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चीड़ों पर चाँदनी : निर्मल वर्मा (मुख्य अंश)

चीड़ों पर चाँदनी : निर्मल वर्मा (मुख्य अंश)

चीड़ों पर चाँदनी (निर्मल वर्मा)

भूमिका में-

●महज सांस ले पाना- जीवित रहकर धरती के चेहरे को पहचान पाना- यह भी अपने में एक सुख है- इसे मैंने इन यात्राओं में सीखा है।

●आभार प्रकट में 3 नामों का उल्लेख- स्वामीनाथ, बरेन रॉय और आइसलैंडी कवि- थोर्गियेर थोर्गीयरसौन

विषय का क्रम:-

उत्तरी रोशनियों की ओर

1.ब्रेख्त और एक उदास नगर


2.रोती हुई ममेंड का शहर


3.उत्तरी रोशनियों की ओर


4.सफेद रातें और हवा

◆चीड़ों पर चाँदनी
5.लिदीत्से :एक संस्मरण


6.वर्त राम्के : एक शाम


7.पेरिस : एक स्टिल लाइफ़


8.वियना


9.चीड़ों पर चाँदनी

देहरी के बाहर

10. लैक्सनेस : एक इंटरव्यू

11 .काफ़्का और चापेक : समकालीन चेक साहित्य

12. देहरी के भीतर : चेखव के पत्र

पात्र:- लेखक स्वयं, मारिया, थोर्गियेर, एंगुइ, दुबुआ, एलविन

मुख्य अंश:-

●नाटक मंच पर खेलने की चीज नहीं, वह जीने की सक्रिय कला है, हर परिचित, पुरानी चीज को नये सिरे से छूने की अपेक्षा है, ताकि हम उसे आज-का, इस क्षण का धड़कता सत्य दे सकें। हक़ीक़त ही तो नाटक है…

●कौन सी सीमा पर जाकर कम्युनिज्म का विरोध फासिज्म का चेहरा अपना लेता है, मुझे नहीं मालूम, किंतु यह वह सीमा है, जो आज पश्चिम बर्लिन को पूर्वी बर्लिन से अलग करती है… यह एक चुनौती भी है, जिसका सामना हर ईमानदार व्यक्ति को कभी-न-कभी करना होगा।

●हर शहर का अपना आत्मसम्मान होता है। जब हम उसे पूरी तरह प्रतिष्ठा नहीं दे पाते, तो वह भी हमारे प्रति उदासीन हो जाता है।

●कम्युनिस्ट देशों के बाहर शायद आइसलैंड ही एक ऐसा देश है जहाँ लोग कम्युनिस्ट विचारधारा से तीव्र मतभेद रखते हुए भी कम्युनिस्ट नेता के प्रति इतनी गहरी निष्ठा और आस्था प्रकट कर सकते हैं।

●कभी-कभी सोचता हूँ, यात्री का सुख सब कोई जानते हैं, दुःख अपने में अकेला छिपा रहता है।

●पहली बार पूरी शिद्दत से महसूस हुआ कि धरती, महज ठोस धरती पर चलने का भी अपना अलग सुख है। वह पैरों के नीचे काँपेगी नहीं, हिले-डुलेगी नहीं, यह ख्याल मन को अजीब सांत्वना-सी देता है।

●हम यात्री किसी भी जगह पहली बार नहीं जाते; हम सिर्फ लौट-लौट आते हैं उन्हीं स्थानों को फिर से देखने के लिए, जिसे कभी, किसी अजाने क्षण में हमने अपने घर-के कमरे में खोज लिया था।

●कितने कम याद रह पाते हैं चित्र, दीवार पर टंगे फ्रेमों में बंद खून और पसीने में लिथड़े स्वप्न। और हम हैं कि हर कदम पर सदियों पार करते जाते हैं। संग रह जाता है केवल एक आभास-रंगों और आकृतियों से उत्पन्न हुई किंतु उससे अलग एक स्मृति। शून्यता को काटती एक उड़ान, एक चीख। बंद सदियों की कुछ चाभियाँ, जिन्हें हम अपने संग ले आते हैं और बाद में खोलते हैं, अकेले में अपने ही अकेलेपन को।

●अहम भाव से पीड़ित व्यक्ति बहुत कम आत्मीय हो पाता है।

●सोचता हूँ, पिछले हजार वर्षों से जो देश आस-पास की दुनियां से अलग सिर्फ समुद्र, ग्लेशियरों और ज्वालामुखी पर्वतों से घिरा रहा है, उसकी वीरानी और खामोशी की छाया यदि उसके निवासियों के भीतर कहीं छिपी रहे, तो क्या आश्चर्य की बात होगी?

●मेरा विचार है, अहिंसा का मूल्य केवल हिंसा की तुलना में महत्वपूर्ण दिखता है, जहाँ हिंसा का प्रयोग न हुआ हो- जैसा आइसलैंड के स्वाधीनता-संघर्ष में वहाँ अहिंसा एक नैतिक मान्यता न होकर सहज विश्वास के संग जुड़ी है। यही कारण है कि यद्यपि आइसलैंड का स्वतंत्रता-संघर्ष इतिहास में सबसे लंबा ‘सत्याग्रह’ रहा है, शायद ही कोई आइसलैंडी इस सम्बंध में डींग मारता हुआ दिखाई देगा।

●यात्री को झोली खोलकर यात्रा करनी चाहिए, जो न मिले उसका दुःख न करके जो मिले उसे समेटकर ही अपने भाग्य की सराहना करनी चाहिए। क्योंकि यह तो मैं अपने अनुभव से जानता हूँ कि सुख का अभाव कभी दुःख का कारण नहीं बनता, उल्टे एक नये, अपरिचित सुख को जन्म देता है।

●आधुनिकता- यदि वह सिर्फ एक खाली शब्द नहीं, आस पास की हर चीज को ऐसे अंदाज से देखने और परखने की क्रिया है, जो हमसे पहले किसी भी पीढ़ी के पास नहीं था- सिर्फ ‘देखना-परखना’ ही काफी नहीं, उसके लिए एक बिल्कुल नए सिरे से जीना जरूरी है- एक ऐसे स्तर पर जहाँ हर निगाह एक खोज है और हर खोज अपने में एक छोटी सी ‘साहसिकता’।

●हर गली चाहे वह कितनी ज़िद्दी और लंबी क्यों न हो आखिर खत्म हो जाती है।

●कुछ शहर होते हैं, जिन्हें रफ्ता-रफ्ता पहचानना होता है। उनके खुले हिस्सों और बंद झरोखों के पीछे एक रसीला, रहस्यमय लोक छिपा रहता है। वे खुद नहीं खुलते। उन्हें निरावृत करना पड़ता है, सम्भल-संभलकर सधे हाथों से। प्राग ऐसा ही शहर है।

●कुछ ऐसे नगर भी होते हैं, जो स्वयं हमारी देह को छूते हैं, हमें सचेत कराते हैं, स्वयं अपने से। उसकी सड़कों पर चलते हुए लगता है कि हम उसे डिस्कवर नहीं कर रहे, वह स्वयं चुपचाप हमें मदद कर रहा है, खुद अपने को डिस्कवर करने में- पेरिस ऐसा ही शहर है।

●यात्राएं हमें बाहर केवल स्पेस में ही नहीं ले जाती, उन अज्ञात स्थानों की ओर भी ले जाती है, जो हमारे भीतर है।

●किसी भी अजनबी शहर में चलते हुए आंखें इमारतों पर उठ जाती है- भले ही हम आर्किटेक्चर के विशेषज्ञ न हों। वैसे भी जब हम किसी देश की भाषा से अनभिज्ञ हों, हमें अक्सर उन चीजों से रिश्ता जोड़ने की जरूरत महसूस होती है, जो स्वयं बोलती हों- बिना शब्दों के।

●इतिहास चाहे कितनी ही ट्रेजिक क्यों न हो हमारी सदी में उसका प्रभाव एक सस्ते, सतही ‘मेलोड्रामा’ से अधिक नहीं हो पाता।

●मरना इतना मुश्किल नहीं है यदि हमारे चारों ओर की दुनिया इतनी जीवित हो।

●सोचता हूँ, हम हमेशा एक पुराने शहर में आते हैं, लेकिन हर दिन गुजरने के संग वह रहस्यमय ढंग से नया होता जाता है और आखिरी दिन जब उसे छोड़ने लगते हैं, तब लगता है कि सचमुच में पहला दिन यही है, जब हम यहाँ आये हैं।

●मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि हमारे भीतर कितनी अस्पष्ट लालसाएँ, कितने घुँघले स्वप्न, किसी अनुकूल क्षण की प्रतीक्षा में दबे रहते हैं और फिर बरसों बाद अपने देश की हजारों मील दूर किसी अजनबी शहर में वह क्षण अचानक आ जाता है और हम स्तब्ध-से अतीत और वर्तमान की सीमा रेखा पर ठिठके से रह जाते हैं।

●मुझे सन्देह है किसी भी देश के साहित्य, जन-रुचि और विचार-धारा को किसी एक पुस्तक ने इतना अधिक प्रभावित किया है जितना बोजेना न्यमसोवा के उपन्यास “दादी माँ” ने।

●चेक लोगों के लिए युद्ध ऐसे ‘स्मृति’ है, यदि जीवित दुःस्वप्न को स्मृति कहा जा सके। युद्ध एक एक्सट्रीम स्थिति है और हमारे युग में सत्य केवल एक्सट्रीम स्थिति में ही (चाहे वह कला में हो या जीवन में) उपलब्ध हो सकता है।

●अँधेरा रौशनी को ढ़कता नहीं, सिर्फ उसे रिलीफ देकर मुक्त हो जाता है, और रौशनी अंधेरे की जगह नहीं घेरती, केवल इंगित करती है अपनी सीमा को, जहाँ वह खत्म होती है, और अंधेरा आरम्भ होता है।