“छोकरे, पाऽनी !”
“लड़के, दो ‘चा’! फुरती से !”
“ए, सुन, आलूबड़ा चटनी में, फटाफट !”
’’ए, नमकीन एक पलेट, झट से!’’
’’छोरे, कचैङी इधर!’’
इतने सारे ’’हुक्म-ऑर्डर’’ लादे वह पिद्दी छोकरा चकरी की ढब घूम रहा था। पल इधर, पल उधर। उसके कम उमर पगों में पहिया था कि जो घूमता ही रहता था। उसके सधे बोल थे-’’लाया…..आया……ठीक……अच्छा……हाजिर……..लो…….साब…..और कुछ?’’
’’हाँ, दो सिगरेट कैंची!’’
’’पैसे?’’
’’अबे पूतनी के, पङेगा एक झाप! खाया-पिया नहीं और पैसे पैसे?’’
’’नहीं, सिगरेट के।’’
’’जा, पीछे सब साथ देंगे!’’
’’ना साब, वो पान वाला सिगरेट के पैसे पेले लेता है।’’
’’ले मर!’’ तरेरी आँखों से घूरते हुए झल्लाये हाथ ने उसकी मैली हथेली पर पैसे टिका दिये। वह घूम गया। धङधङाता काठ के जीने की सीढ़ियाँ उतर गया।
ओर-छोर फैलकर बढ़ते हुए उस कस्बेनुमा लहर में मकान दुकानों में बदल रहे थे और दुकानें ढाबे-होटलों में और लङके ’छोकरों’ में। अठारह-बीस पग लम्बे और बारह-पन्द्रह पग चौड़े उस ’शिव विशाल रेस्टोरेण्ट’ में सुबह से शाम तक भीङ लगी रहती। धन्धा और भी बढ़ गया, तो ऊपर छत की तरफ लकङी का ढाँचा खङा कर, सीढ़ियाँ लगाकर गुंजाइश कर ली गई। लखना की ’डूटी’ इसी ’ऊपरले केबिन’ में थी। ऊपर से ’ऑर्डर’ लेकर वह नीचे उतरता और सामान लेकर ऊपर टेबलों पर रखता।
काम तो इतना ही था, पर उसे सुबह से शाम और शाम से रात भीगने के पहले तक चढ़-उतर लगी रहती। दोपहर में खानेभर को आधा-पौन कलाक की फरागत मिलती, उसके बाद फिर वही चढ़-उतर। गाहकों का जमाव बिखरा कि कोने में सटकर उसने बीङी सुलगायी। दो-तीन सट्टे मारे थे कि बङ-बङ के साथ पूरे केबिन का काठ बर्रां गया और चार मजूरनुमा लोग आ जमे।
’’बीङी पीता है लौंडे अभी से! कितने बरस का है?’’
’’बारा का…….!’’ उसने बीङी के ठूँठ को दीवार से रगङकर कान में खोसना चाहा, पर कुछ सोचकर अपने चीकट निकर की जेब में सहेज लिया।
’’क्या लाऊँ साब?’’
’’कब से पीता है बीङी?’’
’’चाय…………साब?’’
’’पेले बता, कब सीखा?’’
’’बोत पेले से……..चाय। और कुछ?’’
’’बोत पेले से…….माँ के पेट में बीङी फूँकता था! मेरी तरह बोलर गरम करता था भीतर?’’ सब ठहठहाकर हँस पङे।
’’क्या लाऊँ, साब?’’
’’चुप कर! माथा मत खा…….रुक!’’ वह सटक गया और दूसरे गाहक को निपटाने लगा।
’’इस मुलक का तू ही राखनहार है, मेरे मालिक! साली ये भी कोई जिनगानी है! बस एक ही काम, सील पेक दूध के डिब्बे के ढक्कन लगाते रहो! सुबु से साँझ तक!’’
’’अरे, तो याँ कौन मोती पिरो रहे! पाँच बजे तङके उठ के गइयों-भैसों का खानी-पानी करते हैं, फिर स्सालों का गू-गोबर समेटो! आज भी……..कल भी….ढोरों को सहेजते-सम्भालते खुद ढोर हो गये!’’
’’गो माता की सेवा-टहल में है…….सरग मिलेगा तुझे!’’
’’गो जाय खटीक-कसाई के! सानी-पानी, गोबर-घास की गन्ध यूँ भर गयी है मुँह में के अब सिवा इसके दूजी कोई बास नहीं अँटती नथुनों मेें!’’
’’तुम परेशान हो बस। ’लाजो बी’ के बाल तो हम सँवारे हैं! मसीन में भूत बन के जो कोलसा झोंके हैं दिन-भर!’’
’’नी रे, तुम सब तो मर रये हो! सुखी तो मैं धरा हूँ! दिनभर डिब्बे गिना करूँ हूँ! साली इस डेरी ने दूध का ही पाउडर नहीं किया, हमें भी पीस बन्ध कर दिया है इस कारखानेनुमा डिब्बे में!’’
’’साला एक ही काम रोज-रोज! आदमी क्या, शैतान ऊब जाय! सुना है न वो किस्सा बोतल-बन्द जिन्न-राक्षस का, जो डाट खुलने पर आदमी के बस में हो गया था………इस सरत पे के बराबर काम बताता रहे तो ठीक, वरना उसे चट कर जायेगा! इस आदमी ने भी, मेरे यार ने, क्या तरकीब-जुमत की है साला जिन-राक्षस चीं बोल गया! आदमी उसको बोला-कुछ काम नहीं, तो जा, घर की सीढ़ियाँ चढ़-उतर! बस, ये ही काम तेरा! दो दिन में घबराकर भाग गया!’’
’’मार भी गोली…….अब कुछ खिलायेगा-पिलायेगा, या बस बात-पे-बात!’’
’’छोकरे!’’
’’आया!’’ वह कप-पर-कप धरे सीढ़ियाँ चढ़ रहा था- ’’क्या लाऊँ साब?’’
’’पानी।’’
’’और कुछ?’’
’’पेले पानी।’’ वह मुङा और धङ-धङ सीढ़ियाँ उतर गया।
दो मिनट बाद पानी के गिलास का छींका टेबुल पर टिकाकर बोला, ’’क्या लाऊँ?’’
’’चार चा।’’
’’और कुछ?’’
’’पेले चा।’’ वह फिर नीचे उतरा। थोङी देर में चाय के कप रख दूसरे टेबुल के पास चला गया।
’’सूखी चा पे टरका देगा? महीनों में चेता है? चेतू! साले, गोना करवाया है, ठट्ठा है कोई?’’
’’बोल भी, क्या लेगा? चेंटू क्यूँ रिया है?’’
’’मँगा कुछ मीठा-वीठा।’’
’’छोकरे……..ओ छोकरे!’’
’’आया!’’ आवाज के साथ वह सीढ़ियाँ चढ़ आया।
’’दो पलेट बरफी!’’
’’और?’’
’’और……….तेरी जनती का……..!’’ सीढ़ियों में फिर कंप भर गया।
’’लो साब, बरफी!’’ कहकर उसने गिलास उठाये और पलट गया।
’’मीठे के बाद नमकीन नहीं होगा?’’
’’लङके!’’
’’बाबा’’ के साथ सीढ़ियाँ धुजाता हुआ वह सामने आ खङा हुआ।
’’बोलो, साब?’’ उसकी आवाज उठती-गिरती साँसों में उलझी थी।
’’दो नमकीन।’’
’’और?’’
’’बस।’’ सामने दीवार पर चींटी मरी हुई मकङी को घसीटने के लिए जूझ रही थी। उसने नमकीन टेबुल पर लगाया, तब उसके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आयी थीं। बाँह उठाकर उसने माथा रगङा और नाक ऊपर चढ़ाते हुए कोनों में जा टिका। उसका सीना धुक रहा था। टाँगें काँप रही थीं।
उसकी आवा-जाई से सीढ़ियों का काठ अभी तक झनझना रहा था। खा-पीकर लोग उठे, तो वह दनदनाता हुआ फिर नीचे जा खङा हुआ और गला फाङकर हाँक लगायी- ’’चार लोग…….तीन अस्सी…..!’’ उसकी आवाज फट गयी थी।
’’कितनी बार चढ़ता-उतरता है ये सीढ़ियाँ?’’
’’कोईं गिनती है, बाबू साब!’’
’’तो भी?’’
’’सुबे से साँझ…….रात तक।’’
’’थकता नहीं?’’
’’थकने से काम कैसे चलेगा?’’
’’तुझे कौन-सा काम चलाना है रे?’’
’’पेट पालने हैं।’’
’’तेरे बाल-बच्चे हैं?’’
’’मेरे नहीं, मेरे बाप के तो हैं।’’
’’बाप कहाँ गया?’’
’’चैधरी का लुगाई लेकर भाग गया।’’
’’भाई-बहन और माँ?’’
’’हैं…….गाँव में। दूजे आदमी के घर में। ओ मेरा नया बाप जुलम भरा है। माँ के घर में डालने से पेले तो हाँ बोल दिया, अब मुकर गया। बोलता है, तेरे पेले वाले यार का मूत मैं नहीं पालने का!’’
’’फिर?’’
’’नये बाप ने मुझे यहाँ नौकरी में डाल दिया। होटल में ही रहता-सोता हूँ।
पगार नया बाप ले जाता है……..हर महीने।’’
’कितना मिलता है?’
’’पन्द्रह रुपया महीना, रोटी-कपङा और चाय-बीङी।’’
’’खुश है?’’
’’अपनी क्या खुशी! रात-दिन काम-सीढ़ियाँ चढ़ो और उतरो।’’
’’लखना……..ओ लखने! तेरा बाप आया है पिछवाङे। जा, मिल ले। जल्दी करना!’’ काउण्टर पर बैठे सेठ की आवाज थी।
’’अच्छा, साब!’’ कहता वह दनदनाता हुआ सीढ़ियाँ उतर गया।
’’कैसे हैं?’’
’’सब ठीक। घर पै……।’’
’’ठाकुरजी राजी है……..पर तेरा छोटा भाई……जाता रहा।’’
’’क्या हुआ था?’’ उसका रुँआसा बोल था।
’’कुछ भी तो नहीं। संझा को ये ही जूङी-ताप और भोर होते-होते खलास!
झाङ-फूँक भी करवाया, पर……।’’
’’और माँ?’’
’’रो-धो के बैठ गयी……..तेरे एक भाई जनमा है……..।’’
’’रुको, मैं लौटा।’’ वह नाक साफ करता उठ खङा हुआ और होटल के भीतर हो लिया। थोङी देर बाद आया, तो उसके हाथ में चाय का छलकता कप था।
’’लो, पियो!’’ कहकर उसने बीङी का बण्डल थमा दिया।
’’पगार-वगार ला ना! तेरी माँ के लिए कुछ लेना है। तेरे भाई के गुजर जाने और तभी नया और होने से दुबला गयी है।’’
’’सेठ ने अभी हिसाब किया नहीं……….टूट-फूट हो गयी।’’
’’वो तो हर महीने करता है…….नया क्या?’’
’’वो कोलेज के लङके आने लगे हैं इधर। इस टेन के चार चम्मच उङा ले गये……..एक के सूटपे चाय छलक गयी मुझसे। पाँच रुपये यूँ कट गये!’’
’’और क्या-क्या किया, बोल?’’ हवा को फाङता हुआ एक झपाटा उसके गाल पर पङा और वह धरती पर बैठ गया।
’’माँ वहाँ जन-जन के घर भरे और बेटा यहाँ कमाई झाङ दे! जरूर सोक करने लगा है……सहर की हवा लग गई है…..चल घर!’’
’’बप्पा, मैं घर नहीं आने का!’’
’’तो फिर अपने बाप के मूतों को यहीं ला गेर……..अब दो ही बचे हैं…….!’’
’’नहीं बप्पा……मैं इस महीने से पेले ही पूरी पगार भेज दूँगा।’’
’’पूरी…….पूरी कैसे?’’
’’दिन और साँझ की अपनी चाय कट करके मैं टूट-फूट भर दूँगा।
’’लखना……..ओ, लखने! अब मरे ना!’’ सेठ का बुलावा था।
’’मैं चलूँ, बप्पा?’’
’’अब की लापरवाही की, तो मुझसे बुरा दूजा नहीं! समझा?’’
’’ठीक।’’ कहता हुआ वह उठ खङा हुआ और काम में जुट गया।
’’क्या बोला तेरा नया बाप, लखना?’’ उसके संगी बङके ने दो टेबुल जोङ उन पर अपने गूदङ डालते हुए पूछा।
’’घर ले जाने को बोलता था।’’
’’तो फिर गया क्यूँ नहीं?’’
’’वहाँ भूखों मरने जाता?’’’ लखना ने दो बेंचों को सटाकर अपना बिस्तर लगा लिया था।
’’तेरी माँ जो है वहाँ।’’
’’वो भी वहाँ मार ही खाती है…….फिर नन्हीं दुनिया की बिलखती सूरत देखी नी जाती।’’ लखना रुककर बोला- ’’क्यों बङके, कहीं जासती पगार वाली नौकरी नहीं मिल सकती?’’
’’मिल सकती है। करेगा?’’
’’क्यों नहीं?’’
’’यहाँ रोज खुरचन चाटता है। आँख बचाकर रसगुल्ला गटक जाता है। वो नहीं मिलने का दूजी नौकरी में!’’
’’मार गोली!’’ चोरी-चोरी मीठा निगलने में धरा क्या है!’’
’’नहीं रे, चाट छूटती नहीं! मेरे से तो नहीं!’’
’’मैं तो छोङ दूँगा।’’
’’पर सेठ तुझे नहीं छोङेगा। खजूर छाप का एक पूरा हरा नोट टिकाया है तेरे बाप को! मैंने अपनी आँखों देखा। तू गिरवी पङा है इस होटल में। खबर है तुझे?’’
’’अपनी भी क्या जिनगानी है, यार!’’ लखना ठण्डी साँस ले बोला।
’’क्यों?’’
’’और भी’’…….सुन। आज भोर तू तो टेम पे जाग काम में जुट गया, मुझे जरा देर हो गयी उठने में, तो मिस्त्री ने घङा उंङेल दिया मुझ पर……..बिस्तर में ही! सारे बदन में कँपकँपी छूट गयी। गुस्सा तो ऐसा आया के…….दिन भर हो गया नाक चल रही है। सिर में चक्कर, सो अलग।’’ वहाँ थोङा थमा और ठण्डी साँस भर फिर बोला- ’’जिनगी तो ’बोबी’ की है।’’
’’तेने देखे?’’
’’हाँ, तू जानता है, वो सिनेमा की गेट वाला गफूर अपना यार है आजकल…….।’’
’’यार…….हाँ जानता हूँ।’’
’’फिर?’’
’’तू मुझसे उङ मत! मुझे पता है, उससे तेरी यारी कैसी है?’’
’’तो क्या हुआ……थोङा गाल-बाल पर दाँत-बाँत लगा देता है…….और क्या?’’
’’और वो ताले-चाबी का खेल नहीं होता?’’
’’होता है…….तो क्या? बिगङता है कुछ………फिर फिलम भी तो दिखाता है!’’
’’मैंने भी इण्टरवेल देखा है बोबी का।’’
’’तेरे को भी गफूर ने दिखाया है न? मुझे भी तेरा सब पता है।’’
’’छोङ सब! ये बता, इण्टरवेल का पेले का खेल कैसे देखें?’’
’’इस नौकरी से छूटें, तब तो ना!’’
’’हूँ।’’ लखना गूदङी को सीने तक खींच बेंच पर पसर गया।
धुएँले बल्ब की रोशनी में उनके गूदङ के सीवन के धागे भरे कीङों की भाँति बिखरे पङे थे। थोङी देर की चुप्पी के बाद लङका बोला, ’’तू तो लेट लगा गया!
उठ, कल मैंने सेके थे टिक्कङ……आज तू थेप! सान आटा…..चल!’’
’’भूख……मुझे तो नहीं।’’
’’आज पगार मिली है…….और आज ही भूख उङ गयी!’’
’’अपने किस काम की! दिन चढ़ते-न-चढ़ते नया बाप आ मरेगा और टेंट में सब खोंसकर ले जायगा!’’
’’वो तेरा बाप तो कल आयेगा, मेरी महतारी तो अडवांस ले भी गयी! यहाँ रह गये टापते!’’
’’आज दिखाई तेने दबक!’’
’’कैसे?’’
’’जो तू ना बोलता के मजदूरी मैं करता हूँ तो पगार मुझे क्यूँ न मिलेगी, तो वो मुनीम कभी पैसा तुझे न देता। उसे भान नहीं के सेठ ने तेरी पगार तेरे बाप के हाथ घरने का कोल कर रखा है।’’
’’सेठ उसे बोलना भूल गया होना।’’
’’छोङ, अब उठ और सेक रोटियाँ।’’
’’यार, आज मन दुःख गया है…….दिल टूट गया है सुबो से!’’
’’क्यों, क्या हुआ?’’
’’सुबो सुभान की दुकान में चा देकर लौटता था के एक टुमकटुम नन्हीं छुकरिया नजर आयी। बगल में किताब-पाठी दाबे ठीक मेरी टुनिया-सी। मैंने उसके बाल सहला दिये, तो चीख पङी और छिटककर दूर हट गयी। बोली – ’गन्दा……हुस!’’
’’तभी तू आज नहाया है।’’
’’नहीं रे, बोल, दुःख लगा है उसके यूँ बोलने से!’’
’’छोङ भी यार, उठ! आटा सान। भूख लगी है।’’
’’आज हम कहीं बना-बनाया लायें, तो?’’
’’ऐं……..क्यों……पैसे?’’
’’मुझे पगार जो मिली है…..वैसे भी तो तङके ही अपनी अण्टी से निकल जायेंगे सारे पैसे!’’
’’तेरा बाप जो आकास झुका देगा तुझ पे!’’
’’करने भी दे मरे को, जो करे!’’
’’तेरी माँ और टुनिया को भी सतायेगा!’’
’’माँ……टुनिया…..? कौन मेरे लिए ढुलक रही है!’’
’’सोच ले, कल न बोलियो के लङका हमारा खा-पी गया!’’
’’ऐसे ओछे-हैठे नहीं। चल भी! आज अपन दोनोें को कुरता-निकर भी नये मिले हैं। किसी भली जगह बैठ के सबर से रोटी खायेेंगे!’’
’’दस से ऊपर बजे होंगे……रात का टेम……कहाँ चलेें?’’
होटल के पिछवाङे बने भट्टीखाने से वे दोनों बाहर निकले, तब हवा रुक-रुक कर बह रही थी…..ठण्डी और थर्रां देने वाली। सूनी सङकों की कोर पर रूपे खम्भों में उजाला ऊँगता झूल रहा था। वे दोनों तेज-तेज पग बङा दूर निकल गये। कुछ और चलने पर एक सिन्धी का होटल नजर आया।
दोनों उसमें घुसे और टेबुल के सामने ठसके से जा बैठे। थोङी देर किसी ने पूछा नहीं, तो लखना को लगा, उनकी कोई पूछ नहीं। वह पास पङे चम्मच से टेबल पीटने लगा।
’’ऐ छोकरे…….।’’
’’बोल…..!’’ उसके सामने उसकी उमर का एक लङका खङा था। उसे लगा, जैसे वह अपने-आपसे बात कर रहा है।
’’खाने में क्या है?’’ उसकी आवाज में ठसक थी।
’’आलू-मटर, आलू-गोभी, भिण्डी, दाल-चावल, कडी, तंदूरी रोटी, तंदूरी पराँठे, मटर-पुलाब, कोफता….बोलो, क्या?’’ वह एक साँस में कह गया।
’’पेले पानी।’’ छोकरा टला, तो लखना बङके का मुँह जोहने लगा, ’’क्यों, क्या कह गया? तुझे याद हो कुछ, तो मँगा।’’
’’बार, मुझे तो ठो न पङा, क्या बोल गिया चपङ-चपङ!’’
तभी गल्ले पर बैठे आदमी ने टोका- ’’अरे, खीसे में कुछ है भी या यूँ ही बस!’’
’’क्या टुच्ची बात बोलता है सेठ! पैसे की कमी नहीं!’’ और लखना ने निकर के खीसे से मुङा-तुङा दस का नोट निकाला और हथेलियों के बीच फँसाकर हवा में लहरा दिया।
’’इस साले को भरोसा नहीं। सिन्धी मानुस जो ठहरा!’’
’’छोरे, खाना लगा!’’ नोट देखते ही गल्ले वाले ने हाँक लगायी!
’’बोलो, क्या लगाऊँ……..’’ फिर वही छोकरा सामने खङा था।
’’सब्जी में जो सबसे बढ़िया हो, वो ले आ।’’
’’है…….तुम बोलो ना।’’
’’बोला ना, सबसे अच्छी सब्जी और तंदूरी पराँठे। जल्दी, फटाफट!’’
तेज मसालों के भभके और तंदूरी पराँठों की महक से उनकी भूख पगला गयी। खाना लगा, तो दोनों टूट पङे। डटकर खाया। एक सब्जी, फिर दूसरी और तीसरी, खूब चटखारे लेकर उङायी। पेट भर गया, तो लखना बोला- ’’आज पेट भरा, साला! खूद घङो, सैकौ और निगलो, उससे तो बस पेट अटता है, भूख टलती है, तिरपती नहीं होती! बोल बङके, ठीक? बोल, है ना?’’
’’और नी तो क्या! खुद का तो भूख-प्यास से दम सूखता रहे और हम गहाकों को परोसते रहें…..क्या खेल है!’’ उसने ढकार लेते हुए कहा।
’’बोल, और कुछ लेगा……मीठा-वीठा?’’
’’नी रे यार, पेले ही भोत खरचा बैठ गिया है!’’
’’अपन कौन-से अपने बाप की दौलत काट रहे! जायेगा तो उस नये बाप का ही ना! मैं तो काला जामुन खाऊँगा।’’
’’काला जामुन……होटल पर आँख बचा के दो-एक रोज गुटक जाता, होगा! तबीयत नहीं भरी फिर भी!’’
’’बङके, अपने होटल पर दसियों मिठाइयाँ निगली होंगी। पर तेरी कसम, एक का स्वाद पता नहीं!’’
’’काला जामुन आज ही शाम को डकार गया। मीठा लगा, बस।’’
’’आज तसल्ली से खाकर देखते हैं।’’
’’तेरी मरजी।’’
लखना ने गिलास लङखङाकर आर्डर दिया- ’’काला जामुन, चार. अलग-अलग दो-दो।’’ टेबुल के नीचे पैर फैलाकर जब लखना ने जामुन को चम्मच से तराश कर इतमीनान से मुँह में रखा, तो उसे भान हुआ, जैसे यह मिठाई उसने पहली बार चखी है। उसे टुनिया के रेशमी बालों की भीनी बास और उसके गालों की मिठास याद हो आयी। वे हाथ धोकर उठने वाले थे कि एक प्लेट में थोङी सौंफ और बिल लेकर छोकरा आ गया।
’’अरे यहाँ पढ़ना-लिखना किसे आवे है! बोल न, किते पैसे हुए?’’ लखना खीजकर बोला।
’’आठ नब्बे।’’
लखना दस का नोट प्लेट में रख खङा हो गया। आगे बढ़ा, तो गल्ले वाला बोला, ’’एक का खुल्ला नोट नहीं, एक लाॅटरी का टिकट दे दूँ?’’ किस्मत खुल जायेगी!’’
’’दे दे, यार ये भी सही और बाकी दस पैसे उस छोकरे को।’’ उसने बङके के कन्धे पर हाथ रखा और बाहर हो लिया। रास्ते में एक-दूसरे से सटे-सटे चले, पर ठण्ड थी कि उन्हें चीरे डाल रही थी।
होटल पहुँचे, तो घङी ने बारह का टंकारा दिया। वे दोनों अपनी गुदङी में दुबक गये। जब धुकधुकी मिटी, तो लखना ने टहोका देकर पूछा- ’’कैसा रहा?’’
’’बढ़िया। पर सुबह तेरा नया बाप जो आ खङा होगा!’’
’’उसे यहाँ मिलेगा ही कौन?’’
’’क्यों?’’
’’बन्दा कहीं चल पङेगा, फिर नहीं लौटने का!’’
’’कहाँ जायेगा?’’
’’जिधर किस्मत ले जाये!’’
’’तो भी?’’
’’कहीं भी…….लम्बी-चैङी दुनिया पङी है!’’
’’ठिठोली कर रहा है।’’
’’वो ही सही। खा खूब लिया। मिरच जी भर गेरी थी सांईं ने। हलक में जलन-सी दौङे है। प्यास भी लगी है।’’
’’प्यास तो मुझे भी सता रही है। हलक में कांटे-से अङ रहे हैं।’’
’’तो फिर खुद पी और लेता भी आना एक गिलास।’’
’’यार, अपने में तो सकत नहीं। तू कर ना हिम्मत।’’
’’अरे, हमने तो की हिम्मत। दस का नोट उङा दिया तुझ पै।’’
’’मैं बोला था ना पेले ही, आ गया ना ओछेपन पे!’’
’’इसमें झूठ क्या! दस का पत्ता खरचा नहीं?’’
’’पूरे दस-के-दस मैंने खाये……..? तू चंट पङने लगा है! निकल भागने की बात जो बोल दूँ किसी को?’’
’’मैं कब बोला सब तेने खाया। फिर मैंने बोला तुझको और तेने खाया……..बात तो पानी पिलाने की है, बस।’’ लखना अब नरम पङ गया था। फिर दोनों चुप हो गए।
’’बुरा मान गया, बङके?’’
’’नी यार……छोङ! ठण्ड जोर की है। फिर भी प्यास है के मार रही है!’’
’’फिर उठ भी जा, यार! मेरा भी कलेजा सूख गया।’’
’’तू क्यूँ नहीं उठता?’’
’’यार मैं नहीं उठने का! तेरी दोस्ती भी देख ली!’’
’’मेरे से नहीं उठा जायेगा, चाहे जो तू समझ!’’
’’तो फिर पङा रह!’’
और दोनों अपनी गुदङियों को लपेट मुँह फेर के तन गये।
’’सेठ का बच्चा जब से लाल ज्वार खिलाने लगा है, तब से पानी-पानी लगा रहे हैं!’’ बङका बुदबुदाया।
’’पर आज तो माल उङाये हैं न! लखना बोला।
’’मिलने दे हमारी पगार! अबकी हम तुझे खिला देंगे……दुगनी ।’’
’’पर पानी नहीं पिलायेगा?’’
’’बोला ना, मैं नहीं हिलूँगा।’’
’’तो फिर मर प्यासा।’’
’’तू भी गङ सूखा।’’
कुनमुनाकर दोनों चुप हो गये। थोङी देर हुई कि आवाज आयी-’’लखना’’ ओ लखना!’’
’’सुन रे……..सेठ की बुलाहट है।’’
’’तो फिर जाय ना।’’
’’तुझे बुलावे है।’’
’’तुझे पुकारे है।’’
’’साब तुझे बुलाहट है…….सुन।’’
फिर आवाज आयी-’’लखना’’……..ओ लखना! अरे, मरा सोया क्या? यहाँ आन मर!’’
लखना एकदम गुदङी फेंक उठा और लपक के पास वाली खोली में जा खङा हुआ। उसे कँपकँपी छूट रही थी। दाँत बजाते हुए बोला-’’बोलो सेठ!’’
’’सेठ के पिल्ले, गला फाङ डाला मैंने! सुनता ही नहीं। पानी पिला, जरा गोली भी गुटकनी है। गठिया ने तो मार ही डाला साली ने!’’
’’लखना तेजी से घूमा और दूसरे पल पानी का लोटा लाकर सेठ को थमा दिया। जब उसने गोली लेकर पानी पी लिया, तो थोङा रुकने के बाद बोला, ’’और सेठ?’’
’’बस, जा पङ रह। सुबु जल्दी उठना है।’’
लखना बिजली की कल की तरह घूमा और धम-से अपनी गूदङ में ढल गया, जैसे पल में मीलों लम्बा सफर तय कर आया हो।
’’ला…..लाया?’’ बङके ने गूदङ से हाथ निकाला।
’’क्या रे?’’
’’पानी, और क्या? अकेला पीकर आ गया!’’
’’मैंने नहीं पिया पानी।’’
’’क्यों, तुझे प्यास नहीं?’’
’’प्यासा तो मैं अब भी हूँ, पर आडर सेठ का था, सो उसे पिला दिया…..मुझे पानी पीने की याद ही नहीं रही! रोज आडर देने वाला ही खाता-पीता है ना! अपन लोग तो बस……।’’