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एक कहानी यह भी : मन्नु भंडारी : मुख्य अंश

एक कहानी यह भी : मन्नु भंडारी : मुख्य अंश

मुख्य अंश


●हर कथाकार अपनी रचनाओं में भी दूसरों के बहाने से कहीं न कहीं अपनी ज़िंदगी के, अपने अनुभव के टुकड़े ही तो बिखेरता रहता है।
●जो कुछ मैंने देखा, जाना, अनुभव किया, शब्दशः उसी का लेखा-जोखा है यह कहानी।
●कोई भी लेखक न तो संपर्क-सम्बन्धविहीन हो सकता है, न परिवेश-निरपेक्ष।
●मैंने न तो इसमें वर्णित तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की है, न अपनी किसी दुर्भावना के चलते उन्हें विकृत करने की। जो कुछ लिखा, एक आवेगहीन तटस्थता के साथ ही लिखा है।

●बहस करने की फ़ितरत तो घुट्टी में मिली थी हमें।
●पिता, वात्सल्य से भरे पिता। एक ही आदमी के कितने-कितने रूप होते हैं, यह मैंने तभी जाना था।
●अपने हाथ खर्च के पैसों से जो पहली दो पुस्तकें मैंने खरीदी थीं- वे दादा कॉमरेड और पार्टी कॉमरेड ही थीं।
●जब रगों में लहू की जगह लावा बहता हो तो सारे निषेध,सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है।
●शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि- 15 अगस्त, 1947
●अपनी मिट्टी को छोड़कर कोई रह सकता है क्या…अपनी माँ को छोड़कर कोई रह सकता है क्या? – (एक मुस्लिम बाबा का कथन जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे। और दुबारा लौटने पर यह कहा था)
●बिना तटस्थता के क़लम उठाना लेखकीय कर्म के प्रति बेईमानी होती।
●बालीगंज शिक्षा सदन में मन्नु भंडारी ने अपनी पहली कहानी लिखी।
●स्वीकृति की सान पर चढ़कर ही शायद आत्मविश्वास को ऐसी धार मिलती है।
●भैरवप्रसाद गुप्त ने मन्नु भंडारी की शादी के बाद कहा- मन्नु भंडारी मेरी खोज है और राजेंद्र यादव की प्राप्ति।
●मन्नु भंडारी की दो कहानी जो ‘कहानी’ पत्रिका में छपी उसमें उनका चित्र नहीं था। जिस कारण उनके पास दो पत्र ऐसे आये जिसमें ‘प्रिय भाई’ लिखा हुआ सम्बोधन था। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- प्रशंसा लड़की होने के नाते रिआयती बिल्कुल नहीं है…
●सहज रचनात्मकता के लिए एक नौसिखियापन, एक ख़ास तरह की अबोधता सहायक होती है। शायद जरूरी भी।
●वैधव्य आरम्भिक दुख के बाद एक स्वीकृत सत्य हो जाता है और उसकी यातना कम हो जाती है। पर परित्यक्ता का दुख… पति है पर साथ नहीं रखता तो इसमें अकेलेपन के साथ अपमान का दंश और जुड़ जाता है।
●घटी हुई घटना यदि एक वास्तविक ब्यौरा-भर है तो कहानी
उसी घटना पर आधारित एक कलात्मक-सृजन।
●हर सफल कहानी किसी कलाविहीन ब्यौरे की कलात्मक प्रस्तुति मात्र ही नहीं होती बल्कि उसके साथ जीवन के किसी पक्ष का समग्र-सत्य भी उजागर करती है, यही कहानी की सफलता है… उसकी सार्थकता है।
●पाठक-निरपेक्ष लेखकों का एक वर्ग है हमारे यहाँ जिसकी मान्यता है कि पाठकों की सीमित संख्या ही रचना की उत्कृष्टता का पैमाना है।
●मैं नहीं सोचती कि लोकप्रियता कभी भी रचना का मानक बन सकती है।
●एक ही पेशे के दो लोगों का साथ जहाँ कई सुविधाएँ जुटाता है, वहीं दिक्कतों का अंबार भी लगा देता है।
●लेखक तो मूल्यों की वकालत करता है।
●और फिर रचना का क्षेत्र कोई रेसकोर्स तो है नहीं जहाँ घुड़दौड़ या बच्चों की दौड़ होती हो और पहला,दूसरा,तीसरा स्थान तय होता हो।
●यह सच है कि मैं किसी पंथ से न तब जुड़ी थी, न बाद में… मेरा जुड़ाव अगर रहा है तो अपने देश से… चारों ओर फैली-बिखरी ज़िन्दगी से जिसे मैंने नंगी आँखों से ही देखा है , बिना किसी वाद का चश्मा लगाए और मेरी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं।
●योग्यता, प्रतिभा, क्षमता के बावजूद, हाशिये में पड़ा (कुछ समय के लिए ही सही) आदमी सारे प्रयत्न करके भी पिछड़ जाने के दंश से उपजी अपनी जिन गाँठों को नहीं खोल पाता, सफलता का स्पर्श कैसे अनायास ही उन्हें खोलता चलता है…
●माँ अगर बच्चे को रखे तो माँ और अगर बाप बच्चे को रखे तो वह बाप न होकर आया (नौकर) कैसे हो गया? (राजेन्द्र यादव जब बच्चे को संभालने में आनाकानी कर रहे थे तब का प्रसंग है यह)
●प्यार का एक भार भी होता है,एक दायित्व भी होता है।
●गलत का केवल विरोध करने भर से जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती, उससे असहयोग करना भी जरूरी है।
●एक ही क्षेत्र में बराबरी की टक्कर के साहित्यकार क्या दूर रहकर पास बने रह सकते हैं। (राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश के टूटते सम्बन्ध के प्रसंग में है)
●राजनीति की शतरंज पर आम आदमी तो शुरू से ही मात्र मोहरा भर रहा है।
●अर्चना वर्मा, मन्नु भंडारी से कहती है- मन्नु जी, आप और सब लिखना छोड़कर केवल नाटक लिखिए…
●साहित्य से जुड़ा होना भी कभी-कभी संकटमोचक बन जाता है।
●यो साइंस का विद्यार्थी पर उसके बावजूद मेरी लिखी चीजें पढ़ता ही नहीं, उन पर कभी-कभी सुझाव भी देता था।
●अजीब विडम्बना ही है यह मेरे जीवन की कि घर के रोजमर्रा के कामों में न मेरी कभी कोई दिलचस्पी रही, न नियमित रूप से मैंने उन्हें कभी किया पर मानसिकता शायद मेरी घरेलू औरत की ही है।
●पर प्रश्न तो यह उठता है कि भिंडरावाला को अकालियों के ख़िलाफ़ तैयार किसने किया था? इंदिरा जी ने ही तो। और यह सारा खेल राजनीति का है… कुछ लोग जिसके शिकार होते हैं और मारे जाते हैं हज़ारों-हज़ार निहायत निरीह,निर्दोष और बेगुनाह लोग।
●शत्रु को परास्त करने के लिए चली राजनीति की यह चाल जब उल्टी पड़ जाती है तो उलटकर यह आपको धराशायी कर देती है।
●अक्षर प्रकाशन से राजेन्द्र यादव के सम्पादन में हंस का पहला अंक प्रकाशित हुआ अगस्त सन 1986 में।
●सख़्त भाषा का भी एक लेखकीय संयम होता है।
●एक भविष्यहीन ज़िन्दगी अपने अतीत के उजले-धुँधले पक्षों के साथ ही तो लिपटती-चिपटती रहेगी।
●आदमी यदि निरंतर लिखता रहे तो कितनी आपदाओं-विपदाओं को सहज ही दरकिनार कर सकता है।
●निष्क्रिय मन के चलते तो छोटी-छोटी बातें भी आपके लिए असह्य हो जाती है।
●मैं नास्तिक नहीं हूँ – गहरी आस्था है मेरी भगवान में, पर उसके बावज़ूद मंदिरों या तीर्थ-स्थानों में जाने में मेरी न कभी रुचि रही, न संस्कार।
●कहाँ रखा है पैसे में वह संतोष… वह सुखद अनुभूति जो कुछ भी रचते समय अपने भीतर जागती है।
●चार पन्ने काले किए नहीं और छपास छूटने लगती है। (नए लेखकों के संदर्भ में)
●सामान्य का सम्बंध उम्र से नहीं, किसी के व्यक्तित्व की। बनावट से होता है?
●कितना जरूरी होता है आदमी के लिए नितांत अपना साथ… (राजेन्द्र यादव से अलग होने के बाद मन्नु भंडारी जब अकेले रहने लगी तब का प्रसंग है यह)
●प्रत्येक व्यक्ति की ज़िंदगी में अपने अन्तरंग सम्बंधों के कुछ निजी पन्ने होते हैं- इतने निजी कि उनकी यह निजता ही उन्हें जग-ज़ाहिर करने में बाधक बन जाती है।
●औरत के मन में एक बार यदि संदेह के अंकुर उग आएँ तो फिर कोई भी रहस्य बहुत दिनों तक रहस्य नहीं बना रह सकता।
●प्रभुत्व केवल उसी का हो सकता है जो परिवार का भरण-पोषण करे…