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हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास :रामस्वरूप चतुर्वेदी – मुख्य अंश

हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास :रामस्वरूप चतुर्वेदी – मुख्य अंश

आधुनिक काल

●भारतेंदु का कृतित्व, जैसा पहले संकेत किया जा चुका है, संक्रांति कालीन चेतना का रूप है। कविता में उनका संस्कार है, गद्य में विचार।

●भोजपुरी क्षेत्र (प्रसाद, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल- यानी आधुनिक काल के सबसे बड़े कवि- नाटककार, उपन्यासकार, और आलोचक)

●भाषा विज्ञान में जिन्हें बिहारी, पूर्वी हिंदी, पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और पहाड़ी कहा गया है, इन बोली रूपों और जातीय क्षेत्रों की सर्जनात्मक निष्पति ही हिंदी भाषा और साहित्य है।

●हिंदी मध्यदेशीय, और कहा जाए तो भारतवर्ष की संश्लिष्ट भाषा-संस्कृति की वास्तविक प्रतिनिधि है।

●यह रोचक तथ्य है कि समकालीन हिंदी साहित्य का नेतृत्व जिन दो कवियों ने किया है यानी अज्ञेय और मुक्तिबोध, तकनीकी ढंग से उनकी मातृभाषा क्रमशः पंजाबी और मराठी कही जाएगी।

●आदिकाल के प्रसंग में हमने परिलक्षित किया था कि यहाँ मनुष्य का ईश्वर की महिमा से युक्त रूप में वर्णन हुआ है, जब भी भक्तिकाल में यह चित्रण ईश्वर का मनुष्य के रूप में हुआ है, आगे फिर रीतिकाल में ईश्वर और मनुष्य दोनों का मनुष्य-रूप में चित्रण होता है। आधुनिक काल में आकर मनुष्य सारे चिंतन का केंद्र बनता है, और ईश्वर की धारणा व्यक्तिगत आस्था के रूप में स्वीकृत होती है, साहित्य या कि कलाओं में उसका चित्रण प्रासंगिक नहीं रह जाता।

●काव्य के स्तर पर यह समझा सकना आसान है कि प्रेम और भक्ति दोनों का उद्देश्य एक ही है- अहं का बलिदान।

●इलियट के साक्ष्य पर तो कहा जा सकता है कि कविता भी अपने अहं भाव में निष्कृति है। यों प्रेम और भक्ति की समानांतर प्रक्रिया कविता या कला में द्रष्टव्य है, जो मूलतः ऐहिक है।

●पुनर्जागरण दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट से उत्पन्न रचनात्मक ऊर्जा है।

●पुनर्जागरण का एक चिह्न यदि दो जातीय संस्कृतियों की टकराहट है तो दूसरा चिह्न यह भी कहा जाएगा कि वह मनुष्य के संपूर्ण तथा संश्लिष्ट रूप की खोज, और उसका परिष्कार करना चाहता है।

●दूसरे अमरीकी राष्ट्रपति जॉन ऍडम्स ने १७८० ई० में पेरिस के अध्ययन-काल में वहाँ से एक पत्र स्वदेश को लिखा, जिसमें अपने विचारों को इस प्रकार सूत्र-बद्ध किया, “मुझे राजनीति और विग्रह का अध्ययन करना है जिससे मेरे बेटों को गणित और दर्शन पढ़ने की सुविधा हो सके। मेरे बेटों को पढ़ना चाहिए गणित और दर्शन, भूगोल, प्राकृतिक इतिहास, नौस्थापत्य, संतरण, वाणिज्य और कृषि जिससे फिर उनके पुत्रों को अधिकार मिले कि वे चित्रकला, कविता, संगीत, स्थापत्य, मूर्ति-कला, पट-निर्माण और चीनीसाजी सीख सकें।”

●ये निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं, आराधना की सामूहिक शैली पर बल देते हैं, हिंदू समाज के दो पिछड़े समूहों नारी और शूद्र को शेष उच्चवर्गीय पुरुषों के साथ समानता का दर्जा देते हैं। उपनिषद् और गीता इनके चिंतन के केन्द्र में है, संगठन का ढाँचा ये ईसाई चर्च को स्वीकार करते हैं। भारतीय हिंदू विचारधारा और पाश्चात्य ईसाई संगठन का सामंजस्य यह इनके आंदोलन का मूल मंत्र है।

●रामप्रसाद निरंजनी को ‘प्रथम प्रौढ़ गद्य-लेखक’ मानते हुए आचार्य शुक्ल अपने इतिहास के ‘आधुनिक काल’ में लिखते हैं, “ये पटियाला दरबार में थे और महारानी को कथा बाँच कर सुनाया करते थे। इनके ग्रंथ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि मुंशी सदासुख और लल्लूलाल से ६२ वर्ष पहले खड़ी बोली का गद्य अच्छे परिमार्जित रूप में पुस्तकें आदि लिखने में व्यवहृत होता था। अब तक पाई गई पुस्तकों है में यह ‘योगवासिष्ठ’ ही सबसे पुराना है। जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता अतः यह कहने की गुंजाइश अब जरा भी नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अंग्रेजों की प्रेरणा से चली।” इस प्रसंग में यह जोड़ना होगा कि ‘योगवासिष्ठ’ (१७४१) या कुछ आगे चल कर ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा किए गए बाइबिल के अनुवाद मूलतः धार्मिक भावना से प्रेरित हैं।

●बीसवीं शती के अंग्रेजी साहित्य में रवि ठाकुर की अँग्रेजी ‘गीतांजलि’ के भूमिका लेखक येट्स थे।

●पुनर्जागरण का भारतीय साहित्य में पहला प्रतिफलन माइकेल मधुसूदन दत्त के बंगला काव्य ‘मेघनाथ-वध’ (1861) को माना गया है।

●हिंदी क्षेत्र में पुनर्जागरण की पहली सशक्त साहित्यिक अभिव्यक्ति भारतेंदु हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व में मिलती है।

●राजा शिवप्रसाद का कार्य मुख्यत: गद्य के क्षेत्र में था, और यह स्मरणीय है कि वे भारतेंदु के विद्या-गुरु थे।

●रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा’ में ठीक ही लिखा है, “यह प्रतिज्ञा-पत्र भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य है।” (पृ० ३)

●यहाँ तक कि अपने जीवन का अंतिम संवाद उन्होंने नाटक की लक्षणा में ही बोला, “हमारे जीवन नाटक का प्रोग्राम नित नया-नया छप रहा है, पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खाँसी की सीन हो चुकी है। देखें लास्ट नाइट कब होती है।” (भारतेंदु के सन्दर्भ में यह कथन है)

●अंधेर नगरी को समकालीन क्लासिक की कोटि में गिना जा सकता है।

●भारतेंदु ने अपनी व्यवस्था कुछ इस प्रकार रखी थी : विचार-आंदोलन-खड़ी बोली-गद्य यह एक पक्ष था, जब कि दूसरे पक्ष में थे : संस्कार-रचना-ब्रजभाषा-कविता। भारतेंदु विचारों से जितने आधुनिक थे उतने संस्कारों से नहीं। और यह स्वाभाविक था। पहले विचार बदलते हैं, तब संस्कार उनका अनुसरण करते हैं।

●भारतेंदु युग के लिए- इस दृष्टि से इस युग को ‘आधुनिक हिंदी का आदिकाल’ कहना एक विशेष सार्थकता रखता है।

●श्रीनिवासदास ने भारतेंदु युग की केन्द्रीय विधा नाटक में भी कई रचनाएँ लिखीं, पर उन्हें विशेष मान्यता प्राप्त नहीं हुई, “संयोगिता स्वयंवर’ की तो कई जगह तीखी आलोचना ही हुई जहाँ से हिंदी में व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात होता है। ‘सदादर्श’ नामक साप्ताहिक पत्र इन्होंने कुछ समय तक चलाया जिसे बाद में ‘कवि-वचन-सुधा’ के साथ मिला दिया।

●नूतन ब्रम्हचारी (बालकृष्ण भट्ट)- सात्विकता की विजय ही यों उपन्यास का मूल सन्देश है। इसका आरम्भिक प्रकाशन ‘हिंदी प्रदीप’ के अंकों में क्रमशः हुआ था।

●प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों के शीर्षक-
‘हो ओ ओ ली है !’ ‘बेगार’, ‘रिश्वत’, ‘कचहरी में शालिग्रामजी’, ‘कान्यकुब्जों ही की सबसे हीन दशा क्यों है’, ‘वर्षारंभ’, ‘घूरे के लत्ता बिनै कनातन का डौल बाँधे’, ‘कानपुर और नाटक’, ‘कन्नौज में तीन दिन’, ‘पंच परमेश्वर’।

●प्रतापनारायण मिश्र ने बँगला के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिम चटर्जी की कई कथा-कृतियों का अनुवाद किया।

●भारतेंदु-मंडल’ आत्मीयता के भाव पर बना था, ‘द्विवेदी-मंडल’ अनुशासन के, जब कि भारतेंदु अपने वृत्त के निश्चय ही सबसे बड़े रचनाकार थे, और आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनात्मक स्तर पर अपने शिष्यों’ मैथिलीशरण गुप्त या कि प्रेमचंद से छोटे थे।

●’महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ में रामविलास शर्मा लिखते हैं – “द्विवेदी जी के इस कोटि के लेखन का सीधा संबंध ‘भारत-भारती’ से वैसे ही है जैसे भारत की वर्तमान आर्थिक अवस्था का चित्रण करते हुए वे भुखमरी, जमींदारों के अत्याचार, महाजनों की सूदखोरी और किसानों की तबाही की बातें करते हैं तो लगता है कि हम प्रेमचंद के कथा-संसार में घूम रहे हैं। द्विवेदी जी कथा-लेखक नहीं थे और मैथिलीशरण गुप्त की तुलना में कवि भी बहुत साधारण थे। किंतु वैचारिक स्तर पर वह इन दोनों से आगे हैं, इन दोनों के काव्य-संसार और कथा-संसार की रूपरेखाएँ उनके गद्य में स्पष्ट दिखाई देती हैं। इस दृष्टि से उन्हें युगनिर्माता कहना पूर्णतः संगत है।” (पृ० १२१)

●वह कला-गुरु धन्य है जिसके शिष्य रचना-प्रक्रिया के स्तर पर उससे आगे निकल जाएँ।

●आधुनिक हिंदी में रीतिवाद-विरोधी अभियान आचार्य द्विवेदी ‘सरस्वती’ पत्रिका के एकदम आरंभिक अंकों से ही चलाते हैं, जिसमें आगे चलकर सहयोग एक ओर मैथिलीशरण गुप्त अपने लेखों के माध्यम से (द्र० ‘सरस्वती’ में ही प्रकाशित निबंध ‘हिंदी-कविता किस ढंग की हो?’) देते हैं और दूसरी ओर सुमित्रानंदन पंत तथा निराला अपनी भूमिकाओं और पत्रकारिता से।

●रामनरेश त्रिपाठी में जहाँ स्वच्छंदतावाद का सहज उल्लास है, वहीं भाषा का अनुशासन भा पूरा है।

●रामनरेश त्रिपाठी का कृतित्व अपने समय के संदर्भ में बहुमुखी है। वे मूलतः कवि हैं, ग्राम-गीतों के संकलन का आरंभिक कार्य उन्होंने किया, ‘कविता-कौमुदी’ नाम से कई जिल्दों में हिंदी, उर्दू, बँगला आदि काव्य-धाराओं का आलोचनात्मक सामग्री के साथ संकलनसंपादन किया। गद्य के क्षेत्र में, तुलसीदास और उनकी कविता पर विशद आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, महामना मदनमोहन मालवीय की संस्मरणात्मक जीवनी लिखी है, और बाल-साहित्य के क्षेत्र में विशेष कार्य किया है।

●’प्रियप्रवास’ खड़ी बोली हिंदी का पहला महाकाव्य कहा जा सकता है। न केवल यह आधुनिक काल का प्रथम महाकाव्य है, वरन् इसमें एक नयी और आधुनिक दृष्टि का उपोद्घात मिलता है।

●मनुष्य और परम तत्व के बदलते हुए रिश्तों की समीक्षा के क्रम में हमने लक्षित किया था कि आधुनिक काल में मनुष्य सम्पूर्ण रचना और चिंतन के केन्द्र में है, ईश्वर अब व्यक्तिगत आस्था का विषय है, चित्रण का नहीं।

●पुराण-कथा के प्रति कवि की दृष्टि में यह पहला महत्वपूर्ण परिवर्तन है, जिसका प्रभाव रचना के समूचे विधान में परिलक्षित होता है। राधा अब ‘प्रिय प्रवास’ में सम्पूर्णत: विरहिणी ही नहीं हैं। वे अपने इस निजी दुःख को सारे समाज के दुःख में विलीन कर देती हैं, और समाज-सेवा का व्रत लेती हैं। शताब्दियों से चले आते राधा के चरित्र में यह एक सर्वथा नयी भंगिमा हरिऔध ने उकेरी है।

●(हरिऔध के लिए)- ‘प्रियप्रवास’ की भूमिका में उन्होंने अपना मत दिया है, “अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है; इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है। अतएव मैंने भी ‘प्रियप्रवास’ को खड़ीबोली में ही लिखा है वास्तव में बात यह है कि यदि उसमें कांतता और मधुरता नहीं आई है, तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष है, खड़ीबोली का नहीं।”

●हरिऔध यदि द्विवेदी-युग के पहले बड़े कवि हैं, तो मैथिलीशरण गुप्त इस युग के संपूर्णतः प्रतिनिधि कवि।

●वैष्णव-निष्ठा, अनाक्रामकता की भावना और समूचे देश के लिए राम-राज की परिकल्पना-ये साँझी विशेषताएँ हैं तुलसी और मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की, और महात्मा गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन की।

●यहाँ भक्त कवियों के संबंध में रामचंद्र शुक्ल की टिप्पणी याद हो आती है, “मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी। (मैथिलीशरण गुप्त के संदर्भ में बात करते हुए यह उल्लेख आया है)

●आधुनिक काल के एकदम आरंभ में बँगला कवि माइकेल मधुसूदन ने अपने काव्य ‘मेघनादवध’ में पौराणिक परंपरा से गृहीत दैत्य-चरित्रों को एक नये आलोक में प्रस्तुत किया था-माइकेल की रचनाओं से प्रेरित और प्रभावित होकर मैथिलीशरण गुप्त ने ‘मधुप’ उप-नाम से उनमें से कई का पद्य-बद्ध अनुवाद प्रस्तुत किया।

●प्रसाद ने ‘कामायनी’ में अपने ढंग से सौंदर्य को चपल शिशु कहा है, लज्जा जिसकी धाय है।

●जैसे तुलसी मूलतः पारिवारिक जीवन के चितेरे हैं, वैसे ही आधुनिककाल में मैथिलीशरण गुप्त । दोनों का एक मूल स्रोत राम-कथा है, जो भारतीय परिवार की उज्ज्वलतम गाथा है।

●द्विवेदी जी के पत्र पाठक जी के नाम’ से (१९८२)। संकलनकर्ता पद्मधर पाठक ने अपने ‘निवेदन’ में लिखा है, “द्विवेदी जी के निरंतर आग्रह पर भी उन्होंने (अर्थात् पाठक जी ने) ‘सरस्वती’ के लिए कभी कुछ नहीं भेजा।”

●महावीरप्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व अपने शिष्य निराला की ही तरह सामान्य स्तर पर अव्याख्येय है।

●अपनी पुस्तक ‘आधुनिक साहित्य’ के आरंभ में नंददुलारे वाजपेयी ने आचार्य द्विवेदी के योग-दान का सही मूल्यांकन किया है, “साहित्य के क्षेत्र में किसी एक व्यक्ति पर इतना बड़ा उत्तरदायित्व इतिहास की शक्तियों ने कदाचित् पहली बार रखा था और पहली ही बार द्विवेदी जी ने इस उत्तरदायित्व के सफल निर्वाह का अनुपम निदर्शन प्रस्तुत किया।

●रत्नाकर में भक्ति और रीति के संस्कार तो हैं ही, पर उनकी शैली में एक ऐसी नयी भंगिमा है, जो रीतिकालीन ब्रजभाषा काव्य में आगे कुछ जोड़ती है।

●रत्नाकर का ‘गंगावतरण’ काव्य और ‘समालोचनादर्श’ रोला छंद में लिखे गए हैं, पर कवि का विशेष रूप से प्रिय छंद कवित्त है।

●लॉर्ड कर्जन जैसे विख्यात वायसराय-प्रशासक के वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए बालमुकुंद गुप्त शिवशंभु के नाम से लिखते हैं, “आपने बंबई में कहा है कि भारतभूमि को मैं किस्सा-कहानी की भूमि नहीं, कर्तव्यभूमि समझता हूँ। उसी कर्तव्य के पालन के लिए आपको ऐसे कठिन समय में भी दूसरी बार भारत में आना पड़ा! माईलार्ड ! इस कर्तव्य भूमि को हम लोग कर्म भूमि कहते हैं। आप कर्तव्य-पालन करने आये हैं और हम कर्मों का भोग भोगने । आपके कर्तव्य-पालन की अवधि है, हमारे कर्मभोग की अवधि नहीं। आप कर्तव्य-पालन करके कुछ दिन पीछे चले जावेंगे। हमें कर्म के भोग भोगते-भोगते यहीं समाप्त होना होगा और न जाने फिर भी कब तक वह भोग समाप्त होगा। जब थोड़े दिन के लिये आपका इस भूमि से स्नेह है, तो हम लोगों का कितना भारी स्नेह होना चाहिये, यह अनुमान कीजिये। क्योंकि हमारा इस भूमि से जीने-मरने का साथ है।”

●बालमुकुंद गुप्त द्वारा संपादित पहले दो पत्र “अखबारे चुनार”, और “कोहेनूर” उर्दू में थे।

●नागरी प्रचारिणी सभा की काशी में स्थापना १८९३ में हुई, संस्थापक थे-बाबू श्यामसुंदरदास, पं० रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह।

●मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद और निराला की रचनात्मकता के प्रेरक रूप में जैसे आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का ध्यान आता है कुछ वैसे ही रामचंद्र वर्मा, रामचंद्र शुक्ल और कामताप्रसाद गुरु के वैदुषिक कार्य-कलाप के पीछे बाबू श्यामसुंदरदास की योजना दिखाई देती है।

●रामचन्द्र शुक्ल के लिए- उनका आग्रह तो यहाँ तक था कि प्रकृति को ही सर्वत: आलंबन मान कर कविता लिखी जा सकती है, लिखी जानी चाहिए। मानों उदाहरण प्रस्तुत करने की दृष्टि से उन्होंने स्वयं एक लंबी कविता सवैया-जैसे छंदों में लिखी थी-‘कविता, वह हाथ उठाए हुए, चलिए कवि वृंद बुलाती वहाँ।’

●प्रकृति-काव्य और छायावादी काव्य में विभ्रम उत्पन्न होने की संभावना है, इस बात को जयशंकर प्रसाद ने समझा था। अपने निबंध यथार्थवाद और छायावाद’ का समापन करते उन्होंने लिखा, “प्रकृति विश्वात्मा की छाया या प्रतिबिंब है, इसलिए प्रकृति को काव्यगत व्यवहार में ले आकर छायावाद की सृष्टि होती है, यह सिद्धान्त भी भ्रामक है। यद्यपि प्रकृति का आलंबन, स्वानुभूति का प्रकृति से तादात्म्य नवीन काव्य-धारा में होने लगा है, किंतु प्रकृति से संबंध रखने वाली कविता को ही छायावाद नहीं कहा जा सकता।”

●कवि जयशंकर प्रसाद को अपने गाँव गढ़ाकोला से एक पत्र में निराला लिखते हैं, “आप मुझे लिफाफे में पत्र लिखने पर अपना एक सादा letter paper साथ ही रख दिया कीजियेगा। यहाँ कागज का बड़ा अभाव रहता है। बज्र देहात है।

●भारतेंदु हरिश्चंद्र’ नामक अपने ग्रंथ में भारतेंदु के पिता बाबू गोपालचंद्र की कृतियों में से ‘प्रेमतरंग’ का ब्यौरा देते हुए ब्रजरत्नदास लिखते हैं, “ग्रंथकर्ताओं में स्वर्गीय श्री बाबू गोपालचंद्र उपनाम ‘गिरिधरदास जी’ तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम दिया है। इसमें ६४ पृष्ठ और ३६१ पद हैं, जिसमें बाबू गिरिधरदास के २३, बाबू हरिश्चंद्र के २०४ और ४४ ‘चंद्रिका’ उपनाम के हैं। अंतिम ३४ बँगला के हैं।” (पृ० ५८)

●छायावाद महज़ संध्या-सुंदरी, चाँदनी रात या नौका विहार का चित्र नहीं है। वह मूलतः शक्ति-काव्य है।

●मध्यकालीन कवि के लिए संसार ‘पचड़ा’ था, आधुनिक युग का छायावादी कवि संसार में ‘आनंद’ की संभावना देखता है।

●जैसे मनुष्य के बच्चे को अन्य प्राणियों की तुलना में वयस्क होने के लिए सबसे अधिक समय लगता है वैसे ही अपने समकालीनों के बीच कवि बनने में प्रसाद को लगा।

●प्रसाद में ही पहली बार देखा जा सकता है कि लौकिक और अलौकिक प्रेम के बीच अंतर विलीन हो गया है।

●मनुष्य अब संपूर्ण रचना के केन्द्र में है, ईश्वर व्यक्तिगत आस्था का विषय है, काव्यगत चित्रण का नहीं। (छायावाद के प्रसंग में यह आया है)

●नंददुलारे बाजपेयी ने अपने ग्रंथ ‘जयशंकर प्रसाद’ की भूमिका में कहा है “बड़े जीवनचक्रों को हाथ में लेना, पेचीदा भाव-धाराओं और सांस्कृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप उठी हुई जटिल समस्याओं का निरूपण करना; व्यक्ति, देश और जाति के जीवन के वृहद् छाया आलोकों को उद्घाटित कर सकना; सारांश यह कि जीवन के गहरे और बहुमुखी घातप्रतिधातों और विस्तृत जीवन-दशाओं में पद-पद पर आने वाले उद्धेलनों को चित्रित करना, उन्हें संभलना और अपनी कला में उन सबको सजीव करना।”

●’कामायनी’ का रचाव जैसा जटिल है विधान वैसा ही व्यापक तथा महत्वकांक्षी।

●जूही की कली न केवल अपने विधान में कवित्त छंद पर आधारित है, वरन नायिका-नायक प्रणय-प्रसंग की दृष्टि से अपनी संवेदना में रीतिकाल से कहीं जुड़ी हुई है।

●रीतिकालीन कवि प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों के ब्यौरे देता है, जब कि छायावादी प्रस्तुत का हल्का उल्लेख करके अधिक रुचि से अप्रस्तुत को सँवारता है, और यों पाठक की कल्पना को सक्रिय होने के लिए अधिक अवसर देता है।

●कामायनी अपने वर्णनों से नहीं, पर वृत्ति से महाकाव्य है।

●छायावाद को शक्ति काव्य कहने में ‘कामायनी’ के साथ ‘राम की शक्ति पूजा’ मिलकर आधार बनाती है।

●निराला की तुलना ऊपरी तौर पर अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन से की जाती है, क्योंकि दोनों ने अपने अपने साहित्य में मुक्त छंद का आरंभ किया, व्हिटमैन ने पहले, निराला ने बाद में।

●प्रिया का संक्रमण कैसे चुपचाप पुत्री में हो जाता है, उसका बड़ा सुकुमार अंकन कवि ने यहाँ किया है। (सरोज स्मृति के संदर्भ में)

●’शक्तिपूजा’ में व्यापक मानवीय संघर्ष की वस्तु है, अतः उसका समापन ‘जय’ के पूरे आश्वासन में होता है पर ‘सरोज-स्मृति’ में वैयक्तिक पीड़ा प्रधान है, इसलिए कवि ने उसे अंततः तर्पण’ के रूप में माना है। एक मानवीय नियति की गाथा है तो दूसरी ‘भाग्यहीन’ की कथा।

●पद्मसिंह शर्मा ने अष्टादश हिंदी साहित्य सम्मेलन, मुजफ्फरपुर में सभापति के पद से दिये गये अपने अभिभाषण में ‘कविता में परिवर्तन’ का उल्लेख करते हुए शिकायत की थी, “पल्लव’ के नोकीले और जहरीले काँटे इनके दिल में न चुभाइये, ‘वीणा’ में सोहनी के स्वर छेड़िए, ‘मारू राग’ न बजाइये।” (यह व्यंग्य पल्लव और वीणा सँग्रह के लिए था)

●रामविलास शर्मा के अनुसार “छायावाद और रहस्यवाद का मखौल उड़ाने वाले रामचंद्र शुक्ल के कवित्त फरवरी 1928 की ‘सुधा’ में प्रकाशित हुए थे।” (‘निराला की साहित्य साधना’-भाग 3 : पृ० 197)

●रामचंद्र शुक्ल की कविता के संबंध में प्रमुख मान्यताओं में से एक यह थी कि प्रकृति को महज़ उद्दीपन रूप में चित्रित करना उस विराट् सत्ता के प्रति नासमझी और अवज्ञा का परिचय देना है।

●पंत की पंक्तियाँ छायावाद के रचनात्मक घोषणा पत्र का मानो आरम्भिक अंश है।

●सुमित्रानंदन पंत के लिए है- ‘आधुनिक कवि’ माला, भाग-2 की भूमिका (1942) में उसने लिखा है, “मेरे आलोचकों का कहना है कि मेरी इधर की कृतियों में कला का अभाव रहा है। विचार और कला की तुलना में इस युग में विचारों ही को प्राधान्य मिलना चाहिए।”