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एक चिथड़ा सुख – निर्मल वर्मा : मुख्य अंश

एक चिथड़ा सुख – निर्मल वर्मा : मुख्य अंश

●वह मार्च की हवा थी। उसमें कोई बोझ नहीं था, जैसा गर्मी के अंधड़ में होता है। वह धूल के साथ नहीं आई थी, स्वयं धूल उसका सहारा लेकर ऊपर उठी थी।


●कभी-कभी ट्रेन अँधेरे की कोख से बाहर निकलती, आस-पास के खँडहर चमचमा जाते, और फिर अपनी नींद के गूदड़ में लिपटकर गायब हो जाते।


●कुछ लोग अपने अकेलेपन में काफी सम्पूर्ण दिखाई देते हैं- उन्हें किसी चीज़ की जरूरत महसूस नहीं होती।


●बीच में जो लोग ठहर जाते हैं, उनमें अकेलापन उतना नहीं, जितना अधूरापन दिखाई देता है।


●क्या प्रश्नों के जबाब होते हैं? यह हमेशा सच नहीं होता। आधी नींद की बुड़बुडाहट में हम कितना कुछ पूछते हैं, खाली दीवारें उन सब प्रश्नों को सोख लेती हैं। दूसरे दिन- सुबह की चकमकाहट में- कुछ भी याद नहीं रहता; हम सोचते भी नहीं, पिछली रात कौन से शर्म और पछतावे ने सिर उठाया था।


●शायद वे लोग जो शुरू की ज़िन्दगी में बहुत नीचे जाते हैं, वे ऊपर आकर उदासीन-से हो जाते हैं।


●कुछ लोग इतने सम्पूर्ण ढंग से अधूरे होते हैं कि अपना अधूरापन पोंगा-सा जान पड़ता है।


●कुछ लोगों के भीतर झाड़ियाँ उगने लगती हैं और उनका दिल धीरे-धीरे दुनिया से डरकर झाड़ियों में दुबक जाता है, वहीं छिपा रहता है।


●क्या अपने दोस्तों के दुख एक हद के बाद शर्मनाक-से बन जाते हैं, जिन्हें छिपाना ही बेहतर है?


●बरसाती में रहकर तकलीफें पता नहीं चलती।


●हम दूसरों की तकलीफों के बारे में क्या इसलिए लड़ते हैं, क्योंकि अपने सुख का कहीं पता नहीं होता?


●बीती हुई स्मृति आनेवाली पीड़ा को कभी माफ नहीं करती, यह उसने बरसों बाद जाना था।


●हम स्मृति में उसे पकड़ते हैं, जो मृत और मुरदा हैं; जब वह जीवित थी, हम उसे ओझल कर देते हैं, हाथ से निकल जाने देते हैं, भूल जाते हैं।


●क्या हम उसे याद कर सकते हैं, जो अभी हुआ नहीं है, लेकिन होनेवाला है?


●पुरानी नोटबुक पढ़ते हुए अक्सर समय की रील गड़बड़ा जाती है, जो बाद में हुआ था, वह पहले दिखाई देने लगता है और हम दीवार पर भविष्य को उल्टी तरफ से आता हुआ देखते हैं, उन पेड़ों और खम्बों की तरह जो रेल की खिड़की से विपरीत दिशा में भागते हुए दिखाई देते हैं और हम एक क्षण के लिए भूल जाते हैं कि वे हमारी तरफ नहीं, हम उनकी तरफ जा रहे हैं।


●पहली बार मुझे पता चला कि शब्दों को तुम सुनते हो, लेकिन आवाज़ों को देखा जा सकता है, सन्नाटे की दीवार पर वे फ्रिस्कोज हैं, जिनके बीच गुस्से, पीड़ा, पछतावे का पलस्तर झरता रहता है, जहाँ चुप्पी के अपने रंग हैं, हँसी की अपनी रोशनी, सोचने की अपनी स्पेस।


●चीख, जिसका नाता किसी से नहीं होता, जो अकेले में अपने-आप गूँजती है।


●दिल की दो धड़कनों के बीच कौन-सी जगह है, जो गैर-पागल है।


●अकेले में बोलना, अपने से बोलना- तुम कुछ भी कह सकते हो। कितने सुननेवाले हैं? पेड़, घास, झाड़ियाँ; वे बाहर हैं, लेकिन बाहर की दुनिया में वे उतने ही अकेले हैं, जितने घर के भीतर लोग।


●सुख में कोई नहीं देखता, तुम रो रहे हो।


●सुख कितना छोटा होता है, आता भी नहीं, कि चला जाता है।


●अँधेरे में हम दुःख को सुन सकते हैं, हालाँकि दिखाई कुछ भी नहीं देता, न दुख, न आँसू, न अपने किए का पछतावा।


●होकर भी न होना, यह आसान नहीं था।


●मैं सब कुछ डायरी में लिखता हूँ। उसमें लिखते हुए मुझे उम्मीद रहती है, कि मैं इस दुनिया की रिपोर्ट उन्हें दूसरी दुनिया में दे रहा हूँ।


●एक बार देख लेने पर दुनिया एक कीड़े की तरह सुई की नोंक पर बिंध जाती है, तिलमिलाती है, लेकिन कोई उसे छुड़ा नहीं सकता। देखना तभी खत्म होता है, जब मरना होता है।


●शायद बुखार एक तपता आईना था, जिसके भीतर समूचा शहर एक धब्बे-सा चमक रहा था।


●कुछ रिश्ते रेगिस्तान-से होते हैं- जिन्हें हर रोज़ लाँघना पड़ता है।


●जब चीज़ें सबसे ज़्यादा बिगड़ी होती है, तभी मुझे यह सुखद उम्मीद बंधने लगती है कि वे सबसे ज़्यादा ठीक है।


●देखकर भी न देख पाना- जैसे मैं कहीं बीच-बीच में मर जाता हूँ। खास उन जगहों पर, जहाँ असली सत्य छिपा रहता है।


●लोग पेड़ नहीं हैं जो एक जगह खड़े रहें, और पेड़ भी मुरझा जाते हैं।


●शायद यह प्रेम है, एक-दूसरे को सुन पाना, चाहे उसमें कितना ही संदेह और निराशा क्यों न भरी हो।


●उम्र बीत भी जाती है, तो भी उसे ढोना पड़ता है।


●उसके भिंचे होंठ खुल रहे थे, डैरी के होंठों को अपने मुँह के अँधेरे में घेरते हुए, उनकी साँस को अपनी साँस में समोते हुए, एक चमकीली गरमाई के घेरे में, जहाँ न कोई उम्मीद होती है, न निराशा, न तसल्ली, न कोई भविष्य, न सुख, सिर्फ एक पाट खुल जाता है, झाड़ियों में अटका हुआ नाला फिर बहने लगता है, उस समय तक बहता रहता है जब तक कोई दूसरा पत्थर, कोई झाड़-चट्टान, कोई संदेह, बीच राह में औंधा-पड़ा कटे सत्य का कोई पेड़ उसे दुबारा नहीं रोक लेता।

●लोगों के बारे में हम इतना कुछ जानते हैं- सिर्फ यह नहीं जानते कि वे क्या सोच रहे हैं?


●लोग सोते हुए कैसे मर जाते हैं? वे कोई सपना देख रहे होते हैं और बीच में अचानक रील टूट जाती है, और उन्हें लगता है, यह भी कोई सपना है।


●मरे हुए लोगों का दुख कहाँ जाता है? उसने पूछा। -(पेड़ों पर। चलते हुए लोगों की छाया में। मकड़ी के जाले में झूलता हुआ)


●गरीबी का बहाना वही करते हैं, जो असल में गरीब नहीं है।


●मुझे नहीं मालूम था, बीमारी के भीतर कितनी आँखे खुल जाती हैं। लेकिन दुनिया सिकुड़ जाती है, एक चमकती नोंक पर थिर हो जाती है।


●गवाह कभी तटस्थ नहीं होता। लेकिन जिम्मेवार भी नहीं; उसकी गवाही पूरी नहीं थी क्योंकि देखना कभी पूरा नहीं था।


●और वह यह कि देखने के लिए उसे कुछ नहीं देखना चाहिए। उसे अँधेरे में रहना चाहिए… फिर धीरे-धीरे वे चीजें तुम्हारे पास आएँगी, जो लोगों के साथ हुई हैं।


●कुछ मत देखो क्योंकि जो देखते हैं, वे दखल न भी दें, दूसरों की छाया बनकर एक जूठा और झूठा दुख उठाते रहते हैं।


●दूसरे का संकट भीतर कुछ भी नहीं जगाता, न दया, न हमदर्दी, सिर्फ एक भूरी, गर्म, तपती रेत सामने से आती है और हम मुँह मोड़ लेते हैं।


●घर के सन्नाटे में हमेशा कुछ भर रहता है- एक पुराने एटिक की तरह- पुरानी गंध, टूटी आवाज़ों के चिथड़े, बंद घड़ियाँ! वे सब दरवाज़ों के पीछे थे, कोनों में दुबके हुए, चुप्पी के कोनों को कुतरते हुए।


●उम्र का सन्नाटा सबसे दूभर होता है।


●कुछ चीज़ें हमेशा के लिए जीवित रह जाती हैं। समय उन्हें नहीं सोखता- वे खुद समय को सोखती रहती हैं।


●कुछ लोगों को अकेले छोड़ देना चाहिए। अगर वे उन्हें पूरी तरह अकेला छोड़ दें, तो वे आख़िर तक बचे रहते हैं।


●घर की एक आवाज़ में कितनी तहें जमी होती हैं, जिन्हें बाहर का आदमी सुनकर भी कभी नहीं समझ पाता… बरसों से जमी परतें, जो सिर्फ उनके लिए ही खुलती हैं, जो उनके भीतर जीते हैं।