hello@mukhyansh.com

आधुनिक काल :आचार्य रामचंद्र शुक्ल: मुख्य अंश

आधुनिक काल :आचार्य रामचंद्र शुक्ल: मुख्य अंश

आधुनिक काल(संवत् 1900-1925)– प्रकरण-1,सामान्य परिचय:गद्य का विकास

●श्री बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने- श्रृंगार रस मंडन ग्रंथ (ब्रजभाषा) लिखा है ।

● श्रृंगार रस मंडन के पीछे दो सांप्रदायिक ग्रंथ लिखे गए जो बड़े भी हैं और जिनकी भाषा भी व्यवस्थित और चलती है । बल्लभ संप्रदाय में इनका अच्छा प्रसार है । इनके नाम हैं – चौरासी वैष्णवों की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता । इनमें से प्रथम आचार्य श्री बलभयचार्य जी के पौत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथ जी की लिखी कही जाती है ।

●’दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता’ तो और भी पीछे औरंगजेब के समय के लगभग लिखी प्रतीत होती है। इन वार्ताओं की कथाएँ बोलचाल की ब्रजभाषा में लिखी गयी हैं जिसमें कहीं-कहीं बहुत प्रचलित अरबी और फारसी शब्द भी निस्संकोच रखे गये हैं।

●नाभादास ने 1603 के आसपास ‘अष्टयाम’ नामक एक पुस्तक ब्रजभाषा में लिखी जिसमें भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है।

●वैकुंठ मणि शुक्ल ने संवत 1680 में ब्रजभाषा गद्य में ‘अगहन माहात्म्य’ और ‘वैशाख माहात्म्य’ नाम की दो छोटी-छोटी पुस्तके लिखी।

【ब्रजभाषा गद्य में लिखा एक ‘नचिकेतोपाख्यान’ मिला है, जिसके2 कर्ता का नाम ज्ञात नहीं】

●सूरति मिश्र- इन्होंने संवत् 1767 में संस्कृत से कथा लेकर बैतालपचीसी लिखी, जिसको आगे चलकर लल्लूलाल ने खड़ी बोली हिंदुस्तानी में किया। जयपुर-नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से लाला हीरालाल ने संवत् 1852 में ‘आईने अकबरी की भाषा वचनिका’ नाम की एक बड़ी पुस्तक लिखी।

●जानकीप्रसाद की रामचंद्रिका की टीका

●सरदार कवि अभी हाल में हुए हैं। कविप्रिया, रसिकप्रिया, सतसई आदि की उनकी टीकाओं की भाषा और भी अनगढ़ और असंबद्ध है।

●जिस समय गद्य के लिए खड़ी बोली उठ खड़ी हुई उस समय तक गद्य का विकास नहीं हुआ था, उसका कोई साहित्य नहीं खड़ा हुआ था, इसी से खड़ी बोली के ग्रहण में कोई संकोच नहीं हुआ।

●देश के भिन्न-भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी।

●औरंगजेब के समय से फारसी मिश्रित खड़ी बोली या रेख़्ता में शायरी भी शुरू हो गई और उसका प्रचार फारसी पढ़े-लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया।इस प्रकार खड़ी बोली को लेकर उर्दू साहित्य खड़ा हुआ, जिसमें आगे चलकर विदेशी भाषा के शब्दों का मेल भी बराबर बढ़ता गया और जिसका आदर्श भी विदेशी होता गया।

◆खड़ी बोली का गद्य-

●औरंगजेब के समय से फारसी मिश्रित खड़ी बोली या रेख़्ता में शायरी भी शुरू हो गयी और उसका प्रचार फारसी पढ़े-लिखे लोगों में बराबर बढ़ता गया।

●अंत: कुछ लोगों का यह कहना या समझना कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में आयी और उसका मूल रूप उर्दू है जिससे आधुनिक हिंदी गद्य की भाषा अरबी-फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गयी,शुद्ध भ्रम और अज्ञान है।

●पर किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था।

●अकबर के समय में गंग कवि ने चंद छंद बरनन की महिमा नामक एक गद्य पुस्तक खड़ी बोली में लिखी थी।

●विक्रम संवत् 1798 में रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवसिष्ठ’ नाम का ग्रंथ साफ-सुथरी खड़ी-बोली में लिखा।

●अतः: जब तक और कोई पुस्तक इससे पुरानी न मिले तब तक इसी को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और रामप्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक मान सकते हैं।

●बसवा (मध्यप्रदेश) निवासी पं. दौलतराम, ने हरिषेणाचार्य कृत ‘जैन पद्मपुराण’ का भाषानुवाद किया जो 700 पृष्ठों से ऊपर का एक बड़ा ग्रंथ है। भाषा इसकी उपर्युक्त ‘भाषा योगवासिष्ठ’ के समान परिमार्जित नहीं है, पर इस बात का पूरा पता देती है कि फारसी उर्दू से कोई संपर्क न रखनेवाली अधिकांश शिष्ट जनता के बीच खड़ी बोली किसी स्वाभाविक रूप में प्रचलित थी।

●खुसरो की-सी पहेलियाँ दिल्ली के आसपास प्रचलित थीं जिनके नमूने पर खुसरो ने अपनी पहेलियाँ या मुकरियाँ कहीं। हाँ, फारसी पद्य में खड़ी बोली को ढालने का प्रयत्न प्रथम कहा जा सकता है।

●जिस समय अंगरेजी राज्य भारत में प्रतिष्ठित हुआ उस समय सारे उत्तरी भारत में खड़ी बोली व्यवहार की शिष्ट भाषा हो चुकी थी। जिस प्रकार उसके उर्दू कहलाने वाले कृत्रिम रूप का व्यवहार मौलवी मुंशी आसि फारसी तालीम पाये हुए कुछ लोग करते थे उसी प्रकार उसके असली स्वाभाविक रूप का व्यवहार हिंदू, साधु, पं., महाजन आदि अपने शिष्ट भाषण में करते थे।

●रीतिकाल के समाप्त होते-होते अँगरेजों का राज्य देश में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था।

●अतः यह कहने की गुंजाइश अब जरा भी नहीं रही कि खड़ी बोली गद्य की परंपरा अंग्रेजी की प्रेरणा से चली।

●जब संवत 1860 में फोर्ट विलियम कॉलेज (कलकत्ता) के हिंदी-उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों के लिए अलग-अलग प्रबंध किया।

◆मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’

●इनका दो ग्रंथ हैं- सुख सागर, मुंतखबुत्तवारिख

●अपनी ‘मुंतखबुत्तवारीख’ में अपने संबंध में इन्होंने जो कुछ लिखा है उससे पता चलता है कि 65 वर्ष की अवस्था में ये नौकरी छोड़कर प्रयाग चले गये और अपनी शेष आयु वहीं हरिभजन में बितायी ।

●वे एक भगवद्भक्त आदमी थे।

●अपने समय में उन्होंने हिंदुओं की बोलचाल की जो शिष्ट भाषा चारों ओर-पूरबी प्रांतों में भी -प्रचलित पायी उसी में रचना की। स्थान-स्थान पर उसके भावी साहित्यिक रूप का पूर्ण आभास दिया। शुद्ध तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग करके उन्होने के यद्यपि वे खास दिल्ली के रहने वाले अलैज बान थे पर उन्होंने अपने हिंदी गद्य में कथावाचकों, पंडितों और साधु-संतों के बीच दूर-दूर तक प्रचलित खड़ी बोली का रूप रखा, जिसमें संस्कृत शब्दों का पुट भी बराबर रहता था। इसी संस्कृतमिश्रित हिंदी को उर्दूवाले ‘भाषा’ कहते थे जिसका चलन उर्दू के कारण कम होते देख मुंशी सदासुख ने इस प्रकार खेद प्रकट किया था-

“रस्मो-रिवाज भाखा का दुनिया से उठ गया।

सारांश यह कि मुंशी जी ने हिंदुओं की शिष्ट बोलचाल की भाषा ग्रहण की, उर्दू से अपनी भाषा नहीं ली।

◆इंशाअल्ला खान 

●उर्दू के बहुत प्रसिद्ध शायर थे जो दिल्ली के उजड़ने पर लखनऊ चले आये थे।

●इनके पिता मीर माशाअल्ला खाँ कश्मीर से दिल्ली आये थे जहाँ वे शाही हकीम हो गये थे। मुगल सम्राट की अवस्था बहुत गिर जाने पर हकीम साहब मुर्शिदाबाद के नवाब के यहाँ चले गये थे। मुर्शिदाबाद ही में इंशा का उज्म हुआ। जब बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला मारे गये और बंगाल में अंधेर मचा तब इंशा, जो पढ़-लिख कर अच्छे विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि हो चुके थे, दिल्ली चले आये और शाहआलम दूसरे के दरबार में रहने लगे। वहाँ जब तक रहे अपनी अद्भुत प्रतिभा के बल से अपने विरोधी, बड़े-बड़े नामी शायरों को ये बराबर नीचा दिखाते रहे। जब गुलाम कादिर बादशाह को अंधा करके शाही खजाना लूटकर चल दिया तब इंशा का निर्वाह दिल्ली में कठिन हो गया और वे लखनऊ चले आये। जब संवत् 1855 में नवाब सआदतअली खाँ गद्दी पर बैठे तब ये उनके दरबार में आने-जाने लगे। बहुत दिनों तक इनकी बड़ी प्रतिष्ठा रही पर अंत में एक दिल्लगी की बात पर इनका वेतन आदि सब बंद हो गया था और इनके जीवन का अंतिम भाग बड़े कष्ट में बीता।

●इन्होंने ‘उदयभानचरित’ या ‘रानी केतकी की कहानी’ संवत1855 और 1860 के बीच लिखी होगी।

कहानी लिखने का कारण इंशा साहब यों लिखते हैं- एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जा के मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो।…

●इंशा का उद्देश्य ठेठ हिंदी लिखने का था जिसमें हिंदी को छोड़कर और किसी बोली का पुट न रहे।

●जिस प्रकार वे अपनी अरबी-फारसी मिली हिंदी को ही उर्दू कहते थे उसी प्रकार संस्कृत मिली हिंदी को ‘भाखा’ ।

●’खड़ी बोली पद्य’ का झंडा लेकर घूमने वाले स्वर्गीय बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री चारों ओर घूम-घूमकर कहा करते थे कि अभी हिंदी में कविता हुई कहां, सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है वह तो ‘भाखा’ है ‘हिंदी’ नहीं।संभव है इस सड़े-गले ख्याल को लिये अब भी कुछ लोग पड़े हो।

●इंशा ने अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखने की प्रतिज्ञा की है– बाहर की बोली=अरबी, फारसी, तुर्की।गँवारी= ब्रजभाषा, अवधी आदि।भाखापन=  संस्कृत के शब्दों का मेल।

●आरंभ के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली,मुहावरेदार और चलती है।

◆लल्लूलाल जी 

●यह आगरा के रहने वाले गुजराती ब्राह्मण थे।

●संवत 1860 में कलकत्ता के फोर्टविलियम कॉलेज के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में ‘प्रेमसागर’ लिखा जिसमें भागवत दशमस्कंध की कथा वर्णन की गयी।

●मुझे एक पंडित जी का स्मरण है जो ‘लाल’ शब्द तो बराबर बोलते थे, पर कलेजा’ और ‘बैगन’ शब्दों को म्लेच्छ भाषा के समझ बचाते थे। लल्लूलाल जी अनजान में कहीं-कहीं ऐसे शब्द लिख गये हैं जो फारसी या तुरकी के हैं। जैसे ‘बैरख’ शब्द तुरकी का ‘बैरक’

है, जिसका अर्थ झंडा है। प्रेमसागर में यह शब्द आया है देखिए-

“शिवजी के एक ध्वजा बाणासुर को दे के कहा इस बैरख को ले जाय।”

●मुंशी जी की भाषा साफ-सुथरी खड़ी बोली है पर लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की- सी  ब्रजरंजित  खड़ी बोली है।

●अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी।

●भाषा की सजावट भी प्रेमसागर में पूरी है।

●सारांश यह है कि लल्लूलाल की काव्यभाषा गद्यभक्तों की कथावार्ता के काम का ही अधिकतर है, न नित्य व्यवहार के अनुकूल है,न संबद्ध विचारधारा के योग।

लल्लूलाल ने उर्दू, खड़ी बोली हिंदी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। ये संस्कृत नहीं जानते थे। ब्रजभाषा में लिखी हुई कथाओं और कहानियों को उर्दू और हिंदी गद्य में लिखने के लिए इनसे कहा गया था जिसके अनुसार इन्होंने सिंहासनबत्तीसी, बैतालपचीसी, शकुंतला नाटक, माधोनल और प्रेमसागर लिखे । प्रेमसागर के पहले ही चारों पुस्तकें बिलकुल उर्दू में हैं। इनके अतिरिक्त संवत् 1869 में इन्होंने ‘राजनीति’ नाम से हितोपदेश की कहानियाँ (जो पद्य में लिखी जा चुकी थीं) ब्रजभाषा गद्य में लिखी। माधवविलास और सभाविलास’ नाम से ब्रजभाषा पद्य के संग्रह ग्रंथ भी इन्होंने प्रकाशित किये थे। इनकी ‘लालचंद्रिका’ नाम की बिहारी सतसई की टीका भी प्रसिद्ध है।

●इन्होंने अपना एक निज का प्रेस कलकत्ता में (पटलडाँगे) में खोला था जिसे ये सं. 1881 में फोर्टविलियम कॉलेज की नौकरी में पेंशन लेने पर, आगरे लेते गये। आगरे में प्रेस जमाकर ये एक बार फिर कलकत्ता गये जहाँ इनकी मृत्यु हुई। अपने प्रेस का नाम इन्होंने ‘संस्कृत प्रेस’ रखा था, जिसमें अपनी पुस्तकों के अतिरिक्त ये रामायण आदि पुरानी पोथियाँ भी छापा करते थे।

◆सदल मिश्र 

●ये बिहार के रहने वाले थे।फ़ोर्टविलियम कॉलेज में काम करते थे।

‌●लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान-स्थान पर समावेश।इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहां तक हो सकता है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है

●पर इनकी भाषा भी साफ-सुथरी नहीं। ब्रजभाषा के कुछ रूप हैं और पूर्वी बोली के शब्द तो स्थान-स्थान पर मिलते हैं।

●गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपयुक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिंदी का पूरा- पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है।व्यवहारोपयोगी इन्हीं की, भाषा ठहरती है।

●संवत 1860 और 1915 के बीच का काल गद्यरचना की दृष्टि से प्रायः शून्य ही मिलता है।

●संवत 1914 के बलवे के पीछे ही हिंदी गद्य साहित्य की परंपरा अच्छी तरह चली।

●सिरामपुर उस समय पादरियों का अड्डा था।विलियम केरे (William Carey) तथा और कई अँगरेज पादरियों के उद्योग से इंजील का अनुवाद उत्तर भारत की कई भाषाओं में हुआ। कहा जाता है कि बाइबिल का हिंदी अनुवाद स्वयं केरे साहबौने किया। संवत् 1866 में उन्होंने ‘नये धर्म नियम’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया और संवत् 1875) में समग्र ईसाई धर्म पुस्तक का अनुवाद पूरा हुआ।

●इसके आगे ईसाइयों की पुस्तकें और पंफलेट बराबर निकलते रहे। उक्त ‘सिरामपुर प्रेस’ से संवत् 1893 में ‘दाऊद के गीतें’ नाम की पुस्तक छपी जिसकी भाषा में कुछ फारसी-अरबी के बहुत चलते शब्द भी रखे मिलते हैं।

●शिक्षा संबधिनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए संवत् 1890 के लगभग आगरा में पादरियों की एक स्कूल बुक सोसाइटी’ स्थापित हुई थी जिसमें सं 1894 में इंग्लैंड के एक इतिहास का और संवत् 1896 में मार्शमैन साहब के ‘प्राचीन इतिहास का अनुवाद’, ‘कथासार’, के नाम से प्रकाशित किया। ‘कथासार’ के लेखक या अनुवादक पं. रतनलाल थे। इसके संपादक पादरी मूर साहब (j.j. Moore) ने अपने छोटे से अँगरेज वक्तव्य में लिखा था कि यदि सर्वसाधारण से इस पुस्तक को प्रोत्साहन मिला तो इसका दूसरा भाग ‘वर्तमान इतिहास’ भी प्रकाशित किया जायेगा।

●आगरा की उक्त सोसाइटी के लिए संवत् 1897 में पं. भट्ट ने ‘भूगोल-सार’ और संवत् 1904 में पं. बद्रीलाल शर्मा ने रसायन प्रकाश लिखा।कलकत्ता में भी ऐसी ही एक स्कूल बुक सोसाइटी थी जिसने ‘पदार्थ विद्यासागर’ (संवत् 1903) आदि कई वैज्ञानिक पुस्तकें निकाली थीं। इसी प्रकार कुछ रीडरें भी मिशनरियों के छापेखाने से निकली थीं-जैसे ‘आजमगढ़ रीडर’ जो इलाहाबाद मिशन प्रेस से संवत् 1897 में प्रकाशित हुई थी।

●बलवे के कुछ पहले ही मिर्जापुर में ईसाइयों का एक ‘आरफन प्रेस’ खुला था जिससे शिक्षा संवर्धिनी कई पुस्तकें शेरिफ साहब के संपादन में निकली थीं, जैसे भूचरित्र दर्पण, भूगोल विद्या, मनोरंजक वृत्तांत, जंतुप्रबंध, विद्यासागर, विद्वान् संग्रह।

●मुंशी सदासुखलाल ने लेखनी भी इन चारों से पहले उठायी। अतः गद्य का प्रवर्तन करने वालो में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।

●ईसाइयों ने अपने धर्मपुस्तक के अनुवाद की भाषा में फारसी और अरबी के शब्द जहां तक हो सका है नहीं लिये हैं और ठेठ ग्रामीण शब्द तक बेधड़क रखे गये हैं। उनकी भाषा सदासुख और लल्लूलाल के ही नमूने पर चली है।

●हिंदी गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा है। शिक्षा संवर्धिनी पुस्तकें तो पहले पहल उन्होंने तैयार की। इन बातों के लिए हिंदी प्रेमी उनके सदा कृतज्ञ रहेंगे।

●राजा राममोहन राय ने 1815 में वेदांत सूत्रों के भाष्य का हिंदी अनुवाद करके प्रकाशित कराया था। 1829 में उन्होंने ‘बंगदूत’ नाम का एक संवाद पत्र भी हिंदी में निकाला।

●पंडित जुगलकिशोर ने, जो कानपुर के रहने वाले थे, संवत 1883 सी में ‘उदंत मार्तंड’ नाम का एक संवाद,- पत्र निकाला जिसे हिंदी का पहला समाचार-पत्र समझना चाहिए।

●मैकाले ने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा का इतने जोरों के साथ समर्थन किया और पूर्वी साहित्य के प्रति ऐसी उपेक्षा प्रकट की कि अंत में संवत 1892 में कंपनी की सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव  पास कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी के स्कूल खुलने लगें।

●मुगलों के समय में अदालती कार्यवाइयां और दफ्तर के सारे काम फारसी भाषा में होते थे जब अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ तब उन्होंने भी दफ्तरों में वही परंपरा जारी रखी।

●’गार्सा द तासी’ एक फ़्रांसीसी विद्वान थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे।उन्होंने संवत 1896 में ‘हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास’ लिखा था जिसमें उर्दू के कवियों के साथ हिंदी के भी कुछ विद्वान कवियों का उल्लेख था।

●गार्सा द तासी आगे चलकर, आगे चलकर मजहबी कट्टरपन की प्रेरणा से, सर सैयद अहमद,की भरपेट तारीफ करके हिंदी के संबंध में फरमाते हैं–

●इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली की-सी रह गयी है, जो हर गांव में अलग-अलग ढंग से बोली जाती है।”

प्रकरण-2- गद्य साहित्य का आविर्भाव

●संवत 1913 में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। उस समय और दूसरे विभागों के समान शिक्षाविभाग में भी मुसलमानों का जोर था जिसके मन में ‘भाखापन’ का डर बराबर समाया रहता था।वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिए ‘भाखा’ संस्कृत से लगाव रखने वाले हिंदी न सीखनी पड़े।

●पंडित वंशीधर ने, जो आगरा नार्मल स्कूल के मुदर्रिस   थे, हिंदी-उर्दू का एक पत्र निकाला था जिसके हिंदी कॉलम का नाम ‘भारतखंडामृत’ और उर्दू कॉलम का नाम ‘आबेहयात’ था।

●पंडित श्री लाल ने, संवत् 1909 में ‘पत्रमालिका’ बनायी। गार्सा द तासी ने इन्हें कई पुस्तकों का लेखक कहा है।

●प्रारंभ में राजा साहब ने जो पुस्तके लिखी,वे बहुत ही चलती सरल हिंदी में थी,उसमे उर्दूपन नही भरा था जो उनकी पिछली किताबों में दिखाई पड़ता है।

●अपने ‘मनावधर्मसार’ की भाषा उन्होंने उन्होंने अधिक संस्कृतगर्भित रखी है।

●’मानवधर्मसार’ की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं। प्रारंभ काल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिंदी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो।

●किसी देश का साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होती है।अतः साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती।

●संवत् 1918 में ‘प्रजाहितैषी’ नाम का एक पत्र आगरा से निकला और 1919 में ‘अभिज्ञान शकुंतलम’ का अनुवाद बहुत ही सरल और विशुद्ध हिंदी में प्रकाशित किया।

●संवत् 1920 में ‘लोकमित्र’ नाम का एक एक का एक एक’ नाम का एक एक का एक पत्र ईसाईधर्म प्रचार के लिए आगरा से निकला था जिसकी भाषा शुद्ध हिंदी होती थी। लखनऊ से जो ‘अवध अखबार’ (उर्दू) निकलने लगा था उसके कुछ भाग में हिंदी के लेख भी रहते थे।

●संवत् 1924 में उनकी ‘ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका’ निकली जिसमें शिक्षासंबंधी तथा साधारण ज्ञान विज्ञानपूर्ण लेख भी रहा करते थे।यहां पर यह कह देना आवश्यक है कि शिक्षा विभाग द्वारा जिस हिंदी गद्य के प्रचार में ये सहायक हुए वह शुद्ध हिंदी गद्य था। हिंदी को उर्दू के झमेले में पड़ने से ये सदा बचाते रहे।

●राजा साहब (शिव प्रसाद सिंह) ने पाठयक्रम में उपयोगी कई कहानियाँ आदि लिखीं , जैसे राजा भोज का सपना, वीर सिंह का वृत्तांत, आलसियों को कोड़ा इत्यादि।

●पं. वंशीधार की लिखी पुस्तकों के नाम ये हैं- 1. पुष्पवाटिका (गुलिस्ताँ के एक अंग का अनुवाद, संवत् 1909), 2. भारतवर्षीय इतिहास (संवत् 1913) 3. जीविका परिपाटी (अर्थशास्त्र की पुस्तक, संवत् 1913), 4. जगत् वृत्तांत (संवत् 1915)।

●पं. श्रीलाल ने, संवत् 1909 में ‘पत्रमालिका’ बनाई। गार्सां द तासी ने इन्हें कई पुस्तकों का लेखक कहा है।

●बिहारीलाल ने गुलिस्ताँ के आठवें अध्याय का हिन्दी अनुवाद संवत् 1919 में किया।

●पं. बद्रीलाल ने डॉ. बैलंटाइन के परामर्श के अनुसार संवत् 1919 में ‘हितोपदेश’ का अनुवाद किया जिसमें बहुत सी कथाएँ छाँट दी गई थीं। उसी वर्ष ‘सिध्दांतसंग्रह’ (न्यायशास्त्र) और ‘उपदेश पुष्पावती’ नाम की दो पुस्तकें और निकली थीं।

●’इतिहासतिमिरनाशक’ भाग-2 की अंग्रेजी भूमिका में, जो संवत् 1864 की लिखी है, राजा साहब ने साफ लिखा है कि मैंने ‘बैताल पचीसी’ की भाषा का अनुसरण किया है।

●’आईन सौदागरी’ उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिंकाट साहब करते थे।

●पहले कहा जा चुका है कि शिवप्रसाद ने उर्दू की ओर झुकाव हो जाने पर भी साहित्य की पाठयपुस्तक ‘गुटका’ में भाषा का आदर्श हिन्दी ही रखा। उक्त गुटका में उन्होंने ‘राजा भोज का सपना’, ‘रानी केतकी की कहानी’ के साथ ही राजा लक्ष्मणसिंह के ‘शकुंतला नाटक’ का भी बहुत सा अंश रखा। पहला गुटका शायद संवत् 1924 में प्रकाशित हुआ था।

●जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में रहकर हिन्दी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे, उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे। संवत् 1920 और 1937 के बीच नवीन बाबू ने भिन्नभिन्न विषयों की बहुत सी हिन्दी पुस्तकें तैयार कीं और दूसरों से तैयार कराईं। ये पुस्तकें बहुत दिनों तक वहाँ कोर्स में रहीं। पंजाब में स्त्री शिक्षा का प्रचार करनेवालों में ये मुख्य थे। शिक्षा प्रचार के साथ साथ समाज सुधार आदि के उद्योग में भी बराबर रहा करते थे।

●दयानंद सरस्वती ने अपना ‘सत्यार्थप्रकाश’ तो हिंदी या आर्यभाषा में प्रकाशित ही किया, वेदों  के भाष्य भी संस्कृत और हिंदी दोनों में किये।

●स्वामी जी ने ने संवत् 1922 में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और सब आर्यसमाजियों के लिए हिंदी और आर्यभाषा का पढ़ना आवश्यक ठहराया।

●संवत् 1910 के लगभग ही विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान श्रद्धाराम फिल्लौरी के व्याख्यानों और कथाओं की धूम पंजाब में आरंभ हुई।

●सर सैयद अहमद का अंग्रेज अधिकारियों पर कितना प्रभाव था, यह पहले कहा जा चुका है। संवत् 1925 में इस प्रांत के शिक्षा विभाग के अध्यक्ष हैवेल साहब ने यह जाहिर की कि- ‘यह अधिक अच्छा होता यदि हिंदू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी ‘बोली’ में विचार प्रकट करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।

●पं. श्रद्धाराम जी कुछ पद्यरचना भी करते थे। हिन्दी गद्य में तो उन्होंने बहुत कुछ लिखा और वे हिन्दी भाषा के प्रचार में बराबर लगे रहे। संवत् 1924 में उन्होंने ‘आत्मचिकित्सा’ नाम की एक अध्यात्म संबंधी पुस्तक लिखी जिसे संवत् 1928 में हिन्दी में अनुवाद करके छपाया। इसके पीछे ‘तत्वदीपक’, ‘धर्मरक्षा’, ‘उपदेश संग्रह’, (व्याख्यानों का संग्रह), ‘शतोपदेश’ (दोहे) इत्यादि धर्मसंबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने अपना एक बड़ा जीवनचरित (1400 पृष्ठों के लगभग) लिखा था जो कहीं खो गया। ‘भाग्यवती’ नाम का एक सामाजिक उपन्यास भी संवत् 1934 में उन्होंने लिखा, जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई।

●अपने समय के वे सच्चे हितैषी सच्चे हितैषी और सिद्धहस्त लेखक थे। संवत् 1938 में उनकी मृत्यु हुई। जिस दिन उनका देहांत हुआ उस दिन उनके मुंह से सहसा निकला कि ‘भारत में भाषा के दो लेखक हैं– एक काशी में, दूसरा पंजाब में ।परंतु आज एक ही रह जाएगा।कहने की आवश्यकता नहीं कि काशी के लेखक से अभिप्राय हरिश्चंद्र से था।

●देशभाषा के साहित्य को उत्तराधिकार में जिस प्रकार संस्कृत साहित्य के कुछ संचित शब्द मिले हैं उसी प्रकार विचार और भावनाएँ भी मिली हैं। विचार और वाणी की इस धारा से हिन्दी अपने को विच्छिन्न कैसे कर सकती थी?

●राजा लक्ष्मण सिंह के समय में ही हिन्दी गद्य की भाषा अपने भावी रूप का आभास दे चुकी थी। अब आवश्यकता ऐसे शक्तिसम्पन्न लेखकों की थी जो अपनी प्रतिभा और उद्भावना के बल से उसे सुव्यवस्थित और परिमार्जित करते और उसमें ऐसे साहित्य का विधान करते जो शिक्षित जनता की रुचि के अनुकूल होता। ठीक इसी परिस्थिति में भारतेंदु का उदय हुआ।

◆आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन-प्रथम उत्थान (संवत् 1925-1950)-प्रकरण-1 गद्य का प्रवर्तन:सामान्य परिचय

●भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रभाव भाषा और साहित्य दोनों पर गहरा पड़ा।उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिंदी साहित्य को भी नये मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया।वे वर्तमान हिंदी गद्य के प्रवर्तक माने गये।

●मुंशी सदासुख  की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिये थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूर्वीपन था। राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा लक्ष्मण सिंह की भाषा विशुध्द और मधुर तो अवश्य थी पर आगरा की बोलचाल का पुट उनमें उनमें कम न था।

●भारतेंदु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया ।हमारे साहित्य को नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त विषयों की ओर प्रवृत्त करनेवाले हरिशचंद्र ही हुए।

●भारतेंदु में ही हम दो प्रकार की शैलियों का व्यवहार पाते हैं।उनकी भावावेश की शैली दूसरी है और तथ्यनिरूपण की दूसरी।

●पंडित प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत स्वछंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगिमा लिये चलती है। हास्य- विनोद की उमंग में वह कभी-कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है।

●बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के लेखों में गद्य काव्य के पुराने ढंग की झलक,रंगीन इमारत की चमक-दमक बहुत कुछ मिलती है। बहुत से वाक्यखंडों की लड़ियों से गूँथी हुए उनके वाक्य अत्यंत लंबे होते थे– इतने लंबे कि उनका अन्वय कठिन होता था। पदविन्यास में तथा कहीं-कहीं वाक्यों के बीच विरामस्थलों पर भी, अनुप्रास देख इंशा और लल्लूलाल का स्मरण होता है। इस दृष्टि से देखें तो ‘प्रेमघन’ में पुरानी परंपरा का निर्वाह अधिक दिखाई पड़ता है।

●पंडित बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी होती थी जैसी खरी-खरी सुनाने में काम लायी जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक हैं।नूतन पुरातन का वह संघर्षकाल था इससे भट्ट जी को चिढ़ाने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी।भाषा उनकी चटपटी,तीखी और चमत्कारपूर्ण होती हैं।

●राजा शिवप्रसाद या राजा लक्ष्मणसिंह भाषा पर अधिकार रखने वाले पर झंझटों से दबे हुए स्थित प्रकृति के लेखक थे।उनमें वह चपलता, स्वच्छंदता और उमंग नहीं पाई जाती जो हरिश्चंद्र मंडल के लेखकों में में दिखाई पड़ती है।

●प्राचीन और नवीन संधिस्थल पर खड़े होकर वे दोनों का जोड़ इस प्रकार मिलाना इस प्रकार मिलाना इस प्रकार मिलाना चाहते थे कि नवीन प्राचीन का प्रवर्धित रूप प्रतीत हो, न कि ऊपर लपेटी हुई वस्तु।

●विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।

●हरिश्चंद्र ने सबसे पहले ‘विद्यासुंदर’ नाटक का बंगला से सुंदर हिंदी में अनुवाद करके संवत् 1925 में प्रकाशित किया।

●पंडित शीतलाप्रसाद त्रिपाठीकृत ‘जानकीमंगल’ नाटक का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था उसमें भारतेंदु जी ने पार्ट लिया था। इस नाटक को देखने के लिए काशीनरेश महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह भी पधारे थे।

●अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल हिंदी में लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षागुरु’ निकला था।

●’मित्रविलास’ सनातन धर्म का समर्थन पत्र था जिसमें पंजाब में हिंदी प्रचार का बहुत कुछ कार्य किया था।

●’ब्राह्मण’, ‘हिंदीप्रदीप’ और ‘आनंदकादंबिनी’ साहित्यिक पत्र थे जिनमें बहुत सुंदर मौलिक गद्य प्रबंध और कविताएं निकला करती थी।

●हिन्दी गद्य की सर्वतोन्मुखी गति का अनुमान इसी से हो सकता है कि पचीसों पत्र पत्रिकाएँ हरिश्चंद्रजी के जीवनकाल में निकलीं जिनके नाम नीचे दिए जाते हैं , 
      1. अल्मोड़ा अखबार (संवत् 1928, संपादक पं. सदानंद सलवास)
      2. हिन्दी दीप्तिप्रकाश (कलकत्ता 1929, कार्तिक प्रसाद खत्री)
      3. बिहार बंधु (संवत् 1929, केशवराम भट्ट)
      4. सदादर्श (दिल्ली 1931, ला. श्रीनिवासदास)
      5. काशीपत्रिका (1933, बा. बलदेव प्रसाद बी.ए. शिक्षासंबंधी मासिक)
      6. भारतबंधु (1933, तोताराम, अलीगढ़)
      7. भारतमित्र (कलकत्ता, संवत् 1934, रुद्रदत्त)
      8. मित्रविलास (लाहौर, 1934, कन्हैयालाल)
      9. हिन्दी प्रदीप (प्रयाग, 1934, पं. बालकृष्ण भट्ट, मासिक)
     10. आर्यदर्पण (शाहजहाँपुर, 1934, मुं. बख्तावरसिंह)
      11. सार सुधानिधि (कलकत्ता, 1935, सदानंद मिश्र)
     12. उचित वक्ता (कलकत्ता, 1935, दुर्गाप्रसाद मिश्र)
     13. सज्जन कीर्ति सुधाकर (उदयपुर, 1936, वंशीधार)
     14. भारत सुदशाप्रवर्तक (फर्रुखाबाद 1936, गणेशप्रसाद)
     15. आनंदकादंबिनी (मिर्जापुर, 1938, बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, मासिक)
     16. देशहितैषी (अजमेर, 1936)
     17. दिनकर प्रकाश (लखनऊ, 1940 रामदास वर्मा)
     18. धर्मदिवाकर (कलकत्ता, 1940, देवीसहाय)
     19. प्रयाग समाचार (1940, देवकीनंदन त्रिपाठी)
     20. ब्राह्मण (कानपुर, 1940, प्रतापनारायण मिश्र)
     21. शुभचिंतक (जबलपुर, 1940, सीताराम)
     22. सदाचार मार्तंड (जयपुर, 1940, लालचंद शास्त्री)
     23. हिंदोस्थान (इंगलैंड, 1940, राजा रामपाल सिंह, दैनिक)
     24. पीयूष प्रवाह (काशी, 1941, अम्बिकादत्त व्यास)
     25. भारत जीवन (काशी, 1941, रामकृष्ण वर्मा)
     26. भारतेंदु (वृंदावन, 1941, राधाचरण गोस्वामी)
     27. कविकुलकंज दिवाकर (बस्ती, 1941, रामनाथ शुक्ल)

●’ब्राह्मण’ संपादक पंडित प्रतापनारायण मिश्र को ग्राहकों से चंदा मांगते-मांगते थक कर कभी-कभी पत्र में इस प्रकार याचना करनी पड़ती थी –

“आठ मास बीते, जजमान! अब तौ करै दचिछना दान।” 

●’ज्ञानप्रदायिनी’ नाम की एक पत्रिका उर्दू-हिंदी में बाबू नवीनचंद्र द्वारा निकलती थी जिसमें शिक्षा और सुधार संबंधी लेखों के अतिरिक्त ब्राह्योमत की बातें रहा करती थी।

●संवत् 1935 में पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र के संपादन में ‘उचितवक्ता’ और पंडित सदानंद मिश्र के संपादन में ‘सारसुधानिधि’ ये दो पत्र कलकत्ता से निकले।

●बाबू हरिशचंद के के जीवनकाल में ही अर्थात् मार्च, सन 1884 ईसवी में बाबू रामकृष्ण वर्मा ने काशी से ‘भारतीय जीवन’ पत्र निकाला। इस पत्र का नामकरण भारतेंदु ने ही किया।

प्रथम उत्थान- प्रकरण-2 (गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन)

◆भारतेंदु हरिश्चंद्र

●संवत् 1925 में इन्होंने ‘विद्यासुंदर’ नाटक बंगला से अनुवाद करके प्रकाशित किया।

●1930 में उन्होंने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली जिसका नाम 8 संख्याओं के उपरांत ‘हरिश्चंद्रिका’ हो गया। हिंदी गद्य का ठीक परिष्कृतरूप पहले पहल इसी ‘चंद्रिका’ में प्रकट हुआ।

●उन्होंने ‘कालचक्र’ नाम की अपनी पुस्तक में नोट किया है कि हिंदी ‘नयी चाल में ढली’ सन् 1873 ईस्वी।

● हिंदी गद्य साहित्य के इस आरंभकाल में ध्यान देने की बात है कि उस समय जो थोड़े- से गिनती के लेखक थे, उनमें विदग्धता और मौलिकता थी और उनकी हिंदी हिंदी होती थी।

●इसके पहले ही संवत् 1930 में उन्होंने अपना पहला मौलिक नाटक ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ नाम का प्रहसन लिखा, जिसमें धर्म और उपासना नाम से समाज में प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र में रहने वालों पर छींटे छोड़ें।

●अपनी ‘नाटक’ नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिंदी में मौलिक नाटक उनके पहले दो ही लिखे गये थे–महाराज विश्वनाथ सिंह का ‘आनंदरघुनंदन’ नाटक और बाबू गोपालचंद्र का ‘नहुष’ नाटक। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह दोनों ब्रजभाषा में थे।

●उन्होंने इतिहास की दो पुस्तकें लिखी हैं– ‘कश्मीरकुसुम’ और ‘बादशाहदर्पण’।

●वे सिद्ध वाणी के अत्यंत सरस ह्रदय कवि थे।

●अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचंद्र की श्रेणी में।

●प्राचीन नवीन के उस संधिकाल में जैसी शीतल कला का संचार अपेक्षित था वैसे ही शीतल कला के साथ भारतेंदु का उदय हुआ,इसमें संदेह नहीं।

◆प्रतापनारायण मिश्र 

●ये इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवाह करते थे। कभी लावणीबाजों में जाकर शामिल हो जाते थे, कभी मेलों में और तमाशों में बंद इक्के पर बैठ जाते दिखाई पड़ते थे।

● प्रतापनारायण जी में विनोदप्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में व्यंगपूर्ण वक्रता की मात्रा प्राय: रहती है। इसके लिए वे  पूरबीपन की परवाह न करके अपने बैसवारे की ग्राम्य कहावतें और शब्द भी बेधड़क रख दिया करते थे।

●यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्यविनोद की ओर ही अधिक रहती थी पर जब कभी कुछ गंभीर विषयों पर वे लिखते थे तब संयत और साधु भाषा का व्यवहार करते थे।

●’कलिकौतुक रूपक’,’भारतदुर्दशा’,’हठी हम्मीर’,’गोसंकट नाटक’,’कलिप्रभाव’ तथा ‘जुआरी खुआरी’ इनके नाटक है।

◆बालकृष्ण भट्ट 

●मिश्र जी के समान ही भट्ट जी भी स्थान-स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे, पर उनका झुकाव मुहावरों की ओर कुछ अधिक रहा है।

●व्यंग्य और वक्रता उनके लेखों में भी भरी रहती है और वाक्य भी कुछ बड़े-बड़े होते हैं।

●पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं ‘समझा बुझाकर’ के स्थान पर ‘समझाय-बुझाय’ वे प्रायः लिख जाते थे।

●उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंगरेजी पढ़े-लिखे नवशिक्षित लोगों को हिंदी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं।

●प्रतापनारायण के हास्यविनोद से भट्ट जी के हास्य- विनोद में यह विशेषता है कि वह कुछ चिड़चिड़ाहट लिये रहता था।

●’आँख’,’कान’, ‘नाक’आदि शीर्षक लेकर देकर इन्होंने कई लेखों में बड़े ढंग के साथ मुहावरों की झड़ी बांध दी है।

● प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया है जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।

● इनके प्रमुख नाटक है–कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बालविवाह नाटक, चंद्रसेन नाटक।

●उन्होंने माइकल मधुसूदन दत्त के ‘पद्मावती’ और ‘शर्मिष्ठा’ नामक बंग भाषा के दो नाटकों में अनुवाद भी निकाले थे।

◆बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’

●उनकी हर एक बात से रईसी टपकती थी।

●प्रेमघन की शैली सबसे विलक्षण थी। ये गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले–कलम की कारीगरी समझने वाले–लेखक थे और कभी-कभी ऐसे पेचीले मजमून बांधते थे कि पाठक एक-एक,डेढ़-डेढ़ कॉलम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था।

●भाषा अनुप्रासमयी और चुहचुहाती हुई होने पर भी उनका पदविन्यास व्यर्थ के आडंबर के रूप में नहीं होता था।

●इनके प्रमुख नाटक है– ‘भारत सौभाग्य’,’प्रयाग रामागमन’, ‘वीरांगना रहस्य महानाटक’ आदि है।

●समालोचना का सूत्रपात हिंदी में एक प्रकार से भट्ट जी और चौधरी साहब ने ही किया।

◆लाला श्रीनिवासदास

● इनका ‘प्रह्लादचरित्र’, ‘तप्तासंवारण नाटक’,’रणधीर और प्रेममोहिनी नाटक है।

●’रणधीर और प्रेममोहिनी’ नाटक अंग्रेजी नाटकों के ढंग पर लिखा था। रणधीर और प्रेममोहिनी नाम रोमियो एंड जूलियट की ओर ध्यान ले जाता है।

● पात्रों के अनुरूप भाषा रखने के प्रयत्न में मुंशी जी की भाषा इतनी घोर उर्दू कर दी गयी है कि केवल हिंदी  पढ़ा व्यक्ति एक पंक्ति भी नहीं समझ सकता।

◆ठाकुर जगमोहन सिंह

● भारतेंदु जी के मित्रों में कई बातों में उन्हें की-सी तबीयत रखने वाले विजय राघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह जी थे।

●ये संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी के अच्छे जानकार तथा हिंदी के एक प्रेमपथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे।

●अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य-जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने अपने ‘श्यामास्वप्न’में व्यक्त किया है उसकी सरसता निराली है।

● बाबू हरिश्चंद्र,पंडित प्रतापनारायण आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और हृदय की पहुंच मानवक्षेत्र तक ही थी;प्रकृत के अपर क्षेत्रों तक नहीं।

●पर ठाकुर जगमोहन सिंह जी ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है।

●प्राचीन संस्कृत साहित्य के रूचिसंस्कार के साथ भारतभूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसाने वाले वे पहले हिंदी लेखक थे।

◆पंडित राधाचरण गोस्वामी 

●’हरिश्चंद्र मैगजीन’ को देखते-देखते इनमें देशभक्ति और समाजसुधार के भाव जगे थे। साहित्य सेवा के विचार से इन्होंने ‘भारतेंदु’ नाम का एक पत्र कुछ दिनों तक वृंदावन से निकाला था।

●इन्होंने कई मौलिक नाटक लिखे थे जैसे- ‘सुदामा नाटक’, ‘सती चंद्रावली’, ‘अमरसिंह राठौर’, ‘तन-मन मन धन श्री गोसाई जी के अर्पण’।

◆पंडित अंबिकादत्त व्यास 

●यह संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान, हिंदी के अच्छे कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे।

●’अवतार मीमांसा’ आदि धर्मसंबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने बिहारी के पदों के दोहों के भाव को विस्तृत करने के लिए ‘बिहारी बिहार’ नाम का एक बड़ा काव्यग्रंथ लिखा

●’इन्होंने’, ‘उन्होंने’ के स्थान पर ये ‘इनने’ ,’उनने’ लिखते थे।

● भारतेंदु के कहने से इन्होंने ‘गोसंकट नाटक’ लिखा जिसमें हिंदुओं के बीच असंतोष फैलने पर अकबर द्वारा गोवध बंद किये जाने की कथावस्तु रखी गयी है।

 ◆राधाकृष्ण दास 

●इन्होंने भारतेंदु का अधूरा छोड़ा हुआ नाटक ‘सती प्रताप’पूरा किया था।इन्होंने पहले ‘दुखिनी बाला’ नामक एक छोटा सा रूपक लिखा था जो ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘मोहन चंद्रिका’ में प्रकाशित हुआ था।

●अतः संवत् 1950 में कई उत्साही छात्रों के उद्योग से,जिसमें बाबू श्यामसुंदर दास, पंडित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह मुख्य थे, काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। सच पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और प्रीति बाबू श्यामसुंदर दास जी के त्याग और सतत परिश्रम का फल है।

●इसके प्रथम सभापति भारतेंदु के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास हुए।

●इस सभा के दो उद्देश्य हुए–नागरी अक्षरों का प्रचार और हिंदी साहित्य की समृद्धि।

●भारतेंदु के अस्त होने के पहले ही नागरी प्रचार का झंडा पंडित गौरीदत्त ने उठाया।वे अपनी धुन के ऐसे पक्के थे कि 40 वर्ष की अवस्था हो जाने पर इन्होंने अपने सारी जायदाद ‘नागरीप्रचार’ के लिए लिखकर रजिस्टरी करवा दी और आप सन्यासी होकर ‘नागरीप्रचार’ का झंडा हाथ में लिये चारों ओर घूमने लगे।

●महावीरप्रसाद द्विवेदी के लेख हैं–’नागरी तेरी यह दशा!’

गद्य साहित्य का प्रसार : द्वितीय उत्थान

(संवत् 1950-1975)

प्रकरण 3- सामान्य परिचय

●जो कुछ हुआ वही बहुत हुआ और उसके लिए हमारा हिन्दी साहित्य पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्ध ता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे।

●भारतेंदु मंडल मनोरंजक साहित्यनिर्माण द्वारा हिन्दी गद्य साहित्य की स्वतंत्र सत्ता का भाव ही प्रतिष्ठित करने में अधिकतर लगा रहा। 

●गद्य की भाषा पर द्विवेदीजी के इस शुभ प्रभाव का स्मरण जब तक भाषा के लिए शुद्ध ता आवश्यक समझी जायगी तब तक बना रहेगा।  पं. गोविंद नारायण जी मिश्र, जिन्होंने ‘विभक्ति विचार’ नाम की एक छोटी सी पुस्तक द्वारा हिन्दी के विभक्तियों को शुद्ध  विभक्तियाँ बताकर लोगों को उन्हें मिलाकर लिखने की सलाह दी थी। 

●बाबू राधाकृष्णदास की रचना- ‘महाराणा प्रताप’

●राय देवीप्रसादजी पूर्ण की रचना- ‘चंद्रकला भानुकुमार’

●समालोचना का आरंभ यद्यपि भारतेंदु के जीवनकाल में ही कुछ न कुछ हो गया था पर उसका कुछ अधिक वैभव इस द्वितीय उत्थान में ही दिखाई पड़ा।

●महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने पहले पहल विस्तृत आलोचना का रास्ता निकाला।

●साहित्यिक मूल्य रखनेवाले तीन जीवन चरित महत्व के निकले- पं. माधवप्रसाद मिश्र की ‘विशुद्ध  चरितावली’ (स्वामी विशुध्दानंद का जीवन चरित) तथा बाबू शिवनंदन सहाय लिखित ‘हरिश्चंद्र का जीवन चरित’, ‘गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन चरित’ और ‘चैतन्य महाप्रभु का जीवन चरित’।

प्रकरण 4
गद्य साहित्य का प्रसार

नाटक-

●संस्कृत के अनेक पुराण ग्रंथों के अनुवादक, रामचरितमानस, बिहारी सतसई के टीकाकार, सनातनधर्म के प्रसिद्ध  व्याख्याता मुरादाबाद के पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ने ‘वेणीसंहार’ और ‘अभिज्ञान शाकुंतल’ के हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किए। 

●सत्यनारायण कविरत्न ने भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ का और पीछे ‘मालती माधव’ का अनुवाद किया।

●किशोरीलाल गोस्वामी-‘चौपट चपेट’- यह एक प्रहसन था जिसमें चरित्रहीन और छलकपट से भरी स्त्रियों तथा लुच्चों, लफंगों आदि के बीभत्स और अश्लील चित्र अंकित किए गए थे। 

●’मयंकमंजरी’-यह पाँच अंकों का नाटक था जो श्रृंगाररस की दृष्टि से संवत् 1948 में लिखा गया था।यह भी साहित्य में कोई विशेष स्थान प्राप्त न कर सका और लोकविस्मृत हो गया।

●अयोध्यासिंह उपाध्याय -नाटक- ‘रुक्मिणीपरिणय’ और ‘प्रद्युम्नविजय व्यायोग’ 

●पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र -नाटक- ‘सीतावनवास’ 

●बलदेवप्रसाद मिश्र-रूपक-‘प्रभासमिलन’ 

●बाबू शिवनंदन सहाय-‘सुदामा नाटक’

●कवि राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’-नाटक-‘चंद्रकलाभानुकुमार’ 

उपन्यास-

●इस द्वितीय उत्थान में आलस्य का जैसा त्याग उपन्यासकारों में देखा गया वैसा और किसी वर्ग के हिन्दी लेखकों में नहीं।

●गोपालराम गहमरी – उपन्यास-‘चतुर चंचला’ (1950), ‘भानमती’ (1951), ‘नए बाबू’ (1951),’बड़ा भाई’ (1957), ‘देवरानी जेठानी’ (1958), ‘दो बहिन’ (1959), ‘तीन पतोहू’ (1961), और ‘सास पतोहू’। 

●भाषा उनकी चटपटी और वक्रतापूर्ण है।

●ये गुण लाने के लिए कहीं कहीं उन्होंने पूरबी शब्दों और मुहावरों का भी बेधाड़क प्रयोग किया है।उनके लिखने का ढंग बहुत ही मनोरंजक है।

देवकीनंदन खत्री-उपन्यास- नरेंद्रमोहिनी, कुसुमकुमारी, वीरेंद्रवीर,’चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’

 चंद्रकांता पढ़ने के लिए न जाने कितने उर्दूजीवी लोगों ने हिन्दी सीखी।

पर हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन का स्मरण इस बात के लिए सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं।

बाबू देवकीनंदन के प्रभाव से ‘तिलस्म’ और ‘ऐयारी’ के उपन्यासों की हिन्दी में बहुत दिनों तक भरमार रही और शायद अभी तक यह शौक बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है।

पं. किशोरीलाल गोस्वामी-   

इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप रंग, चित्ताकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत चरित्र चित्रण भी अवश्य पाया जाता है।

गोस्वामी जी संस्कृत के अच्छे जानकार, साहित्य के मर्मज्ञ तथा हिन्दी के पुराने कवि और लेखक थे। 

अत: साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिन्दी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए।

एक और बात जरा खटकती है। वह है उनका भाषा के साथ मजाक।

किशोरीलाल गोस्वामी के कुछ उपन्यासों के नाम ये हैं , तारा, चपला, तरुणतपस्विनी, रजिया बेगम, लीलावती, राजकुमारी, लवंगलता, हृदयहारिनी, हीराबाई, लखनऊ की कब्र इत्यादि। 

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय

उपन्यास-‘ठेठ हिन्दी का ठाठ’ और ‘अधाखिला फूल’ 

इन तीनों पुस्तकों को सामने रखने पर पहला ख्याल यही पैदा होता है कि उपाधयायजी क्लिष्ट, संस्कृतप्राय भाषा भी लिख सकते हैं और सरल ठेठ हिन्दी भी।

पं. लज्जाराम मेहता-

धूर्त रसिकलाल (संवत् 1956), हिंदू गृहस्थ, आदर्श दंपति (1961), बिगड़े का सुधार (1964) आदर्श हिंदू (1972)

कहानी-

इंशा की रानी केतकी की कहानी न आधुनिक उपन्यास के अंतर्गत आएगी, न राजा शिवप्रसाद का ‘राजाभोज का सपना’ या ‘वीर सिंह का वृत्तांत’ आधुनिक छोटी कहानी के अंतर्गत। 

‘सरस्वती’ के प्रथम वर्ष (संवत् 1957) में ही पं. किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ नाम की कहानी छपी जो मौलिक जान पड़ती है। 

‘सरस्वती’ में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों के नाम वर्षक्रम से नीचे दिए जाते हैं-

इंदुमती-(किशोरीलाल गोस्वामी)-संवत्-1957

गुलबहार-(किशोरीलाल गोस्वामी)-संवत्-1959

प्लेग की चुड़ैल-(मास्टर भगवानदास, मिरजापुर)-संवत् 1959

ग्यारह वर्ष का समय -(रामचंद्र शुक्ल)-संवत्-1960

पंडित और पंडितानी-(गिरिजादत्ता वाजपेयी)-संवत् 1960

दुलाईवाली-(बंगमहिला)-संवत्-1964

‘इंदुमती’ किसी बँग्ला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाईवाली’ का नंबर आता है। 

जयशंकर ‘प्रसाद’ की ‘ग्राम’ नाम की कहानी उनके मासिक पत्र ‘इंदु’ में निकली। 

इनकी अन्य कहानियाँ-‘आकाशदीप’, ‘बिसाती’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘स्वर्ग के खंडहर’, ‘चित्रमंदिर’

विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक-इनकी कहानी ‘रक्षाबंधान’ 1913 की ‘सरस्वती’ में छपी।

राधिकारमणप्रसाद सिंहजी-इनकी कहानी ‘कानों में कंगना’ संवत् 1970 में इंदु में निकली।

श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अद्वितीय कहानी ‘उसने कहा था’ संवत् 1972 अर्थात् सन् 1915 की ‘सरस्वती’ में छपी थी।

इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। 

घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है, पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है ,केवल झाँक रहा है निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है।

कहानी भर में कहीं प्रेमी की निर्लज्जता, प्रगल्भता, वेदना की बीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। 

इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।  

निबंध-

यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है।

भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है।

आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता हो। 

 ●पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी-

●द्विवेदीजी ने सन् 1903 में ‘सरस्वती’ के संपादन का भार लिया। 

●इनके लेखों को शुक्ल जी ‘बातों के संग्रह’ कहते है।

●कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर कुछ असर न हो। 

●कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश जरूर रहता है; असभ्य अथवा अर्धासभ्य लोगों को यह अंश कम खटकता है शिक्षित और सभ्य लोगों को बहुत।संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए। 

●लेख-‘क्या हिन्दी नाम की कोई भाषा ही नहीं’ (सरस्वती, सन् 1913) और ‘आर्य समाज का कोप’ (सरस्वती, 1914) 

समालोचना-

 ●समालोचना के दो प्रधान मार्ग होते हैं ,निर्णयात्मक (जुडिशियल मेथड) और व्याख्यात्मक (इंडक्टिव क्रिटिसिज्म)।

●निर्णयात्मक आलोचना किसी रचना के गुण दोष निरूपति करके उसका मूल्य निर्धारित करती है। 

●उसमें लेखक या कवि की कहीं प्रशंसा होती है, कहीं निंदा।व्याख्यात्मक आलोचना किसी ग्रंथ में आई हुई बातों को एक व्यवस्थित रूप में सामने रखकर उनका अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करती है। यह मूल्य निर्धारित करने नहीं जाती।

●कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे हिन्दी साहित्य में समालोचना पहले पहल केवल गुण दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ।

गद्य साहित्य की वर्तमान गति :

तृतीय उत्थान (संवत् 1975 से)-प्रकरण 5-सामान्य परिचय

●हमें तो ऐसा साहित्य चाहिए जो पददलित अकिंचनों में रोष, विद्रोह और आत्मगौरव का संचार करे और उच्च वर्ग के लोगों में नैराश्य, लज्जा और ग्लानि का। 

●कहने का तात्पर्य यह कि हमारे उपन्यासकारों को देश के वर्तमान जीवन के भीतर अपनी दृष्टि गड़ाकर देखना चाहिए; केवल राजनीतिक दलों की बातों को लेकर ही न चलना चाहिए।साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए; सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए। 

●प्रेमचंद की सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलनेवाली भाषा भी पहले नहीं देखी गई थी। 

●अंत:प्रकृति या शील के उत्तरोत्तर उद्धाटन का कौशल भी प्रेमचंदजी के दो एक उपन्यासों में, विशेषत: ‘गबन’ में देखने में आया।

●कथावस्तु के स्वरूप और लक्ष्य के अनुसार हिन्दी के अपने वर्तमान उपन्यासों में हमें ये भेद दिखाई पड़ते हैं-

1. घटनावैचित्रय प्रधान अर्थात् केवल कुतूहलजनक, जैसे जासूसी और वैज्ञानिकआविष्कारों का चमत्कार दिखानेवाले।इनमें साहित्य का गुण अत्यंत अल्प होता है , केवल इतना ही होता है कि ये आश्चर्य और कुतूहल जगातेहैं। 

2. मनुष्य के अनेक पारस्परिक संबंधों के मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखने वाले, जैसे , प्रेमचंदजी का ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘गोदान’; श्री विश्वंभरनाथ कौशिक का ‘माँ’, ‘भिखारिणी’, श्री प्रतापनारायण श्रीवास्तव का ‘विदा’, ‘विकास’, ‘विजय’; चतुरसेन शास्त्री का ‘हृदय की प्यास’। 

3. समाज के भिन्न भिन्न वर्गों की परस्पर स्थिति और उनके संस्कार चित्रित करने वाले, जैसे , प्रेमचंदजी का ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’; प्रसादजी का ‘कंकाल’, ‘तितली’।

4. अंतर्वृत्तिा अथवा शीलवैचित्रय और उसका विकासक्रम अंकित करने वाले जैसे , प्रेमचंदजी का ‘गबन’, श्री जैनेंद्र कुमार का ‘तपोभूमि’, ‘सुनीता’। 

5. भिन्न भिन्न जातियों और मतानुयायियों के बीच मनुष्यता के व्यापक संबंध पर जोर देनेवाले, जैसे , राजा राधिाकारमण प्रसाद सिंह का ‘राम रहीम’। 

6. समाज के पाखंडपूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्धाटन और चित्रण करने वाले, जैसे , पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का ‘दिल्ली का दलाल’, ‘सरकार तुम्हारी ऑंखों में’, ‘बुधाुआ की बेटी’। 

7. बाह्य और आभ्यंतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास, जैसे , स्वर्गीय श्री चंडीप्रसाद ‘हृदयेश’ का ‘मंगल प्रभात’।

(संवत् 1925-1950)- नई धारा : प्रथम उत्थान

पुरानी कविता में ‘प्रबंध’ का रूप कथात्मक और वस्तु वर्णनात्मक ही चला आता था।

भारतेंदु हरिश्चंद्र-

●नवीन धारा के बीच भारतेंदु की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था।

●’विजयिनीविजय वैजयंती’ में, जो मिस्र में भारतीय सेना की विजय प्राप्ति पर लिखी गई थी।

 ●भारतेंदुजी ने हिन्दी काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया।

 ●’नरप्रकृति’ के कवि थे, बाह्य प्रकृति की अनेकरूपता के साथ उनके हृदय का सामंजस्य नहीं पाया जाता।

●गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और मार्गाें की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य को नहीं।

प्रतापनारायण मिश्र

इन्होंने देशदशा पर ऑंसू बहाने के अतिरिक्त ‘बुढ़ापा’, ‘गोरक्षा’ ऐसे विषय भी कविता के लिए चुने।

तबहि लख्यौ जहँ रह्यो एक दिन कंचन बरसत। 
तहँ चौथाई जन रूखी रोटिहुँ को तरसत।- ‘क्रंदन’

●कविता-‘हरगंगा’, ‘तृप्यंताम्’ ‘बुढ़ापा’

उपाध्याय पं. बदरीनारायण चौधारी 

●इनके छंदों में यतिभंग प्राय: मिलता है।वैसे रोला छंद का अधिक प्रयोग इन्होंने किया है।

●विलायत में दादा भाई नौरोजी के ‘काले’ कहे जाने पर इन्होंने ‘कारे’ शब्द को लेकर बड़ी सरल और क्षोभपूर्ण कविता लिखी थी। कुछ पंक्तियाँ देखिए-

अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे।
तासों कारे ‘कारे’ शब्दहु पर हैं वारे।

●’भारत सौभाग्य’ नाटक चाहे खेलने योग्य न हो, पर देश दशा पर वैसा बड़ा, अनूठा और मनोरंजक नाटक दूसरा नहीं लिखा गया। 

ठाकुर जगमोहन सिंह-

●’प्राकृतिक दृश्यों का प्रत्यक्षीकरण मात्र तो स्थूल व्यवसाय है, उनको लेकर कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करना ही कविकर्म है।

●पद्माकर की विरहणी का यह कहना कि ‘किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की डारन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।

●’दशरथ विलाप’-भारतेंदु-

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे । किधर तुम छोड़कर हमको सिधारे।
बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था । इसी को देखने को मैं बचा था

●मैं समझता हूँ कि हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल में संस्कृत वृत्तों में खड़ी बोली के कुछ पद्य पहले पहल मिश्रजी ने ही लिखे-शुक्ल जी 

काव्यखंड  (संवत् 1950-1975)

प्रकरण 3 – नई धारा : द्वितीय उत्थान: सामान्य परिचय

●जिस परिस्थिति में अंग्रेजी साहित्य में स्वच्छंदतावाद का विकास हुआ उसे भी देखकर समझ लेना चाहिए कि रीतिकाल के अंत में, या तो भारतेंदुकाल के अंत में हिन्दी काव्य की जो परिस्थिति थी वह कहाँ तक इंगलैंड की परिस्थिति के अनुरूप थी। सारे यूरोप  में बहुत दिनों तक पंडितों और विद्वानों के लिखने पढ़ने की भाषा लैटिन (प्राचीन रोमियो की भाषा) रही।

●श्रीधर पाठक ने ख्याल या लावनी की लय पर ‘एकांतवासी योगी’ लिखा

●वैसे ही सुथरे साइयों के सधुक्कड़ी ढंग पर ‘जगत्सच्चाई सार’ लिखा -जिसमें कहा गया कि-

‘जगत् है सच्चा, तनिक न कच्चा, 
समझो बच्चा! इसका भेद’।

●’स्वर्गीय वीणा’ में उन्होंने उस परोक्ष दिव्य संगीत की ओर रहस्यपूर्ण संकेत किया जिसके ताल सुर पर यह सारा विश्व नाच रहा है। इन सब बातों का विचार करने पर-

●पं. श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रवर्तक ठहरते हैं। 

1.श्रीधर पाठक-

●’श्रांत पथिक’ (गोल्डस्मिथ के टे्रवेलर का अनुवाद)-रोला छंद 

●शब्दशोधान में तो पाठकजी अद्वितीय थे। जैसी चलती और रसीली इनकी ब्रजभाषा होती थी, वैसा ही कोमल और मधुर संस्कृत पदविन्यास भी।

●भद्दापन इनमें न था , न रूप रंग में, न भाषा में, न भाव में, न चाल में, न भाषण में।

●सांध्य अटन- 

नाना कृपान निज पानि लिए, वपु नील वसन परिधान किए।
गंभीर घोर अभिमान हिए, छकि पारिजात मधुपान किए।।

●स्वर्गीय वीणा-

कहीं पै स्वर्गीय कोई बाला सुमंजु वीणा बजा रही है।
सुरों के संगीत की सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है।।

●सवैया छंद-

इस भारत में वन पावन तू ही तपस्वियों का तप आश्रम था।
जगतत्व की खोज में लग्न जहाँ ऋषियों ने अभग्न किया श्रम था।।

●समाजसुधार के वे बड़े आकांक्षी थे; इससे विधवाओं की वेदना, शिक्षाप्रसार ऐसे ऐसे विषय भी उनकी कलम के नीचे आया करते थे। 

●हिन्दी प्रेमियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जाते थे।

●गंभीर नूतन विचारधारा चाहे उनकी कविताओं के भीतर कम मिलती हो, पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा प्रसाद था कि जो बात उसके द्वारा प्रकट की जाती थी, उसमें सरसता आ जाती थी। 

2.पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय (हरिऔध) –

●हिन्दी के लब्धाप्रतिष्ठ कवि

●खड़ी बोली के लिए उन्होंने पहले उर्दू के छंदों और ठेठ बोली को ही उपयुक्त समझा, क्योंकि उर्दू के छंदों में खड़ी बोली अच्छी तरह मँज चुकी थी। 

चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी।।-(नागरीप्रचारिणी सभा के गृह प्रवेशोत्सव के समय संवत् 1957 में उन्होंने यह कविता पढ़ी थी)

●प्रियप्रवास के संदर्भ में शुक्ल- 

●श्रीकृष्ण ब्रज के रक्षक नेता के रूप में अंकित किए गए हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य अभी तक नहीं निकला है। बड़ी भारी विशेषता इस काव्य की यह है कि यह सारा संस्कृत के वर्णवृत्तों में है जिसमें अधिक परिमाण में रचना करना कठिन काम है। 

●कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बाँधी है कि हिन्दी को ‘है’, ‘था’, ‘किया’, ‘दिया’ ऐसी दो एक क्रियाओं के भीतर ही सिमट कर रह जाना पड़ा है। पर सर्वत्र यह बात नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिन्दी अपनी चाल पर चली चलती दिखाई पड़ती है। 

रूपोद्यान प्रफुल्लप्राय कलिका राकेंदुबिंबानना।
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ाकलापुत्ताली
धीरे धीरे दिन गत हुआ; पद्मिनीनाथ डूबे।
आयी दोषा, फिर गत हुई, दूसरा वार आया

●(चोखे-चौपदे)-

क्यों पले पीस कर किसी को तू?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी।

3. पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी-

●नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित ‘नागरी तेरी यह दशा’! और रघुवंश का कुछ आधार लेकर रचित ‘अयोध्या का विलाप’ नाम की उनकी कविताएँ संस्कृत वृत्तों में पर ब्रजभाषा में ही लिखी गई थीं।

श्रीयुक्त नागरि निहारि दशा तिहारी।
होवै विषाद मन माहिं अतीव भारी ।।

●NOTE- आधुनिककाल में ब्रजभाषा पद्य के लिए संस्कृत वृत्तों का व्यवहार पहले पहल स्वर्गीय पं. सरयूप्रसाद मिश्र ने रघुवंश महाकाव्य के अपने ‘पद्यबद्ध भाषानुवाद’ में किया था जिसका प्रारंभिक अंश भारतेंदु की ‘कविवचनसुधा’ में प्रकाशित हुआ था।

 ●वड्र्सवर्थ- ’गद्य और पद्य का पदविन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए।’ 

द्विवेदी- 
सारी प्रजा निपढ़ दीन दुखी जहाँ है,
कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है? 

●मुख्य कवि जो द्विवेदी जी से प्रभावित हुए थे-

●बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं. रामचरित उपाध्याय और पं. लोचनप्रसाद पांडेय।

4.मैथिलीशरण गुप्त-

●’रंग में भंग’ (प्रबंध काव्य)-

●चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी।

●भारत-भारती-‘मुसद्दस हाली’ के ढंग पर लिखी है।

●फुटकल रचना जो ‘सरस्वती’ से निकली ‘मंगल घट’ में संगृहीत हैं।

●(हिंदू,केशों की कथा, स्वर्गसहोदर)

●’विकट भट’ में जोधपुर के एक राजपूत सरदार की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है।

●’गुरुकुल’ में सिख गुरुओं के महत्व का वर्णन है। 

●’साकेत’ और ‘यशोधारा’ इनके दो बड़े प्रबंध हैं। दोनों में उनके काव्यत्व का तो पूरा विकास दिखाई पड़ता है, पर प्रबंधत्व की कमी है।

●’साकेत’ की रचना तो मुख्यत: इस उद्देश्य से हुई कि उर्मिला ‘काव्य’ की उपेक्षिता न रह जाए।

●राम के अभिषेक की तैयारी से लेकर चित्रकूट में राम भरत मिलन तक की कथा आठ सर्गों तक चलती है।

●नौ-दस में उर्मिला की वियोगवस्था का वर्णन है।

सूरदास-
मधुबन! तुम कत रहत हरे।
विरहवियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?●

●साकेत

रह चिर दिन तू हरी भरी,
बढ़, सुख से बढ़, सृष्टि सुंदरी!
प्रभु नहीं फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे, अहो! तो गिरे, गिरे!

●द्वापर में-

●यशोधारा, राधा, नारद, कंस, कुब्जा इत्यादि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का अलग अलग मार्मिक चित्रण है। नारद और कंस की मनोवृत्तियों के स्वरूप तो बहुत ही विशद और समन्वित रूप में सामने रखे गए हैं। 

●रूपक- ‘अनघ’, ‘तिलोत्तामा’, ‘चंद्रहास’ 

●गुप्तजी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात् उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्यप्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति।

●’भारतेंदु’ के समय से स्वदेश प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ रही थी उसका विकास ‘भारतभारती’ में मिलता है।

●गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं, प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमने (या झीमने) वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं।

क्षत्रिय! सुनो अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो।
निज देश को जीवन सहित तन मन तथा धान भेंट दो।।

●छायवाद का अनुशरण करते हुए कुछ गीत रहस्यवादियों के स्वर में गाए- जो झंकार में संग्रहित है।

●असीम के प्रति उत्कंठा और लम्बी-चौड़ी वेदना का विचित्र प्रदर्शन गुप्त जी की अंत: प्रवृत्ति के अंतर्गत नहीं।

5.पं. रामचरित उपाध्याय-

वे संस्कृत के अच्छे पंडित थे और पहले पुराने ढंग की हिन्दी कविता की ओर उनकी रुचि थी। 

रामचरितचिंतामणि-(प्रबंध काव्य)

●अंगद-रावण संवाद है।

●भाषा उनकी साफ होती थी और वैदग्ध्य के साथ चलती थी।

●अंगद-रावण संवाद-

कुशल से रहना यदि है तुम्हें, दनुज! तो फिर गर्व न कीजिए।
शरण में गिरिए, रघुनाथ के; निबल के बल केवल राम हैं
सुन कपे! यम, इंद्र कुबेर की न हिलती रसना मम सामने।
तदपि आज मुझे करना पड़ा मनुज सेवक से बकवाद भी।

6.पं. गिरिधर शर्मा नवरत्न-

●’विद्याभास्कर’ नामक एक पत्र का संपादन भी इन्होंने कुछ दिन किया था।

●नवरत्नजी संस्कृत के भी अच्छे कवि हैं। गोल्डस्मिथ के (हरमिट) ‘एकांतवासी योगी’ का इन्होंने संस्कृत श्लोकों में अनुवाद किया है। 

●’शिशुपालवध’ के दो सर्गों का अनुवाद ‘हिन्दी माघ’ के नाम से उन्होंने संवत् 1985 में किया था।

●सरस्वती में प्रकाशित-

मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूँ, भाता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखूँ उसे मैं नित बार बार, मानो मिला मित्र मुझे पुराना।।

7.पं. लोचन प्रसाद पांडेय-

●’मृगी दुखमोचन’ में इन्होंने खड़ी बोली के सवैयों में एक मृगी की अत्यंत दारुण परिस्थिति का वर्णन सरस भाषा में किया है जिससे पशुओं तक पहुँचने वाली इनकी व्यापक और सर्वभूत दयापूर्ण काव्यदृष्टि का पता चलता है।

●मृगी दुखमोचन-

चढ़ जाते पहाड़ों में जा के कभी,
कभी झाड़ों के नीचे फिरें बिचरें।
सुमन विटप वल्ली काल की क्रूरता से।
झुलस जब रही थी ग्रीष्म की उग्रता से।।

●द्विवेदीमंडल के बाहर की काव्यभूमि

●मुख्य कवि-

●राय देवी प्रसाद ‘पूर्ण’, पं. नाथूरामशंकर शर्मा, पं. गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, पं. सत्यनारायण कविरत्न, लाला भगवानदीन, पं. रामनरेश त्रिपाठी, पं. रूपनारायण पांडेय।

8.राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’-

●वे ब्रजभाषा काव्य परंपरा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे।

●रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ ओर हेरैं, 

●कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश)

●खड़ी बोली की कविता-

● ‘अमलतास’, ‘वसंतवियोग’, ‘स्वदेशी कुंडल’, ‘नए सन् (1910) का स्वागत’, ‘नवीन संवत्सर (1967) का स्वागत’ इत्यादि।

देख तव वैभव, द्रुमकुल संत! बिचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान।।

नंदन वन का सुना नहीं है किसने नाम।
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम।।


है उत्तर में कोट शैल सम तुंग विशाल।
विमल सघन हिमवलित ललित धावलित सब काल

हे नरदक्षिण! इसके दक्षिण-पश्चिम, पूर्व।
है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व।।

कर देते हैं बाहर भुनगों का परिवार।
तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार।।

धेनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर क्षीर, 
तब कुछ दुहते हैं गौओं को चतुर अहीर। 

सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सभी तरह कल्याण।।

9.पं. नाथूराम शंकर शर्मा-

●वे अपना उपनाम ‘शंकर’ रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्ध हस्त थे।

●उनकी पदावली कुछ उद्दंडता लिए होती थी। इसका कारण यह है कि उनका संबंध आर्यसमाज से रहा जिसमें अंधाविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के उग्र विरोध की प्रवृत्ति बहुत दिनों तक जागृत रही।

●’गर्भरंडा रहस्य’ नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य उन्होंने विधवाओं की बुरी परिस्थिति और देवमंदिरों के अनाचार आदि दिखाने के उद्देश्य से लिखा था। 

फैल गया हुड़दंग होलिका की हलचल में।
फूल फूल कर फाग फला महिला मंडल में।।

10.पं. गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’-

●ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। 

●पुरानी ढंग की कविताएँ- ‘रसिकमित्र’, ‘काव्यसुधानिधि’ और ‘साहित्यसरोवर’।।

●खड़ी बोली-प्रेमपचीसी,कुसुमांजलि,कृषकनंदन।।

तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ।
तू है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ।।

11.पं. रामनरेश त्रिपाठी-

●भाषा की सफाई और कविता के प्रसादगुण पर इनका बहुत जोर रहता है।

●काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (रोमांटिसिज्म) का आभास पं. श्रीधार पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 

●खंड़काव्य-

●’मिलन’, ‘पथिक’ और ‘स्वप्न।।

●स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया।

● तीनों काव्य देशभक्ति के भाव से प्रेरित हैं।

●देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठी जी द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं।

●पथिक-दक्षिण भारत के रम्य दृश्य का वर्णन।

●’स्वप्न’ में उत्ताराखंडऔर कश्मीर की सुषमा सामने आती है। प्रकृति के किसी खंड के संश्लिष्ट चित्रण की प्रतिभा इनमें अच्छी है। सुंदर आलंकारिक साम्य खड़ा करने में भी इनकी कल्पना प्रवृत्त होती है पर झूठे आरोपों द्वारा अपनी उड़ान दिखाने या वैचित्रय खड़ा करने के लिए नहीं। 

●’स्वप्न’ नामक खंड काव्य तृतीय उत्थान काल के भीतर लिखा गया है जबकि ‘छायावाद’ नाम की शाखा चल चुकी थी, इससे उस शाखा का भी रंग कहीं कहीं इसके भीतर झलक मारता है,

उदाहरण-

प्रिय की सुधिसी ये सरिताएँ, ये कानन कांतार सुसज्जित।
मैं तो नहीं किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित।

●आरंभ में हम अपनी प्रिया में अनुरक्त वसंत नामक एक सुंदर और विचारशील युवक को जीवन की गंभीर वितर्कदशा में पाते हैं। एक ओर उसे प्रकृति की प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रियतमा के साहचर्य का प्रेमसुख लीन रखना चाहता है, दूसरी ओर समाज के असंख्य प्राणियों का कष्ट क्रंदन उसे उध्दार के लिए बुलाता जान पड़ता है।

 ●त्रिपाठीजी की कल्पना मानवहृदय के सामान्य मर्मपथ पर चलनेवाली है। 

●अत: त्रिपाठीजी हमें स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रकृत पथ पर दिखाई पड़ते हैं।

12.स्वर्गीय लाला भगवानदीन-

●कविता में वो अपना उपनाम दीन रखते थे।

●पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे ‘लक्ष्मी’ के संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे।

●काव्य-‘वीर क्षत्राणी’, ‘वीर बालक’ और ‘वीर पंचरत्न’। 

सुनि मुनि कौसिक तें साप को हवाल सब, 
बाढ़ी चित करुना की अजब उमंग है। 

●इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह ‘नवीन बीन’ या ‘नदी में दीन’ में है। 

13.पं. रूपनारायण पांडेय-

●दलित कुसुम, वनविहंगम, आश्वासन

●इनकी कविताओं का संग्रह ‘पराग’ नाम से प्रकाशित हो चुका है।

अहह! अधम आँधी, आ गई तू कहाँ से?
प्रलय घनघटासी छा गई तू कहाँ से?

बन बीच बसे थे फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोती कहीं।
दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं

14. पं. सत्यनारायण ‘कविरत्न’-

●शुक्ल जी इनके सम्बंध में लिखते हैं- उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था।

जो मों सों हँसि मिलै होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही गुन निरखत तिह मधिा सरल प्रकृति को प्रेरो।।

●ग्रंथ- प्रेमकली,भ्रमरदूत 

अलबेली कहु बेलि द्रुमन सों लिपटि सुहाई।
धोए-धोए पातन की अनुपम कमनाई।।

प्रकरण 4
नई धारा : तृतीय उत्थान : वर्तमान काव्यधाराएँ

●उर्दू या फारसी की बह्यों का, संस्कृत के वृत्तों का और हिन्दी के छंदों का। इनमें से प्रथम मार्ग का अवलंबन तो मैं नैराश्य या आलस्य समझता हूँ। वह हिन्दी काव्य का निकालाहुआ अपना मार्ग नहीं। अत: शेष दो मार्गों का ही थोड़े में विचार किया जाता है। 

●सवैया यद्यपि वर्णवृत्त है, पर लय के अनुसार लघुगुरु का बंधान उसमें बहुत कुछ उसी प्रकार शिथिल हो जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में।

●नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि ‘तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचारस्वातंत्रय में बाधा आती है।

●पद्यव्यवस्था से मुक्त काव्यरचना वास्तव में पाश्चात्य ढंग के गीतकाव्यों के अनुकरण का परिणाम है। हमारे यहाँ के संगीत में बँधी हुई राग रागनियाँ हैं। पर योरप में संगीत के बड़े बड़े उस्ताद (कंपोजर्स) अपनी अलग अलग नादयोजना या स्वरमैत्राी चलाया करते हैं। उस ढंग का अनुकरण पहले बंगाल में हुआ। वहाँ की देखादेखी हिन्दी में भी चलाया गया। ‘निरालाजी’ का तो इनकी ओर प्रधान लक्ष्य रहा। हमारा इस संबंध में यही कहना है कि काव्य का प्रभाव केवल नाद पर अवलंबित नहीं।

●छंदों के अतिरिक्त वस्तुविधान और अभिव्यंजनशैली में भी कई प्रकार की प्रवृत्तियाँ इस तृतीय उत्थान में प्रकट हुईं जिससे अनेकरूपता की ओर हमारा काव्य कुछ बढ़ता दिखाई पड़ा। किसी वस्तु में अनेकरूपता आना विकास का लक्षण है, यदि अनेकता के भीतर एकता का कोई एक सूत्र बराबर बना रहे।

●शैली में प्रगल्भता और विचित्रता चाहे न आई हो, पर काव्यभूमि का प्रसार अवश्य हुआ। प्रसार और सुधार की जो चर्चा नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना के समय से ही रह रहकर थोड़ी बहुत होती आ रही थी वह ‘सरस्वती’ निकलने के साथ ही कुछ अधिक ब्योरे के साथ हुई। उस पत्रिका के प्रथम दो तीन वर्षों के भीतर ही ऐसे लेख निकले जिनमें साफ कहा गया है कि अब नायिका भेद और श्रृंगार में ही बंधे रहने का जमाना नहीं है, संसार में न जाने कितनी बातें हैं जिन्हें लेकर कवि चल सकते हैं। इस बात पर द्विवेदी जी बराबर जोर देते रहे और कहते रहे कि ‘कविता के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है।’

●द्विवेदी जी  ‘सरस्वती’ के संपादन काल में कविता में नयापन लाने के बराबर इच्छुक रहे। नयापन आने के लिए वे नए नए विषयों का नयापन या नानात्व प्रधान समझते रहे और छंद, पदावली, अलंकार आदि का नयापन उसका अनुगामी।  रीतिकाल की श्रृंगारी कविता की ओर लक्ष्य करके उन्होंने लिखा-  
‘’इस तरह की कविता सैकड़ों वर्ष से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके जिन्होंने  इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नए कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं; वही तुक, वही छंद, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक! इसपर भी लोग पुरानी लकीर बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त, सवैये, दोहे, सोरठे लिखने से बाज नहीं आते।’’

●जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक ‘वाद’ का व्यापक रूप धारण करता है और बहुतों के लिए सब क्षेत्रों में स्वत: एक चरम साध्य बन जाता है। 

●भाषा की सफाई आई, दूसरी ओर उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा, इतिवृत्तात्मक और अधिकतर बाह्यार्थ निरूपक हो गया। अत: इस तृतीय उत्थान में जो प्रतिवर्तन हुआ और पीछे ‘छायावाद’ कहलाया वह उसी द्वितीय उत्थान की कविता के विरुद्ध कहा जा सकता है। उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तुविधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया। समन्वित विशाल भावनाओं को लेकर चलने की ओर ध्यान न रहा। 

●द्वितीय उत्थान की कविता में काव्य का स्वरूप खड़ा करनेवाली दोनों बातों की कमी दिखाई पड़ती थी, कल्पना का रंग भी बहुत कम या फीका रहता था और हृदय का वेग भी खूब खुलकर नहीं व्यंजित होता था।

●कलावाद और अभिव्यंजनावाद का पहला प्रभाव यह दिखाई पड़ा कि काव्य में भावानुभूति के स्थान पर कल्पना का विधान ही प्रधान समझा जाने लगा और कल्पना अधिकतर अप्रस्तुतों की योजना करने तथा लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और विचित्रता लाने में ही प्रवृत्त हुई। प्रकृति के नाना रूप और व्यापार इसी अप्रस्तुत योजना के काम में लाए गए।

●’कला कला’ की पुकार के कारण योरप में गीत मुक्तकों (लिरिक्स) का ही अधिक चलन देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब ऐसी लंबी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ इतिवृत्त भी मिला रहता हो। 

●छायावाद जहाँ तक आध्यात्मिक प्रेम लेकर चला है वहाँ तक तो रहस्यवाद के ही अंतर्गत रहा है। उसके आगे प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद (सिंबालिज्म) नाम की काव्यशैली के रूप में गृहीत होकर भी वह अधिकतर प्रेमगान ही करता रहा है। 

●स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी अधिकतर तो विरहवेदना के नाना सजीले शब्दपथ निकालते तथा लौकिक और अलौकिक प्रणय मधुगान ही करते रहे, पर इधर ‘लहर’ में कुछ ऐतिहासिक वृत्त लेकर छायावाद की चित्रमयी शैली को विस्तृत अर्थभूमि पर ले जाने का प्रयास भी उन्होंने किया और जगत के वर्तमान दुखद्वेषपूर्ण मानव जीवन का अनुभव करके इस ‘जले जगत के वृंदावन बन जाने’ की आशा भी प्रकट की तथा ‘जीवन के प्रभात’ को भी जगाया। इसी प्रकार श्री सुमित्रानंदन पंत ने ‘गुंजन’ में सौंदर्य चयन से आगे बढ़ जीवन के नित्य स्वरूप पर भी दृष्टि डाली है; सुख दुख दोनों के साथ अपने हृदय का सामंजस्य किया है और जीवन की गति में भी लय’ का अनुभव किया है। बहुत अच्छा होता यदि पंतजी उसी प्रकार जीवन कीअनेक परिस्थितियों को नित्य रूप में लेकर अपनी सुंदर, चित्रमयी प्रतिभा को अग्रसर करते जिस प्रकार उन्होंने ‘गुंजन’ और ‘युगांत’ में किया है। ‘युगवाणी’ में उनकी वाणी बहुत कुछ वर्तमान आंदोलनों की प्रतिध्वनि के रूप में परिणत होती दिखाई देती है। 

छायावाद-आचार्य रामचंद्र शुक्ल

●छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थ में समझना चाहिए । एक तो रहस्यवाद के अर्थ में,जहां उसका संबंध काव्यवस्तु से होता है अर्थात जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है।

●छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धतिविशेष के व्यापक अर्थ में है।

● हिंदी में ‘छायावाद’ शब्द का जो व्यापक अर्थ में- रहस्यवादी रचनाओं के अतिरिक्त और प्रकार की रचनाओं के संबंध में भी– ग्रहण हुआ वह इसी प्रतीक शैली के अर्थ में। छायावाद का सामान्यत: अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।

●छायावाद का केवल पहला अर्थात् मूल अर्थ लेकर तो हिंदी काव्यक्षेत्र में चलने वाली श्री महादेवी वर्मा ही हैं।

●छायावाद का चलन द्विवेदीकाल  की रुखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अतः इस प्रतिक्रिया का प्रदर्शन केवल लक्षण और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं-कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ।

●हमारे यहां साम्य मुख्यतः तीन प्रकार का माना गया है। सादृश्य, साधर्म्य और केवल शब्दसाम्य।

● ब्रजभाषा कवियों में लाक्षणिक साहस किसी ने दिखाया तो ‘घनानंद’ ने। इस छायावाद में सबसे अधिक लाक्षणिक साहस पंत जी ने अपने ‘पल्लव’ में दिखाया है।

●’पल्लव’ में प्रतिक्रिया के आवेश के कारण वैचित्र्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक थी जिसके लिए कहीं-कहीं अंग्रेजी के लाक्षणिक प्रयोग भी ज्यों के त्यों ले लिये गये। पर पीछे यह प्रवृत्ति घटती गई।

● प्रसाद की रचनाओं में शब्दों के लाक्षणिक वैचित्र्य की प्रवृत्ति उतनी नहीं रही है जितनी साम्य की दुरारुढ़ भावना की।

● छायावाद की रचनाएं गीतों के रूप में ही अधिकतर होती है। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहां यह अन्विति होती है वही समूची रचना अन्योक्ति  पद्धति पर की जाती है।

● छायावाद की कविता पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात और अज्ञात रूप में पड़ता रहा है।इससे बहुत- सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है।

● प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य की भावना सदैव स्त्री सौंदर्य का आरोप करके करना उक्त भावना की संकीर्णता सूचित करता है।

●प्रकृति के सच्चे स्वरूप, उसकी सच्ची व्यंजना ग्रहण करना उक्त वादों के अनुसार आवश्यक नहीं। उनके अनुसार तो प्रकृति की नाना वस्तुओं का उपयोग केवल उपादान के रूप में है; उसी प्रकार जैसे बालक, ईट, पत्थर, लकड़ी, कागज, फूल-पत्ती लेकर हाथी-घोड़े,घर-बगीचे इत्यादि बनाया करते हैं।

● प्रसाद जी का ध्यान शरीर विकारों पर विशेष जमता विशेष जमता था। इसी से उन्होंने ‘चाँप-चाँपकर दुख दो’ से ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। कामायनी में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की ‘लज्जा की लाली’ दिखाई है।

●’कामायनी’ में उन्होंने नरजीवन के विकास में भिन्न-भिन्न भावात्मिक वृतियों का योग और संघर्ष बड़ी प्रगल्भ और  रमणीय कल्पना द्वारा चित्रित करके मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है।

◆ जयशंकर प्रसाद

●ये पहले ब्रजभाषा की कविताएँ लिखा करते थे जिसका संग्रह ‘चित्राधार’ में हुआ है। इनकी खड़ी बोली की रचनाएं- ‘कानन कुसुम’,’महाराणा का महत्व’, ‘करुणालय’ और ‘प्रेमपथिक’ आदि है।

●प्रेमचर्या के शारीरिक व्यापारों और चेष्टाओं(अश्रु,स्वेद,चुंबन,परिरंभन, लज्जा की दौड़ी हुई लाली इत्यादि) रंगरेलियों और अटखेलियों, वेदना की कसक और टिस इत्यादि की ओर इनकी दृष्टि विशेष जमती थी।

● अतः इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहे तो यह कहे कि इनकी मधुवर्षा के मानस- प्रचार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानुभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही।

● इनकी पहली विशिष्टरचना ‘आँसू’ है। ‘आँसू’ वास्तव में तो श्रृंगारी विप्रलंभ के, जिसमें अतीत संयोग सुख की खिन्न  स्मृतियां रह-रहकर झलक मारती है, पर जहां प्रेमी की मादकता की बेसुधी में प्रियतम नीचे से ऊपर आते हैं और संज्ञा की दशा में चले जाते हैं जहां हृदय की तरंगे ‘उस अनंत कोने को नहलाने चलती हैँ।

●प्रसाद जी की यह पहली काव्य रचना है जिसने बहुत लोगों को आकर्षित किया। अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेमवेदना की दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभाव का सुख और दुख दोनों का अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौंदर्य और मंगल का भी आभास पाया जाता है।

●’आँसू’ के उपरांत इनकी दूसरी रचना ‘लहर’ है।’लहर’ से कवि का अभिप्राय उस आनंद की लहर से है जो मनुष्य के मानस में उठा करती है और उसके जीवन को सरस करती रहती है।

● इसमें भी उस प्रियतम की आंखमिचौली खेलना, दबे पांव आना, किरन उँगलियों से आँख मूँदना, प्रियतम की ओर अभिसार  इत्यादि रहस्यवाद की सब सामग्री है।

●’लहर’ में चार-पाँच ही रहस्य रहस्यवाद की है।पर कवि की तंद्रा और स्वप्न वाली प्रिय भावना जगह-जगह व्यक्त होती है।

●इसमें प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रूपकय गान हैं।

●’लहर’ में प्रसाद जी ने अपने प्रगल्भ कल्पना के रंग में इतिहास के कुछ खंडों को भी देखा है।

●’लहर’ में हम प्रसाद जी को वर्तमान और अतीत जीवन की प्रकृति ठोस भूमि पर अपनी कल्पना ठहराने का कुछ प्रयत्न करते पाते हैं।

●किसी एक विशाल भावना को रूप देने की ओर भी अंत में प्रसाद जी ने ध्यान दिया, जिसका परिणाम है ‘कामायनी’। इसमें उन्होंने अपने ‘प्रिय’ आनंद की प्रतिष्ठा दर्शनिकता के ऊपर अपनी आभास के साथ कल्पना की मधुमति भूमिका बनाकर दी है।

● यह ‘आनंदवाद’ बल्लभाचार्य  के ‘काय’ या आनंद के ढंग का न होकर, तांत्रिकों और योगियों के अन्तर्भूमि पद्धति पर है।

●कवि ने श्रद्धा को मृदुता, प्रेम और करुणा का प्रवर्तन करने  वाली और सच्चे आनंद तक पहुंचाने वाली चित्रित किया है।इड़ा या बुद्धि अनेक प्रकार के वर्गीकरण और व्यवस्थाओं में प्रवृत्ति करती हुई कर्मों में उलझाने वाली चित्रित की गयी है।

●जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रवृत्ति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है। पहले कवि ने कर्म को बुद्धि या ज्ञान की प्रवृत्ति के रूप में दिखाया,फिर अंत में कर्म और ज्ञान के बिंदुओं को अलग-अलग रखा।

●श्रद्धा जिस करुणा,दया आदि की प्रवर्तिका कहीं गयी है, उसमें दूसरों की पीड़ा का बोध मिला रहता है।

● संवेदना,चेतना, जागरण आदि के परिहार का जो बीच-बीच में अभिलाष है उसे रहस्यवाद का तकाजा समझना चाहिए । ग्रंथ के अंत में जो हृदय,बुद्धि और कर्म के मेल या सामंजस्य का पक्ष रखा गया है, वह बहुत समीचीन है। उसे हम गोस्वामी तुलसीदास में, उनके भक्तिमार्ग की सबसे बड़ी विशेषता के रूप में दिखा चुके हैं।

● विज्ञान द्वारा सुखसाधनों की वृद्धि के साथ-साथ विलासिता और लोभ की असीम वृद्धि तथा यंत्रों के परिचालन से जनता के बीच फैली हुई घोर अशक्तता, दरिद्रता आदि के कारण वर्तमान जगत की जो विषम स्थिति हो रही है उसका भी थोड़ा-सा आभास मनु की विद्रोही प्रजा में दिखाई पड़ता है।

● यदि मधुचार्य  का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती। कर्म को कवि ने या तो काम्ययज्ञों के बीच दिखाया है अथवा उद्योग धंधों या शासनविधानों के बीच। श्रद्धा के मंगलमय योग से किस प्रकार कर्म धर्म का रूप धारण करता है, यह भावना कवि से दूर ही रही।

● इस प्रकार प्रसाद जी प्रबंध क्षेत्र में भी जो छायावाद की चित्रविधान और लाक्षणिक शैली की सफलता की आशा बँधा गये हैं।

◆ श्री सुमित्रानंदन पंत

 ●इनकी प्रारंभिक कविताएँ ‘वीणा’ में, जिसमें ‘ह्रत्तन्त्री की तार’ भी संगृहीत है, उन्हें देखने पर ‘गीतांजलि’ का प्रभाव कुछ लक्षित अवश्य होता है; पर साथ ही आगे चलकर प्रवर्धित चित्रमयी भाषा के उपयुक्त रमणीय कल्पना का जगह-जगह बहुत ही प्रचुर आभास मिलता है।

● पंत जी की रहस्यभावना प्राय: स्वाभाविक ही रही। ‘वाद’ का सांप्रदायिक रूप उसने शायद ही कहीं ग्रहण किया हो।

● उनकी जो एक बड़ी विशेषता है प्रकृति के सुंदर रूपों  की आह्लादमयी अनुभूति, वह ‘वीणा’ में भी कई जगह पायी जाती है। सौंदर्य का आह्लाद उनकी कल्पना को उत्तेजित करके ऐसे अप्रस्तुत रूपों की योजना में प्रवृत्त करता है जिनके प्रस्तुत रूपों के सौंदर्यानुभूत के प्रसार के लिए अनेक मार्ग खुल से जाते है।

●  पंत जी के पहली प्रौढ़ रचना ‘पल्लवन’ है जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्यपद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया का बहुत चढ़ा-बड़ा प्रदर्शन है। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, अप्रस्तुत विधान इत्यादि की विशेषताएं प्रचुर परिणाम में भरी-सी पायी जाती है।

●’वीणा’ और ‘पल्लव’ दोनों में अंग्रेजी कविताओं से लिये हुए भाव और अंग्रेजी भाषा के लाक्षणिक प्रयोग बहुत से मिलते हैं।कहीं-कहीं आरोप और अध्यवसान व्यर्थ और अशक्त है,केवल चमत्कार और वक्रता के लिए रखे प्रतीत होते हैं।

● पल्लव के भीतर ‘उच्छवास’, ‘आँसू’, ‘परिवर्तन’ और ‘बादल’ आदि रचनाएँ देखने से पता चलता है कि यदि ‘छायावाद’ के नाम से ‘वाद’ न चल गया होता तो पंत जी स्वच्छंदता के शुद्ध स्वभाविक मार्ग पर ही चलते। उन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होने वाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलने वाला हृदय प्राप्त था।

● दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की व्यंजना में भी कवि ने प्रिय और प्रेमिका का स्वभाविक पुरुष-स्त्री भेद रखा है। ‘प्रसाद’ जी के सामान दोनों पुलिंग रखकर सामान दोनों पुलिंग रखकर फारसी या सूफी रूढ़ि का अनुसरण नहीं किया है।

● छायावाद के भीतर माने जाने वाले सब कवियों में प्रकृति के साथ सीधा प्रेमसंबंध पंत जी का ही दिखाई पड़ता है।

●’कलावाद’ के प्रभाव से जिस सौंदर्यवाद का चलन यूरोप के कार्यक्षेत्र के भीतर हुआ उसका पंथ जी पर पूरा प्रभाव रहा है।

● कहने का तात्पर्य है कि पंत जी की स्वभाविक रहस्यभावना को ‘प्रसाद’ और ‘महादेवी वर्मा’की सांप्रदायिक रहस्यभावना से भिन्न समझना चाहिए।

●’युगांत’ में कवि को हम केवल रूप- रंग, चमक-दमक, सुख-सौरववाले सौंदर्य से आगे बढ़कर जीवन के सौंदर्य की सत्याश्रित कल्पना में प्रवृत्त पाते हैं। उसे बाहर जगत में ‘सौंदर्य, स्नेह, उल्लास का अभाव दिखाई पड़ा है।

●पंत जी ने समाजवाद के प्रति भी रुचि दिखाई है और ‘गांधीवाद’ के प्रति भी। ऐसा प्रतीत होता है कि लोकव्यवस्था के रूप में तो ‘समाजवाद’ की बातें उन्हें पसंद है और व्यक्तिगत साधना के लिए ‘गांधीवाद’ की बातें।

● जो कुछ हो यह देखकर प्रसन्नता होती है कि ‘छायावाद’ के बँध घेरे से निकालकर पंत जी ने जगत की विस्तृत अर्थभूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता के साथ विचरने का साहस दिखाया है।

● शहद चाटने वालों और गुलाब की रूह सूंघने वालों को चाहे इसमें कुछ न मिले;पर हमें तो इसके भीतर चराचर के साथ मनुष्य के संबंध की बड़ी प्यारी भावना मिलती है।

● पंत जी को ‘छायावाद’ और ‘रहस्यवाद’ से निकालकर स्वभाविक स्वच्छंदता की ओर बढ़ते देख हमें अवश्य संतोष होता है।

◆ श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ 

●संगीत के अंग्रेजी ढंग की नकल पहले बंगाल में शुरू हुई। इस नये ढंग की ओर निराला जी सबसे अधिक आकर्षित हुए और अपने गीतों में उन्होंने पूरा जौहर दिखाया। संगीत को काव्य के और काव्य  को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निराला जी ने किया है।

● गीतिका में  इनके ऐसे ही गीतों का संग्रह है जिनमें कवि का ध्यान संगीत की ओर अधिक है, अर्थसमन्वय की ओर कम।

● जहां कवि ने अधिक या कुछ पेचीले अर्थ रखने का प्रयास किया है वहां पद- योजना उस अर्थ को दूसरों तक पहुंचाने में  प्रायःअशक्त या उदासीन पायी जाती है।

●निराला जी पर बंग भाषा की काव्यशैली का प्रभाव समाज में गुम्फित ,पदवल्लरी, क्रियापद के लोप आदि में स्पष्ट झलकती है।लाक्षणिक वैलक्षण्य लाने की प्रवृत्ति इनमें उतनी नहीं पायी जाती, जितनी ‘प्रसाद’ और ‘पंत’ में।

●सबसे अधिक विशेषता आपके पद्यों में चरणों की स्वच्छंद विषमता है। कोई चरण बहुत लंबा,कोई बहुत छोटा, कोई मझोला देखकर ही बहुत-से लोग ‘रबर छंद’, ‘केंचुआ छंद’ आदि कहने लगे थे। बेमेल चरणों की विलक्षण आजमाइश इन्होंने सबसे अधिक की है।

● बहुवस्तुस्पर्शिनी  प्रतिभा निराला जी में है।

●जिस प्रकार निराला को छंद के बंधन अरुचिकर हैं उसी प्रकार सामाजिक बंधन भी। इसी से सम्राट अष्टम एडवर्ड की प्रशस्ति लिखकर उन्होंने उन्हें एक वीर के रूप में सामने रखा जिसने प्रेम की निर्मित साहसपूर्वक पदमर्यादा के सामाजिक बंधन को दूर फेंका है।

●रहस्यवाद से संबंध रखने वाली निराला जी की रचनाएं आध्यात्मिकता का वह रंग-रूप लेकर चली है, जिसका विकास बंगाल में हुआ।

● अद्वैतवाद के वेदांती स्वरूप को ग्रहण करने के कारण इनकी रहस्यात्मक रचनाओं में भारतीय दार्शनिक निरूपण की झलक जगह-जगह मिलती है।

●’तुलसीदास’ निराला जी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है।

●पर निराला जी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली में जड़ी हुई होती है जिसका नमूना ‘राम की शक्ति पूजा’ में मिलता है।

●इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्रायः रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं- कहीं बहुत ढीली पड़ जाती है।

◆ श्रीमती महादेवी वर्मा

●छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी वर्मा जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं।

●अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही इसके हृदय का भावकेंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएं छूट-छूट कर झलक मारती रहती है।वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती है।

●इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय  की ऐसी अनुभूतियां सामने रखी है जो लोकोत्तर है। कहां तक वे  वास्तविक अनुभूतियां हैं और कहां तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है,यह नहीं कहा जा सकता।

●गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवी जी को हुई वैसी और किसी को नहीं।न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजलप्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगिमा।जगह-जगह  ऐसी ढ़ली  हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।