hello@mukhyansh.com

सोनिया सिंह- एक जलती ‘मशाल’ मेरे भीतर भी

सोनिया सिंह- एक जलती ‘मशाल’ मेरे भीतर भी

मुम्बई में रहने वाली हमीदा(काल्पनिक नाम) सेक्स रैकेट चलाती हैं,वो बताती है कि “उसके इसी धंधे से कईयों के घरों में चूल्हे रौशन हैं और कईयों की स्कूली फीस चलती है,पर क्या करें,करना  पड़ता है!शौंक के लिए तो करते नहीं ना।दूसरो के कहने पे दूसरे भी बहुत काम किए हैं पर लोग वहां भी जीने नहीं देते,तो कहीं कोई सुनने वाला नहीं है और जो सुनने वाले हैं वो गए रात हमारे ही दरवाजों पर आपको मिल जाएंगे,बताओ कहाँ जाए?अब तो खुद से खुद का प्यार खत्म हो गया है,देह में सड़न पैदा हो गई है और कभी कभी तो खुद से ही सड़ने कि बू आने लगती है,पर क्या करे मर्दों की जात ऐसी है कि सड़ चुके समान का भी पैसा चुकाने को आतुर रहते हैं।

दरअसल हमारे समाज का ही ये दोगलापन है कि पहले हम औरतों  को पूजते हैं,देवी बना कर सम्मान देते हैं और वहीं दूसरी तरफ कुछ को बाजारों में बिकने के लिए छोड़ देते हैं। विडंबना यह है कि “राजनीतिक सियासत” की तरह ही ऐसे दोगलेपन के धंधे सरेआम चलाए जा रहे हैं!ऐसे बाजारों में हम जिस्मफरोशी के पैमाने को तो माप सकते हैं पर “बिके हुए ठंडे गोश्त” जिसमे सिर्फ “मानसिक बलात्कार” के आलावा और कुछ नहीं उसको मापने का कहीं कोई पैमाना हमारे पास नहीं है।

“आसिफा बानो” की मां बताती है कि “अगर मुझे पहले पता होता कि मेरी आसिफा मेरी नज़रों से दूर हो जाएगी तो मैं उसको अपने आगोश से कभी जुदा नहीं करती,वैसे भी मौत तो सबको एक दिन आनी ही है पर इस तरह के मौत देने का हक “इंसानी हुकूमतों” को दिया किसने? शून्य में ताकती आसिफा की मां ऐसे बहुत सारे सवालों के जवाब पूछती है पर उसका कोई भी सवाल  शायद उसकी आंखे तय नहीं कर पा रही थीं।शायद राजनीति के गलियारों में भी किसी को उसके सवालों का जवाब ना मिल पाए।ये वही 8 साल की आशिफा बानो है जो वर्ष 2018 में कठुआ में पहले बलात्कार और फिर कत्ल का शिकार हुई  जिसके पीछे उठे जनता के रोष के चलते पुलिस ने सियासी रसूख वाले अपराधियों को तो गिरफ्तार कर लिए पर जम्मू के चंद वकीलों ने मुल्जिमों कि गिरफ्तारी का विरोध करते हुए सड़कों पर उतरकर मार्च भी किया,अपने हाथो में देश का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा उठा रखा था इसका अर्थ है कि राष्ट्र की परिभाषा को पूरी तरह से अब बदल दिया गया है और इस तरह के दृश्य में तिरंगा उस सियासी जंग को प्रकट करता है जो इस समय हमारे राष्ट्र को परिभाषित करने वाले विचारक लड़ रहे है।इस तरह के विचारक ना सिर्फ मुल्क को “खास”  बचाने की जंग में बल्कि इसके साथ मुल्क के भविष्य की संरचना किस दिशा में हो इनको लेकर तत्पर है कि अब दिशाओ को भी निर्धारित करने में लगे हैं।

National Crime Records Bureau वर्ष 2019 रिपोर्ट के अनुसार हर 15 मिनट में एक लड़की का बलात्कार और हर मिनट में एक लड़की घरेलू हिंसा व सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होती है तथा हर  पांच घंटे में एक “आसिफा” रोज़ मरती भी है।

ऐसे में कवयित्री अनामिका की ये पंक्तियां याद आती हैं-

“पढ़ा गया हमको, जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़
बच्चों की फटी कॉपियों का देखा गया हमको
जैसे कुफ्त होती नींदे देखी जाती है 
कलाई घड़ी सुना गया हमको, 
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह…

इन अलग-अलग स्थितियों को देखकर ये सवाल उठना लाज़मी है कि हिंदी भाषी समाज में औरतों की क्या भूमिका, क्या दशा रही है? ये सवाल भी मन में आता है कि यहां नारीवादी चिंतन किस तरह का है।

वह जो सोशल मीडिया पर दिखता है,या वह जो फिल्मों में दिखाया जाता है? या वो जिसकी नींव खाप जैसे संगठन मनमर्ज़ी से बदलते रहते हैं या कुछ और?

वैचारिक और सैद्धांतिक तौर इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं मिलता। जबकि यही चिंतन समाज की मानसिकता और रवैए को बदल सकती है। नारीवादी विचारक और लेखिका अर्चना वर्मा कहती हैं :-दिक्कत यह है कि हमारा समाज आज भी एक छुटभैय्या मानसिकता धारण किए हुए है और एक बने बनाए चौखटे से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। वहीं दूसरी तरफ, सोशल मीडिया पर एक उग्र किस्म का फेसबुकिया नारीवाद है,जो सिर्फ रहन-सहन और फैशन तक ही सीमित है। हालांकि अर्चना ये बात ज़रूर मानती हैं कि इन उग्र महिला सरोकारों की भी वैचारिक स्तर पर अहम भूमिका हो सकती है।

कवियत्री और नारीवादी लेखिका अनामिका का कहना है कि हिंदी ही नहीं बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं में भी नारीवादी लेखन हो रहा है लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता।वे कहती हैं, “अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोग ये मान लेते हैं कि इस तरह का इन्फॉर्मल चिंतन बहुत कच्चा है,पूरी तरह विकसित नहीं है। फिर डिस्ट्रीब्यूशन की समस्या इस लेखन को आम पाठकों तक नहीं पहुंचने देती।”

अभय कुमार दुबे उन चंद पुरुष समाजशास्त्रियों में से हैं जिन्होंने इस मुद्दे पर गंभीर लेखन किया है।दुबे का कहना है कि हिंदी दूसरी भाषाओं की तुलना में अभी नई है, इसलिए महिला-विमर्श पर बहुत काम नहीं हो पाया है लेकिन साहित्यिक विमर्श में औरतों पर बहुत कुछ लिखा गया है। अभय कुमार दुबे मानते हैं कि पुरुष महिलाओं के बारे में बात करते रहे हैं लेकिन उन पर कोई चर्चा नहीं करते और बाकी दुनिया में यही नज़रिया पाया जाता है।पुरुषों ने नारीवादी चिंतन में सक्रिय भूमिका शायद ढंग से नहीं निभाई।

जेएस मिल जैसे इक्के-दुक्के विचारकों के अलावा पुरुषों ने नारीवादी चिंतन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई है। अभय दुबे का मानना था कि औरतों को खुद ही अपने लिए आवाज़ उठाना होगा, पुरुष उनकी नुमाइंदगी नहीं करेंगे। सवाल सिर्फ नुमाइंदगी का भी नहीं है क्योंकि औरत महज एक सामाजिक-आर्थिक इकाई नहीं है वरन वो मानवीय समाज का आवश्यक अंग है। महिला-विमर्श तभी पूरा हो सकता है जब पुरुष के बरक्स महिलाओ की बात की जाए और उसमें पुरुष भी हिस्सा लें। 19वीं सदी में जेएस मिल ने महिला-पुरुष संबंधों को एक वाक्य में बताया था- ‘महिला पुरुष की अंतरंग दास है’ ।करीब 150 साल बाद भी हालात कमोबेश ऐसी ही है।जबकि कहीं न कहीं औरतों के लिए समाज ज़्यादा हिंसक और असहनशील होता नज़र आता है।

अगर वैचारिक ज़मीन पर महिलाओं की भूमिका, उनके ऐतिहासिक सामाजिक उत्थान-पतन को फिर से परिभाषित किया जाए तो शायद हम भी नारीवाद को एक फैशन या प्रचलन की तरह नहीं बल्कि एक ठोस विचारधारा की तरह समझ पाएंगे। ताकि ‘अनामिका’ के शब्दों को स्त्रियां असल ज़िंदगी में भी महसूस कर सकें,

“हमें देखो तो ऐसे ,जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है।
बहुत दूर जलती हुई आग, सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो
जैसे समझी जाती है नई नई सीखी हुई भाषा!”

अगर नारीवादी विचारधारा की बात करें तो हम पाएंगे कि हमारे बीच में एक आसिफा चुप्पी साधे बैठे हुई है बस फर्क सिर्फ इतना है कि कोई महज कुछ खबरों का हिस्सा बन जाती हैं और कुछ को हम लोग अखबारों की सुर्खियां समझ कर चाय की कप के साथ पी जाते हैं। गौर फरमाने कि बात ये है  कि हमारे “फासीवादी सियासत” की छाप हमारे दिलोदिमाग पर इस कदर हावी हो चुका है,कि उसके सामने होती हुई ये बर्बरता पूर्ण घटनाएं हमें कुछ ज्यादा महसूस नहीं होती हैं बशर्ते जब तक कि हमारे खुद के घर में एक और आसिफा पैदा ना हो जाए और जब तक उसकी चीखो से हमारे कान के पर्दे फट ना जाये!!

पता है बलात्कार शब्द काफी छोटा लगता है पर उसका वार हमारी आस्मिता को तार-तार कर देता है,दिमाग की नसें मानो फट जाती हैं,आत्मा निकल जाती है,उसको मैला करने की भरपाई कोई कानूनी दाव पेंच नहीं कर सकता, फटे हुए कपड़ों को तो सिला जा सकता पर टूट चुकी आत्मा के चीथरो को दुबारा नहीं जोड़ा जा सकता,उसकी भरपाई किसी की मौत, किसी की कितनी भी सजा नहीं कर सकती।

कुछ पंक्तियों में अगर मै अपने गुस्से को बयां भी करू तो क्या कहूं की…

“तुझे एक बार सोचने का मौका एक बार फ़िर दूंगी
तुझे मेरा बलात्कार करने का मौका एक बार फिर दूंगी,
सुबह होने से रात होने तक 
तुझे बोलने का मौका एक बार फिर दूंगी””
तू बोलना और सोचना की
तू इसकी कीमत कैसे चुकाएगा?
अगर ज़िंदा रहा तो खुद पछताएगा 
और 
अगर मरा तो बलात्कारी कहलाएगा…”.
मेरी आज़ादी कि कीमत इस बार तू अपने खून से 
चुकाएगा
मेरी अस्मिता को मैला करने वाला 
“नामर्द”तू फिर भी कहलाएगा..”
मैं मर कर भी जी उठूंगी 
हिम्मत अभी भी मुझमें बाकी है..,
तुम्हारी हर गलती की सजा अभी भी बाकी है..
मेरे जिस्म पे लगे हर दाग की  अभी आखिरी
सियासत”बाकी है!
तुझे  एक बार सोचने का वक़्त एक बार फ़िर दूंगी…”

कहते हैं कि जितना ज्यादा हम खुद के बारे में सोचते जाते हैं हमारी अपनी समझ अपने खुद के लिए भी और समाज के लिए भी बेहतर होती जाती है।लेकिन अब शायद हमारे सोचने की क्षमता तो ज़िंदा है पर हमारी अपनी समझने की अब समझ के हाशिए को भी अब पार कर चुकी है।

अंधेरा अगर ज्यादा हो जाए तो उसे दूर भगाने के लिए अक्सर जलते हुए दियो का सहारा लिया जाता है।हर किसी को कभी ना कभी कहीं ना कहीं इस अंधेरे का सामना करना पड़ा होगा फिर उस सोच को ज़िंदा रखने के लिए हमने भी मशाल जलाई होगी और कोशिश की होगी की हम एक बार फिर रौशनी के दरवाजों को ढूंढ लेंगे और एक नई मंजिल की ओर हों लेंगे जहां कोई अंधेरा ना हो।बस रौशनी ही रौशनी हो…

सोनिया सिंह