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◆लहरों के राजहंस (नाटक) – मोहन राकेश
●प्रकाशन-1968
●अंक- 3
◆कथावस्तु-
नाटक का मुख्य पात्र नंद है जो गौतम बुद्ध का सौतेला भाई था। यह नाटक उसी के मन के द्वंद्व के इर्द-गिर्द रचा गया है। एक तरफ वह बुद्ध से प्रभावित होकर भिक्षु बनना चाहता है। वहीं दूसरी तरफ अपनी पत्नी सुंदरी की ओर भी अनुरक्त है। जब वह सुंदरी के पास होता है तो आध्यात्मिक होना चाहता है लेकिन जब वह तथागत के नजदीक जाता है तो सांसारिक मोह से मुक्त नहीं हो पाता।नंद न तो सुंदरी को छोड़ सकता है और न ही बुद्ध के आकर्षण से मुक्त हो पाता है। नंद ‘आधुनिक व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। नंद किसी के बने-बनाये मार्ग को नहीं अपनाना चाहता। वह चाहे सुंदरी का आकर्षक देह हो या बुद्ध का निवृतिपरक बुद्ध दर्शन पर आधारित त्याग। वह स्वतंत्र मार्ग चाहता है और गौतम बुद्ध और सुंदरी से अलग होकर अपने अस्तित्व को पाना चाहता है।
●लहरों के राजहंस का कथा आधार ‘अश्वघोष’ का प्रसिद्ध महाकाव्य सौन्दरनन्द है।
●प्रस्तावना में मोहन राकेश लिखते हैं- कथा का आधार अश्वघोष का सौन्दरनन्द काव्य है। परंतु समय के विस्तार में स्थितियों का परिप्रेक्षण करने के कारण यह काल्पनिक भी है।
●आशा और आस्था से हताशा और अनास्था का स्वर प्रकट रूप से अधिक बलवान होता है।
●इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तित्व का आश्रय साहित्य को इतिहास नहीं बना देता। इतिहास तथ्यों का संकलन करता है, उन्हें एक समय तालिका में प्रस्तुत करता है। साहित्य का ऐसा उद्देश्य कभी नहीं रहा। इतिहास के रिक्त कोष्ठों की पूर्ति करना भी साहित्य का उपलब्धिक्षेत्र नहीं है। साहित्य इतिहास के समय से बंधता नहीं, समय में इतिहास का विस्तार करता है, युग से युग को अलग नहीं करता, कई-कई युगों को एक साथ जोड़ देता है।
●रूढ़िगत संस्कार ही जहाँ व्यक्ति का विवेक बन जाएं, वहाँ और आशा करना भी व्यर्थ है।
●बुद्ध का गौरव उसे अपनी ओर खींच रहा था, और सुंदरी का अनुराग अपनी ओर। इसी दुविधा में उससे न जाते बन रहा था न रुकते, उसकी स्थिति लहरों पर डोलते हुए राजहंस की-सी- हो रही थी।
●पात्र- श्वेतांग,श्यामांग (कर्मचारी), सुंदरी (नंद की पत्नी), अलका (दासी), शशांक (गृहाधिकारी), नंद (बुद्ध का सौतेला भाई), मैत्रेय (नंद का एक मित्र), निहारिका (दासी), भिक्षु आनंद (बुद्ध का शिष्य)
मुख्य अंश
●श्वेतांग का कथन- बिना चाहे तो मष्तिष्क सोचता ही रहता है। न सोचने के लिए वैसा चाहना पड़ता है प्रयत्न करना पड़ता है।
●सुंदरी का कथन- नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है, तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है।
●सुंदरी का कथन- लोग कहते हैं कि गौतम बुद्ध ने बोध प्राप्त किया है, कामनाओं को जीता है। पर मैं कहती हूं कि कामनाओं को जीता जाए, यह भी क्या मन की एक कामना नहीं है?
●सुंदरी का कथन- बहुत दिन एकतार जीवन बिताकर लोग अपने से ऊब जाते हैं। तब जहाँ कुछ भी नवीनता दिखाई दे, वे उसी ओर उमड़ पड़ते हैं। यह उत्साह दूधफेन का उबाल है। चार दिन रहेगा, फिर शांत हो जाएगा।
●सुंदरी का कथन- आत्मवंचना की भी एक सीमा होती है।
●सुंदरी का कथन- मैं अपनी आज की कामना कल के लिए टाल रखूँ… क्यों? मेरी कामना मेरे अंतर की है। मेरे अंतर में ही उसकी पूर्ति भी हो सकती है।
●सुंदरी का कथन- हर बीतता हुआ क्षण मेरे प्रयत्न का उपहास उड़ाता था, फिर भी मैं अपने अंदर के विरोध से लड़ती रही, मन के विद्रोह को किसी तरह समझाती रही। परंतु एक क्षण आया जब वह प्रयत्न मन से हार गया।
●नंद का कथन- मैं तुम्हारा या किसी और का विश्वास ओढ़कर नहीं जी सकता, नहीं जीना चाहता।
●नंद का कथन- इतना समझ आता है कि जिये जाने से जीवन धीरे-धीरे चुक जाता है। कि हर उन्मेष का परिणाम एक निमेष है और काल के विस्तार में निमेष और उन्मेष दोनों अस्थाई हैं।
●नंद का कथन- सुख सुख नहीं है, काई पर फिसलते हुए पाँव का एक स्पंदन-मात्र है, मात्र रेत में डूबती हुई बूंद की एक अकुलाहट…
●उन्होंने कहा, मैं मैं नहीं हूँ, तुम तुम नहीं हो, वह वह नहीं है… सब किसी उँगली से आकाश में बनाए गए चित्र हैं जो बनते-बनते साथ ही मिटते जाते हैं, जिनका होना न होने से भिन्न नहीं है।
●सुंदरी का कथन- नहीं… किसी की समझ में नहीं आता… पत्थर…पानी में पत्थर मैंने नहीं फेंके… जिसने पत्थर फेंके वह भी… वह भी वही छाया थी… यह अँधेरा… यह अँधेरा मुझसे नहीं ओढ़ा जाता… मुझे एक किरण ला दो… एक किरण…।