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कबीर के संदर्भ में विद्वानों के मत

कबीर के संदर्भ में विद्वानों के मत

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

(1884 – 1941)
  1. कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया।
  2. कबीर की वाणी में भावात्मक रहस्यवाद की झलक सूफियों के सत्संग का प्रभाव है ।
  3. कबीर की भाषा सधुक्कड़ी (राजस्थानी-पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली) थी। रमैनी और सबद गाने के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का प्रयोग है।
  4. भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।
  5. अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तिओं के द्वारा इन्होंने ज्ञान की बातें कहीं है, जो नयी न होने पर भी वाग्वैचित्र्य के कारण अनपढ़ लोगों को चकित किया करती है।
  6. कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का प्रयास किया है, वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ ।

हजारीप्रसाद द्विवेदी

(1907-1979)
  1. हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई उत्पन्न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी जानता है – तुलसीदास ।
  2. सच पूछा जाए तो जनता कबीरदास पर श्रद्धा करने की अपेक्षा प्रेम अधिक करती है; इसलिए इनके संत रूप के साथ कवि रूप बराबर चलता रहता है। ये केवल नेता और गुरु ही नहीं हैं साथी और मित्र भी हैं ।
  3. वे सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के सामने निरीह, भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल से साफ़, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय थे। युगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग प्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी; इसलिए वे युग प्रवर्तन कर सके।
  4. कबीर ऐसे ही मिलन बिन्दु पर खड़े थे, जहाँ से एक ओर ज्ञान निकल जाता है और दूसरी और अशिक्षा, जहाँ एक ओर भक्तिमार्ग निकल जाता है और दूसरी ओर योगमार्ग। जहाँ से एक ओर निर्गुण भाव निकल जाती है और दूसरी ओर सुगण साधना- उसी प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरुद्ध दिशा में गए हुए मार्गों के दोष, गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। कबीर का भगवद्दत्त सौभाग्य था। उन्होंने इसका ख़ूब उपयोग भी किया।
  5. आज तक हिंदी में ऐसा जबरदस्त व्यंग्य लेखक नहीं हुआ।
  6. भाषा पर कबीर का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर (अधिनायक) हैं। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसी रूप में भाषा से कहलावा लिया, बन पड़ा तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर।

डॉ० नगेन्द्र

(1915-1999)
  1. भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीरदास ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि हैं, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया।
  2. संत मत के समस्त कवियों में कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक थे। इन्होंने कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके कहीं पर कुछ नहीं लिखा है, न उन्हें पिंगल और अलंकारों का ज्ञान था तथापि उनमें काव्यानुभूति इतनी प्रबल एवं उत्कृष्ट थी कि ये सरलता के साथ महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं ।
  3. कबीर भावना की अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, जीवन का संवेदनशील संस्पर्श करने वाले और मर्यादा के रक्षक कवि थे। पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही इनका प्रधान लक्ष्य है।
  4. कबीर जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज सुधारक, कारणों से प्रेरित होकर धर्म-सुधारक, प्रगतिशील दार्शनिक और आवश्यकतानुसार कवि थे। उनके व्यक्तित्व का पूरा-पूरा प्रतिबिंब इनके साहित्य में विद्यमान है ।

डॉ० बच्चन सिंह

(1919-2008)
  1. कबीर हिंदी भक्ति काव्य के प्रथम क्रांतिकारी पुरस्कर्ता हैं ।
  1. कबीर पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों, वर्णों को नकारकर ऐसे समाज की स्थापना का प्रयास किया है, जिसमें धर्म, संप्रदाय, ऊँच-नीच के भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है। पीड़ित, शोषित, अपमानित जनसमाज के दुःख से जितना सरोकार कबीर का है, उतना भक्तिकाल के किसी अन्य कवि का नहीं। इनका गैर-समझौतावादी व्यक्तित्व अलग से चमकता है।
  2. इन्हें सुधारक कहना उनके महत्त्व को कम करना है। वे एक ऐसे धर्म की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें न कोई हिंदू हो न मुसलमान, न कोई मौलवी हो न पुरोहित, न कोई शेख हो न ब्राह्मण, सब मनुष्य हों । यह क्रान्तिकारी कदम था न कि सुधारवादी ।
  3. कबीर का सौंदर्यबोध अपारंपरिक और यथार्थवादी है । अत: उनके लिए पृथक् सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करना होगा ।
  4. कबीर की भाषा संतभाषा है। इसे हिमाचल के चंबा से लेकर महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, बंगाल तक समझा जा सकता है। इसमें खड़ी बोली पर गहरा पुट था। भोजपुरी, ब्रज और राजस्थानी का भी उस पर प्रभाव था।
  1. कबीर का काव्य एक महान् व्यक्ति के महान् विचारों एवं भावों की सफल अभिव्यक्ति है; इसलिए वह पाठकों का क्षणिक अनुरंजन मात्र नहीं; अपितु स्थायी शांति भी प्रदान करता है।
  2. यदि हम एक ऐसा कवि ढूँढ़ने लगें, जिसकी प्रतिभा, बुद्धि और काव्य-शक्ति में अनेक विरोधी तत्त्वों का आश्चर्यजनक समन्वय हो जिसने समाज के निम्नतम वर्ग में जन्म लेकर भी उच्चतम वर्ग को अपनी प्रतिभा के बल पर परास्त कर दिया हो, जिसने सर्वथा अशिक्षित होते हुए भी अपने युग के समस्त शिक्षित विद्वानों के मस्तिष्क को अपने तर्क से प्रभावित कर दिया हो और जिसने ‘कागद’ और ‘मसि’ न छूकर भी अपनी रचनाओं द्वारा कोटि-कोटि जनता के हृदय में अजस्र भावधाराओं को प्रवाहित कर दिया हो तो हमारा साक्षात्कार महाकवि, महासुधारक और महान नेता महात्मा कबीर से होगा।

रामस्वरूप चतुर्वेदी

(1931-2003)
  1. बिना महाकाव्य लिखे वे हिंदी के महाकवि हैं।
  2. संस्कृत से मुक्त लोक संस्कृति को बनाने में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है।
  3. कबीर सच्चे अर्थों में सुकवि थे, उनके ऊपर जरा-मरण के नियमों का कोई प्रभाव नहीं होता है।
  4. कबीर निर्भीक, सत्यवादी, स्वतंत्रचेता, परमसंतोषी बाह्य आडंबर विरोधी, सात्त्विक प्रकृति के तथा क्रांतिकारी सुधारक थे।

डॉ० रामकुमार वर्मा

(1905-1990)
  1. कबीर का काव्य बहुत स्पष्ट और प्रभावशाली है। यद्यपि कबीर ने पिंगल और अलंकार के आधार पर काव्य-रचना नहीं की, तथापि उनकी काव्यानुभूति इतनी उत्कृष्ट थी कि वे सरलता से महाकवि कहे जा सकते हैं ।
  2. कबीर ने अपने रहस्यवाद में अद्वैतवाद और सूफी मत की गंगा-जमुना एक साथ बहा दी ।

श्याम सुन्दरदास

(1875-1945)
  1. कबीर ने अपनी उक्तियों पर बाहर से अलंकारों का मुलम्मा नहीं लगाया, जो अलंकार मिलते हैं, वे उन्होंने खोज-खोजकर नहीं बिठाए । मानसिक कलाबाजी और कारीगरी के अर्थ में कला का उनमें सर्वथा अभाव है, किन्तु सच्ची कला के लिए तथ्य की आवश्यकता है।
  2. कबीर भाषा पंचमेल खिचड़ी है, जिसमें ब्रज, अवधी, पंजाबी, अरबी एवं फारसी के शब्दों का मिश्रण है।
  3. रहस्यवादी कवियों में कबीर का आसन सबसे ऊँचा है, शुद्ध रहस्यवाद केवल उन्हीं का है ।