hello@mukhyansh.com

आज कबीर बहुत याद आए… – गौरव गौतम

आज कबीर बहुत याद आए… – गौरव गौतम

आज कबीर बहुत याद आ रहे है। यह अच्छी बात है। लेकिन, जिस कारण याद आ रहे है वह बुरा ही नहीं भयावह भी हैं।जब घर परिवार और समाज में कोई विपदा आती हैं तब हम समाधान के लिए बड़ों के पास ही जाते हैं या उनको साथ लेकर जाते हैं जैसे चित्रकूट में भरत राम को मनाने के लिए घर , समाज के बड़े लोगों को लेकर गए थे। मैं भी विपदा में पड़कर इसके वीभत्स परिणामों को  सोचकर और उनसे बचने -बचाने के लिए अपने वैचारिक पुरखे के पास आया हूँ।

लगता है हमारा समाज आचरण को महत्व बस देता है अपने जीवन में उसे लागू नहीं करता। हम चरण पूजकर ही अपने मन को मना लेते है क्योंकि आचरण को अपनाने में संघर्ष और कठिनाई हैं। यदि आचरण को महत्व दिया जाता तो गृह कलह को रोकने हेतु सिंहासन की जगह कुश का आसन अपनाने वाले राम के घर के लिए इतना संघर्ष नहीं होता। गरल कंठ में धारण करने वाले शिव की बात करने वाले  लोग विष वमन नहीं करते।

  शिव के लिंग को लेकर तरह- तरह की भद्दी टिप्पणी की जा रही हैं वही उत्तेजित होकर या जानबूझकर  अन्य मजहब पर छींटाकशी की जाती हैं। इक़बाल कहते हैं “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” लेकिन मज़हब मानने वाले जरूर आपस में वैर करना सिखाते हैं और इक़बाल  भी तो मज़हब मानने वाले ही थे।

आज की शिक्षा व्यवस्था में ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ’ कहने वाले को पोथी तक ही संत, भगवान आदि बनाकर सीमित कर दिया गया है। मास्टर नीरसता के साथ कबीर को पढ़ते-पढ़ाते है जिससे हम कक्षा में तो आगे बढ़ रहे हैं पर ज़िंदगी में पिछड़ रहे हैं। जैसे यदि हमें किसी के बयान से आपत्ति हैं तो हमें उसके लिए ‘व्यवस्था’ की ओर देखना चाहिए और उचित तरीके से विरोध करना चाहिए बिना मर्यादा का उल्लंघन किए ; न कि असभ्य और बर्बर समाज की तरह ख़ुद ही बयान देने वाले का पुतला फांसी में झूलाकर उसके मौत का आवाहन करना चाहिए; बयान का जो लोग समर्थन करें उनकी नृसंश् हत्या करनी चाहिए।

 क्या कबीर की तरह ‘हिंदून की हिंदुवाई’ और ‘तुरकन की तुरकाई’ हम आज  नहीं देख पा रहे? मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा है। जिस भारत का आकाश महापुरुष रूपी नक्षत्रों भरा हैं, कबीर के पहले जहाँ बुद्ध और गोरख हमें विभेद को मिटाना बता गये हैं, कबीर के बाद गांधी और अंबेडकर हमें ध्वजाधारियों से सावधान रहने को कह चुके  हैं; फिर क्या यह संभव हैं कि जनता पंडित और मौलाना एवं उनके अनुचरों के खेल समझती न हो? अगर समझती हैं तो फिर इनके  व्यूह में क्यों फँस जाती हैं? इसका सबसे बड़ा कारण हैं निजी स्वार्थ। केवल ख़ुद का ध्यान देना। अगर अपना लाभ हो तो गलत होने पर संत्री से लेकर मंत्री तक सब की गलतियों, दुराचारों और अन्य के प्रति किए जाने अन्याय पर चुप्पी साधना। मन ही मन अपनी विजय पर कुप्पा होना कि देखूँ मैं कैसे बच गया अपनी बुद्धि, चातुर्य और विवेक पर गर्व करना।

कबीर भी तो ऐसे ही ‘सुखिया संसार’ का हिस्सा थे पर वो केवल खा सोकर मस्त नहीं रह पाते थे संसार को देख कर दुःखी होकर जागते और रोते थे। जब तड़प की पीड़ा बढ़ जाती तो उनके ‘ब्रम्ह विचार’ गीत के रूप में बहने लगते। पर कबीर नेता नहीं नागरिक थे। वो केवल भाषण नहीं देते थे । संघर्ष और प्रतिरोध में सहभागी भी होते थे, अपने साथियों के भागीदार भी थे तभी तो प्रभु वर्ग और प्रभुता से युक्त लोग उनके खिलाफ़ थे। आज भी जो लोग भेद मिटाने की बात करते है सत्ता और समाज के साथ ख़बर बेचने वाले उसको ही मिटाने में लग जाते हैं। इसके विपरीत जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नफ़रत को बढ़ावा देते हैं उनको प्रचारित ही नहीं प्रसारित भी करते हैं।

‘आँखिन देखी’ पर कबीर का विश्वास था पर हम तो उस पर भी नहीं कर सकते क्योंकि झूठ को सत्य दिखाने के उपकरण बड़े प्रभावी हो गए हैं , झूठ बेचने के व्यापारी बढ़ गये है।

कबीर के अनुभव ‘साधो यह जग बौराना/साँच कहे तो मारन धावै/झूठे जग पतियाना’ से हम सभी दो चार होते हैं लेकिन कबीर की तरह क्या हम ‘साँच’ को ‘ आँच’ से बचाने के बारे में हम आज क्या सोच  भी सकते हैं? क्योंकि यदि सत्ता को इस बारे में खबर भी लगी तो ‘खास मशीन’ को हमारे घर को गिराने और हमें बेघर मानने के लिए रवाना कर दिया जाएगा।

कबीर के शिष्य धर्मदास के अनुसार कबीर को  साह सिकंदर ने जल में बोरा और ‘बहुरि अग्नि परजारे’। सत्य बोलने, ‘अभयपद गावैं’ के लिए  कबीर को मैमत हाथी का भी सामना करना पड़ा। आज भी आधुनिक कबीर  को सत्य बोलने अभयपद गाने से दूर रखने के के लिए नए साह सुल्तान नए नए प्रयोग करते रहते है।

कबीर की तरह क्या हम भी पाथर पूजने का ढोंग करने वाले, बहरे ख़ुदा को आवाज़ देने वालों से मोर्चा ले पायेंगे? क्या काजी पंडितों को हरा पाएंगे? यदि हाँ, तो इसके लिए हमें ‘घर जोड़ने की माया’ यानी निजी स्वार्थ से ऊपर उठना होगा अपना घर ख़ुद ही जारना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? यदि नहीं तो हमें सांप्रदायिक शक्तियों का कहर झेलना होगा। इनके द्वारा फैलायी जा रही आग में केवल ख़ुद को बचाते हुए दूसरे लोगों को जलते देखने के लिए अभिशप्त होना पड़ेगा। पर, क्या हम अकेले बच पायेंगे? क्योंकि आग जलाती हैं बिना यह देखें की कौन हैं।

आज कबीर बहुत याद आए || गौरव गौतम || mukhyansh.com

गौरव गौतम
छात्र- दिल्ली विश्वविद्यालय
सम्पर्क- 6263610187