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आधे-अधूरे-नाटक : मोहन राकेश – मुख्य अंश

आधे-अधूरे-नाटक : मोहन राकेश – मुख्य अंश

मुख्य बिंदु:-

  • प्रकाशन-1969
  • अंक-पूर्वार्द्ध, उत्तरार्द्ध में विभाजित।
  • पात्रमहेन्द्रनाथ(पहलापुरुष),सावित्री,बिन्नी,अशोक,छोटी लड़की,सिंघानिया(दूसरा पुरुष),जगमोहन(तीसरा पुरुष),जुनेजा(चौथा पुरुष),मनोज।
  • यह नाटक ‘धर्मयुग‘ पत्रिका में तीन अंकों में छपी थी।
  • मध्यवर्गीय परिवार में आ रहे बदलाव का समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन।
  • स्त्री-पुरुष के बीच लगाव तथा तनाव का दस्तावेज।
  • यह नाटक मानवीय संतोष के अधूरेपन को रेखांकित करती है।जो ज़िन्दगी से बहुत-कुछ चाहते हैं उनकी तृप्ति अधूरी ही रहती है।
  • पारिवारिक विघटन की गाथा।
  • आधुनिक कामकाजी स्त्री का चित्रण और नारी मुक्ति की भावना।
  • कुंठित युवावर्ग की पीड़ा का चित्रण।
  • यह हिंदी का पहला प्रमुख नाटक है जो विवाह-संस्था को एक स्थिर-स्थायी व्यवस्था और घर को एक सुखी परिवार के रूप में स्थापित करनेवाले सदियों पुराने मिथक को तोड़ते का प्रयास करता है।
  • पहला मंचन दिल्ली में ‘दिशांतर’ द्वारा श्री ओम शिवपुरी ,1969 में हुआ।

मुख्य अंश

पूर्वार्द्ध

  • शायद अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं वह आदमी मैं हूं। आप सिर्फ घूरकर मुझे देख लेते हैं। इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहां रहता हूं, क्या करता हूं… ।–(काला सूट वाला)
  • बात इतनी है कि विभाजित होकर मैं किसी-न- किसी अंश में आपमें से हर एक व्यक्ति हूं और यही कारण है कि नाटक के बाहर हो या अंदर,मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है।–( काला सूट वाला)
  • आदमी जो जवाब दे, वह उसके चेहरे से भी तो झलकना चाहिए।(पुरुष-एक का कथन) 
  • अब आकर लगने लगा है कि वह जाना बिलकुल जाना नहीं था।–(बड़ी-लड़की का कथन)
  •  दो आदमी जितना ज्यादा साथ रहें, एक हवा में सांस लें, उतना ही ज्यादा अपने को एक-दूसरे से अजनबी महसूस करें?–( बड़ी-लड़की  का कथन)
  • एक गुबार-सा है जो हर वक्त मेरे अंदर भरा रहता है और मैं इंतजार में रहती हूं जैसे कि कब कोई बहाना मिले जिससे उसे बाहर निकाल लूँ और आखिर…?–( बड़ी-लड़की  का कथन)
  • मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूं जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वभाविक नहीं रहने देती।–( बड़ी-लड़की का कथन)
  • जो तुमसे नहीं संभलता, वह और किससे संभल सकता है इस घर में… जान सकती हूं?–(बड़ी-लड़की का कथन)
  • हर वक्त की दुत्कार, हर वक्त की कोंच, बस यही कमाई है यहाँ मेरी इतने सालों की?–( पुरुष-एक का कथन)
  • मैं इस घर में एक रबड़-स्टैंप भी नहीं, सिर्फ एक रबड़ का टुकड़ा हूं– बार-बार घिसा जानेवाला रबड़ का टुकड़ा।–( पुरुष-एक का कथन)
  • मैं एक कीड़ा हूं जिसने अंदर ही अंदर इस घर को खा लिया है पर अब पेट भर गया है मेरा। हमेशा के लिए भर गया है।–( पुरुष-एक का कथन)
  • यहां पर सबलोग समझते क्या है मुझे? एक मशीन, जोकि सबके लिए आटा पीसकर रात को दिन और दिन को रात करती रहती है? मगर किसी के मन में ज़रा-सा भी ख्याल नहीं है कि इस चीज के लिए कि कैसे में…।–(सावित्री का कथन)
  • जीवन की विचित्रताओं की ओर ध्यान देने लगें, तो कई बार तो लगता है कि… भूल तो नहीं आया घर पर?–( पुरुष-दो का कथन)
  • गाड़ी का इंजन तो फिर से भी धक्के से चल जाता है, पर जहां तक (माथे की ओर इशारा करके) इस इंजन का सवाल है…।–(अशोक का कथन)
  • जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में।–(अशोक का कथन) 
  • मेरे पास अब बहुत साल नहीं है जीने को। पर जितने हैं,उन्हें मैं इसी तरह और निभाते हुए नहीं काटूंगी। मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका आज तक।मेरी तरफ से यह अंत है उसका –निश्चित अंत!–(सावित्री का कथन)

उत्तरार्द्ध

  • जो चीज बरसों से एक जगह रुकी है, वह रुकी ही नहीं रहनी चाहिए।–(अशोक का कथन) 
  • सचमुच चाहता हूं कि बात किसी भी एक नतीजे तक पहुंच जाए।–( अशोक का कथन)
  • महसूस करना ही महसूस नहीं होता था। और कुछ- कुछ महसूस होना शुरू हुआ जब,तो पहला मौका मिलते ही घर से चली गई।–( अशोक का कथन)
  • बिना वजह लगाम खींचे जाना मेरे लिए भी नई चीज नहीं है।–(पुरुष तीन’जगमोहन’ का कथन)
  • मैं वहां पहुंच गई हूं जहां पहुंचने से डरती रही हूं जिंदगी भर। मुझे आज लगता है कि…।–( सावित्री का कथन)
  • मेरे लिए पहले भी असंभव था यहां यह सब सहना। तुम जानते ही हो। पर अब आकर बिल्कुल-बिल्कुल असंभव हो गया है।–( सावित्री का कथन)
  • मुझे याद है तुम कहा करते थे,’सोचने से कुछ होना हो, तब तो सोचे भी आदमी।’–(सावित्री का कथन )
  • मैं यहां थी,तो मुझे कई बार लगता था कि मैं एक घर में नहीं, चिड़ियाघर के एक पिंजरे में रहती हूं जहां…।–( बड़ी-लड़की मतलब बिन्नी का कथन)
  • और जानकर ही कहता हूं कि तुमने इस तरह शिकंजे में कस रखा है उसे कि वह अब अपने दो पैरों पर चल सकने लायक भी नहीं रहा।–( पुरुष चार’ का कथन)
  • आदमी किस हालत में सचमुच एक आदमी होता है?–( सावित्री का कथा )
  • यूं तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता, फिरता, बात करता है,वह आदमी ही होता है…। पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं है कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो?–( सावित्री का कथन)
  • जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज के लिए उसे किसी- न-किसी का सहारा ढूंढते पाया है।–( सावित्री का कथन)
  • क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है– कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़कर जीना।वह उतना-कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता।–( पुरुष -चार का कथन)
  • देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना- कुछ एक साथ भर लेना चाहती थी, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया।–( पुरुष-चार का कथन)
  • जाते हुए सामने थी एक पूरी जिंदगी-पर लौटने तक का कुल हासिल?-उनके हाथों का गिजगिजा पसीना और…।–(पुरुष-चार का कथन)
  • सब-के-सब… सब-के-सब !एक-से! बिल्कुल एक-से हैं आपलोग!अलग-अलग मुखौटे,पर चेहरा?- चेहरा सबका एक ही!–(सावित्री का कथन)
  • मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिल्कुल- बिल्कुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है,न किसी और को चलने देता है।–( सावित्री का कथन)