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संस्मरण : बनारसी दास चतुर्वेदी

संस्मरण : बनारसी दास चतुर्वेदी


●वास्तव में पद्यकोट पाठक जी(श्रीधर पाठक) की सर्वोत्तम कृतियों में से है, बल्कि यों कहना चाहिए कि यदि वे अपने जीवन में केवल कश्मीर-सुषमा और पद्यकोट की ही रचना करते, तब भी वे कविता तथा सौंदर्य के प्रेमियों के लिए चिरस्मरणीय हो जाते।

●उस समय पाठक जी की बातें सुनना हिंदी के 40 वर्ष (1880-1920) के इतिहास का अध्ययन करना था।

माखन लाल चतुर्वेदी ने सत्यनारायण कविरत्न के स्वर्गवास पर लिखा था-
“यह कोमल काकली कलित-सी सीखी वृन्दाविपिन निवेश
मस्त कान्ह को कर-कर देती हर-हर लेती हृदय प्रदेश।
राष्ट्र भारती के उपवन में होती रहती थी वह कूक,
कर-कर दिये क्रूरताओं के उसने सदा करोड़ो टूक
वह कोकिल उड़ गया, गया-वह-गया-कृष्ण दौड़ो लाओ।
वनदेवी का धन लौटा दो सच्चे नारायण आओ।”

●पाठक जी में अनेक गुण थे, वहाँ उनके स्वभाव में कुछ त्रुटि भी थी। वे कुछ शकाशील थे, और सनक की मात्रा भी उनमें पाई जाती थी। सम्भवतः इसी कारण से उनका अन्य सज्जनों से कभी-कभी मनमुटाव भी हो जाता था।


2.
द्विवेदी जी के लिए-
●मैंने भी यही समझ रखा था कि द्विवेदी जी बड़े कठोर हृदय तथा द्वेषी स्वभाव के आदमी है। फिर भी मैंने दौलतपुर जाना इसलिए उचित समझा था कि उनकी चालीस वर्ष की सहित्य सेवा के लिए मेरे हृदय में अत्यंत श्रद्धा थी, और वह श्रद्धा ही मेरी इस यात्रा की प्रेरक थी, छिद्रान्वेषण नहीं।

●प्रकृति अपने नियमों की अवहेलना को सहन नहीं कर सकती। जो ऐसा करता है दंड पाता है।

●’रामानंद (श्रीरामानंद चट्टोपाध्याय) बाबू तो ऋषि हैं।- महात्मा गाँधी

●अभी हिंदी जगत में यह प्रथा नहीं चली कि अपने साथी पत्र पर अन्याय होते देखकर कोई उसका बचाव करे।
(बनारसीदास चतुर्वेदी, श्रीरामानंद चट्टोपाध्याय से)

●विशाल भारत तो श्रीरामानंद चट्टोपाध्याय के हिंदी प्रेम का प्रतीक है ही, पर इस बात का परिचय कितने हिंदी-भाषियों को है कि श्री चिंतामणि घोष को ‘सरस्वती’ का प्रकाशन आरम्भ करने की प्रेरणा श्रीरामानंद चट्टोपाध्याय से ही प्राप्त हुई थी?

●पद्मपराग की आलोचना करते करते हुए बनारसी दास चतुर्वेदी में ‘विशाल भारत’ में लिखा था-‘हमारा विश्वास है कि कठोर शब्द अंत में अपने उद्देश्य में विफल होते हैं। उनके प्रयोग से इस बात की आशंका रहती है कि कहीं असाधारण कठोरता के कारण पाठक की सहानुभूति उस व्यक्ति के प्रति न हो जाय, जिसके प्रति उन शब्दों का प्रयोग किया गया है।’

●सहानुभूति के भूखे कष्ट-पीड़ित पत्रकार को Appreciation या दाद की जितनी जरूरत है, उतनी किसी दूसरी चीज की नहीं।

●पूर्व जन्म में तुमने कौन-से पाप किये थे, जिससे ऐसी तेज धूप में तुम्हें यहाँ आना पड़ा? (महावीर प्रसाद द्विवेदी का कथन बनारसी जी के लिये)

●यदि धर्म का अभिप्राय दीन-दुखियों की सेवा से है, तो इसमें संदेह नहीं कि द्विवेदी जी अत्यंत धार्मिक मनुष्य है।

●छोटे-से-छोटे जिम्मेवारी के काम को पूर्ण सावधानी के साथ करना महापुरुषों का लक्षण है।

●जैसे कष्ट सम्पादकाचार्य रुद्रदत्त जी को अपने अन्तिम दिनोंमें भोगने परे, वैसे शायद ही किसी अन्य हिन्दी-पत्रकार को भोगने पड़े हों। वे सचमुच भूखो मर गये। और उनकी इस दुर्दशामय मृत्यु के लिए आर्यसमाज तथा हिन्दी जगत् समान रूपसे दोषी है।

●कल्पित नवन्यास की रीतिपर आर्यावर्त में एक लेख प्रकाशित किया। इस लेख के प्रकाशित होते ही बड़ा कोलाहल मचा। कलकत्ते की हाईकोर्ट से उस लेख का अग्रेजी अनुवाद हो के पटने की पुलिस में आया और पुलिसके सुपरिएटेण्डेण्ट साहब दानापुर आके आर्यावर्त प्रेस से फाइल आदि ले गये। जब सब प्रकारसे अभियोग चलने का ठीक-ठाक हो गया तब स्वर्गवासी बाबू रामदीनसिंहजी मुझे साथ लेकर कमिश्नर साहब के पास गये और उनको समझा के कहा कि यह लेख कुछ नहीं, वरन् देवी भागवत में जो प्रह्लाद और नर-नारायण के युद्ध की कथा है उसके आधार पर यह नवन्यास लिखा गया है। …. कमिश्नर साहब ने पूर्वोक्त लेख को और उसके अंग्रेजी अनुवाद को आद्योपान्त पढकर कहा कि निस्सन्देह यह एक ऐसा नवन्यास है कि जो अाजकलकी अनेक घटनाओं से मिलता है, परन्तु आप जाइये, सरकार से इस पर अभियोग नहीं चल सकता, क्योंकि आपने मार्कण्डेय पुराण के श्लोको से अपने लेख को मिला दिया है। इन कमिश्नरका नाम ग्रियर्सन साहब था।”