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जायसी के संदर्भ में विद्वानों के मत

जायसी के संदर्भ में विद्वानों के मत

रामचन्द्र शुक्ल

(1884-1941)
  1. जायसी बड़े भावुक भगवद्भक्त थे और अपने समय में बड़े ही सिद्ध और पहुँचे हुए फकीर माने जाते थे; परन्तु कबीरदास के समान अपना एक निराला पंथ निकालने का हौसला इन्होंने कभी न किया। जिस मिल्लत या समाज में इनका जन्म हुआ, उसके प्रति अपने विशेष कर्तव्यों के पालन के साथ-साथ वे सामान्य मनुष्य-धर्म के सच्चे अनुयायी थे।
  2. जायसी सूफ़ियों के अद्वैतवाद तक ही नहीं रहे हैं; वेदान्त के अद्वैतवाद तक भी पहुँचे हैं। भारतीय मतमतांतरों की उनमें अधिक झलक है।
  3. जायसी की वाक्य-रचना स्वच्छ होने पर भी तुलसी के समान सुव्यवस्थित नहीं है। उसमें जो वाक्य-दोष मुख्यतः दिखाई पड़ता है वह ‘न्यून पदत्व’ है। विभक्तियों का लोप, सम्बन्धवाचक सर्वनामों का लोप, अव्ययों का लोप जायसी में बहुत मिलता है।
  4. .जायसी के शृंगार में मानसिक पक्ष प्रधान है, शारीरिक गौण है।
  5. पद्मावत सूफ़ी काव्यधारा की सबसे प्रौढ एवं सरस रचना है।
  6. पद्मावत हिंदी का प्रथम बड़ा महाकाव्य है।
  7. पद्मावत भक्तिकाल का वेद-वाक्य है।
  8. पद्मावत में प्रेमगाथा की परंपरा पूर्ण प्रौढता को प्राप्त हुई है। यह उस परंपरा में सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है ।

डॉ० बच्चन सिंह

(1919-2008)
  1. सच पूछिए तो इस काल (भक्तिकाल ) के लोकप्रिय श्रेष्ठ कवि चार ही हैं – कबीर, जायसी, सूर और तुलसी। इनमें से प्रत्येक अलग-अलग काव्यधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: जायसी का मूल्यांकन इनकी समकक्षता में होना चाहिए।
  2. जायसी की अवधी ‘अवधी की अरघान’ है। यह अवधी किसी अन्य कवि में नहीं मिलेगी। जायसी का जो कुछ पढ़िए, अवधी की रस-गंध जरूर मिलेगी। तुलसी की भाषा में यह मिठास नहीं है। तुलसी की अवधी पर संस्कृत का गहरा प्रक्षेपण है। संभवत: इसीलिए अवध जनपद की ठेठ संस्कृति भी उनमें नहीं मिलती। ‘बंदउँ गुरु पद पदुम परागा’ में कितनी अवधी है ! जायसी की भाषा ठेठ अवधी है तो तुलसी की संस्कृतनिष्ठ । यह अन्तर दोनों की विषय-वस्तु में भी है। एक में लोककथा है; इसलिए लोकभाषा, दूसरे में क्लासिकल कथा है; इसलिए संस्कृतनिष्ठ भाषा ।
  3. जायसी अपने शब्दों का चुनाव गाँव-गिराँव के छप्परों, झोंपड़ियों, उत्सवों-त्योहारों, सामान्य स्त्री-पुरुष की बातों से करते हैं जो उनके चारों ओर बिखरे पड़े हैं। गोस्वामी जी की शब्द-संपदा नाना-पुराण निगमागम से गृहीत है। जायसी में समस्तपद बहुत कम मिलेंगे, गोस्वामीजी में बहुत अधिक है। जायसी के समस्तपदों का विन्यास फारसी की पद्धति के अनुरूप है।
  4. पद्मावत जायसी का ही श्रेष्ठ ग्रंथ नहीं है; बल्कि समूची हिंदी काव्य परंपरा का एक दुर्लभ रत्न है।
  5. जीवन के विरुद्ध मृत्यु और मृत्यु के विरुद्ध जीवन संघर्ष का नाम है- पद्मावत ।
  6. नागमती का वियोग-वर्णन हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण संयोग है। इसके लिए उसने दो प्रयुक्तियाँ अपनाई हैं – नागमती और पक्षियों का संवाद तथा बारहमासा । ये दोनों प्रयुक्तियाँ पारंपरिक हैं। पर जायसी ने इनमें जनपदीय रस उड़ेल दिया है।

वियोगावस्था में पशुओं, पक्षियों और लता-द्रुमों से अपनी प्रिया के सम्बन्ध में पूछताछ करने की परंपरा अपने देश में बहुत पुरानी है । सीताहरण के बाद वाल्मीकि के राम कदंब और विल्व से सीता का पता पूछते हैं। कालिदास का यक्ष तो एक कदम आगे बढ़कर मेघ को अपना दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास भेजना चाहता है। तुलसी के राम की विकलता तो इन पंक्तियों में मुखर हो उठी है –

हे खगमृग, हे मधुकर सेनी, तुम देखी सीता मृगनैनी ?

कोई उत्तर नहीं देता । ढोला-मारू – रा दोहा की मारवणी भी कुँजा पक्षी से कुछ कहना चाहती है, पर वह उड़ जाता है; किन्तु जायसी का पक्षी अधिक सहृदय है।

नागमती के बहुत रोने के बाद भी किसी पर कोई असर नहीं पड़ा तब आधी रात को एक पक्षी बोल उठा –

फिरि फिरि रोइ कोइ नहि डोला ।
आधी रात बिहंगम बोला ॥ सिंहल तक जाता है।

नागमती का संदेश लेकर पक्षी सिंहल तक जाता है ।

‘बारहमासा’ में अवध जनपद की संस्कृति विभिन्न महीनों की विशेषताओं, हर महीने के उत्सव-त्योहारों के बीच मूर्तिमान और विरह वेदना प्रगाढ हो उठती है। इसके ऊपर अवधी की ठेठ मिठास –

बरसै मघा झँकोरि झँकोरी ।
मोर दोउ नैन चुवइ जनु ओरी ॥

कभी वह हिंडोला देखती है, कभी स्त्रियों की झूमर सुनती है। प्रिय की अनुपस्थिति में मनोरा की पूजा भी संभव नहीं है। फाल्गुन में चाँचर होता है। वह मूक भाव से सब कुछ देखती रह जाती है। प्रिय के आगमन तक सारे उत्सव स्थगित हैं।

डॉ॰ रामकुमार वर्मा

(1905-1990)

जायसी कबीर से विशेष प्रभावित हुए थे। जिस प्रकार कबीर ने हिंदू-मुसलमानों के बीच भिन्नता की भावना हटानी चाही, उसी प्रकार जायसी ने भी दोनों संप्रदायों में प्रेम का बीज बोने का प्रयत्न किया।

जायसी ने तत्कालीन बोल-चाल की अवधी में अपनी रचना की। इसमें फ़ारसी और अरबी के स्वाभाविक और प्रचलित शब्द तथा मुहावरे भी मिलते हैं। संस्कृत के पंडित न होने के कारण इनकी कृति (पद्मावत) स्वाभाविक बोलचाल के शब्दों में याथातथ्य शब्दों से पूर्ण है।

जायसी के विरह-वर्णन में वीभत्सता आ गई है। श्रृंगार रस के अंतर्गत विरह में रति की भावना प्रधान रहनी चाहिए, तभी रस की पुष्टि होगी। जायसी ने विरह में इतनी वीभत्सता भी मसनवी की शैली उद्भूत है।

“विरह के दगध कीन्ह तन भाठी ।हाड़ जराड़ कीन्ह जस काठी ।।”
“नैन नीर सों पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया ।।”
“विरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि-गिरि परै रकत कै आँसू ।।”


इस विरह-वर्णन से सहानुभूति उत्पन्न न होकर जुगुप्सा उत्पन्न होती है। हिंदी कविता के दृष्टिकोण से यह विरह-वर्णन शृंगार रस का अंग नहीं हो सकता।

बाबू गुलाबराय

(1888-1963)

जायसी महान् कवि हैं, उनमें कवि के समस्त सहज गुण विद्यमान हैं। ये अमर कवि हैं।

डॉ० नगेन्द्र

(1915-1999)
  1. पद्मावत प्रतीकात्मक या रूपक काव्य है।
  2. समग्र रूप में ‘पद्मावत’ अत्यन्त उच्च कोटि का प्रबंधकाव्य है, जिसकी तुलना में ‘रामचरितमानस’ और ‘कामायानी’ जैसे कुछ काव्य ही रखे जा सकते हैं। पद्मावत प्रेमाख्यान परंपरा का प्रौढतम काव्य है। यह मूलतः रोमांचक शैली का कथा-काव्य है।
  3. कवित्व एवं भाव-व्यंजना की दृष्टि से ‘पद्मावत’ अत्यन्त उच्च कोटि का काव्य है। पद्मावती के सौंदर्य, नागमती के विरह, रत्नसेन के साहस, त्याग एवं शौर्य की व्यंजना इसमें अत्यन्त प्रभावोत्पादक शैली में हुई है।