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अपराजिता की कविताएँ

अपराजिता की कविताएँ

1.निश्छलता

व्यक्ति शरीर है,
शरीर है कायरता।
कायरता से है राजनीति,
राजनीति शोषण की लालसा।
लालसा तो मोह है,
मोह ही अधर्मी बुद्धि।
बुद्धि ही सख़्सियत,
सख़्सियत ही मानसिकता ।
मानसिकता है स्थिति,
स्थिति ही भावना।
भावनाओं से रिश्तें,
रिश्तों से एकात्मकता।
एकात्मकता ही शक्ति ,
शक्ति ही एकाग्रता।
एकाग्रता है शांति,
शांति ही तीव्रता।
तीव्रता में गति,
गति में ही क्षमता।
क्षमता से है साहस,
साहस से आत्मनिर्भरता।
आत्मनिर्भरता ही जीवन,
जीवन है तो जिज्ञासा।
जिज्ञासा से बल,
बल में है शौर्यता।
शौर्य ही दंभ,
दंभ में कट्टरता।
कट्टरता है तो प्रेम,
प्रेम में ही छलावा।
छलावा ही चंचल,
चंचल है मन।
मन ही शातिर,
शातिर है तन।
तन में है आत्मा,
आत्मा निश्छल,
और निश्छल ही निर्मोही काया।

2. कामना

नहीं रोना वेदना,
न ही उसके अपमान के बोझ तले
दबाना तुम्हारा मस्तिष्क,
नहीं देने दोष के भार,
ना ही दानी मुनि के भांति
देना तुम्हें श्रापित जीवन,
जो सताए तुम्हें
सरोज स्मृति की तरह
और भर जाए तुम्हारा रोम-रोम
करुणा, विरह, माया, सुध और बंधन के मोह से।
नहीं, इतना निर्दयी नहीं होना
जो बिखेर दे, किसी के अन्तर्मन को
फूटते ज्वालामुखी के समान
नष्ट कर दे आस-पास के जीते हुए
किसी खुले दिल प्राणी को।
नहीं, कामना भी नहीं करनी
उस इतिहास के पुनरावृत्ति की
जो तुम्हें, तुम्हारे जीवन को
आलोचनाओं का धिक्कारित आशीर्वाद दे।
अपशब्द, झूठी तस्सली, दिलाशा के फूल,
तुम्हारे आत्मसम्मान पर चोट, सच्चाई का समुद्र
कुछ भी नहीं कहना…
किसी अपराधी के चरित्र पर
लाँछन भी नहीं लगाना तुम्हारे नाम का,
ना ही किसी अधमरे कानून का
है आभास कराना
जो पट्टी बांधे
खोखले गढ़ित सबूत को देखने में है असमर्थ।
हाँ, कुछ भी तो नहीं कहना तुमसे
सिवाय इसके कि…
‘कामना’ है
सिर्फ तुम्हारी “पुत्री” की’,
और मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना,
कुछ भी नहीं।

अपराजिता (शोधार्थी, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिहार)