन हो गया। पूर्व बंगाल और आसामका नया प्रान्त बनकर हमारे महाप्रभु माई लार्ड इंगलेण्डके महान राजप्रतिनिधिका तुगलकाबाद आबाद होगया। भंगड़ लोगोंके पिछले रगड़ेकी भांति यही माई लार्डकी सबसे पिछली प्यारी इच्छा थी। खूब अच्छी तरह भंग घुटकर तय्यार होजाने पर भंगड़ आनन्दसे उस पर एक और रगड़ लगाता है। भंगड़-जीवनमें उससे बढ़कर और कुछ आनन्द नहीं होता। माई लार्डके भारतशासन जीवनमें भी इससे अधिक आनन्दकी बात कदाचित् कोई न होगी, जिसे पूरी होते देखनेके लिए आप इस देशका सम्बन्ध-जाल छिन्न करडालने पर भी उससें अटके रहे।माई लार्डको इस देशमें जो कुछ करना था, वह पूरा कर चुके थे। यहां तक कि अपने सब इरादोंको पूरा करते करते अपने शासनकालकी इतिश्री भी अपनेही करकमलसे कर चुके थे। जो कुछ करना बाकी था, वह यही बंगविच्छेद था। वह भी होगया। आप अपनी अन्तिम कीर्तिकी ध्वजा अपनेही हाथोंसे उड़ा चले और अपनी आंखोंको उसके प्रियदर्शनसे सुखी कर चले, यह बड़े सौभाग्यकी बात है। अपने शासनकालकी रकाबीमें बहुतसी कड़वी कसैली चीजें चख जाने पर भी आप अपने लिये ‘मधुरेण समापयेत्’ कर चले यही गनीमत है।अब कुछ करना रह भी गया हो तो उसके पूरा करनेकी शक्ति माई लार्डमें नहीं है। आपके हाथोंसे इस देशका जो बुरा भला होना था, वह हो चुका। एक ही तीर आपके तर्कशमें और बाकी था, उससे आप बंगभूमिका वक्षस्थल छेद चले। बस, यहां आकर आपकी शक्ति समाप्त हो गई। इस देशकी भलाईकी ओर तो आपने उस समय भी दृष्टि न की, जब कुछ भला करनेकी शक्ति आपमें थी। पर अब कुछ बुराई करनेकी शक्ति भी आपमें नहीं रही, इससे यहांके लोगोंको बहुत ढाढस मिली है। अब आप हमारा कुछ नहीं कर सकते।आपके शासनकालमें बंगविच्छेद इस देशके लिए अन्तिम विषाद और आपके लिए अन्तिम हर्ष है। इस प्रकारके विषाद और हर्ष, इस पृथिवीके सबसे पुराने देशकी प्रजाने बारम्बार देखे हैं। महाभारतमें सबका संहार होजाने पर भी घायल पड़े हुए दुर्मद दुर्योधनको अश्वत्थामाकी यह वाणी सुनकर अपार हर्ष हुआ था कि मैं पांचों पाण्डवोंके सिर काटकर आपके पास लाया हूं। इसी प्रकार सेनासुधार रूपी महाभारतमें जंगीलाट किचनर रूपी भीमकी विजय-गदासे जर्जरित होकर पदच्युति-हृदमें पड़े इस देशके माई लार्डको इस खबरने बड़ा हर्ष पहुंचाया कि अपने हाथोंसे श्रीमान् को बंगविच्छेदका अवसर मिला। इसी महाहर्षको लेकर माई लार्ड इस देशसे विदा होते हैं, यह बड़े सन्तोषकी बात है। अपनोंसे लड़कर श्रीमान्-की इज्जत गई या श्रीमान्-ही गये, उसका कुछ ख्याल नहीं है, भारतीय प्रजाके सामने आपकी इज्जत बनी रही, यही बड़ी बात है। इसके सहारे स्वदेश तक श्रीमान् मोछों पर ताव देते चले जासकते हैं।श्रीमान्-के खयालके शासक इस देशने कई बार देखे हैं। पांच सौसे अधिक वर्ष हुए तुगलक वंशके एक बादशाहने दिल्लीको उजाड़ कर दौलताबाद बसाया था। पहले उसने दिल्लीकी प्रजाको हुक्म दिया कि दौलताबादमें जाकर बसो। जब प्रजा बड़े कष्टसे दिल्लीको छोड़कर वहां जाकर बसी तो उसे फिर दिल्लीको लौट आनेका हुक्म दिया। इस प्रकार दो तीन बार प्रजाको दिल्लीसे देवगिरि और देवगिरिसे दिल्ली अर्थात श्रीमान् मुहम्मद तुगलकके दौलताबाद और अपने वतनके बीचमें चकराना और तबाह होना पड़ा। हमारे इस समयके माई लार्डने केवल इतनाही किया है कि बंगाल के कुछ जिले आसाममें मिलाकर एक नया प्रान्त बना दिया है। कलकत्तेकी प्रजाको कलकत्ता छोड़कर चटगांवमें आबाद होनेका हुक्म तो नहीं दिया। जो प्रजा तुगलक जैसे शासकों का खयाल बरदाश्त कर गई, वह क्या आजकलके माई लार्डके एक खयालको बरदाश्त नहीं कर सकती है?सब ज्योंका त्यों है। बंगदेशकी भूमि जहां थी वहीं है और उसका हरएक नगर और गांव जहां था वहीं है। कलकत्ता उठाकर चीरापूँजीके पहाड़ पर नहीं रख दिया गया और शिलांग उड़कर हुगलीके पुलपर नहीं आबैठा। पूर्व और पश्चिम बंगाल बीचमें कोई नहर नहीं खुद गयी और दोनोंको अलग अलग करने के लिये बीचमें कोई चीनकीसी दीवार नहीं बन गई है। पूर्व बंगाल, पश्चिम बंगालसे अलग होजाने पर भी अंग्रेजी शासनहीमें बना हुआ है और पश्चिम बंगाल भी पहलेकी भांति उसी शासनमें है। किसी बातमें कुछ फर्क नहीं पड़ा। खाली खयाली लड़ाई है। बंगविच्छेद करके माई लार्डने अपना एक खयाल पूरा किया है। इस्तीफा देकर भी एक खयालही पूरा किया और इस्तीफा मंजूर होजाने पर इस देशमें पड़े रहकर भी श्रीमान्-का प्रिन्स आफ वेल्सके स्वागत तक ठहरना एक खयाल मात्र है।कितनेही खयाली इस देशमें अपना खयाल पूरा करके चले गये। दो सवादो सौ साल पहले एक शासकने इस बंगदेशमें एक रुपयेके आठ मन धान बिकवाकर कहा था कि जो इससे सस्ता धान इस देशमें बिकवाकर इस देशके धनधान्य-पूर्ण होनेका परिचय देगा, उसको मैं अपनेसे अच्छा शासक समझूँगा। वह शासक भी नहीं है, उसका समय भी नहीं है। कई एक शताब्दियोंके भीतर इस भूमिने कितनेही रंग पलटे हैं, कितने ही इसकी सीमाएं हो चुकी हैं। कितनेही नगर इसकी राजधानी बनकर उजड़ गये। गौड़के जिन खण्डहरोंमें अब उल्लू बोलते और गीदड़ चिल्लाते हैं, वहां कभी बांके महल खड़े थे और वहीं बंगदेशका शासक रहता था। मुर्शिदाबाद जो आज एक लुटाहुआसा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंगदेशकी राजधानी था और उसकी चहल-पहलका कुछ ठिकाना न था। जहां घसियारे घास खोदा करते थे, वहां आज कलकत्ता जैसा महानगर बसा हुआ है, जिसके जोड़का एशियामें एकआध नगरही निकल सकता है। अब माई लार्डके बंगविच्छेदसे ढाका, शिलांग और चटगांवमेंसे हरेक राजधानीका सेहरा बंधवानेके लिये सिर आगे बढ़ाता है। कौन जाने इनमेंसे किसके नसीबमें क्या लिखा है और भविष्य क्या क्या दिखायेगा।दो हजार वर्ष नहीं हुए इस देशका एक शासक कह गया है -“सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसीके भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवीके पानेसे क्या राजाओंको अभिमान करना चाहिये? अब तो लोग इसके अंशके अंशको पाकर भी अपनेको भूपति मानते हैं। ओहो। जिसपर पश्चाताप करना चाहिये उसके लिये मूर्ख उल्टा आनन्द करते है।” वही राजा और कहता है – “यह पृथिवी मट्टीका एक छोटा-सा ढेला है जो चारों तरफसे समुद्ररूपी पानीकी रेखासे घिरा हुआ है। राजा लोग आपसमें लड़भिड़कर इस छोटेसे ढेलेके छोटे-छोटे अंशों पर अपना अधिकार जमाकर राज्य करते हैं। ऐसे क्षुद्र और दरिद्री राजाओंको लोग दानी कहकर जांचने जाते हैं। ऐसे नीचोंसे धनकी आशा करनेवाले अधम पुरुषोंको धिक्कार है।” यह वह शासक था कि इस देश का चक्रवर्ती अधीश्वर होनेपर भी एक दिन राजपाटको लात मारकर जंगलों और बनोंमें चला गया था। आज वही भारत एक ऐसे शासकका शासनकाल देख रहा है जो यहांका अधीश्वर नहीं है, कुछ नियत समयके लिये उसके हाथमें यहांका शासनभार दिया गया था, तो भी इतना मोहमें डूबा हुआ है कि स्वयं इस देशको त्यागकर भी इसे कुछ दिन और न त्यागनेका लोभ संवरण न कर सका।यह बंगविच्छेद बंगका विच्छेद नहीं है। बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये। जिन्होंने गत 16 अक्टोबरका दृश्य देखा है, वह समझ सकते हैं कि बंगदेश या भारतवर्षमें नहीं, पृथिवी भरमें वह अपूर्व दृश्य था। आर्य सन्तान उस दिन अपने प्राचीन वेशमें विचरण करती थी। बंगभूमि ऋषि-मुनियोंके समयकी आर्यभूमि बनी हुई थी। किसी अपूर्व शक्तिने उसको उस दिन एक राखीसे बांध दिया था। बहुत कालके पश्चात भारत सन्तानको होश हुआ कि भारतकी मट्टी वन्दनाके योग्य है। इसीसे वह एक स्वरसे “बन्दे मातरम्” कहकर चिल्ला उठे। बंगालके टुकड़े नहीं हुए, वरंच भारतके अन्यान्य टुकड़े भी बंगदेशसे आकर चिमटे जाते हैं।हां, एक बड़ेही पवित्र मेलको हमारे माई लार्ड विच्छिन्न किये जाते हैं। वह इस देशके राजा प्रजाका मेल है। स्वर्गीया विक्टोरिया महारानीके घोषणापत्र और शासनकालने इस देशकी प्रजाके जीमें यह बात जमादी थी कि अंग्रेज, प्रजाकी बात सुनकर और उसका मन रखकर शासन करना जानते हैं और वह रंगके नहीं, योग्यता के पक्षपाती हैं। केनिंग और रिपन आदि उदारहृदय शासकोंने अपने सुशासनसे इस भावकी पुष्टि की थी। इस समयके महाप्रभु ने दिखा दिया कि वह पवित्र घोषणापत्र समय पड़ेकी चाल मात्र था। अंग्रेज अपने खयालके सामने किसीकी नहीं सुनते। विशेषकर दुर्बल भारतवासियोंकी चिल्लाहटका उनके जीमें कुछ भी वजन नहीं है। इससे आठ करोड़ बंगालियोंके एक स्वर होकर दिन रात महीनों रोने-गानेपर भी अंग्रेजी सरकारने कुछ न सुना। बंगालके दो टुकड़े कर डाले। उसी माई लार्डके हाथसे दो टुकड़े कराये, जिसके कहनेसे उसने केवल एक मिलिटरी मेम्बर रखना भी मंजूर नहीं किया और उसके लिये माई लार्डको नौकरीसे अलग करना भी पसन्द किया। भारतवासियोंके जीमें यह बात जम गई कि अंग्रेजोंसे भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना गाना वृथा है। दुर्बलकी वह नहीं सुनते।बंगविच्छेदसे हमारे महाप्रभु सरदस्त राजा प्रजामें यही भाव उत्पन्न करा चले हैं। किन्तु हाय। इस समय इसपर महाप्रभुके देशमें कोई ध्यान देनेवाला तक नहीं है, महाप्रभु तो ध्यान देनेके योग्यही कहां?[‘भारतमित्र’, 21 अक्तूबर, 1905 ई.] |
लार्ड मिन्टोका स्वागत |
भगवान करे श्रीमान् इस विनयसे प्रसन्न हों – मैं इस भारत देशकी मट्टीसे उत्पन्न होनेवाला, इसका अन्न फल मूल आदि खाकर प्राण-धारण करनेवाला, मिल जाय तो कुछ भोजन करनेवाला, नहीं तो उपवास कर जानेवाला, यदि कभी कुछ भंग प्राप्त होजाय तो उसे पीकर प्रसन्न होनेवाला, जवानी बिताकर बुढ़ापेकी ओर फुर्तीसे कदम बढ़ानेवाला और एक दिन प्राणविसर्जन करके इस मातृभूमिकी वन्दनीय मट्टीमें मिलकर चिर शान्तिलाभ करनेकी आशा रखनेवाला शिवशम्भु शर्मा इस देशकी प्रजाका अभिनन्दनपत्र लेके श्रीमान्-की सेवामें उपस्थित हुआ हूं। इस देशकी प्रजा श्रीमान्-का हृदयसे स्वागत करती है। आप उसके राजाके प्रतिनिधि होकर आये हैं। पांच साल तक इस देशकी 30 करोड़ प्रजाके रक्षण, पालन और शासनका भार राजाने आपको सौंपा। इससे यहांकी प्रजा आपको राजाके तुल्य मानकर आपका स्वागत करती है और आपके इस महान् पदपर प्रतिष्ठित होनेके लिये हर्ष प्रकाश करती है।भाग्यसे आप इस देशकी प्रजाके शासक हुए हैं। अर्थात यहांकी प्रजाकी इच्छासे आप यहांके शासक नियत नहीं हुए। न यहांकी प्रजा उस समयतक आपके विषयमें कुछ जानती थी, जबकि उसने श्रीमान्-के इस नियोगकी खबर सुनी। किसीको श्रीमान्-की ओरका कुछ भी गुमान न था। आपके नियोग की खबर इस देशमें बिना मेघकी वर्षाकी भांति अचानक आ गिरी। अब भी यहांकी प्रजा श्रीमान्-के विषयमें कुछ नहीं समझी है, तथापि उसे आपके नियोगसे हर्ष हुआ। आपको पाकर वह वैसीही प्रसन्न हुई है, जैसे डूबता थाह पाकर प्रसन्न होता है। उसने सोचा है कि आपतक पहुंच जानेसे उसकी सब विपदोंकी इति हो जायेगी।भाग्यवानोंसे कुछ न कुछ सम्बन्ध निकाल लेना संसारकी चाल है। जो लोग श्रीमान् तक पहुंच सके हैं, उन्होंने श्रीमान्-से भी एक गहरा सम्बन्ध निकाल लिया है। वह लोग कहते हैं कि सौ साल पहले आपके बड़ोंमेंसे एक महानुभाव यहांका शासन कर गये हैं, इससे भारतका शासक होना आपके लिये कोई नई बात नहीं है। वह लोग साथही यह भी कहते हैं कि सौ साल पहलेवाले लार्ड मिन्टो बड़े प्रजापालक थे। प्रजाको प्रसन्न रखकर शासन करना चाहते थे। यह कहकर वह श्रीमान्-से भी अच्छे शासन और प्रजा-रञ्जनकी आशा जनाते हैं। पर यह सम्बन्ध बहुत दूरका है। सौ साल पहलेकी बातका कितना प्रभाव हो सकता है, नहीं कहा जा सकता। उस समयकी प्रजामेंसे एक आदमी जीवित नहीं, जो कुछ उस समयकी आंखो देखी कह सके। फिर यह भी कुछ निश्चय नहीं कि श्रीमान् अपने उस बड़ेके शासनके विषयमें वैसाही विचार रखते हों, जैसा यहांके लोग कहते हैं। यह भी निश्चय नहीं कि श्रीमान्-को सौ साल पहलेकी शासननीति पसन्द होगी या नहीं तथा उसका कैसा प्रभाव श्रीमान्-के चित्तपर है। हां, एक प्रभाव देखा कि श्रीमान्-के पूर्ववर्ती शासकने अपनेसे सौ साल पहलेके शासककी बात स्मरण करके उस समयकी पोशाक में गवर्नमेन्ट हौसके भीतर एक नाच, नाच डाला था।सारांश यह है कि लोग जिस ढंग से श्रीमान्-की बड़ाई करते हैं वह एक प्रकारकी शिष्टाचारकी रीति पूरी कर रहे हैं। आपकी असली बड़ाईका मौका अभी नहीं आया, पर वह मौका आपके हाथमें विलक्षण रूपसे है। श्रीमान् इस देशमें अभी यदि अज्ञातकुल नहीं तो अज्ञातशील अवश्य हैं। यहांके कुछ लोगोंकी समझमें आपके पूर्ववर्ती शासकने प्रजाको बहुत सताया है और वह उसके हाथसे बहुत तंग हुई। वह समझते हैं कि आप उन पीड़ाओंको दूरकर देंगे, जो आपका पूर्ववर्ती शासक यहां फैला गया है। इसीसे वह दौड़कर आपके द्वारपर जाते हैं। यह कदापि न समझिये कि आपके किसी गुणपर मोहित होकर जाते हैं। वह जैसे आंखोंपर पट्टी बांधे जाते हैं, वैसेही चले आते हैं, जिस अंधेरेमें हैं, उसीमें रहते हैं।अब यह कैसे मालूम हो कि जिन बातोंको कष्ट मानते हैं, उन्हें श्रीमान् भी कष्टही मानते हों? अथवा आपके पूर्ववर्ती शासकने जो काम किये, आप भी उन्हें अन्याय भरे काम मानते हों? साथही एक और बात है। प्रजाके लोगोंकी पहुंच श्रीमान् तक बहुत कठिन है। पर आपका पूर्ववर्ती शासक आपसे पहलेही मिल चुका और जो कहना था वह कह गया। कैसे जाना जाय कि आप उसकी बातपर ध्यान न देकर प्रजाकी बातपर ध्यान देंगे? इस देशमें पदार्पण करनेके बाद जहां आपको जरा भी खड़ा होना पड़ा है, वहीं उन लोगोंसे घिर हुए रहे हैं, जिन्हें आपके पूर्ववर्ती शासकका शासन पसन्द है। उसकी बात बनाई रखनेको अपनी इज्जत समझते हैं। अब भी श्रीमान् चारों ओरसे उन्हीं लोगोंके घेरेमें हैं। कुछ करने धरनेकी बात तो अलग रहे, श्रीमान्-के विचारोंको भी इतनी स्वाधीनता नहीं है कि उन लोगोंके बिठाये चौकी पहरेको जरा भी उल्लंघन कर सकें। तिसपर गजब यह कि श्रीमान्-को इतनी भी खबर नहीं कि श्रीमान्-की स्वाधीनता पर इतने पहरे बैठे हुए हैं। हां, यह खबर हो जाय तो वह हट सकते हैं।जिस दिन श्रीमान्-ने इस राजधानीमें पदार्पण करके इसका सौभाग्य बढ़ाया, उस दिन प्रजाके कुछ लोगोंने सड़कके किनारोंपर खड़े होकर श्रीमान्-को बड़ी कठिनाईसे एक दृष्टि देख पाया। इसके लिये पुलिस पहरेवालोंकी गली, घुसे और धक्के भी बरदाश्त किये। बस, उन लोगोंने श्रीमान्-के श्रीमुखकी एक झलक देख ली। कुछ कहने सुनने का अवसर उन्हें न मिला, न सहजमें मिल सकता। हुजूरने किसी को बुलाकर कुछ पूछताछ न की न सही, उसका कुछ अरमान नहीं, पर जो लोग दौड़कर कुछ कहने सुनने की आशासे हुजूरके द्वार तक गये थे, उन्हें भी उल्टे पांव लौट आना पड़ा। ऐसी आशा अन्तत: प्रजाको आपसे न थी। इस समय वह अपनी आशाको खड़ा होनेके लिये स्थान नहीं पाते हैं।एक बार एक छोटा-सा लड़का अपनी सौतेली मातासे खानेको रोटी मांग रहा था। सौतेली मां कुछ काममें लगी थी, लड़केके चिल्लानेसे तंग होकर उसने उसे एक बहुत ऊंचे ताकमें बिठा दिया। बेचारा भूख और रोटी दोनोंकी भूल नीचे उतार लेनेके लिये रो रो कर प्रार्थना करने लगा, क्योंकि उसे ऊंचे ताकसे गिरकर मरनेका भय हो रहा था। इतनेमें उस लड़केका पिता आगया। उसने पितासे बहुत गिड़गिड़ाकर नीचे उतार लेनेकी प्रार्थना की। पर सौतेली माताने पतिको डांटकर कहा, कि खबरदार! इस शरीर लड़केको वहीं टंगे रहने दो, इसने मुझे बड़ा दिक किया है। इस बालककीसी दशा इस समय इस देशकी प्रजाकी है। श्रीमान्-से वह इस समय ताकसे उतार लेनेकी प्रार्थना करती है, रोटी नहीं मांगती। जो अत्याचार उसपर श्रीमान्-के पधारनेके कुछ दिन पहलेसे आरम्भ हुआ है, उसे दूर करनेके लिये गिड़गिड़ाती है, रोटी नहीं मांगती। बस, इतनेहीमें श्रीमान् प्रजाको प्रसन्न कर सकते हैं। सुनाम पानेका यह बहुत ही अच्छा अवसर है, यदि श्रीमान्-को उसकी कुछ परवा हो।आशा मनुष्यको बहुत लुभाती है, विशेषकर दुर्बलको परम कष्ट देती है। श्रीमान्-ने इस देशमें पदार्पण करके बम्बईमें कहा और यहां भी एक बार कहा कि अपने शासनकालमें श्रीमान् इस देशमें सुख शान्ति चाहते हैं। इससे यहांकी प्रजाको बड़ी आशा हुई थी कि वह ताकसे नीचे उतार ली जायगी, पर श्रीमान्-के दो एक कामों तथा कौंसिलके उत्तरने उस आशाको ढीला कर डाला है, उसे ताकसे उतरनेका भरोसा भी नहीं रहा।अभी कुछ दिन हुए आपके एक लफटन्टने कहा था कि मेरी दशा उस आदमीकीसी है, जिसके एक हिन्दू और एक मुसलमान दो जोरू हों, हिन्दू जोरू नाराज रहती हो और मुसलमान जोरू प्रसन्न। इससे वह हिन्दू जोरूको हटाकर मुसलमान बीबीसे खूब प्रेम करने लगे। श्रीमान्-के उस लफटन्टकी ठीक वैसी दशा है या नहीं, कहा नहीं जा सकता। पर श्रीमान्-की दशा ठीक उस लड़केके पिताकीसी है, जिसकी कहानी ऊपर कही गई है। उधर उसका लड़का ताकमें बैठा नीचे उतरनेके लिये रोता है और इधर उसकी नवीना सुन्दरी स्त्री लड़केको खूब डरानेके लिये पतिपर आंखें लाल करती है। प्रजा और “प्रेस्टीज” दो खयालोंमें श्रीमान फंसे हैं। प्रजा ताकका बालक है और प्रेस्टीज नवीन सुन्दरी पत्नी – किसकी बात रखेंगे? यदि दया और वात्सल्यभाव श्रीमान्-के हृदयमें प्रबल हो तो प्रजाकी ओर ध्यान होगा, नहीं तो प्रेस्टीजकी ओर ढुलकनाही स्वाभाविक है।अब यह विषय श्रीमान्-हीके विचारनेके योग्य है कि प्रजाकी ओर देखना कर्तव्य है या प्रेस्टीजकी। आप प्रजाकी रक्षाके लिये आये हैं या प्रेस्टीजकी? यदि आपके खयालमें प्रजारूपी लड़का ताकमें बैठा रोया करे और “उतारो, उतारो” पुकारा करे, इसीमें उसका सुख और शान्ति है तो उसे ताकमें टंगा रहने दीजिये, जैसाकि इस समय रहने दिया है। यदि उसे वहांसे उतारकर कुछ खाने पीनेको देनेमें सुख है तो वैसा किया जा सकता है। यह भी हो सकता है कि उसकी विमाताको प्रसन्न करके उसे उतरवा लिया जाय, इसमें प्रजा और प्रेस्टीज दोनोंकी रक्षा है।जो बात आपको भली लगे वही कीजिये – कर्तव्य समझिये वही कीजिये। इस देशकी प्रजाको अब कुछ कहने सुननेका साहस नहीं रहा। अपने भाग्यका उसे भरोसा नहीं, अपनी प्रार्थनाके स्वीकार होनेका विश्वास नहीं। उसने अपनेको निराशाके हवाले कर दिया है। एक विनय और भी साथ साथ की जाती है कि इस देशमें श्रीमान् जो चाहें बेखटके कर सकते हैं, किसी बातके लिये विचारने या सोचमें जानेकी जरूरत नहीं। प्रशंसा करनेवाले अब और चलते समय बराबर आपको घेरे रहेंगे। आप देखही रहे हैं कि कैसे सुन्दर कासकेटों में रखकर, लम्बी चौड़ी प्रशंसा भरे एड्रेस लेकर लोग आपकी सेवामें उपस्थित होते हैं। श्रीमान् उन्हें बुलाते भी नहीं, किसी प्रकारकी आशा भी नहीं दिलाते, पर वह आते हैं, इसी प्रकार हुजूर जब इस देशको छोड़ जायेंगे तो हुजूरबालाको बहुतसे एड्रेस उन लोगोंसे मिलेंगे, जिनका हुजूरने कभी कुछ भला नहीं किया। बहुत लोग हुजूर की एक मूर्तिके लिये खनाखन रुपये गिन देंगे, जैसे कि हुजूरके पूर्ववर्ती वैसरायकी मूर्ति कि लिये गिने जा रहे हैं। प्रजा उस शासककी कड़ाईके लिये लाख रोती है, पर इसी देशके धनसे उसकी मूर्ति बनती है।विनय हो चुकी, अब भगवानसे प्रार्थना है कि श्रीमान्-का प्रताप बढ़े यश बढ़े और जबतक यहां रहें, आनन्दसे रहें। यहांकी प्रजाके लिये जैसा उचित समझें करें। यद्दपि इस देशके लोगोंकी प्रार्थना कुछ प्रार्थना नहीं है, पर प्रार्थनाकी रीति है, इससे की जाती है।[‘भारतमित्र’, 23 सितम्बर, 1905 ई.] |
मार्ली साहब के नाम |
“निश्चित विषय।”विज्ञवरेषु, साधुवरेषु!बहुत काल पश्चात आपसा पुरुष भाग्यका विधाता हुआ है। एक पंडित, विचारवान और आडम्बररहित सज्जनको अपना अफसर होते देखकर अपने भाग्यको अचल अटल और कभी टससे मस न होनेवाला, वरंच आपके कथनानुसार ‘Settled fact’ समझनेपर भी आडम्बर शून्य भोलेभाले भारतवासी हर्षित हुए थे। वह इसलिये हर्षित नहीं हुए कि आप उनके भाग्यकी कुछ मरम्मत कर सकते हैं। ऐसी आशाको वह कभीके जलांजलि, दे चुके हैं। उनका हर्ष केवल इसलिये था कि एक सज्जनको, एक साधुको, यह पद मिलता है। भलेका पड़ोस भी भला, उसकी हवा भी भली। “जो गन्धी कछु दै नहीं, तौहू बास सुबास।”आप उपाधिशून्य हैं। आपको माई लार्ड कहके सम्बोधन करनेकी जरूरत नहीं है। अथच आप इस देशके माई लार्डके भी माई लार्ड हैं। यहां के निवासी सदासे ऋषि मुनियों और साधु महात्माओंको पूजते आये हैं और यहांके देशपति नरपति लोग सदा उन साधु महात्माओंके सामने सिर झुकाते और उनसे अनुशासन पाते रहे हैं। उसी विचारसे यहांके लोग आपके नियोगसे प्रसन्न हुए थे। एक विचारशील पुरुषका सिद्धान्त है कि किसी देशका उत्तम शासन होनेके लिये दो बातोंमेंसे किसी एकका होना अति आवश्यक है – या तो शासक साधु बन जाय या साधु शासक नियत किया जाय। हाकिम हकीम हो जाय या हकीम हाकिम बनाया जाय। इसीसे आपको भारतका देशमन्त्री देखकर यहांकी प्रजाको हर्ष हुआ था कि अहा! बहुत दिन पीछे एक साधु पुरुष – एक विद्वान सज्जन भारतका सर्व प्रधान शासक होता है।भारतवासी समझते थे कि मिस्टर मार्ली विद्वान हैं। विद्या पढ़ने और दर्शन-शास्त्रका मनन करनेमें समय बिताकर वह बूढ़े हुए हैं। वह तत्काल जान सकते हैं कि बुराई क्या है और भलाई क्या, नेकी क्या है और बदी क्या? उनको बुराई और भलाईके समझनेमें दूसरेकी सहायताकी आवश्यकता नहीं। वरंच वह स्वयं इतने योग्य हैं कि अपनीही बुद्धिसे ऐसी बातोंकी यथार्थ जांच कर सकते हैं। दूसरोंके चरित्रको झट जान सकते हैं। वह दोषीको धमकायेंगे और उसे सुमार्गमें चलानेका उपदेश देंगे। भारतवासियोंका विचार था कि आप बड़े न्यायप्रिय हैं। किसीसे जरा भी किसी विषयमें अन्याय करना पसन्द न करेंगे और खुशीको नेकीसे बढ़कर न समझेंगे। उचित कामोंके करनेमें कभी कदम पीछे न हटावेंगे और कोई लालच, कोई इनाम और कोई भारीसे भारी पद वा राजनीतिक दांवपेच आपको सत्य और सन्मार्गसे न डिगा सकेगा। आपके मुंहसे जो शब्द निकलेंगे, वह तुले हुए सत्य होंगे। यही कारण है कि भारतवासी आपके नियोगकी खबर सुनकर खुश हुए थे।पार्लीमेंटके चुनावके समय जिस प्रकार भारतवासी आपके चुनावकी ओर टकटकी लगाये हुए थे, आपके भारत सचिव हो जानेपर उसी प्रकार वह आपके मुंहकी वाणी सुननेको उत्सुक हुए। पर आपके मुंहसे जो कुछ सुना उसे सुनकर वह लोग जैसे हक्का बक्का हुए ऐसे कभी न हुए थे। आपने कहा कि बंग भंग होना बहुत खराब काम है, क्योंकि यह अधिकांश प्रजावर्गकी इच्छाके विरुद्ध हुआ। पर जो हो गया उसे Settled fact, निश्चित विषय समझना चाहिए। एक विद्वान पुरुष दार्शनिक सज्जनकी यह उक्ति कि यह काम यद्यपि खराब हुआ, तथापि अब यही अटल रहेगा। इसकी खराबी अब दूर न होगी। किमाश्चर्यमतः परम।लड़कपनमें एक देहातीकी कहानी पढ़ी थी जिसका गधा खोया गया था और वह एक दूसरेकी गधीको अपना गधा बताकर पकड़ ले जाना चाहता था। पर जब उसे लोगोंने कहा कि यार! तू तो अपना गधा बताता है, देख यह गधी है; तो उसने घबराकर कहा था कि मेरा गधा कुछ ऐसा गधा भी न था। गंवारका गधा गधी हो सकता है, पर भारतसचिव दार्शनिकप्रवर मार्ली साहब जिस कामको बुरा बताते हैं, वही ‘निश्चित विषय’ भी हो सकता है, यह बात भारतवासियोंने कभी स्वप्नमें भी नहीं विचारीथी। जिस कामको आप खराब बताते हैं, उसे वैसेका वैसा बना रखना चाहते हैं, यह नये तरीकेका न्याय है। अब तक लोग यही समझते थे कि विचारवान विवेकी पुरुष जहां जायेंगे वहीं विचार और विवेकी मर्यादाकी रक्षा करेंगे। वह यदि राजनीतिमें हाथ डालेंगे तो उसकी जटिलताको भी दूर कर देंगे। पर बात उल्टी देखनेमें आती है। राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानोंको भी गधा गधी एक बतलानेवालोंके बराबर कर देती है।विज्ञवर! आप समझते हैं और आप जैसे विद्वानोंको समझना चाहिये कि सत्य सत्य है और मिथ्या मिथ्या। मिथ्या और सत्य गड़प शड़प होकर एक हो सकते हैं, यह आप जैसे साधु पुरुषोंके कहनेकी बात नहीं है। विज्ञ पुरुषोंके कहनेकी बात नहीं है। विज्ञ पुरुषोंकी बातोंको आपसमें टकराना न चाहिये। पर गत बजटकी स्पीचमें आपने बातोंके मेढ़े लड़ा डाले हैं। आपने कहा है – “जहां तक मेरी कल्पना जा सकती है, भारत शासन यथेच्छ ढंगका रहेगा।” पर यह भी कहा है – “भारतमें किसी प्रकारकी बुरी चाल चलना हमें उससे भी अधिक खराबीमें डालेगा,जितना दक्षिण अफ्रीकामें चार साल पहले एक बुरी चाल चलकर खराबीमें पड़ चुके है।”आपने कहा है – “हिन्दुस्थानी कांग्रेसकी कामनाओं को सुनकर मैं घबराता नहीं।” पर यह भी कहा – “जो बातें विलायतको प्राप्त हैं, वह भारतको सब नहीं प्राप्त हो सकतीं।” आपकी इन दोरंगी बातोंसे भारतवासी बड़े घबराहटमें पड़े हैं। घबराकर उन्हें आपके देशकी दो कहावतोंका आश्रय लेना पड़ता है कि – राजनीतिज्ञ पुरुष युक्ति या न्यायके पाबन्द नहीं होते अथवा राजनीतिका कुछ ठिकाना नहीं।आपको अपनेही एक वाक्यकी ओर ध्यान देना चाहिये – “अपनी साधारण योग्यताके परिणामसेही कोई आदमी प्रसिद्ध या बड़ा नहीं हो सकता। वरंच उचित समयपर उचित काम करनाही उसे बड़ा बनाता है।” जिस पदपर आप हैं – उसकी जो कुछ इज्जत है, वह आपकी नहीं, उस पदकी है। लार्ड जार्ज हमिल्टन और मिस्टर ब्राडरिक भी इसी पदपर थे। पर इस पदसे उनकी इतनीही इज्जत थी कि वह इस पदपर थे। बाकी उनके कामोंके अनुसारही उनकी इज्जत है। आपका गौरव इस पदसे नहीं बढ़ना चाहिए। वरंच आपके कामोंसे इस पदकी कुछ मर्यादा बढ़नी चाहिये।भारतवासियोंने बहुत कुछ देखा और देख रहे हैं। इस देशके ऋषि-मुनि जब बनोंमें जाकर तप करते थे और यहांके नरेश उनकी आज्ञासे प्रजापालन करते थे, वह समय भी देखा। फिर मुसलमान इस देशके राजा हुए और पुराना क्रम मिट गया, वह भी देखा। अब देख रहे हैं, सात समुद्र पारसे आई हुई एक जातिके लोग जो पहले बिसातीके रूपमें इस देशमें आये थे और छल बल और कौशलसे यहांके प्रभु बन गये। यह देश और यहांकी स्वाधीनता उनकी मुठ्ठीकी चिड़िया बन गई। और भी न जाने क्या क्या देखना पड़ेगा। पर संसारकी कोई बात निश्चित है, यह बात यहांके लोगोंकी समझमें नहीं आती। निश्चित ही होती तो लार्ड जार्ज हमिल्टन और ब्राडरिककी गद्दी साधुवर मार्ली तक कैसे पहुंचती।न बंगभंगही निश्चित विषय है और न भारतका यथेच्छ शासन। स्थिरता न प्रभातको है और न सन्ध्याको। सदा न वसन्त रहता है, न ग्रीष्म। हां, एक बात अब भारतवासियोंके जीमें भली भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिवही कर सकते हैं और न लिबरलही। यदि उनका कुछ भला होना है तो उन्हींके हाथसे। इसे यदि विज्ञवर मार्ली “निश्चित-विषय” मान लें तो विशेष हानि नहीं।अत: भारतवासियोंका भला या बुरा जो होना है सो होगा, इसकी उन्हें कुछ परवा नहीं है। उन्हें ईश्वरपर विश्वास है और काल अनन्त है, कभी न कभी भलेका भी समय आजायगा। भारतवासियोंको चिन्ता केवल यही है कि उनके देशसचिव साधुवर मार्ली साहबको अपनी चिरकालसे एकत्र की हुई कीर्ति और सुयशको अपने वर्तमान पदपर कुरबान न करना पड़े। इस देशका एक बहुतही साधारण कवि कहता है -झूठा है वह हकीम जो लालचसे मालके, अच्छा कहे मरीजके हाले तबाहको।अपने लालचके लिये यदि रोगीकी बुरी दशाको अच्छा बतावे तो वह हकीम नहीं कहला सकता। भारतवासी आपको दार्शनिक और हकीम समझते हैं। उनको कभी यह विश्वास नहीं कि आप अपने पदके लोभसे न्यायनीतिकी मर्यादा भंग कर सकते हैं या अपने दलकी बुराई भलाई और कमजोरी मजबूतीके खयालसे भारतके शासन रूपी रोगीकी बिगड़ी दशाको अच्छी बता सकते हैं। आपहीके देशका एक साधु पुरुष कह गया है – “आयर्लेण्डकी स्वाधीनता मेरे जीवनका व्रत है, पर इस स्वाधीनता पानेके लोभसे भी मैं दक्षिण अफरीकावालोंकी स्वाधीनता छिनवानेका समर्थन कभी न करूंगा।” अतः आपसे बार बार यही विनय है कि अपने साधु पदकी मर्यादाका खूब विचार रखिये। भारतवासियोंको अपनी दशाकी परवा नहीं। पर आपकी इज्जतका उन्हें बड़ा खयाल है। कहीं आप राजनीतिक पदके लोभसे अपने साधुपदको उस देहातीका गधा न बना बैठें।अपने सिरका तो हमें कुछ गम नहीं, खम न पड़ जाये तेरी तलवारमें।[‘भारतमित्र’, 16 फरवरी, 1907 ई.] |
आशीर्वाद |
तीसरे पहरका समय था। दिन जल्दी जल्दी ढल रहा था और सामनेसे संध्या फुर्तीके साथ पांव बढ़ाये चली आती थी। शर्मा महाराज बूटीकी धुनमें लगे हुए थे। सिल-बट्टेसे भंग रगड़ी जारही थी। मिर्च मसाला साफ हो रहा था। बादाम इलायचीके छिलके उतारे जाते थे। नागपुरी नारंगियां छील कर रस निकाला जाता था। इतनेमें देखा कि बादल उमड़ रहे हैं। चीलें नीचे उतर रही हैं, तबीयत भुरभुरा उठी इधर भंग उधर घटा, बहारमें बहार। इतनेमें वायुका बेग बढ़ा, चीलें अदृश्य हुई। अन्धेरा छाया। बून्दें गिरने लगीं। साथही तड़तड़ धड़धड़ होने लगी, देखा ओले गिर रहे हैं। ओले थमे, कुछ वर्षा हुई। बूटी तैयार हुई “बम भोला” कहके शर्माजीने एक लोटा भर चढ़ाई। ठीक उसी समय लालडिग्गीपर बड़े लाट मिन्टोने बंगदेशके भूतपूर्व छोटे लाट उडबर्नकी मूर्ति खोली। ठीक एकही समय कलकत्तेमें यह दो आवश्यक काम हुए। भेद इतनाही था कि शिवशम्भुशर्माके बरामदेकी छतपर बून्दें गिरती थीं और लार्ड मिन्टोके सिर या छातेपर।भंग छानकर महाराजजीने खटियापर लम्बी तानी। कुछ काल सुषुप्ति के आनन्दमें निमग्न रहे। अचानक धड़धड़ तड़तड़के शब्दने कानोंमें प्रवेश किया। आंखें मलते उठे। वायुके झोंकोंसे किवाड़ पुर्जे-पुर्जे हुआ चाहते थे। बरामदेके टीनोंपर तड़ातड़के साथ ठनाका भी होता था। एक दरवाजेके किवाड़ खोलकर बाहरकी ओर झांका तो हवाके झोंकेने दस बीस बून्दों और दो चार ओलोंसे शर्माजीके श्रीमुखका अभिषेक किया। कमरेके भीतर भी ओलोंकी एक बौछाड़ पहुंची। फुर्तीसे किवाड़ बन्द किये, तथापि एक शीशा चूर हुआ। समझमें आगया कि ओलोंकी बौछाड़ चल रही है। इतनेमें ठन-ठन करके दस बजे। शर्माजी फिर चारपाईपर लम्बायमान हुए। कान, टीन और ओलोंके सम्मिलनकी ठनाठनका मधुर शब्द सुनने लगे। आंखें बन्द, हाथ पांव सुखमें। पर विचारके घोड़ेको विश्राम न था। वह ओलोंकी चोटसे बाजुओंको बचाता हुआ परिन्दोंकी तरह इधर-उधर उड़ रहा था। गुलाबी नशेमें विचारोंका तार बंधा कि बड़े लाट फुर्तीसे अपनी कोठीमें घुस गये होंगे और दूसरे अमीर भी अपने-अपने घरोंमें चले गये होंगे, पर वह चीलें कहां गई होंगी? ओलोंसे उनके बाजू कैसे बचे होंगे, जो पक्षी इस समय अपने अण्डे बच्चों समेत पेड़ोंपर पत्तोंकी आड़में हैं या घोसलोंमें छिपे हुए हैं, उनपर क्या गुजरी होगी। जरूर झड़े हुए फलोंके ढेरमें कल सवेरे इन बदनसीबोंके टूटे अण्डे, मरे बच्चे और इनके भीगे सिसकते शरीर पड़े मिलेंगे। हां, शिवशम्भुको इन पक्षियोंकी चिन्ता है, पर यह नहीं जानता कि इस अभ्रस्पर्शी अट्टालिकाओंसे परपूरित महानगरमें सहस्रों अभागे रात बितानेको झोंपड़ी भी नहीं रखते। इस समय सैकड़ों अट्टालिकाएं शून्य पड़ी हैं। उनमें सहस्रों मनुष्य सो सकते, पर उनके ताले लगे हैं और सहस्रोंमें केवल दो दो चार चार आदमी रहते हैं। अहो, तिसपर भी इस देशकी मट्टीसे बने हुए सहस्रों अभागे सड़कोंके किनारे इधर उधर-की सड़ी और गीली भूमियोंमें पड़े भीगते हैं। मैले चिथड़े लपेटे वायु वर्षा और ओलोंका सामना करते हैं। सवेरे इनमेंसे कितनोंहीकी लाशें जहां तहां पड़ी मिलेंगी। तू इस चारपाईपर मौजें उड़ा रहा है।आनकी आनमें विचार बदला, नशा उड़ा, हृदयपर दुर्बलता आई। भारत! तेरी वर्तमान दशामें हर्षको अधिक देर स्थिरता कहां? कभी कोई हर्षसूचक बात दस बीस पलकके लिये चित्तको प्रसन्न कर जाय तो वही बहुत समझना चाहिये। प्यारी भंग! तेरी कृपासे कभी कभी कुछ कालके लिये चिन्ता दूर हो जाती है। इसीसे तेरा सहयोग अच्छा समझा है। नहीं तो यह अधबूढ़ा भंगड़ क्या सुखका भूखा है! घावोंसे चूर जैसे नींदमें पड़कर अपने कष्ट भूल जाता है अथवा स्वप्नमें अपनेको स्वस्थ देखता है, तुझे पीकर शिवशम्भु भी उसी प्रकार कभी-कभी अपने कष्टोंको भूल जाता है।चिन्ता स्रोत दूसरी ओर फिरा। विचार आया कि काल अनन्त है। जो बात इस समय है, वह सदा न रहेगी। इससे एक समय अच्छा भी आसकता है। जो बात आज आठ आठ आंसू रुलाती है, वही किसी दिन बड़ा आनन्द उत्पन्न कर सकती है। एक दिन ऐसीही काली रात थी। इससे भी घोर अंधेरी-भादों कृष्णा अष्टमीकी अर्द्धरात्रि। चारों ओर घोर अन्धकार-वर्षा होती थी, बिजली कौंदती थी, घन गरजते थे। यमुना उत्ताल तरंगोंमें बह रही थी। ऐसे समयमें एक दृढ़ पुरुष एक सद्यजात शिशुको गोदमें लिये, मथुराके कारागारसे निकल रहा था। शिशुकी माता शिशुके उत्पन्न होनके हर्षको भूलकर दुःखसे विह्वल होकर चुपके चुपके आंसू गिराती थी, पुकार कर रो भी नहीं सकती थी। बालक उसने उस पुरुषको अर्पण किया और कलेजेपर हाथ रख कर बैठ गई। सुध आनेके समयसे उसने कारागारमें ही आयु बिताई है। उसके कितने ही बालक वहीं उत्पन्न हुए और वहीं उसकी आंखोंके सामने मारे गये। यह अन्तिम बालक है। कड़ा कारागार, विकट पहरा, पर इस बालकको वह किसी प्रकार बचाना चाहती है। इसीसे उस बालकको उसने पिताकी गोदमें दिया हैं कि वह उसे किसी निरापद स्थानमें पहुंचा आवे।वह और कोई नहीं थे, यदुवंशी महाराज वसुदेव थे और नवजात शिशु कृष्ण। उसीको उस कठिन दशामें उस भयानक काली रातमें वह गोकुल पहुंचाने जाते हैं। कैसा कठिन समय था। पर दृढ़ता सब विपदोंको जीत लेती है, सब कठिनाइयोंको सुगम कर देती है। वसुदेव सब कष्टोंको सह कर यमुना पार करके भीगते हुए उस बालकको गोकुल पहुंचा कर उसी रात कारागारमें लौट आये। वही बालक आगे कृष्ण हुआ, ब्रजका प्यारा हुआ, मां-बापकी आंखोंका तारा हुआ, यदुकुल मुकुट हुआ। उस समयकी राजनीतिका अधिष्ठाता हुआ। जिधर वह हुआ उधर विजय हुई, जिसके विरुद्ध हुआ उसकी पराजय हुई। वही हिन्दुओंका सर्वप्रधान अवतार हुआ और शिवशम्भु शर्माका इष्टदेव, स्वामी और सर्वस्व। वह कारागार भारत सन्तानके लिये तीर्थ हुआ। वहांकी धूल मस्तकपर चढ़ानेके योग्य हुई -बर जमीने कि निशानेकफे पाये तो वुवद। सालहा सिजदये साहिब नजरां ख्वाहद बूद।।(जिस भूमिपर तेरा पदचिह्न है, दृष्टिवाले सैकड़ों वर्षतक उसपर अपना मस्तक टेकेंगे।)तब तो जेल बुरी जगह नहीं है। “पञ्जाबी” के स्वामी और सम्पादकको जेलके लिये दुःख न करना चाहिये। जेलमें कृष्णने जन्म लिया है। इस देशके सब कष्टोंसे मुक्त करनेवालेने अपने पवित्र शरीरको पहले जेलकी मिट्टीसे स्पर्श कराया। उसी प्रकार “पञ्जाबी” के स्वामी लाला यशवन्त रायने जेलमें जाकर जेलकी प्रतिष्ठा बढ़ाई, भारतवासियोंका सिर ऊंचा किया, अग्रवाल जातिका सिर ऊंचा किया। उतना ही ऊंचा, जितना कभी स्वाधीनता और स्वराज्यके समय अग्रवाल जातिका अग्रोहेमें था। उधर एडीटर मि. अथावलेने स्थानीय ब्राहृमणोंका मस्तक ऊंचा किया जो उनके गुरु तिलकको अपने मस्तकका तिलक समझते हैं। सुरेन्द्रनाथने बंगालकी जेलकी और तिलकने बम्बईकी जेलका मान बढ़ाया था। यशवन्त राय और अथावलेने लाहोरकी जेलको वही पद प्रदान किया। लाहोरी जेलकी भूमि पवित्र हुई। उसकी धूल देशके शुभचिन्तकोंकी आंखोंका अञ्जन हुई। जिन्हें इस देशपर प्रेम है, वह इन दो युवकोंकी स्वाधीनता और साधुतापर अभिमान कर सकते हैं।जो जेल, चोर डकैतों, दुष्ट हत्यारोंके लिये है जब उसमें सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजातिके शुभचिन्तकोंके चरण स्पर्श हों तो समझना चाहिये कि उस स्थानके दिन फिरे। ईश्वरकी उसपर दया दृष्टि हुई। साधुओंपर संकट पड़नेसे शुभ दिन आते हैं। इससे सब भारतवासी शोक सन्ताप भूलकर प्रार्थनाके लिये हाथ उठावें कि शीघ्र वह दिन आवे कि जब एक भी भारतवासी चोरी, डकैती, दुष्टता, व्यभिचार, हत्या, लूट खसोट, जाल आदि दोषोंके लिये जेलमें न जाय। जाय तो देश और जातिकी प्रीति और शुभचिन्ताके लिये। दीनों और पददलित निर्बलोंको सबलोंके अत्याचारसे बचानेके लिये, हाकिमोंको उनकी भूलों और हार्दिक दुर्बलतासे सावधान करनेके लिये और सरकारको सुमन्त्रणा देनेके लिये। यदि हमारे राजा और शासक हमारे सत्य और स्पष्ट भाषण और हृदयकी स्वच्छताको भी दोष समझें और हमें उसके लिये जेल भेजें तो वैसी जेल हमें ईश्वरकी कृपा समझकर स्वीकार करना चाहिये और जिन हथकड़ियों हमारे निर्दोष देशबांधवोंके हाथ बंधें, उन्हें हेममय आभूषण समझना चाहिये। इसी प्रकार यदि हमारे ईश्वरमें इतनी शक्ति हो कि वह हमारे राजा और शासकों को हमारे अनुकूल कर सके और उन्हें उदारचित्त और न्यायप्रिय बना सके तो इतना अवश्य करे कि हमें सब प्रकार के दोषोंसे बचाकर न्यायके लिये जेल काटनेकी शक्ति दे, जिससे हम समझें कि भारत हमारा है और हम भारतके। इस देशके सिवा हमारा कहीं ठिकाना नहीं। रहें इसी देशमें, चाहे जेलमें चाहे घरमें। जब तक जियें जियें और जब प्राण निकल जायं तो यहींकी पवित्र मट्टीमें मिल जायं।[‘भारतमित्र’, 30 मार्च, 1907 ई.] |
शाइस्ताखांका खत – 1 |
फुलर साहबके नामभाई फुलरजंग! दो सौ सवादो सौ सालके बाद तुमने फिर एक बार नवाबी जमानेको ताजा किया है, इसके लिये मैं तुम्हारा शुक्रिया किस जुबानसे अदा करूं। मैंने तो समझा था कि हमलोगोंकी बदनाम नवाबी हुकूमतकी दुनियामें फिर कभी इज्जत न होगी। उसपर अमलदरामद तो क्या उसका नाम भी अगर कोई लेगा तो गाली देनेके लिये। मेरा ही नहीं, मेरे बाद भी जो नवाब हुए उन सबका यही खयाल है। मगर अब देखता हूं कि जमानेका इनकलाब एक बार फिरसे हम लोगोंके कारनामोंको ताजा करना चाहता है।अपनी हुकूमतके जमानेमें मैंने कितने ही काम अपनी मर्जीसे किये और कितनेही लाचारीसे। उनमेंसे कितनोंहीके लिये मैं निहायत शरमिन्दा हूं, अपने ऊपर मुझे आप नफरत आती है। मैंने देखा कि उन कामोंका नतीजा बहुत खराब हुआ। हुकूमतके नशेमें उस वक्त बुरा भला कुछ न सोचा। मगर अंजाम जो कुछ हुआ, वह सारे जमानेने देख लिया। यानी हमारी कौमको बहुत जल्द हुकूमतसे छुट्टी मिल गई और जिस बादशाहका मैं नायब बनकर बंगालका नाजिम हुआ था, उसने मरनेसे पहले अपनी हुकूमतका जवाल अपनी आंखोंसे देखा। बंगालमें मेरे बाद फिर किसीको नाजिम नहीं होना पड़ा।गर्जे के मैंने खूब गौर करके देखा बंगालेमें या हिन्दुस्तानमें नवाबी जमाना फिर होनेकी कुछ जरूरत नहीं है। इन दो सौ सालमें कितनी ही बातें मैंने जान ली हैं, जमानेके कितने ही उलट-पलट देखे और समझे उसकी चालपर खूब निगाह जमाकर देखा, मगर कहीं नवाबीके खड़ा होनेकी गुंजाइश न पाई। लेकिन देखा जाता है कि तुम्हारे जीमें नवाबीकी खाहिश है। तुम बंगालके हिन्दुओंको धमकाते हो कि उनके लिये फिर शाइस्ताखांका जमाना ला दिया जायगा। भई वल्लह। मैंने जबसे यह खबर अपने दोस्त नवाब अब्दुल्लतीफखांसे सुनी है तबसे हंसते हंसते मेरे पेटमें बल पड़ जाते हैं। अकेला मैंही नहीं हंसा, बल्कि जितने मुझसे पहले और पीछेके नवाब यहां बहिश्तमें मौजूद हैं सब एकबार हंसे। यहां तक कि हमारे सिका सूरत बादशाह औरंगजेब भी जो उस दुनियामें कभी न हंसे थे इस वक्त अपनी हंसीको रोक न सके। हंसी इस बातकी थी कि बेसमझे ही तुमने मेरे जमानेका नाम लिया है। मालूम होता है कि तुम्हें इल्म तवारीखसे बहुत कम मस है। अगर तुम्हें मालूम होता कि मेरा जमाना बंगालियोंके बनिस्बत तुम फिरंगियोंके लिये ज्यादा मुसीबतका था, तो शायद उसका नाम भी न लेते। तुमको मालूम होना चाहिये कि यहां बहिश्तमें भी अंग्रेजी अखबार पढ़े जाते हैं। मेरे जमानेमें तो तुम लोगोंकी गिटपिट बोलीको खयालहीमें कौन लाता था, पर मैंने मालूम किया है कि मेरे बाद भी उसकी कुछ कदर न थी। यहांतक कि गदरके जमानेमें दिल्लीके मुसलमान तुम्हारी बोलीको गुड डामियर बोली कहा करते थे। मगर इस वक्त यहां भी तुम्हारी बोलीकी जरूरत पड़ती है क्योंकि अब वह कुल हिन्दुस्तानमें छाई हुई है और हिन्दुस्तानकी खबरोंको जाननेका यहां वालोंको भी शौक रहता है। इसीसे अंग्रेजी अखबारोंकी जरूरी खबरें यहां वाले भी नवाब अब्दुल्लतीफखां वगैरहसे सुन लिया करते हैं।भाई नवाब फुलर! मैं सच कहता हूं कि मेरा जमाना बुलाना तुम कभी पसन्द न करोगे। मुझे ताज्जुब है कि किसी अंग्रेजने तुम्हारे ऐसा कहनेपर तुम्हें गंवार नहीं कहा। उस वक्त तुम लोग क्या थे, जरा सुन डालो। तुम कई तरहके फरंगी इस मुल्कमें अपने जहाजोंमें बैठकर आने लगे थे। बंगालमें वलन्देज, पुर्तगीज, फरासीसी और तुमलोगोंने कई मुकामोंमें अपनी कोठियां बनाई थीं और तिजारतके बहाने कितनी ही तरहकी शरारतें सोचा और किया करते थे। वह फरंगी चोरियां करते थे, डाके डालते थे, गांव जलाते थे। जब हमलोगोंको यह मालूम हुआ कि तुम्हारी नीयत साफ नहीं है, तिजारतके बहानेसे तुम इस मुल्क पर दखल कर बैठनेकी फिक्रमें हो, तब तुमलोगोंको यहांसे मारके भगाना पड़ा और सिर्फ बंगालहीसे नहीं, सारे हिन्दुस्तानसे निकालनेका भी हमारे बादशाहने बन्दोबस्त किया था। जुल्मसे यह सुलूक तुम्हारे साथ नहीं किया गया, बल्कि तुम्हारी शरारतोंके सबबसे। इसके बाद 50 साल तक तुम अपने पांवसे खड़े न हो सके।यह कायदा है कि दूसरी कौमकी हुकूमतहीको लोग जुल्मसे भी बढ़कर जुल्म समझते हैं। इससे हिन्दू हमारी हुकूमतको उस जमानेमें बुरा समझते हों तो एक मामूली बात है। तो भी मैं तुम्हारे जाननेको कहता हूं, कि हम मुसलमानोंने बहुत दफे हिन्दुओंके साथ इंसानियतका बर्ताव भी किया है। बहुत सी बदनामियोंके साथ मेरी हुकूमतके वक्तकी एक नेकनामी बंगालेकी तवारीखमें ऐसी मौजूद है, जिसकी नजीर तुम्हारी तवारीखमें कहीं भी न मिलेगी। मैंने बंगालेके दारुस्सलतनत ढाकेमें एक रुपयेके 8 मन चावल बिकवाये थे। क्या तुममें वह जमाना फिर लादेनेकी ताकत हैं? मैं समझता हूं कि अंग्रेजी हुकूमतमें यह बात नामुमकिन है। अंग्रेजीमें ऐसा न हुआ, न है और न हो सकता है। जहां तुम्हारी हुकूमत जाती हैं, वहीं खाने-पीनेकी चीजोंको एकदम आग लग जाती है। क्योंकि तुम तो हमलोगोंकी तरह खाली हाकिम ही नहीं हो, साथ-साथ बक्काल भी हो। उस अपने बक्कालपनकी हिमायतके लियेही हमारे जमानेको बंगालमें खेंचकर लाना चाहते हो। जो बादशाह भी है और बक्काल भी है, उसकी हुकूमतमें खाने पीनेकी चीजें सस्ती कैसे हों?मेरी हुकूमतका एक सबसे बड़ा इलजाम मैं खुद बताता हूँ। अपने बादशाहके हुक्मसे मैंने बंगालके हिन्दुओंपर जिजिया लगाया था। पर वह तुम फरंगियोंपर भी लगाया था। तुम लोग चालाक थे, कुछ घोड़े और तोहफा तहायफ देकर बच गये। हिन्दुओंके साथ झगड़ा हुआ। उनके दो चार मन्दिर टूटे और एक इज्जतदार रईस कैद हुआ। इसीके लिये मैं शरमिन्दा हूं और इसका बदला भी हाथों पाया और इसीका खौफ तुम अपने इलाकेके हिन्दुओंको दिलाते हो। वरना यह हिम्मत तो तुममें कहां कि मेरे जमानेकी तरह हिन्दुओंको हरबार हथियार बांधने दो और आठ मनका गल्ला खाने दो।तुम लोगोंने जो महसूल इस मुल्कपर लगाये हैं, वह क्या कभी इस मुल्ककी खाने पीनेकी चीजोंको सस्ता होने देंगे? तुम्हारा नमकका महसूल जिजियेसे किस बातमें कम हैं? भाई फुलरजंग। कितने ही इलजाम चाहे मुझपर हों, एक बार मैंने इस मुल्ककी रैयतको जरूर खुश किया था। मगर तुमने हुकूमतकी बाग हाथमें लेते ही गुरखोंको अपने वहदेपर मुकर्रर किया है। बच्चोंके मुंहसे “बन्दये मादरम्” सुन कर तुम जामेसे बाहर होते हो, इतनेपर भी तुम मेरी या किसी दूसरे नवाबकी हुकूमतसे अपनी हुकूमतको अच्छा समझते हो। तुम्हें आफरीं है!तुमने बिगड़ कर कहा है कि तुम बंगालियोंको पांच सौ साल पीछे फेंक दोगे। अगर ऐसा हो, तो भी बंगाली बुरे न रहेंगे, उस वक्त बंगालमें एक ऐसे राजाका राज था, जिसने हिन्दुओंके लिये मन्दिर और मुसलमानोंके लिये मसजिदें बनवाई थीं और उस राजाके मर जानेपर हिन्दू उसकी लाशको जलाना और मुसलमान गाड़ना चाहते थे। वह जमाना तुम्हारे जैसा हाकिम क्यों आने देगा? तुम तो हिन्दू मुसलमानोंको लड़ा कर हुकूमत करनेकी बहादुरी समझते हो और इस वक्त मुसलमानोंके साथ बड़ी मुहब्बत जाहिर कर रहे हो। मगर तुम लोगोंकी मुहब्बत कलकत्तेमें उस लाठके बनानेसे ही समझदार मुसलमान समझ गये, जो तुम्हारा एक चलता अफसर सिराजुद्दौलाका मुंह काला करनेके लिये एक कयासी वकूएकी यादगारीके तौरपर बना गया है। मुसलमानोंसे तुम्हारी जैसी मुहब्बत है, उसे वह लाठ पुकार पुकार कर कह रही है।अखीरमें मैं तुमको एक दोस्ताना सलाह देता हूं कि खबरदार कभी पुराने जमानेको फिर लानेकी कोशिश न करना। तुम लोगोंको मैं सदा कमीने, झगड़ालू लोग और बेईमान बक्काल कहा करता। मेरे बाद भी तुम्हारे कर्मोंसे इस मुल्कके लोगोंको कभी मुहब्बत नहीं हुई। यहांतक कि खुदाने तुम्हें इस मुल्कका मालिक कर दिया तो भी लोगोंका एतबार तुमपर न हुआ। हां, एक तुम्हारी जन्नतमकानी मलिका विक्टोरियाका जमाना ही ऐसा हुआ, जिसमें इस मुल्कके लोगोंने तुम लोगोंकी हुकूमतकी इज्जत की। क्योंकि उस मलिका मुअज्जमाने अदलसे इस मुल्कके लोगोंका दिल अपने हाथमें लिया। मैं नहीं चाहता कि तुम उस हासिल की हुई इज्जतको खोओ। रैयतके दिलमें इन्साफका सिक्का बैठता है, जुल्मका नहीं। जुल्मके लिये हम लोग बदनाम हो चुके, तुम क्यों बदनाम होते हो? जुल्मका नतीजा हम भोग चुके हैं, पर तुम्हें उससे खबरदार करते हैं। अपने कामोंसे साबित कर दो कि तुम इन्सान हो, खुदातर्स हो, यहांकी रैयतको पालने आये हो, लोगोंको गिरी हालतसे उठाने आये हो, लोग यह न समझे कि मतलबी हो, नाखुदातर्स हो, अपने मतलबके लिये इस मुल्कके लड़कोंको “बन्देय मादरम्” कहनेसे भी बन्द करते हो।खयाल रखो कि दुनिया चन्दरोजा है। अखिर सबको उस दुनियासे काम है, जिसमें हम हैं। सदा कोई रहा न रहेगा। नेकनामी या बदनामी रह जावेगी। तुम जुल्मसे बंगालियोंको मत रुलाओ, बल्कि ऐसा करो जिससे तुम्हारे लिये तुम्हारे अलग होनेके वक्त बंगाली खुद रोवें। फकत।शाइस्ताखां – अज जन्नत।[‘भारतमित्र’, 25 नवम्बर, 1905 ई.] |
शाइस्ताखांका खत – 2 |
फुलर साहबके नाम।बरादरम् फुलरजंग। तुम्हारी जंग खत्म हो गई। यह लड़ाई तुम साफ हारे। तुमने अपनी शमशीर भी म्यानमें कर ली। इससे अब तुम्हारे अलकाबमें “जंग” जोड़नेकी जरूरत नहीं है। पर जिस तरह तुम्हारी नवाबी छिन जानेपर भी हिन्दुस्तानी सरकार तुम्हें बम्बईमें विलायती जहाजपर तुम्हारे मामूली नवाबी ठाटसे चढ़ा देना चाहती है, उसी तरह मैंने भी मुनासिब समझा कि उस वक्त तक तुम्हारा अलकाव भी बदस्तूर रहे। इसमें हर्ज ही क्या है।सचमुच तुम्हारी हुकूमतका अंजाम बड़ा दर्दनाक हुआ, जिसे तुमने खुद दर्दनाक बताया है। मुझे उसके लिये ताज्जुब नहीं, क्योंकि वह अटल था। पर अफसोस है कि इतना जल्द हुआ। मैं जानता था कि ऐसा होगा, उसका इशारा मेरे पहले खतमें मौजूद है। पर यह खयाल न करता था कि दस ही महीनेमें तुम्हारी नकली नवाबी तय हो जायगी। वल्लाह, भानमतीके तमाशेको भी मात किया। अभी गुठली थी, जरासा पानी छिड़क कर दो छटांक मट्टीमें दबा देनेसे फूट निकली। दो पत्ते निकल आये। चार हुए। बहुत हुए। पेड़ हुआ, फल लगे। थोड़ी देरमें वही गुठली और वही टीनका लोटा मियां मदारीके हाथ में रह गया।तुमने यह सुनकर कि नवाबोंके कई कई बेगमें होती थीं, अपने रिआयामेंसे दो बेगमें फर्ज कीं। मगर उनमें जो होशियार थी, उसने तुम्हें मुंह न लगाया और न तुम्हारी नवाबी तसलीम की। जो भोली थी, उसे तुमने रिझाया। पर वह बेचारी अभी यह समझने न पाई थी कि तुम उसके हुस्नोसीरतपर नहीं रीझे, बल्कि होशियार बेगमकी बेएतनाई से कुढ़ कर मतलबकी मुहब्बत दिखाते थे, जिसकी बुनियाद निहायत कमजोर थी। अफसोस तुम्हारी यह शान भी न चली। सिर्फ दो बेगमोंको भी तुम न रिझा सके। सच है, कहीं बुलहवसी भी मुहब्बत हो सकती है।और तुमने सुना होगा कि नवाब सख्ती बहुत किया करते थे। उनके अमलमें सब तरहकी अन्धाधुन्ध चल सकती थी। इसीसे तुमने भी सख्ती और अन्धाधुन्ध शुरु की। अपनी जबरदस्तीसे तुमने उस जोशको रोकना चाहा, जो अपने मुल्ककी बनी चीजोंके फैलाने औ गैरमुल्ककी चीजोंके रोकनेके लिये बंगालमें बड़ी तेजीसे फैल रहा था। तुमने इस बातपर खयाल न किया कि जो जोश तुम्हारे अफसरेआलाकी सख्तीसे पैदा हुआ है, वह सख्ती औ जबरदस्तीसे कैसे दब सकता है। शायद तुमने समझा कि वह पूरी सख्तीसे दबाया नहीं गया, इसीसे फैला है, तुम्हारी सख्ती उसे दबा देगी और जो काम तुम्हारे खुदावन्दसे न हुआ, उसके कर डालनेकी बहादुरी तुम हासिल कर लोगे। मगर अब तुम्हें अच्छी तरह मालूम हो गया होगा कि ऐसा समझनेमें तुमने कितनी बड़ी गलती खाई। तुम्हारे आला अफसरने यह ओहदा तुम्हारी बेहतरीके लिये तुम्हें नहीं दिया था, बल्कि अपनी जिद्द पूरी कराने या अपना उल्लू सीधा करानेके लिये। मगर उसकी वह आरजू पूरी न हुई, उल्टी तुम्हें तकलीफ और खिफ्फत उठानी पड़ी। तुम सच जानो तुम्हारे ओहदेपर बैठनेके लिये तुमसे बढ़कर लायक और हकदार लोग कई मौजूद थे। मगर वह लोग थे जो अपनी अक्लसे काम लेते और इस बातपर खूब गौर करते कि सख्ती करके जब हमारे आला अफसरने शकस्त खाई है तो हमें उसमें फतह कैसे हासिल होगी। तुम्हें भी अगर इतना सोचनेकी मोहलत मिलती तो तुम चाहे इस ओहदेहीको कबूल न करते या उस रास्तेको तर्क करते, जिसपर तुम चलकर खराब हुए।देखो भाई। जो गुजर गया है, उसे कोई लौटा नहीं सकता। बहकर दूर निकल गया हुआ नदीका पानी क्या कभी फिर लौटा हैं? पांच सौ बरसका या मेरा दो सवादो सौ सालका जमाना फिर लौटा लेना तो बहुत बड़ी बात है, तुम अपनी नवाबीके बीते हुए दस महीनोंको भी लौटानेकी ताकत नहीं रखते। क्या तुम सन् 1906 ईस्वीको पीछे हटाकर 1406 बना सकते हो? नहीं; भाई इतने वर्ष तो कहां, तुममें 20 अगस्तको 19 बनानेकी भी ताकत नहीं है। जरा पांच सौ साल पहलेकी अपने मुल्ककी तारीखपर निगाह डालो। उस वक्त तुम्हारी कौम क्या थी? अगर तुम किसी तरह उस जमानेतक पहुंच जाओ तो अपनी शकल पहचान न सको। दुनिया तारीक दिखाई देने लगे और तुम खौफसे आंखें बन्द करलो। दुनियामें तुम्हें अपना कोई मातहत मुल्क नजर न आवे, बल्कि अपने ही मुल्कमें तुम्हें अपनेको बेगाना समझना पड़े।हिन्दमें मेरा जमाना लानेके लिये तुम्हें रेल-तार तोड़ने, दुखानी जहाज गारत करने, डाक उठवा देने, गैस बिजली वगैरहको जेहन्नमरसीद कर देनेकी जरूरत है। नहरें पटवा देने और सड़कें उठवा देनेकी जरूरत है। साथ ही तालीमको नेस्तोनाबूद कर देनेकी जरूरत है। तुम सबको छोड़ कर एक तालीमको मिटानेकी तरफ झुके थे। यह हिदायत तुम्हें तुम्हारे मालिक मुर्शिद लाट कर्जनकी तरफसे हुई थी। पर अंजाम और ही हुआ। तालीम गारत न हुई, बल्कि और तरक्की पा गई। बंगाली अपना कौमी दारुलउलूम बनाते हैं। गारत हुई पहले तुम्हारी नेकनामी और पीछे नौकरी।रिआया और मदरसेके तुलबासे लड़ते लड़ते तुमने नवाबी खत्म की। लोगोंको आम जलसे करने और कौमी नारे मारनेसे रोका। लड़कोंको अपने मुल्की मालकी तरफ मुतवज्जह देखकर तुमने उनको जेलमें भिजवाया, स्कूलोंसे निकलवाया और पिटवाया। तुम्हारे इलाके बरीसालमें तुम्हारे मातहतोंने इस मुल्ककी रिआयाके सबसे आला इज्जतदार और तालीमयाफ्ता बेइज्जत करनेकी निहायत खफीफ हरकत की। तुमने अपने मातहतोंका इसमें साथ दिया। नतीजा यह हुआ कि हाईकोर्टसे तुम्हारे कामोंकी मलामत हुई। तुमने बड़ी शेखीसे कहा था कि हाईकोर्ट मेरा कुछ नहीं कर सकती, पार्लीमेंट मेरे हुक्मको रोक नहीं सकती। मगर दोनों बातें गलत साबित हुई। हाईकोर्टसे तो तुमने मलामत सुनी ही पार्लीमेन्टसे भी वह सुनी कि सारी नवाबी भूल गये। तुम्हारी होशियारी और लियाकतका इसीसे पता लगता है कि तुम्हारे अफसरका हुक्म पहुंचनेसे पहले तुम्हारे सूबेमें एक बन्दयेखुदाको बेवक्त फांसी होगई।तुम्हारी इन हरकतोंपर यहां जन्नतमें खूब खूब चर्चे होते हैं। पुराने बादशाह और नवाब कहते हैं कि भाई। यह फरंगी खूब हैं। एशियाई लोगोंके ऐब तलाश करनेहीको यह अपनी बहादुरी समझते हैं। दिखानेको तो उन ऐबोंसे नफरत करते हैं, पर हकीकत देखिये तो उनको चुन चुनकर काममें लाते हैं। मगर हुनरोंसे चश्मपोशी करते हैं। तुमलोग हमारे जमानेके ऐबोंको काममें लानेसे नहीं हिचकते। मगर उस जमानेके हुनरोंकी नकल करनेकी तरफ खयाल नहीं दौड़ाते, क्योंकि वह टेढ़ी खीर है। कहां आठ मनके चावल और कहां हथियार बांधनेकी आजादी।आठ मनके चावलोंकी जगह तुम खुश्कसाली और कहत छोड़कर जाते हो। हथियारोंकी आजादीकी जगह दस आदमियोंका मिलकर निकलना मजलिसें करना और ‘वन्देमातरम्’ कहना बन्द किये जाते हो। अरे यार। इतना तो सोचा होता कि पिंजरेमें भी चिड़िया बोल सकती है। कैदमें भी जबान कैद नहीं होती। तुमने गजब किया लोगोंका मुंहतक सी दिया था।और भी अहलेजन्नतने एक बातपर गौर किया है। वह यह कि किस भरोसेपर तुम अपने सूबेके लोगोंको मेरे जमानेमें फेंक देनेकी जुरअत करते थे। इसकी वजह सुनिये। तुम खूब जानते हो कि तुम्हारी डेढ़ सौ सालकी हुकूमतने तुम्हारे सूबेके लोगोंको कुछ भी आगे नहीं बढ़ाया। वह करीब करीब दो सौ साल पहलेके जमानेहीमें हैं। तुम उनको बढ़ाते तो आज वह तुमसे किसी बातमें सिवा चमड़ेके रंगके कम न होते। पर तुमने उन्हें वहीं रखा, बल्कि उनकी कुछ पुरानी खूबिया छीन लीं और पुराने पुराने हुकूक जब्त कर लिये। दी थी कुछ तालीम और कुछ नौकरियां, उन्हींको छीनकर तुम उन्हें औरंगजेबके जमानेमें फेंकना चाहते थे, वरना और दिया ही क्या था, जो छीनते और बढ़ाया ही क्या था, जो घटाते?अपनी दस महीनेकी नवाबी से तुम खुद तंग आगये थे। इसीसे कयास करलो कि गरीब रैयतको कैसी तकलीफ हुई होगी। सब तुम्हारे जानेसे खुश हैं। ताहम खुशकिस्मतीसे हमारी मरहूम कौम रोनेको तैयार है। उसे तुम प्यारी बेगम कहकर बेवा बना चले हो। वह तुम्हारे फिराकमें टिसवे बहाती है। तुम्हें घरतक पहुंचा देनेमें वह टिसवे तुम्हारी मदद करेंगे। भाई। हमारी कौमकी सलतनत गई, हुकूमत गई, शानोशौकत गई, पर जिहालत और गुलामीकी आदत न गई। वह मर्द नहीं बनना चाहती, बल्कि रांड रहकर सदा एक खाविन्द तलाश करती रहती है। देखें तुम्हारे बाद क्या करती है।तूल फुजूल है। तुम चले, अब कहनेसेही क्या है? पर जो तुम्हारे जानशीन होते हैं, वह सुन रखें कि जमानेके बहते दरयाको लाठी मारके कोई नहीं रोक सकता। दूसरेको तंग करके कोई खुश रह नहीं सकता। अपने मुल्कको जाओ और खुदा तौफीक दे तो हिन्दुस्तानके लोगोंको कभी कभी दुआये खैरसे याद करना। वस्सलाम् –शाइस्ताखां – अज जन्नत। [‘भारतमित्र’, 18 अगस्त, 1906 ई.] |
सर सैय्यद अहमदका खत |
अलीगढ़ कालिजके लड़कोंके नाममेरे प्यारो, मेरी आंखोंके तारो, मेरी कौमके नौनिहालो!जिन्दगीमें मैंने इज्जत, नामवरी बहुत कुछ हासिलकी, मगर यह कहूंगा और मेरा यह कहना बिलकुल सच है कि तुम्हारी बेहतरीकी तदबीरहीमें मैंने अपनी उमर पूरी कर दी। तुम लोगोंकी तरक्की और बेहबूदीके खयालहीको मैं अपनी जिन्दगीका हासिल समझता रहा। होश सम्हालनेके दिनसे अखीर दमतक इस कौमेमरहूमका मरसियाही मेरी जुबानपर जारी था। लाख लाख शुक्रकी जगह है कि मेरी मेहनत बेकार न गई। तुम्हारे लिये मैं जो कुछ चाहता था, उनमेंसे बहुत कुछ पूरा हुआ और तुम्हें एक अच्छी हालतमें देखलेनेके बाद मैंने खुदाको जान सौंपी।उस दिन मेरे मजारपर आकर तुमने निढाल होकर अपने आंसुओंके मोती बखेर दिये। उस वक्तकी अपने दिलकी कैफियत क्या जाहिर करूं कि मुझपर क्या गुजरती थी और तबसे मुझे कितनी बेचैनी है। हाय!चि मिकदार खूं दर अमद खुर्दा बाशम। कि बर खाकम आई ओ मन मुर्दा बाशम।।काश! मुझमें ताकत होती कि मैं उस वक्त तुमसे बोल सकता और तुम्हारे पास आकर तुम्हें गोदमें लेकर कलेजा ठण्डा करता और तुम्हारे फूलसे मुखड़ोंसे आंसू पोंछकर तुम्हें हंसानेकी कोशिश कर सकता। मगर आह! यह सब बातें नामुमकिन थीं, इससे मुझपर जो कुछ बीती वह मैं ही जानता हूं। मर कर भी मुझे आराम न मिला। इस नई दुनियामें आकर भी मुझे कल न मिली।अजीजो! जिस हालतमें तुम इस वक्त पढ़े हो, इसका मुझे जीते जी ही खटका था। खासकर अपनी जिन्दगीके अखीर दिनोंमें मुझे बड़ाही खयाल था। इसके इन्सदादकी कोशिश भी मैंने बहुत कुछ की, मगर खुदाको मंजूरन थी, इससे काम बनकर भी बिगड़ गया। तुममेंसे बहुतोंने सुना होगा कि मैंने अपनी मौजूदगीही में यह फैसला कर दिया था कि मेरे बाद महमूद तुम्हारे कालिजका लाइफ सेक्रेटरी बने। इसपर वह शोरिश मची और वह तूफाने बेतमीजी बरपा हुआ कि अल अमान! मेरी सब करनी धरनी भूल कर लोग मुझे खुदगरज और मतलबी कहने लगे। उस कौमी कालिजको मेरे घरका कालिज बताने लगे और ताने देने लगे कि मैं अपने बेटेको अपना जानशीन बनाकर कौमसे दगा करता हूं। मुझपर “अहमदकी पगड़ी महमूदके सिर” की फबती उड़ाई गई। पर मैंने कुछ परवा न की। सय्यद महमूदको लाइफ सेक्रेटरी बनाया। अपने जीतेजी एक अपनेसे भी बढ़कर लायक सेक्रेटरी तुम्हारे कालिजको दे गया था। पर अफसोस उसकी उमरने वफा न की। मेरे थोड़े ही दिन पीछे वह भी मेरे ही पास चला आया।इस वक्त तुमपर जो कुछ गुजरी है, अगर मैं होता तो उसकी यह शकल कभी न होती। न सय्यद महमूदकी मौजूदगीमें ऐसा करनेकी किसीकी हिम्मत होती। मगर अफसोस हम दोनों ही नहीं। जो हैं, उनके बारेमें और क्या कहा जाय, अच्छे हैं। कालिजके नसीब। कौमके नसीब। अजीजो। यह कालिज तुम्हारे लिये बना था। तुम्हीं उसमेंसे निकाले जाते हो, तो यह किस काम आवेगा? उफ। मेरी समझमें नहीं आता कि मैंने तुम्हारे लिये यह दारुलउलूम बनाया था या गुलामखाना। तुम्हारे मौजूदा सेक्रेटरी क्या खयाल करते होंगे?मगर क्या पस्तखयालीका नतीजा पस्ती न होना चाहिये? तुम्हारी और तुम्हारे कालिजकी मौजूदा हालतका क्या मैं ही जिम्मेदार नहीं हूं? क्या यह इस वक्तका दर्दनाक नज्जारा मेरी चालका नतीजा नहीं है? हां। यह जंजीरें कौमी तरक्कीके पांवोंमें अपने ही हाथोंसे डाली गई हैं, दूसरा कोई इसके लिये कसूरवार नहीं ठहर सकता। अगर इबतिदासे अखीरतक मेरी चाल एक ही रहती तो यह खराबी काहेको होती? कौमी पस्तीका ऐसा सीन देखनेमें न आता।न जिल्लतसे नफरत न इज्जतका अरमां।मैं वही हूं, जिसने “असबाबे बगावत” लिखकर विलायत तकमें खलबली डाल दी थी। इन सूबोंमें मैं ही पहला शख्स हूं, जिसने अंग्रेजोंको आम रिआयाकी रायका खयाल दिलाया। मैंने ही सबसे पहले डंकेकी चोट यह जाहिर किया था कि अगर हिन्दुस्थानकी कौंसिलोंमें अंग्रेज, रिआयाके कायममुकाम लोगोंको शामिल करते तो कभी गदर न होता। तुम कभी न समझना कि मैं अंग्रेजोंकी खुशामद किया करता था, या खुशामदको किसी कौमकी तरक्कीका जीना समझा करता। बल्कि मैंने सदा अंग्रेजोसे बराबरीका बरताव किया है। कितने ही बड़े-बड़े अंग्रेज अफसर मेरे दोस्त रहे हैं, मैंने सदा उनसे दोस्ताना और बेतकल्लुफाना गुफ्तगू की है। कभी उनकी अफसरी या हाकिमीका रोब मानकर उनसे बरताव नहीं किया। खुदाकी इनायतसे सय्यद महमूदकी तबीयतमें मुझसे भी ज्यादा आजादी थी और साथ ही उसने मगरबी इल्मोंमें भी फजीलत हासिल की थी, जिससे उस आजादीकी चमक दमक और भी बढ़ गई थी। यही वजह थी कि मैंने महमूदको जीतेजी अपना कायममुकाम और तुम्हारे कालिजका सेक्रेटरी मुकर्रिर किया था। अगर वह होता तो आज तुम लोगोंकी आजादी और इज्जत एक मामूली हिन्दुस्थानी कान्स्टबलकी हिमायतमें ठोकर न खाती फिरतीं और तुम्हें कालिजसे निकालकर कान्स्टबलोंको कालिजके अहातेमें न ला खड़ा किया जाता।मेरे बच्चो! मेरी एक ही कमजोरीका यह फल है, जिसे तुम भोग रहे हो और जिसके लिये आज मेरी रूह कब्रमें भी बेकरार है। मेरी उस कमजोरीने खुदगरजी और खुशामदका दरजा हासिल किया। पर सच यह है, मैंने जो कुछ किया कौमकी भलाईके लिये किया, अपने फायदेके लिये नहीं। पर वैसा करना बड़ी भारी भूल थी, यह मैं कबूल करता हूं और उसका इतना खौफनाक नतीजा होगा, इसका मुझे ख्वाबमें भी खयाल न था। मैंने यही समझा था कि इस वक्त मसलहतन यह चाल चल ली जाय, आगे चलकर इसकी इसलाह कर ली जायगी। मैं यह न समझा था कि यह चाल मेरी कौमके रगोरेशेमें मिल जायगी और छूटनेके बजाय उसकी खूबू और आदत बन जायगी। अफसोस! खुद कर्दा अम खुद कर्दारा इलाजे नेस्त।हिन्दुओंसे मेल रखना मुझे नापसन्द नहीं था। मेरे ऐसे हिन्दू दोस्त थे, जिन्होंने मरते दमतक मुझसे दोस्ती निबाही और जिनकी सोहबतसे मुझे बड़ी खुशी हासिल होती थी। कालिजके लिये उनसे माकूल चन्दे मिले हैं। पञ्जाबमें कालिज के चन्देके लिये दौरा करनेके वक्त लेक्चरमें मैंने कहा था कि हिन्दू मुसलमानोंको मैं एकही आंखसे देखता हूं। क्या अच्छा होता जो मेरे एक ही आंख होती, जिससे मैं इन दोनोंको सदा एक ही आंखसे देखा करता? अफसोस! अपनी कौमकी शकस्ताहालीने मुझे उस सच्चे रास्तेसे हटाया। मैंने सन् 1888 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेससे मुखालिफत करके हिन्दू-मुसलमानोंको दो आंखोंसे देखनेका खयाल पैदा किया और अपने उन्हीं सच्चे और पुराने खयालातपर पानी फेरा, जिनका दावेदार कांग्रेससे पहले मैं खुद था। खयाल करनेसे तअज्जुब और अफसोस मालूम होता है कि मैंने वह सच्चा और सीधा रास्ता छोड़ा भी तो किसके कहनेसे कि जो ‘असबाबे बगावत’ लिखनेके वक्त मेरे पिछले खयालातका तरफदार था और उसीने मेरी उस उर्दू किताबका अंग्रेजी तरजुमा कर दिया था। काश। सर आकलेण्ड कालविन इन सूबोंके लफटन्ट गवर्नर न होते और उसी हैसियतमें रहते, जैसे उस किताबके तरजुमा करनेके वक्त थे।मेरे अजीजो! जमानेकी रफ्तारको कोई रोक नहीं सकता। वह सबको अपने रास्तेपर घसीट ले जाती है। अगरचे तुम लड़के नहीं हो, जवान हो और“ माशाअल्लह तुममेंसे कितनोंहीके दाढ़ी मूंछें भी निकल रही है। मगर इस कालिजमें तुम परदेकी बूबूकी तरह रखे जाते हो, गैरके सायेसे बचाये जाते हो। तुम्हारे हर कामपर अंग्रेज प्रिन्सपल वगैरा वैसाही पहरा रखते हैं, जैसे दाया और मामा छूछू गोदके और उंगलीके सहारेके बालकोंपर रखती हैं। पर इतनेपर भी तुम निरे गोदके बच्चे नहीं बने रह सके। बहुत दबनेपर तुम्हें जवानोंकी तरह हिम्मत करनी पड़ी। गोदके बच्चे क्या सदा गोदहीमें रह सकते हैं? उफ! अजीब मखमसेमें फंसे हो। तुम्हारे गोरे अफसर एक गोरे हाकिमकी खुशामदको तुमसे अजीज समझकर एक कान्स्टबलपर तुम्हें निसार करते हैं और तुम्हारे सेक्रेटरी द्रस्टी अपनी वफादारीके दामनपर दाग नहीं लगने देना चाहते। अगर वह तुम्हारी तरफदारी करें तो अंग्रेज अफसर उन्हें बागी समझेंगे। तुम्हारी सांप छूछूंदरकीसी हालत हुई।सबसे गजबकी बात है कि यह पस्तहिम्मती मेरी ही पालीसी बताई जाती है और इसका अमलदरआमद करना मेरी रूहको सवाब पहुंचाना समझा जाता है। मेरा जी घबराता है कि हाय! एक मामूलीसी कमजोरीके लिये यह जिल्लत! जो झूठे टुकड़े अंग्रेज अपनी मेजपरसे इस मुल्क के हिन्दू मुसलमानोंकी तरफ फेंक देते हैं, उनमेंसे दो चार मुसलमानोंके लिये ज्यादा लपक देनेके लिये यह जिल्लत। इस वक्त कुछ समझमें नहीं आता कि क्या कहकर तुम्हें तसल्ली दूं। इससे एक उलुलअज्म शाइरका एक मिसरा पढ़कर यह खत खत्म करता हूं -“तुम्हीं अपनी मुशकिलको आसां करोगे।”सय्यद अहमद – अज जन्नत [‘भारतमित्र’, 9 मार्च, 1907 ई.] |