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तुलसीदास के संदर्भ में विद्वानों के मत

तुलसीदास के संदर्भ में विद्वानों के मत

रामचंद्र शुक्ल

(1884-1941)
  1. भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव (तुलसी) को ….. इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है।
  2. गोस्वामी के प्रादुर्भाव को हिंदी काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिंदी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में ही पहले दिखाई पड़ा।
  3. तुलसीदास जी के रचना विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल पर सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि इनका ब्रज और अवधी भाषाओं पर समान अधिकार था।
  4. सभी रसों की सम्यक् व्यंजना इन्होंने की है; परन्तु मर्यादा का उल्लंघन कहीं-कहीं नहीं किया है। प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है। हम नि:संकोच कह सकते हैं यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।
  5. तुलसी के मानस से जो शील, शक्ति, सौन्दर्यमयी स्वच्छ धारा निकलती है, उसने जीवन की प्रत्येक स्थिति में पहुँचकर भगवान् के स्वरूप का प्रतिबिम्ब झलका दिया है।
  6. रचनाकौशल, प्रबंधपटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है ।

हजारीप्रसाद द्विवेदी

(1907-1979)
  1. भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करने का अपार धैर्य ले कर आया हो । भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएं, जातियाँ, आचार, विचार और पद्धतियाँ प्रचलित हैं । तुलसीदास स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे । उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है । उसमें केवल लोक और शास्त्र का ही समन्वय नहीं है अपितु गार्हस्थय और वैराग्य का, भक्ति और ज्ञान का, भाषा और संस्कृति का, निर्गुण और सगुण का, पुराण और काव्य का, भवावेग और अनासक्त चिंता का समन्वय ‘रामचरितमानस’ के आदि से अंत तक दो छोरों पर जाने वाली पराकोटियों को मिलाने का प्रयत्न है ।
  2. उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली थी ।
  3. चरित्र चित्रण में तुलसी की तुलना संसार के गिने-चुने कवियों में की जा सकती है। इनके सभी पात्र उसी तरह हाड़-माँस के जीव हैं, जिस प्रकार काव्य का पाठक; परन्तु फिर भी इनमें अलौकिकता है।

बच्चन सिंह

(1919-2008)
  1. गोस्वामी जी रूपकों के बादशाह हैं। मानस का अयोध्या कांड (कैकेयि रोष तरंगिनी ठाढ़ी) और कवितावली के लंका-दाह के रूपक देखे जा सकते हैं।
  2. कबीर का भक्ति आंदोलन विद्रोहमूलक है तो गोस्वामी जी का प्रतिरोधात्मक ।
  3. वाल्मीकि के बाद युग के सारे अन्तर्विरोधों को समेटते हुए किसी ने रामचरित को लेकर इतने महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली ग्रंथ का सर्जन नहीं किया।

डॉ० गणपतिचंद्र गुप्त

(1928)
  1. तुलसी काव्य के क्षेत्र में ‘महत्’ के उपासक थे। महान् वस्तु एवं महान् लक्ष्य को लेकर चलने वाले कवि थे; इसलिए इनकी दृष्टि में वही कला सफल कला थी जो सौंदर्य-युक्त होने के साथ-साथ सबके लिए हितकारी भी हो।
  2. रामचरितमानस में प्रायः सभी भावों एवं रसों की व्यंजना प्रसंगानुसार हुई है; किन्तु इसका अंगी रस या केन्द्रीय भाव ‘भक्ति’ ही है जिसे रस-सिद्धांत के अनुसार ‘शान्त रस’ कहा जा सकता है। इसी को पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से ‘उदात्त’ या ‘औदात्त्य’ की संज्ञा दी जा सकती है। मानस का आधारभूत तत्त्व औदात्त्य ही है। जिसकी व्यंजना विभिन्न रूपों में हुई है।
  3. यह ग्रंथ (रामचरितमानस) समस्त उत्तरी भारत में एक पवित्र धर्म-ग्रंथ की भाँति आदृत होता रहा है।

डॉ० रामकुमार वर्मा

(1905-1990)

  1. तुलसीदास ही राम साहित्य के सम्राट् हैं। इन्होंने राम के चरित्र की भाषा को लेकर मानव जीवन की जितनी व्यापक और सम्पूर्ण समीक्षा की है, उतनी हिंदी साहित्य के किसी कवि ने नहीं की। इस समीक्षा के साथ ही इन्होंने लोक-शिक्षा का भी ध्यान रखा और मानव-जीवन में ऐसे प्रदशों की स्थापना की जो विश्व जननी है और समय के प्रवाह से नहीं बह सकते ।
  2. इस कवि ने विश्वव्यापी विचारों की इतनी गवेषणापूर्ण व्याख्या की कि हम उसे अपने साहित्य के सर्वोच्च आसन पर अधिष्ठित करने में स्वयं गौरवान्वित हैं।

डॉ० विजयेन्द्र स्नातक

(1914-1998)
  1. तुलसी हिंदी कविता कानन का सबसे बड़ा वृक्ष है। उस वृक्ष की शाखा प्रशाखाओं के काव्य- कौशल की चारुता और रमणीयता चारों ओर बिखरी पड़ी है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

(1865-1947)
  1. कविता करके तुलसी न लसे, कविता ही लसी पा तुलसी की कला।