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तब मैं नासमझ था : रहमत

तब मैं नासमझ था : रहमत

तब मैं नासमझ था!

बात है अगस्त 2017 की उस समय मैं लगभग 19 साल का था। एक दिन शाम में काॅलेज से घर के बजाय सीधा दिल्ली कैंट रेलवे स्टेशन पर पहुँच गया जो काॅलेज और घर के रास्ते में पड़ता है। शाम के तकरीबन 5 बज रहे थे। जेब में कूल 730 रूपए थे और मैं बड़ा खुश था मानो दुनिया की सारी दौलत मेरी ही जेब में हो। मैंने अपने स्कूल के दोस्त दीपक के नंबर पर काॅल लगाया
“हैलो दीपक, मैं दिल्ली कैंट स्टेशन पर खड़ा हूँ, बैग लेकर आ जा देहरादून चलते हैं।”
“दीपक घर पर नहीं है..और आज के बाद फोन मत करना दीपक को.. तुम्हारे तरह उसे आवारा नहीं बनाना है” दीपक की मम्मी बहुत ही गुस्से में लग रही थी।
“साॅरी आंटी जी”
“आंए रे रहमत तेरे पास इतने पैसे कहाँ से आया?
” आंटी जी वो काॅलेज में स्टूडेंट यूनियन का चुनाव होता है न उसी में दिनभर किसी का पैंपलेट बांटा था तो उन्होंने 500 रूपए दिए थे, दो सौ रूपए बस पास बनाने में बचाया था..बांकि 30 रूपए पहले से था..730 रूपए है मेरे पास”
“अच्छा ठीक है अब फ़ोन मत करना”
आंटी ने फोन काट दिया। मैं थोड़ा परेशान हो गया, पूरे स्टेशन की भीड़ में एक क्षण के लिए खुद को अकेला महसूस किया। घर लौट जाने का ख्याल आया पर इरादा मजबूत था देहरादून जाना था तो जाना था इसलिए कदम टिकट घर की तरफ़ बढ़ गया।
“एक टिकट स्लीपर क्लास का देहरादून तक का दे दीजिए”
“ट्रेन नंबर क्या है?”
“पता नहीं, देहरादून के लिए दीजिए ना स्लीपर क्लास”
“यहाँ सिर्फ जनरल टिकट मिलता है और ना ही यहाँ से देहरादून के लिए कोई ट्रेन है”
“सर उत्तराखंड जाना है, किसी भी गाड़ी का दे दीजिए”
“अरे गाड़ी नंबर और किस स्टेशन तक जाना है यह बताओ”
“सर मुझे पता नहीं है”
“पहली बार टिकट लेने आए हो क्या?”
“नहीं” मैंने कहा
“पता नहीं कैसे-कैसे लोग आ जाते हैं ट्रेन में चढ़ने” पीछे वाला शख्स धीरे से भनभनाया
“आपको जाना कहाँ है? किस स्टेशन पर स्टाप कीजियेगा?
“सर अभी उत्तराखंड के लिए कोई ट्रेन है?
” सर आप एक टिकट के लिए कितना टाइम लगा रहे हैं प्लीज़ जल्दी कीजिए मेरा ट्रेन छूट जाएगा” पीछे खड़े शख़्स का सब्र का बांध टूटता जा रहा था
“पहले आप कंफर्म करके आईए जाना कहाँ है?” यह बात बोलकर मुझे टिकट काउंटर से बाहर कर दिया। मैं अपने सीर को खुजलाते हुए प्लेटफार्म की तरफ आया और एक बेंच पर बैठा, पानी पीया। दस मिनट बाद एक रेलवे सुरक्षा बल के जवान के पास गया
“जय हिन्द सर”
“जय हिन्द”
“सर उत्तराखंड के लिए अभी कोई ट्रेन है?”
“पूछताछ में पता कर लो शायद रात 8:20 पर रानीखेत एक्सप्रेस है”
” सर ये कहाँ तक जाएगी?”
“शायद काठगोदाम तक”
“थैंक्यू सो मच सर”

मैं पूछताछ काउंटर पर गया। रानीखेत एक्सप्रेस कंफर्म हो गया। टिकट काउंटर पर काफी लंबी लाइन लगी हुई थी। समय के अभाव में टिकट लेने का मन बदल गया। बिना टिकट यात्रा करना एक दंडनीय जुर्म है कई बार पढ़ चुका था और भली-भांति जानता भी था लेकिन जेब में पैसा का घमंड भी था इसलिए जुर्माना भर देने के ख्याल से ट्रेन में बैठ गया। सेकंड क्लास में चढ़ा। यहाँ पैर रखने की जगह नहीं थी फिर भी किसी तरह गेट के पास फर्स पर जगह बनाकर बैठ गया। पुरानी दिल्ली, गाजियाबाद, हापुड़, मुरादाबाद, रामपुर, बिलासपुर, रूद्रपुर, हल्द्वानी होते हुए सुबह 5 बजे काठगोदाम पहुँच गया। राहत की बात रही की टिकट चैकर कहीं नहीं आया ना स्टेशन पर किसी ने टोका। स्टेशन से बाहर निकला तो हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। अंधेरा पूरी तरह से छटा नहीं था। स्टेशन के बाहर एक छज्जा के नीचे बहुत सारे ऑटो-टैक्सी वाले ग्राहकों के लिए खड़े थे। सामने एक चाय की दुकान खुली हुई थी, बारिश से बचने के लिए मैं वहाँ चला गया। थोड़ी ही देर बाद अंधेरा छट गया। सामने पहाड़ देखकर फूला नहीं समा रहा था। कुछ दूर चलने के बाद हल्द्वानी रोड पर आ गया। थोड़ी ही देर में रानीखेत के लिए बस आ गई। बस में 100 रुपए का टिकट लगा, 100 रूपए मुझे बहुत ज्यादा लग रहा था, पर अधूरा मन से देना पड़ा। नैनी झील के पास बस अचानक रुक गई, टायर पंचर हो गया था। सामने का नज़ारा अद्भुत था, नैनी झील और पूरा नैनीताल दिख रहा था। लाइटें अभी भी जल रही थी जिसका प्रतिबिंब झील में साफ़ साफ़ दिख रहा था। इस नज़ारे को मैंने फ़ोन में कैप्चर कर लिया था। क्लिक की गई फोटो को फट से व्हाट्सएप स्टेटस में लगा दिया। स्टेटस देखकर दीपक का मैसेज आया
“वाह वाह बहुत खूब दोस्ती निभाए हो, अकेले-अकेले चल दिए घुमने”
मैसेज देखकर मन तो किया कि ब्लाॅक ही मार दूं पर खामोशी को ही रिप्लाई समझकर छोड़ दिया। बीच रास्ते में फिर से मैसेज किया
“दोस्त दोस्त नहीं रहा लड़कियों की तरह अब बातें कम इग्नोर ज्यादा करते हैं”
“अबे मैंने तुझे काॅल किया था आंटी बताई होगी”
“हां मम्मी कुछ बता तो रही थी”
“फिर मुझ पर आरोप क्यों लगा रहे हो कि जाने से पहले बताया नहीं”
“साॅरी!”

मैंने फ़ोन जेब में रख लिया। बस से बाहर झांका तो नजारे देखकर दंग रह गया। चारों तरफ देवदार के जंगल ही जंगल और हर तरफ़ धुंध और बादल मानो बस स्वर्ग में चल रही हो। मैंने फ़ोन से वीडियो रिकार्डिंग शुरू कर दिया और रानीखेत तक करता ही रहा। बस से उतरा तो ठंड का अहसास होने लगा, एक जगह धूप खिली हुई थी वहां जाकर बैठ गया और पहाड़ों को देखने लगा। समय सुबह के लगभग 9 बज रहे थे। मैं नीचे उतरकर इधर उधर घुमने लगा और भटकते-भटकते किसी के खेत में पहुँच गया। वहाँ एक महिला काम कर रही थी, उनसे मोबाइल से फोटो खींच देने का आग्रह किया, आंटी जी फोटो खींच दी। रानीखेत में घुमने के लिए बहुत कुछ है पर मैं नासमझ था सिर्फ खेतों में घुम रहा था। गोल्फ कोर्स कुछ ही दूर पर था पर उसके बारे में मुझे तनिक भी पता ही नहीं था। बारिश फिर से शुरू हो गई थी। मैं भीग रहा था लेकिन अपनी ही धून में खुले आसमान में पहाड़ों से बातें कर रहा था, उड़ते बादलों को देख रहा था, जी चाहता था पहाड़ों के गले लग जाऊं
“हैलो पहाड़ जी, मेरा नाम रहमत है, दिल्ली से आया हूँ आपको देखने, आपकी वादियां बहुत ज्यादा खुबसूरत है, क्या आप मुझसे दोस्ती करोगे?” मैं पहाड़ की चोटी की ओर देखते हुए कहा। मुझे ऐसा लगा शायद पहाड़ भी मुझसे बात करने की कोशिश कर रहा है “शुक्रिया रहमत पर हम दोस्त नहीं बन सकते”
“मैं ज्यादा ही बुरा हूँ क्या?”
“हाँ, तुम इंसान बहुत जुल्मी हो, अपने मतलब के लिए मुझे काटकर सड़कें बनाते हो, मुझमें समाए जंगल को तबाह कर रहे हो, मुझमें आश्रय लिए पशु-पक्षियों को बेघर करते ज़रा भी दया नहीं आता है”
“आई एम रियली साॅरी पहाड़ जी, हम इंसान खुद को ही तबाह करने पर तुले हुए हैं..पर यकीन मानिए पहाड़ जी, मैं आपसे बहुत ज्यादा प्यार करता हूँ”
“भई ये कैसा प्यार है? एक तरफ़ हमें बर्बाद करने पर तुले हो और दूसरी तरफ कहते हो प्यार भी है..ये दोहरापन तो इंसान ही दिखा सकता है”
“पहाड़ जी, मैं बिल्कुल आपसे सहमत हूँ..पर मैं औरों जैसा नहीं हूँ, आपको बर्बाद करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, जरूरत पड़ने पर आपको बचाएंगे भी”
“मैंने कहा ना.. तुम इंसान स्वभाव से ही स्वार्थी हो!”
” प्लीज़ यकीन मानिए पहाड़ जी, मैं बिल्कुल भी आपको बर्बाद नहीं करना चाहता, मैं औरों जैसा नहीं हूँ”
“क्यों तुम पेट्रोल-डीजल वाली गाड़ी इस्तेमाल नहीं करते? क्या तुम प्लास्टिक इस्तेमाल नहीं करते?
“करता हूँ पर आपको इससे क्या नुकसान होता है?”
“सांस लेने में दिक्कत होती है, जहरीली कार्बन डाइऑक्साइड हमें बहुत नुकसान पहुँचाता है, हम अक्सर बीमार पड़ जाते हैं, हम दिन प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं”
“पर आप तो पत्थर के बने हो ना?”
“हाँ, पर कौन कहता है कि पत्थर को दर्द नहीं होता? देखो यह बात भी आधा सच है कि हम पत्थर से बने हैं, देखा जाए तो पत्थर हमारी हड्डियां हैं, मिट्टी हमारी मांस है, जल हमारा खून है, पेड़ों की जड़ें हमारी मांसपेशियां हैं, जंगल मेरा फेफड़ा है, हरियाली मेरा दिल है”
मेरी आंखों से आंसू टपकने लगा, मुझे बहुत बुरा फील हो रहा था। मेरी स्थिति रूआंसी-सी हो रखी थी।
“आई एम अगेन सो साॅरी पहाड़ जी.. मैं आपकी पीड़ा को समझ सकता हूँ.. हम इंसान बहुत नादान हैं पर मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ आपकी पीड़ा के बारे में और लोगों को भी बताऊंगा.. इंसानों को जागरूक करने का भी काम करूँगा”

बारिश काफ़ी तेज़ हो गई थी, मैं स्तब्ध खड़ा भीग रहा था, मेरी आँखों से आंसू बारिश की बूंदों में समाहित हो रही थी। मुझे नहीं पता था मैं कहाँ खड़ा था।

“ओए रे छोड़े इधर क्या कर रहा है?” आंटी की इस आवाज़ ने मेरे और पहाड़ के बीच चल रही बातचीत में खलल डाल दिया। मैंने मन ही मन पहाड़ से कहा “अब अलविदा कहने का टाइम आ गया है…आज पहली मुलाकात थी..आपकी सुंदरता इतनी मनमोहक है कि..मन नहीं भरा है.. पर आपकी जो पीड़ा है जान पड़ता है हमारी खुद की पीड़ा है…आपसे मुलाकात करने फिर आऊंगा कभी!” शायद पहाड़ भी कह रहा होगा..”अलविदा! हम तो यहीं एक ही जगह हजारों वर्षों से जमे हुए हैं, तुम कभी भी आ सकते हो”

“कहाँ से आया है? तुझे ठंड नहीं लग रही?” आंटी जी मेरे पीछे खड़ी थी।
“दिल्ली से” मैंने उत्तर दिया
“इधर घुमने आया है?”
“हाँ”
“अकेले ही”
“जी”
“इधर हमारे गोलज्यू देवता का मंदिर है, हम कभी-कभी ही इधर आते हैं जब पूजा होती है या फिर कभी घास काटने आते हैं। यहाँ जंगल से भालू आ जाता है, तेंदुआ भी रहता है परसों एक लेडीज़ पर भालू ने हमला कर दिया था” मुझे महसूस हुआ आंटी जी डरा रही है
“मैं नहीं जानता था ये खतरनाक जगह है” मैंने सीरियस होकर कहा
“हाँ यह खतरनाक जगह है” आंटी जी ने सहमती जताई और आगे बोली “इधर बारिश में घुमने क्यों आया?”
“पहाड़ को देखने”
“गोल्फ कोर्स जाता वहाँ से अच्छी तरह दिखता है”
“ये किधर है?” मैंने हैरानी से पूछा
“य्यो बगल में ही तो है”
“अच्छा! यहाँ से कैसे जाएं”
” टैक्सी स्टैंड से जीप मिल जाएगा”
“अच्छा आंटी जी..आपका बहुत-बहुत शुक्रिया”
” पर पहले रूम में जाकर कपड़े बदल लियो नहीं तो बीमार पड़ जाएगा”
“ठीक है आंटी जी” मैंने झूठा सहमती जताया दरअसल मेरे पास और कोई कपड़ा भी नहीं था। ठंड तो सुबह से ही झेल रहा था पर आंटी जी को बताना नहीं चाहता था कि मैं नासमझ हूं। कोई एक्स्ट्रा या गर्म कपड़ा लेकर नहीं आया यह जानकर वह मुझे पागल समझती।

लगभग 1 बजे वापस सड़क पर आ गया। यहाँ एक ढाबा दिखा उसमें घुस गया। 60 रूपए का एक थाली आर्डर दिया। उंगली चाटकर खाया, पानी पीने के बाद लगा शरीर में जान आई है। ढाबा से सीधा बस स्टैंड आया। बस काठगोदाम के लिए चलने ही वाली। मैं चढ़ गया। खिड़की वाली सीट पर बैठ गया और गौर से पहाड़ को देखने लगा। बस चलने लगी तो मैंने हाथ हिलाकर बाय-बाय करने लगा। मुझे भी प्रतीत हुआ कि पहाड़ भी मुझे बाय-बाय कर रहा है। कुछ देर बाद वो पहाड़ आंखों से धीरे-धीरे धूमिल हो गया। लगभग 4 बजे काठगोदाम पहुँच गया। शाम 8:35 बजे ट्रेन थी। ₹100 रूपए में जनरल डब्बा का टिकट मिला। ट्रेन प्लेटफार्म पर आते ही मैं चढ़ गया और देखते-देखते ट्रेन भर गई थी।‌ भाग्यवश मुझे सीट मिल गया था। आराम से सबसे ऊपर जाकर बैठ गया। मेरे कपड़े अबतक गीले थे। कई लोगों ने मुझे जुता खोलकर पंखा पर रख देने के लिए बोला। मैं डर के मारे खोल नहीं रहा था क्योंकि खोलता तो पूरे डब्बा में बदबू फैल जाती। नीचे से एक शख्स ने मुझसे जबरदस्ती जुता खुलवा लिया, मुझे जिस बात का डर था वो तो नहीं हुआ पर जुता अंदर से बहुत गीला था। मेरा पैर सुकुड़ गया था। जुराब से बदबू आ रही थी इसलिए दोनों जुराब को खिड़की से फैंक दिया। अब किसी को कोई दिक्कत नहीं था। मैं बिल्कुल शांत होकर बैठ गया। पूरे रास्ते भर मुझे पहाड़ का ख्याल आता रहा। रात में सोने की कोशिश किया पर मानों पहाड़ की आवाज कानों में गूंज रही हो। मैं खुद को समझाने लगा कि सब वहम है, पहाड़ कभी नहीं बोलते.. सब उटपटांग बातें हैं, मैं खुद को नासमझ मानने लगा कि मेरे दिमाग में वहम पैदा होता है और वो वहम हावी हो जाता है। आज कुछ ही सालों बाद जब समाचार में एयर क्वालिटी इंडेक्स और सांस लेने की दिक्कत के बारे में पढ़ता या देखता हूँ तो वो वहम मुझे सच लगने लगता है। सच में हमारे पहाड़ तकलीफ में है।

नोट- फोटो रानीखेत, उत्तराखंड की है।
दिनांक- अगस्त 2017