शादी की रस्म पूरी होते-होते रात के दो बज गए थे। ज्यादातर बाराती सो चुके थे । गिने-चुने लोग ही दूल्हे के साथ विवाह मंडप में मौजूद थे। कमल उपाध्याय अतिरिक्त उत्साह में हरीश के साथ हर जगह मौजूद था । घर-परिवार के सदस्य की तरह सारी व्यवस्था कमल उपाध्याय की देख-रेख में संपन्न हो रही थी। हरीश और कमल के संबंध ही कुछ ऐसे थे ।
फेरों से लौटकर वे बरामदे में ऐसी जगह तलाशने लगे, जहाँ थोड़ी देर पीठ टिकाकर पाँव सीधे किए जा सकें। छोटे से बरामदे में एक साथ इतने सारे लोग गुड़-मुड़ होकर सोए थे । ऐसी जगह नहीं बची थी कि खुलकर लेटा जा सके ।
कहीं बारात ठहराने के लिए स्कूल का बरामदा ही मिल पाया था। प्रधान जी ने स्कूल खोल देने की हामी तो भर दी थी । लेकिन ऐन वक्त पर हेडमास्टर कहीं रिश्तेदारी में चले गए थे। काफी भागदौड़ के बाद भी चाबी नहीं मिली थी। आखिर हारकर बारात को बरामदे में ही ठहराना पड़ा था। स्कूल में जो हैंडपंप था, एक रात पहले किसी ने उसका हत्था और वाल्व भी खोल लिये थे। पीने के पानी का और कोई इंतजाम वहाँ नहीं था । बड़ी मुश्किल से दो मिट्टी के घड़े ही मिल पाए थे ।
रोशनी के नाम पर भी सिर्फ अँधेरा ही था। सड़क के लैंपपोस्ट की हलकी पीली रोशनी बरामदे तक आकर अँधेरे में तब्दील हो गई थी ।
हरीश ने दूल्हेपन के भार को उतारकर दीवार के सहारे पीठ टिका दी। कमल के लिए जगह बनाते हुए बोला, “थोड़ी देर कमर सीधी कर लो। थक गए होगे…. तुम्हें तो यहाँ काफी अटपटा लग रहा होगा।”
कमल ने मोजे और जूते सहेजते हुए कहा, “रात भर की ही तो बात है किसी तरह गुजर जाएगी। गाँव के बारे में सिर्फ पढ़ा था । देखा आज ही है ।” ।
“कैसा लग रहा है ?” हरीश ने कमल को अपनी ओर खींचा” “कैसा क्या…हालत दयनीय है… कितना धैर्य है लोगों में…” कमल ने गहरी साँस ली।
बरामदे के किनारे पर दो बुजुर्ग अभी तक जगे थे। रुक-रुककर बातचीत कर रहे थे। हरीश और कमल की वार्तालाप सुनकर उनकी ओर मुखातिब हुए। उनमें से एक बोला, “बेट्टे, हरीश, तुम्हारा ये दोस्त पहली बार गाँव आया है क्या ?”
“हाँ, ताऊ जी…” उत्तर कमल ने दिया ।
“कौन बिरादर हो ?” बुजुर्ग ने बात आगे बढ़ाई। “ताऊ, क्या इतना काफी नहीं है कि यह मेरा दोस्त है, और मेरी बारात में शामिल है ?” हरीश ने नाराजगी व्यक्त की।
बुजुर्ग किसी जमाने में अंग्रेज अफसर की सेवा टहल में थे, जब भी मौका मिलता, दिखाने की कोशिश करते।
“मैंन्ने कोई इंसलेट बात कही है क्या ?…जो बुरा मान गए !” बुजुर्ग चुप हो गया ।
“ताऊ जी… आपकी बात का बुरा क्या मानना…मैं ब्राह्मण हूँ… और कुछ पूछना हो तो पूछिए …” कमल ने विनम्रता दिखाई। बुजुर्ग ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। “सो जाओ कमल, सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं है।” हरीश ने बात बदलने की कोशिश की ।
कमल सोने का प्रयास करने लगा। कुछ देर की खामोशी के बाद बोला, “हरीश, सो गए क्या… सुबह क्या होगा ?”
हरीश की आँखों में नींद भरी हुई थी। अलसाए स्वर में बोला, “सुबह… क्या मतलब ?” “हरीश, सुबह जल्दी उठने की आदत है मेरी । चाहे देर रात दो बजे सोऊँ, नींद पाँच बजे ही टूट जाती है। माँ सुबह पाँच बजे से ही पूजा-पाठ में लग जाती हैं। उनकी खटर-पटर से मैं भी उठ जाता हूँ । बरसों से ऐसे ही चल रहा है। माँ सुबह-सुबह चाय बनाकर मेरे हाथ में थमा देती हैं। अब तो ऐसी आदत पड़ गई है कि यदि छह बजे तक चाय न मिले तो सिर भारी होने लगता है।” कमल ने अपनी तकलीफ सुनाई ।
“यहाँ सुबह-सुबह छह बजे चाय कहाँ मिलेगी…” हरीश ने असमर्थता जताई। बुजुर्ग ने बीड़ी सुलगा ली थी । जो अँधेरे में चमक पैदा कर रही थी। कमल से बोले, “बाबू जी, गाँव के बाहर एक दुकान तो है । आप सुबह जाकर देख लेना । शायद मिल जाए।”
“आपने देखी है दुकान ? कितनी दूर है ?” कमल ने उत्सुकता दिखाई। ” पास ही है। शाम को मैंने वहाँ से बीड़ी का बंडल खरीदा था । सामने जो गली है उससे सीधे चलते जाना । गली खत्म होते ही सड़क है। वहीं पर एक दुकान है।” बुजुर्ग ने बताया ।
सुबह उठते ही कमल चाय की तलाश में निकल पड़ा । गली लगभग सुनसान थी । इक्का-दुक्का लोग अजीब-सी बुक्कल मारे आ-जा रहे थे। रात वाली चहल-पहल कहीं दिखाई नहीं पड़ रही थी ।
खड़ंजे पर फिसलन थी। नालियों में बहते पानी से बचते बचाते वह गली के मुहाने पर एक खुली और रेतीली जगह पर आ गया। सामने ही सड़क के पार एक छप्परनुमा दुकान थी। जिसमें एक किनारे पर भट्टी बनी थी । भट्टी के साथ ही एक चबूतरा भी था। जिस पर लकड़ी के खोके में पान-बींड़ी, जर्दा, तंबाकू की थैलियाँ रखी थीं। साथ ही दो-तीन बदरंग से डिब्बे रखे थे । भट्टी में सुलगते कोयलों से गहरा काला धुआँ निकल रहा था। जिसका कसैलापन उसने अपने फेफड़ों में महसूस किया। दीवार पर किसी सिने तारिका का अर्द्धनग्न बदरंग कैलेंडर टँगा था। जो धूल और धुएँ के हमलों से मटमैला हो गया था।
भट्टी के पास ही एल्यूमिनियम की एक बड़ी-सी केतली रखी थी। जिसका रंग स्याह काला पड़ गया था। कुछ काँच के मटमैले गिलास, कप प्लेटें और शीशे के एक जार में कुछ बिस्कुट पड़े थे। भगोना बाहर से काला और भीतर से भूरा, मटमैला दिखाई पड़ रहा था। आसपास मक्खियों के झुंड के झुंड भिनभिना रहे थे ।
चबूतरे पर ही एक जर्जर – सा बूढ़ा आदमी मैले- चीकट कपड़ों में उकहूँ बैठा बीड़ी पी रहा था । उसके हाथों, पैरों की नसें उभरी हुई थीं । जैसे किसी ने शरीर का मांस उतारकर त्वचा हड्डियों से चिपका दी हो।
पास ही एक पुरानी सी बेंच पड़ी थी। जिसकी हालत उस बूढ़े आदमी से भी बदतर थी। कमल ने बेंच पर बैठने की कोशिश की। बेंच चरमराई । किसी तरह अपने आपको बेंच पर टिकाकर कमल ने बूढ़े से कहा, “चाय मिलेगी ?”
“मिलेगी… थोड़ा टेम लगेगा।” बूढ़े ने बीड़ी का आखिरी कश खींचा।
कमल दुकान में रखी हर चीज को उत्सुकता से देख रहा था । उसके जेहन में माँ का खयाल आ गया । यदि इस समय घर में होता तो माँ गर्म-गर्म चाय लेकर आती । चाय बनाते समय भी माँ कोई-न-कोई श्लोक दोहराती रहती है ।
धुएँ का झोंका कमल के मुँह और आँखों में भर गया। उसने जेब से रूमाल निकालकर नाक-मुँह पर रखा। कड़वाहट उसके भीतर समा गई थी ।
“कितनी देर लग जाएगी चाय में… ?” कमल ने जिज्ञासा की।
“बस… अभी हो जागी… भट्टी सुलग री है। बैट्ठो आप…” चायवाले ने आश्वस्त किया।
चायवाला लोहे के सरिए से भट्टी में कोयले सँवारने लगा ।
“नए दिख रहे हो बाबू जी… कहाँ से आए हो ?” चायवाले ने बात शुरू की। “देहरादून से ।” कमल ने सहजता से कहा । उसका ध्यान सुलगती भट्टी पर टिका था।
देहरादून का नाम सुनकर चायवाला चौंका, ‘देहरादून से तो कल एक बारात भी आई है।” चायवाले ने प्रश्न की तरह कहा।
“हाँ, मैं उसी बारात में आया हूँ।”
“वह बारात तो चूहड़ों के घर आई है।” चायवाले की जिज्ञासा गोली में बदल चुकी थी।
.”तो क्या हुआ ?” कमल ने सवाल किया ।
चायवाला एकदम चुप हो गया था। उसकी चुप्पी ने कमल को संशय में डाल दिया था। चायवाले के हाव-भाव बदल गए थे।
वह भट्टी के पास से हटकर इधर-उधर के काम करने लगा था। कभी इस डिब्बे को उठाकर उधर रख रहा था, कभी मंटके से पानी निकालकर कनस्तर में भर रहा था । भट्टी सुलगकर लाल-लाल अंगारों में बदल गई थी। अंगारों से लपटें उठ रही थीं, लेकिन चाय बनने के आसार दिखाई नहीं पड़ रहे थे ।
कमल का गला खुश्क होने लगा था। “भट्टी तो धधक गई है। एक कप चाय बना दीजिए।” कमल ने शालीनता से कहा ।
चायवाला अनसुना करके अपने काम में लगा हुआ था। कमल का धैर्य टूटने लगा, “भई, चाय बना दो।”
चायवाले ने वहीं से जवाब दिया, “तुझे यहाँ चाय ना मिलने की।” चायवाले की आवाज में रूखापन था । जिसे महसूस करते हुए कमल ने तीखेपन से पूछा, “लेकिन क्यों ? अभी थोड़ी देर पहले तो आपने कहा था, चाय मिलेगी ।”
‘‘कहा था…और इब कुह रा हूँ नहीं मिलेगी…” चायवाले ने कठोरता से कहा । कमल चायवाले के व्यवहार से चकित था। फिर भी नम्रता से बोला, “लेकिन भाई साहब हुआ क्या है ?…क्या मैं पैसे नहीं दूँगा ?” .
चायवाला उसके ठीक सामने तनकर खड़ा हो गया। दोनों हाथ कूल्हों पर टिकाकर सीना चौड़ा करते हुए बोला, “यो पैसे सहर में जाके दिखाणा। दो पैसे हो गए जेब में तो सारी दुनिया को सिर पे ठाये घूमो… ये सहर नहीं गाँव है… यहाँ चूहड़े चमारों को मेरी दुकान में तो चाय ना मिलती… कहीं और जाके पियो ।”
कमल की नसें फड़फड़ाने लगीं। उसने चायवाले को आग्नेय नेत्रों से घूरा आवाज में सख्ती भरकर बोला, “चूहड़े चमारों को नहीं मिलती है तो किसे मिलती है ?”
चायवाला उसकी बात अनसुनी करके फिर अपने काम में लग गया था। कमल को वह असभ्य वनमानुष दिखाई पड़ रहा था । उसने साहस करके पूछा, “तुम्हारी क्या जात है ?”
चायवाला भभक पड़ा, “मेरी जात से तुझे क्या लेणा देणा। इब चूहड़े चमार भी जात पूछने लगे… कलजुग आ गया है कलजुग।”
“हाँ, कलजुग आ गया है, सिर्फ तुम्हारे लिए, तुम अपनी जात नहीं बताना चाहते हो तो सुनो-मेरा नाम कमल उपाध्याय है । उपाध्याय का मतलब तो जानते ही होगे, या समझाऊँ… …उपाध्याय यानी ब्राह्मण ।” कमल ने आँखें तरेरकर कहा ।
“चूहड़ों की बारात में बामन ?” चायवाला कर्कशता ” “सहर में चूतिया बणाना… मैं तो आदमी कू देखते ही पिछाण ( पहचान) लूँ… कि किस जात का है ?” चायवाले ने शेखी बघारी ।
उनका वार्तालाप सुनकर राह चलते लोग ठिठककर मजा लेने लगे। सुबह-सुबह का वक्त था, देखते ही देखते लोग जमा हो गए। लोगों को देखकर चायवाले की बूढ़ी हड्डियों में जोश आ गया था । आवाज का तेवर चढ़ने लगा ।
बल्लू रांघड़ का रामपाल भी भीड़ देखकर ठिठक गया । माजरा क्या है, जानने के लिए चाय की दुकान की ओर बढ़ा । बूढ़ा चायवाला किसी शहरी को फटकार रहा था । रामपाल ने छूटते ही पूछा, “चाच्चा, कोण है यो ?”
रामपाल को देखते ही चायवाला और बिफर पड़ा, “चूहड़ा है। खुद कू बामन बतारा है। जुम्मन चूहड़े का बाराती है । इब तुम लोग ही फैसला करो । जो यो बामन है चूहड़ों की बारात में क्या मूत पीणे आया है। जात छिपाके चाय माँग रा है। मैन्ने तो साफ कह दी। बुद्धू की दुकान पे तो मिलेगी ना चाय चूहड़ों चमारों कू, कहीं और ढूँढ़ ले जाके ।” चायवाले ने आसपास खड़े लोगों का समर्थन जुटाने की कोशिश की।
दुबला-पतला-सा रामपाल सीकिया पहलवान था । गाल पिचके हुए, हड्डियाँ उभरी हुईं। बारीक मूँछें, तेल से चीकट बाल । कुल मिलाकर ऐसा हुलिया, जिसे देखकर यह अंदाज बिलकुल नहीं हो सकता था कि इस डेढ़ हड्डी के आदमी का गाँव भर में दबदबा है ।
रामपाल को देखते ही खुसर- पुसर एकदम शांत हो गई थी। कमल भी स्वयं को चक्रव्यूह में फँसा महसूस करने लगा था। उसने आसपास खड़े लोगों पर नजर डाली । उसने उनकी बात का विरोध करने के लिए मुँह खोला, “भाइयो….!”
बात पूरी होने से पहले ही रामपाल ने उसे डाँटा, “ओ, सहरी जनखे हम तेरे भाई हैं ?–साले जबान सिभाल के बोल, गाँड में डंडा डाल के उलट दूँगा । जाके जुम्मन चूहड़े से रिश्ता बणा । इतनी जोरदार लौंडिया लेके जा रे हैं सहर वाले, जुम्मन के तो सींग लिकड़ आए हैं। अरे, लौंडिया को किसी गाँव में ब्याह देता तो म्हारे जैसों का भी कुछ भला हो जाता…” एक तीखी हँसी का फव्वारा छूटा। आसपास खड़े लोगों ने उसकी हँसी में अपनी हँसी मिला दी।
कमल को लगा जैसे अपमान का घना बियाबान जंगल उग आया है। उसका रोम-रोम काँपने लगा। उसने आसपास खड़े लोगों पर निगाहें डालीं। हिंसक शिकारी तेज नाखूनों से उस पर हमला करने की तैयारी कर रहे थे ।
उसने पहली बार अखबारों में छपी उन खबरों को शिद्दत से महसूस किया। जिस पर विश्वास नहीं कर पाता था वह । फलाँ जगह दलित युवक को पीट-पीटकर मार डाला, फलाँ जगह आग में भून दिया। घरों में आग लगा दी । जब-जब भी हरीश इस तरह का समाचार कमल को सुनाता, वह एक ही तर्क दोहरा देता था। “हरीश अपने मन से हीन भावना निकालो। दुनिया कहाँ-से-कहाँ निकल गई और तुम लोग वहीं-के- वहीं हो । उगते सूरज की रोशनी को देखो। अपने आप पर विश्वास करना सीखो। पढ़-लिखकर ऊपर उठोगे तो सब कुछ अपने-आप मिट जाएगा।”
लेकिन इस वक्त कमल के सामने हरीश का एक-एक शब्द सच बनकर खड़ा था । सच साबित हो रहा था।
कमल ने फिर से साहस बटोरा और विरोध किया, “क्या यही है गाँव का अतिथि सत्कार। आप लोग अपने ही गाँव की लड़की के लिए ऐसी बातें कर रहे हो। क्या वह इस गाँव की बेटी नहीं है ?”
कमल आगे कुछ और बोलता उससे पहले ही रामपाल ने अपने वजूद से ज्यादा शक्ति से चीखकर बोला, “जा चुपचाप चला जा… वरना एक भी जिंदा वापस ना जा सकेगा, ना बो लौंडिया ही जा पाएगी…” कमल को धक्का देकर छप्परनुमा दुकान से बाहर कर दिया रामपाल ने।
कमल कोई बावेला खड़ा करना नहीं चाहता था। सीने में उठ रहे ज्वार को उसने शांत रखा। उसे हरीश का खयाल आ गया। वक्त की नजाकत भाँपकर चुप रह जाना ही ठीक लगा ।
सड़क से उतरकर वह रेतीले रास्ते पर आ गया। उसकी रग-रग में अंगारे दहक रहे थे। लड़कों का झुंड उसके पीछे लग गया था। वे कमल को चिढ़ाने का प्रयास करने लगे।
“चूहड़ा-चूहड़ा…चूहड़ा…” वे जोर-जोर से चिल्ला रहे थे । प्रत्येक शब्द नश्तर की तरह उसके जिस्म को चीरकर लहूलुहान कर रहा था ।
कमल लड़कों से बचकर गली की ओर लपका। तेज कदमों से लगभग दौड़ते हुए वह जनवासे में पहुँचा। उसकी साँस फूल गई थी। मूड बुरी तरह उखड़ा हुआ था । जिस्म पर अभी तक हजारों- चीटियाँ रेंग रही थीं। पोर-पोर गर्म दहकते लावे-सा जल रहा था।
उसे देखते ही हरीश ने पूछा, “क्या बात है ? चेहरा उतरा हुआ है ?”
“कुछ नहीं… ठीक हूँ ।” कमल ने गहरी साँस ली ।
“कहाँ चले गए थे ? बड़ी देर लगा दी। चाय का इंतजाम कराया है। बस तुम्हारा ही इंतजार था ।” हरीश ने कहा ।
कमल दीवार के सहारे टिककर बैठ गया | चुपचाप । जैसे विचारों की सुनसान पगडंडियों पर अकेला विचरण कर रहा हो, उसे इस तरह खामोश देखकर हरीश ने पूछा, “क्या बात है ? कुछ परेशान लग रहे हो ?”
“नहीं, कुछ नहीं… बस थोड़ा सिर भारी है ।” कमल ने टालना चाहा ।
उसके जेहन में पंद्रह वर्ष पुरानी घटना दस्तक देने लगी। जिसकी स्मृति मात्र से ही उसके शरीर में एक लहर-सी दौड़ गई ।
उस रोज कमल हरीश को पहली बार स्कूल से सीधा अपने घर ले गया था । पिताजी कहीं बाहर गए हुए थे। उसने अपनी माँ से हरीश को मिलाया था। माँ ने दोनों को खाने के लिए कुछ दिया था। हरीश ने पहला कौर उठाकर मुँह में रखा ही था कि कमल की माँ ने पूछा, “बेटे, तुम्हारे पापा क्या करते हैं ?”
“जी, नगरपालिका में सफाई कर्मचारी हैं।” हरीश ने सहजता से उत्तर दिया । हरीश का जवाब सुनते ही कमल की माँ आग-बबूला हो गई थी। कमल के गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा था।
“पता नहीं कहाँ-कहाँ से इन कंजड़ों को पकड़कर घर ले आता है। खबरदार जो आगे से किसी हरामी को दुबारा यहाँ लाया…” कमल पर यह हमला अप्रत्याशित था। वह न रोया, न कोई प्रतिरोध ही कर सका था। सिर्फ फटी-फटी आँखों से माँ के गुस्से से भरे चेहरे को देखता रह गया था ।
माँ ने हरीश को भी ढेर-सी गालियाँ देकर घर से भगा दिया था। माँ की दुत्कार, फटकार से हरीश बुरी तरह आहत हुआ था। उसे पहली बार लगा था कमल और वह दोनों अलग-अलग हैं। दोनों के बीच कोई फासला है। उसे अपने पड़ोसी सुगना के शब्द याद आ रहे थे, “बेट्टे, बामन से दोस्ती रास नहीं आएगी।” लेकिन हरीश ने सुगना की बात को कभी अहमियत नहीं दी थी। कमल उसके लिए अपना था, एकदम सगा । बल्कि अपनों से कहीं ज्यादा । इस घटना ने हरीश के मन पर कई खरोंचें डाल दी थीं। हरीश के जाने के बाद माँ लगातार बड़बड़ाती रही थी। सारा घर दुबारा धोया गया था। गंगाजल छिड़ककर जमीन पवित्र की गई थी ।
कमल के बालमन में भी एक दरार पैदा हो गई थी । वह चुपचाप जाकर अपने कमरे में लेट गया था । ढेरों सवाल उसके मन को कचोट रहे थे आखिर माँ ने ऐसा क्यों किया । क्या कमी है हरीश में । दिन भर उसने कुछ नहीं खाया था । रात में भी माँ ने बहुत समझाया था। ऊँच-नीच बताई थी । फिर भी वह चुपचाप निर्विकार मुद्रा में बैठा था । माँ के सारे दाँव उसे मनाने में हार गए थे ।
“बेटे, इनके संस्कार गलत हैं, ये छोटे लोग हैं। इनके साथ बैठने से बुरे विचार मन में पैदा होते हैं…” और भी कई बातें माँ ने बताई थीं। लेकिन कमल के अनुभव इन सबसे भिन्न थे ।
माँ के तर्कों से जब वह ऊबने लगा तो आखिर उसने माँ से पूछ ही लिया, “तुम कभी उनके घर गई हो ? उनसे मिली हो ? फिर कैसे जानती हो वे बुरे लोग हैं ?” माँ अवाक् होकर कमल का चेहरा देखने लगी थी। कमल की आँखों में गुस्सा नहीं था। ‘ऐसा कुछ था जो धीरे-धीरे बर्फ की तरह पिघल रहा था। जिसे वह पकड़ना चाहती थी, पर उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था ।
माँ ने हारकर एक समझौता कर लिया था । जिसकी जानकारी हरीश को कभी नहीं हुई। हरीश के खाने-पीने के लिए कुछ बर्तन अलग रख दिए थे । तब से आज तक कमल एक ऐसी अँधेरी गली में चल रहा था जहाँ रोशनी का कोई कतरा दिखाई नहीं देता है। उसे हमेशा लगता है जैसे वह हरीश से विश्वासघात कर रहा है।
कमल को खयालों में डूबा देखकर हरीश ने उसे टोका, “कहाँ खो गए… लो चाय पियो…!”
एक देहाती लड़का चाय के दो गिलास थामे खड़ा था। कमल ने एक गिलास उसके हाथ से ले लिया। चाय की चुस्की लेते हुए कमल का बिगड़ा हुआ मूड बदलने लगा । चाय पीने के बाद सिरदर्द से भी थोड़ी राहत महसूस की उसने ।
सूरज सिर के ऊपर चढ़ गया था। शादीवाले घर में काफी चहल-पहल थी। दोपहर के खाने में विशेष इंतजाम किया गया था । पास के कस्बे से ‘नान’ और ‘मीट’ बनाने के लिए कारीगर बुलाया गया था। एक मोटा ताजा बकरा काटा गया था। पके हुए मीट और गर्म मसालों की महक पूरे आँगन में फैल गई थी। कुछ लोग सुबह से ही दारू पीने बैठ गए थे। काफी हो-हल्ला होने लगा था। बच्चों की चिल्ल-पों अलग थी। बड़े-बूढ़े हुक्के की गुड़-गुड़ में अपने जमाने को याद कर रहे थे । औरतों की व्यस्तता कुछ अलग थी। हरीश की सास ने पुराने कपड़ों पर एक नई ओढनी डाल ली थी। दूल्हे को साथ लेकर उसे ‘सलाम’ पर जाना था।
हरीश के पिताजी कुछ परेशान दिखाई दे रहे थे । कमल ने परेशानी का कारण जानना चाहा तो वे टाल गए। सुबह से ही कुछ चल रहा था। जिसका थोड़ा आभास कमल को होने लगा। लेकिन कोई भी उसके सामने खुलकर बात नहीं कर रहा था ।
हरीश के ससुर जुम्मन ऋषिकेश में सरकारी कर्मचारी थे। परिवार गाँव में रहता था। पारंपरिक जीवन था। गाँव के कई परिवारों में साफ़-सफाई का काम हरीश की सास करती थी । जुम्मन की बड़ी लड़की बाप के साथ ऋषिकेश में ही रहती थी, सरकारी मकान में। आस-पड़ोस की देखा-देखी जुम्मन ने उसे भी स्कूल भेज दिया । देखते-देखते उसने हाईस्कूल की परीक्षा पास कर ली थी। साथ ही उसमें सुघड़ता भी आ गई थी । अच्छा परिवेश पाकर उसमें बदलाव आ गया था । गाँव-भर की लड़कियों से अलग दिखाई पड़ती थी । वैसे इस गाँव की वह पहली लड़की थी। जिसने हाईस्कूल पास किया था । जुम्मन की घरवाली जिन परिवारों में काम करती थी, उनमें अधिकतर रांघड़ थे । गाँव-देहात के नियम-कायदे के हिसाब से हरीश को ‘सलाम’ के लिए विदाई से पहले रांघड़ों के दरवाजे पर जाना था। यह एक रस्म थी । जिसे न जाने कितनी सदियों से निभाया जा रहा था ।
हरीश के पिताजी ने साफ़ इनकार कर दिया था, “हम ‘सलाम’ पर अपने लड़के को नहीं भेजेंगे।”
रांघड़ परिवारों से कई बार बुलावा आ चुका था । बिरादरी के बड़े-बूढ़े अपने-अपने तर्क देकर ऊँच-नीच समझा रहे थे ।
“बाप-दादों की रीत है, एक दिन में तो ना छोड़ी जावे है। वे बड़े लोग हैं। ‘सलाम’ पे तो जाणा ही पड़ेगा। और फिर जल में रहकर मगरमच्छ से बैर रखना तो ठीक नहीं है। और इसी बहाने कपड़ा-लत्ता, बर्तन – भाँडे भी नेग-दस्तूर में आ जाते हैं।” “
हरीश ने भी स्पष्ट तौर पर कह दिया था, “मुझे न ऐसे कपड़े चाहिए, न बर्तन, मैं अपरिचितों के दरवाजे ‘सलाम’ पर नहीं जाऊँगा।”
हरीश ने जब-जब भी किसी दूल्हे या दुल्हन को इस तरह दरवाजे दरवाजे घूमते देखा, उसे लगता था जैसे स्वाभिमान को चिंदी-चिंदी करके बिखेरा जा रहा है। बाजे-गाजे के साथ घूमता दूल्हा निरीह जीव दिखाई पड़ता था। “दामाद हो या नई-नवेली दुल्हन ‘सलाम’ के लिए घर-घर जाने का रिवाज है, जो हमने नहीं पुरखों ने बनाया था। जिसे इस तरह छोड़ देना ठीक नहीं है। गाँव में रहना है। दस जरूरतें हैं।” जुम्मन ने जोर देकर कहा । जो समझें…
हरीश ने तीखे शब्दों में कहा, “आप चाहे जो समझें… मैं इस रिवाज को आत्मविश्वास तोड़ने की साजिश मानता हूँ। यह ‘सलाम’ की रस्म बंद होनी चाहिए।” सुनकर कमल हरीश की ओर बढ़ा। कमल को अपनी ओर आते देखकर हुआ था। हरीश चुप हो गया । हरीश का चेहरा तनाव से कसा हुआ था । “क्या बात है हरीश …कुछ मुझे भी तो बताओ…!” कमल ने जिज्ञासा प्रकट की ।
प्रत्येक कार्य-कलाप में कमल हरीश के साथ था। घर से लेकर यहाँ तक । लेकिन इस वक्त वह अपने आपको अलग-थलग महसूस कर रहा था ।
हरीश के पिताजी ने कमल के कंधे पर हाथ रखा, “कुछ नहीं है बेटे… आप वहाँ बैठो। सामने आँगन में नीम के पेड़ के नीचे मैंने आपके लिए एक चारपाई डलवा दी है, आराम करो, जात-बिरादरी की कुछ समस्याएँ हैं…हम निबटा लेंगे… !”
कमल को लगा जैसे वह सचमुच बाहरी व्यक्ति है, उसने कातर दृष्टि से हरीश की ओर देखा, हरीश ने आँखों के इशारे से शांत रहने के लिए कहा, कमल जाकर चारपाई पर बैठ गया ।
दोपहर होते-होते बात पूरे गाँव में फैल गई । जुम्मन के जँवाई ने ‘सलाम’ पर आने से मना कर दिया है। गाँव के रांघड़ बल्लू रांघड़ की चौपाल पर जुटने लगे थे। ऐसा लग रहा था जैसे जोहड़ के पानी में किसी ने कंकड़ फेंक दिए हों। गोल-गोल लहरें घूमकर किनारों तक फैल गई थीं। रांघड़ गुस्से में फनफनाए घूम रहे थे ।
बल्लू रांघड़ का सीकिया पहलवान रामपाल कमल उपाध्याय को चाय की दुकान से धकियाकर चौड़ा हुआ घूम रहा था। अपनी बहादुरी का किस्सा समूचे गाँव को सुना चुका था। कैसे एक चहूड़े को उसने चाय की दुकान में जात छिपाकर चाय पीते, रँगे हाथों पकड़ लिया। बराती था इसलिए छोड़ दिया। यह हरकत किसी और ने की होती तो अभी तक अरथी सज रही होती। लोग सुनते और मजा लेते, साथ ही अपनी ओर से कुछ जोड़ देते। दोपहर तक चर्चा पूरे गाँव में फैल गई थी।
बल्लू रांघड़ हालात देखकर खुद जुम्मन के घर आया । आते ही उसने जुम्मन और उसकी घरवाली को मेहमानों के सामने ही फटकार सुनाई।
“जुम्मन तेरा जँवाई इब तक ‘सलाम’ पर क्यों नहीं आया। तेरी बेटी का ब्याह है तो हमारा बी कुछ हक बनता है। जो नेग-दस्तूर होता है, वो तो निभाना ही पड़ेगा । हमारी बहू-बेटियाँ घर में बैठी इंतजार कर रही हैं। उसे ले के जल्दी आ जा…”
जुम्मन ने सिर पर लिपटा कपड़ा उतारकर बल्लू रांघड़ के पाँव में घर दिया, “चौधरी जी, जो सजा दोगे भुगत लूँगा। बेटी कू बिदा हो जाण दो। जमाई पढ़ा-लिखा लड़का है, गाँव-देहात की रीत ना जाणे है।”
“तभी तो कहूँ – जातकों (बच्चों) कू स्कूल ना भेज्जा करो। स्कूल जाके कोण सा इन्हें बालिस्टर बणना है। ऊपर से इनके दिमाग चढ़ जांगें। यो न घर के रहेंगे न घाट के। गाँव की नाक तो तूने पहले ही कटवा दी जो लौंडिया कू दसवीं पास करवा दी क्या जरूरत थी लड़की कू पढ़ाने की, गाँव की हवा बिगाड़ रहा है तू । इब तेरा जँवाई ‘सलाम’ पे जाणे से मना कर रहा है…उसे समझा दे… ‘सलाम’ के लिए जल्दी आवे…” बल्लू ने फैसला सुनाया।
(जुम्मन ने गिड़गिड़ाकर रिरियाहट भरे शब्दों में कहा, “चौधरी जी, मेरी लाज रख लो… मैं तो थारा गुलाम हूँ… मेरा तो जीना मरना सब कुछ थारी ही गेल है। जो कहोगे करूँगा… बस करके बेटी कू विदा हो जाण दो। मैं धारे पाँव में नाक रगहूँ…”
बल्लू रांघड़ गुस्से में फनफनाता चल दिया। जाते-जाते चेतावनी देकर बोला, “इन सहर वालों कू कह देणा- कव्वा कबी बी हंस ना बण सके है ।”
बल्लू के जाते ही कमल ने हरीश से पूछा, “कौन था यह ? इस तरह डरा-धमका क्यों रहा था ?” हरीश ने चुप रहने का इशारा किया। सभी भय से सहम गए थे । बल्लू रांघड़ के जाते ही बिदाई की तैयारी शुरू हो गई थी। जुम्मन ने जात-बिरादरी की स्त्रियों को हिदायत दे दी थी, “टीके की रस्म जल्दी निबटाएँ, बिना हो-हल्ले के रांघड़ कभी भी रौला कर सकते हैं।”
शादी की सारी चहल-पहल पल भर में सन्नाटे में सिमटकर बदल गई थी। इस सन्नाटे का शोर कमल उपाध्याय को बेचैन कर रहा था। उसका दम घुट रहा था । उसने हरीश की ओर देखा । हरीश की आँखों में आत्मविश्वास और स्वाभिमान के उगते सूरज की चमक दिखाई पड़ रही थी। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ गर्मजोशी से दबाया । आँखों ही आँखों में एक-दूसरे को आश्वस्त किया। नीम के पेड़ पर हरी नर्म पत्तियाँ हिल रही थीं, मानो हौंसला दे रही हों ।
जल्दी जल्दी बारात को खाना खिलाया गया। कमल और हरीश खाना खाकर नीम की छाँव में पड़ी चारपाई पर बैठ गए थे। सामने दीवार की ओर मुँह करके एक दस-बारह बरस का लड़का खड़ा था। उसके चेहरे पर गुस्से के भाव थे ।
उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक बूढ़ा आँगन में घुसा। उसके हाथ में ‘नान’ और ‘मीट’ था ? “दीपू…ओ…दीपू…कहाँ है… ये लौंडा भी बहुत दिक करे है। चूहड़ों के घर पैदा होके बामनों-सी बोली बोले है।” उसे दीवार के पास खड़ा देख उसने डाँटा, “तू यहाँ छुपा खड़ा है… मैं कब से तुझे ढूँढ़ रहा हूँ | ले रोटी खा ले… ले देख कितना अच्छा मीट वणा है।” बूढ़े ने मनाने की कोशिश की।
“ना… मैं नी खात्ता… इसे खाए मेरा मूत ।” लड़के ने ऐंठते हुए कहा । ” पर क्यूँ ?… क्या हुआ है इसमें ?” बूढ़े ने तल्खी से कहा ।
“मुसलमान के हाथ की बणी रोटूटी मैं नी खात्ता।” लड़के ने दूर हटते हुए कहा । , “मुसलमान ? “… कोण मुसलमान ?”
“वो जो गाड़ा वहाँ बैट्ठा रोट्टी बणा रा है।” लड़के ने रोटी बनाने वाले कारीगर की ओर इशारा किया ।
” वो …वो तो हिंदू है…. चलकर देख ले !” बूढ़ा उसे खींचकर ले जाने लगा। लड़का घिसटते हुए बूढ़े के पीछे-पीछे जा रहा था। चीख-चीखकर कह रहा था, “नहीं. वह मुसलमान है। मैं नी खाऊँगा उसके हाथ की बाणी रोट्टी… मैं नहीं खाऊँगा ।” “अबे, उल्लू की दुम… एक बार चलके तो देख ले । फेर कहणा ।” बूढ़ा उसे घसीटकर भट्टी की ओर ले गया जहाँ ‘नान’ बन रहे थे । लड़के के चीखने की आवाज लगातार आ रही थी ।
“नहीं… नहीं, मैं मुसलमान के हाथ की बणी रोट्टी नहीं खाऊँगा… नहीं खाऊँगा … नहीं खाऊँगा ।”
कमल और हरीश फटी-फटी आँखों से उस लड़के को देख रहे थे। कुछ देर पहले जगा आत्मविश्वास लड़के की आवाज में दबने लगा था। कमल और हरीश दोनों खामोशी के अँधेरे जंगल में भटक गए थे। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा और गहरी साँस ली ।