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पात्र
विशु- उत्कल राज्य का प्रधान शिल्पी और कोणार्क का निर्माता
धर्मपद- एक प्रतिभाशाली युवक शिल्पी
नरसिंह देव- उत्कल-नरेश
राजराज चालुक्य- उत्कल-नरेश का महात्म्य
मुकुन्द- विशु का मित्र और प्रौढ़ शिल्पी
राजीव- मुख्य पाषाण-कोतर्क
शैवालिक- चालुक्य का दूत
महेन्द्रवर्मन- नरसिंहदेव का राहस्याधिकारी
(भास्कर, गजाधर- अन्य शिल्पी)
प्रतिहारीगण
सैनिक
अंक- 3
नाटक का प्रकाशन- 1951
(नाटक)- काल- ईसवी सन 1260 के लगभग
स्थान-
प्रथम अंक- कोणार्क मंदिर में विशु का कक्ष
द्वितीय अंक- वही
तृतीय अंक- मंदिर के गर्भगृह से सटा अंतराल
कथासार
उत्कल के राजा नरसिंह देव रहते हैं जिनकी इच्छा से बारह सौ शिल्पी करीबन 12 वर्षों से महाशिल्पी विशु की कल्पना को पूरा करने में लगे हैं। विशु कोणार्क के मंदिर को बनाना चाहते हैं। विशु लगातार निराश हो रहे हैं क्योंकि वे 10 दिन से मंदिर के शीर्ष पर कलश स्थापना करना चाह रहे थे। लेकिन वह हो नहीं पा रहा था। विशु की एक कथा यह भी है कि वह चंद्रलेखा से प्यार करता रहता है लेकिन जब वह गर्भवती हो जाती है तो उसे छोड़कर भाग जाता है। नरसिंह देव बंगाल में यवनों को पराजित करके आने वाले हैं। उनके नहीं रहने पर वह शासन चालुक्य के हाथ में है। जो बहुत ही दुष्ट है। वह शिल्पियों को धमकी देता रहता है कि अगर एक सप्ताह में कलश की स्थापना नहीं हुई तो वह शिल्पियों के हाथ काट देंगे। फिर एक आत्मविश्वास से भरा हुआ लड़का जिसका नाम धर्मपद रहता है वह आश्वासन देता है कि वह 7 दिन में कलश की स्थापना कर देगा। लेकिन वह पुरस्कार के रूप में विशु का एक दिन का पद माँगता है जब महाराज अभिषेक कर रहे हो उस दिन। दूसरे अंक में कलश की प्रतिष्ठा हो जाती है। नरसिंह देव खुश होकर जब विशु को सम्मानित करना चाहते हैं तब विशु कहता है कि पुरस्कार का असली अधिकारी धर्मपद है। नरसिंह देव को जब दुष्ट चालुक्य के कारनामे का पता चलता है तो वो सभी शिल्पियों को उसका वेतन देते हैं। और जो जमीन सैनिकों ने कब्जा किया था उसे आजाद करने की बात कहते हैं। धर्मपद का व्यक्तित्व इतना प्रभावी रहता है कि नरसिंह देव उसे दुर्गपति बना देते हैं। चालुक्य ने शिल्पियों पर आक्रमण कर दिया था। धर्मपद युद्ध में घायल हो गये हैं। उसके गले से हाथी दाँत का कंकण गिर पड़ा था। वह उस माला को ढूंढता है तब मुकुंद (जो विशु का दोस्त है) बताता है कि वह माला विशु ने उठा लिया है। धर्मपद खुश होता है। क्योंकि वह माला उसकी माँ ने दिया है। उसमें जो कंकण जड़ा हुआ था वह विशु ने हीं बनाया था। मुकुन्द धर्मपद से कहता है कि विशु ही तुम्हारे पिता है। वह सन्न रह जाता है। वह कहता है मेरी माँ ने मेरे पिता का कुछ और नाम बताया था तब विशु ने कहा कि हाँ मेरा असली नाम ‘श्रीदत्त’ है। धर्मपद उस घायल अवस्था में भी शिल्पियों के पास जाना चाहते हैं लेकिन उसके पिता विशु उसे मोह के कारण रोकते हैं जिस पर धर्मपद कहता है – “आर्य, मैं जानता हूँ- आप कायर नहीं है पर मेरा मोह आपको दुर्बल बना रहा है। आर्य, जाते-जाते आपको याद दिलाऊँ कि आप पिता होने के पूर्व शिल्पी हैं कारीगर हैं। आज शिल्पी पर अत्याचार का प्रहार हो रहा है। कला पर मदान्यता टूट पड़ी है। सौंदर्य को सत्ता पैरों तले रौंद रही है। और कोणार्क- आपका सुनहरा सपना, जिस घोंसले में आपके अरमानों का पंछी बसेरा लेने जा रहा था- वही कोणार्क, एक पामर, पापी, अत्याचारी के हाथ का खिलौना बन जायेगा। आतंक के हाथों में जकड़ी हुई कला सिसकेगी। वही कारीगर की सब से बड़ी हार होगी, सब से भारी हार।”
लेकिन जब चालुक्य सबको पराजित कर मंदिर की तरफ बढ़ता है तब महाशिल्पी विशु खुद ही मंदिर को तोड़ देते है। मुकुन्द के मना करने पर भी वो उसे तोड़ते रहते हैं।
कुछ बातें
●कोणार्क का कथानक महाशिल्पी और अन्य शिल्पियों के संघर्ष और द्वंद्व को दिखाता है।
●नाटक में बारह पुरुष पात्र हैं लेकिन नारी पात्र एक भी नहीं है।
●माथुर जी ने मंदिर की पृष्ठभूमि में आततायी राज राज चालुक्य के प्रति कलाकारों के विद्रोह और प्रतिशोध को दिखाते हैं।
●नाटक के ऐतिहासिक सन्दर्भ में यह तथ्य है कि- उड़ीसा के गंगवंशीय राजा नरसिंह प्रथम 1238 ई० में उड़ीसा के शासक हुए, उन्होंने सूर्य मंदिर बनवाया, यवनों को बंग प्रदेश से पराजित कर खदेड़ा, राजराज चालुक्य उनके अमात्य और साहित्य दर्पण कार महाकवि विश्वनाथ उनके राजकवि थे। कोणार्क का निर्माण उनके शासन के अंतिम काल में अर्थात 1260 ई० के आसपास संभावित है।
●नाटक के संदर्भ में रमेश गौतम का कथन- “कोणार्क में कर्तव्य-चेतना का विस्फोट अभिव्यक्त हुआ है।”
आगे कहते हैं- “शिल्पियों और चालुक्य के बीच के संघर्ष को मार्क्सवादी दृष्टि से श्रमिकों का आंदोलन भले ही मान लिया जाय, इसे सामंती शासन-व्यवस्था के विरोध का नाटक भी बताया जाय, यह और बात होगी, लेकिन नाटक की रचना के मूल स्वर को अगर परखने की कोशिश की जाय तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि पूरे नाटक के केंद्र में है, कोणार्क का मंदिर और मंदिर के निर्माण में विशु की प्रेरणा थी, तो नाश में पुत्र का प्रतिशोध।”
◆कोणार्क के सम्बंध में जगदीशचंद्र माथुर का कथन- प्रण की अठखेलियों और भाग्य के थपेड़ों के आधार पर कोणार्क के खंडहरों का सहारा ले एक रोचक कथापट प्रस्तुत कर देने में मुझे संतोष नहीं हुआ। मुझे तो लगा, जैसे कलाकार को युग-युग के मौन-पुरुष, जो सौंदर्य-सृजन के सम्मोहन में अपने को भूल जाता है, कोणार्क के खंडन के क्षण में फूट निकला हो। चिरन्तन मौन ही जिसका अभिप्राय है, उस पुरुष को मैंने वाणी देने की धृष्टता की है।
भूमिका में जगदीश चन्द्र माथुर का कथन- मैं अपने उड़िया मित्रों से एक धृष्टता के लिए क्षमा-याचना करता हूँ। जिस लोकप्रिय किंवदंती के आधार पर उड़िया में श्री गोपबंधुदास के खंड-काव्य “धर्मपद”, कार्तिक घोष के नाटक और अन्य रचनाओं का प्रणयन हुआ, मैंने उसका रूप इस नाटक में इतना बदल दिया है कि शायद वे उसे पहचान भी न पायें, और रुष्ट भी हों कि क्यों मैंने एक ललित और करुण रस में पगी कहानी को इस रौद्र रूप में प्रदर्शित किया है।
●मैंने जो कुछ लिखा है उस पर रंगमंच और नाट्य-लेखन के तजुर्बे की छाप है, शास्त्रीय अध्ययन की नहीं। लेकिन शास्त्र के दामन पर तजुर्बे के दाग न पड़े तो वह दामन नहीं पताका बन कर रह जाएगा। हमें तो दामन की जरूरत है, पताका की नहीं।
मुख्य अंश
●विशु का कथन- ज्योतिषी के वचन निरर्थक नहीं है, बंधु। जानते हो, हमने पत्थर में जान डाल दी है, उसे गति दे दी है। वह भूल रहा है कि वह धरती का पदार्थ है। उसके पैर धरती पर नहीं टिकते। पत्थर का यह मंदिर आज कल्पना के स्पर्श से हवा की तरह गतिमान, किरण की तरह स्पर्शहीन, सुगंध की तरह सर्वव्यापी हो रहा है। लेकिन… लेकिन धरती उसे जकड़े हुए है, ईर्ष्या से। … मुझे लगता है जैसे अनजाने ही हम लोगों ने पृथ्वी और आकाश में भीषण संघर्ष खड़ा कर दिया।
●विशु का कथन- शिल्पी को विद्रोह की वाणी नहीं चाहिए, राजीव! मेरी कला में जीवन का प्रतिबिम्ब और उसके विरुद्ध विद्रोह दोनों सन्निहित है। तुम उस किशोर को बुला लाओ। मेरी दृष्टि के स्पर्श से उसकी प्रतिभा की गंध जागृत होकर उसकी वाणी को मौन कर देगी। मुझे उसकी कला चाहिए।
●विशु का कथन- देखो हमारे कोणार्क देवालय को आँखें भर कर देखो। यह मंदिर नहीं सारे जीवन की गति का रूपक है। हमने जो मूर्तियाँ इसके स्तंभों, इसकी उपपीठ और अधिस्थान में अंकित की हैं उन्हें ध्यान से देखो। देखते हो, उनमें मनुष्य के सारे कर्म, उसकी सारी वासनाएं, मनोरंजन और मुद्रायें चित्रित हैं। यही तो जीवन है।
●विशु जब कहता है- राज्य की बातों में पड़ना शिल्पियों के लिए अनुचित है। तब धर्मपद कहता है- मगर यह भी उचित नहीं कि जब चारों ओर अत्याचार और अकाल की लपटें बढ़ रही हों, शिल्पी एक शीतल और सुरक्षित कोने में यौवन और विलास की मूर्तियां ही बनाता रहे।
नरसिंह देव का कथन- जो पत्थर को जीवन दान दे, उसके जीवन-स्त्रोत को हम अजस्त्र देखना चाहते हैं।
नरसिंह देव का कथन- हम महामात्य को आदेश देंगे कि कोई अनुचित बात न होने दें। राज्य के स्तम्भ तो सामन्त और श्रेष्ठिगण हैं, किंतु निर्धन प्रजा को सुखी रखने में ही हमारी कीर्ति है।
●धर्मपद का कथन (नरसिंह देव के लिए)- मैं तर्क करने नहीं आया हूँ। मैं तो एक ऐसे संसार की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ, जो कि आपके निकट होते हुए भी आपकी आँखों से ओझल हो गया है। इस मंदिर में बरसों से 1200 से ऊपर शिल्पी काम कर रहे हैं। इनमें से कितनों की पीड़ा से आप परिचित हैं? जानते हैं आप कि महामात्य के भृत्यों ने इनमें से बहुतों की जमीन छीन ली है, कइयों की स्त्रियों को दासियों की तरह काम करना पड़ा है, और सारे उत्कल में अकाल पड़ रहा है…
●धर्मपद अपने पिता विशु से कहता है- मगर यह भी तो उचित नहीं कि जब चारों ओर अत्याचार और अकाल की लपटें बढ़ रही हों, शिल्पी एक शीतल और सुरक्षित कोने में यौवन और विलास्य की मूर्तियाँ ही बनाता रहे।
●धर्मपद का कथन- जीवन के आदि और उत्कर्ष के बीच एक और सीढ़ी है- जीवन का पुरुषार्थ। अपराध क्षमा हो आचार्य, आपकी कला उस पुरुषार्थ को भूल गयी है। जब मैं इन मूर्तियों में बंधे रसिक जोड़ों को देखता हूँ तो मुझे याद आती है पसीने में नहाते हुए किसान की, कोसों तक धारा के विरुद्ध नौका खेने वाले मल्लाहों की, दिन-दिन भर कुल्हाड़ी लेकर खटने वाले लकड़हारे की… इसके बिना जीवन अधूरा है, आचार्य।
●धर्मपद का कथन- (चालुक्य के सम्बंध में) क्या हम लोग भेड़-बकरियाँ हैं जो चाहे जिसके हवाले कर दी जायँ? आज ही तो हमारे भाग्य का फैसला है। जिस सिंहासन को तुम आज डाँवाडोल कर रहे हो वह हमारे ही तो कंधों पर टिका है। क्या उस पर वह बैठेगा जिसके कारण सैकड़ों घर उजड़ चुके हैं, वह जिसने कोणार्क के सौंदर्य-निर्माता शिल्पियों की ठीकरों से तुच्छ मान ठुकराया? कलिंग हमारा है और उसके अधिपति हैं हमारे प्रजा-वत्सल नरेश श्री नरसिंहदेव।
●विशु का कथन- (अपने बेटे धर्मपद से)- तुम शिल्पी विशु के पुत्र हो, धर्मा! कोणार्क और किसी के स्पर्श से कैसे जग सकता था? जैसे मरुस्थल में कहीं निर्झरिणी सहसा गायब हो जाने पर भी अन्यत्र वह निकलती है वैसे ही मेरी भटकी हुई प्रतिभा तुम्हारे मन में विकस उठी धर्मा! सैकड़ों हजारों बरसों तक कोणार्क के उन्नत शिखर को देख कर लोग कहेंगे कि यह विशु और उसके बेटे की कला की सर्वोत्कृष्ट कृति है। मेरे जैसा भाग्यशाली पिता आज उत्कल में और कौन है?
●विशु का कथन- कैसा अपूर्व क्षण होगा वह! मेरी सारी साधना फलीभूत हो कर आह्लाद और उन्माद में निलय हो जाएगी, धरती और अम्बर मेरे उल्लास को संभाल न सकेंगे। कोणार्क का प्रत्येक पत्थर अनन्य रागिनी को प्रतिध्वनित करेगा और शिल्पी के गौरव के आगे सारे संसार की समृद्धि नत-मस्तक होगी…
●धर्मपद अपने पिता से- आर्य, मैं जानता हूँ- आप कायर नहीं है पर मेरा मोह आपको दुर्बल बना रहा है। आर्य, जाते-जाते आपको याद दिलाऊँ कि आप पिता होने के पूर्व शिल्पी हैं कारीगर हैं। आज शिल्पी पर अत्याचार का प्रहार हो रहा है। कला पर मदान्यता टूट पड़ी है। सौंदर्य को सत्ता पैरों तले रौंद रही है। और कोणार्क- आपका सुनहरा सपना, जिस घोंसले में आपके अरमानों का पंछी बसेरा लेने जा रहा था- वही कोणार्क, एक पामर, पापी, अत्याचारी के हाथ का खिलौना बन जायेगा। आतंक के हाथों में जकड़ी हुई कला सिसकेगी। वही कारीगर की सब से बड़ी हार होगी, सब से भारी हार।
●विशु सूर्य भगवान से कहता है- तुम, मेरे, सारे जगत के प्रतिपालक हो पर मैं यह कैसे भूल सकता हूँ कि मैं तुम्हारा निर्माता हूँ।