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चन्द्रगुप्त नाटक: जयशंकर प्रसाद- मुख्य अंश

चन्द्रगुप्त नाटक: जयशंकर प्रसाद- मुख्य अंश

प्रकाशन-1931

  • यह 4 अंको में विभाजित है।
  • नाटक के प्रथम अंक में-11 दृश्य है।
  • (शुरुआत-तक्षशिला के गुरुकुल का मठ।चाणक्य और सिंहरण)
  • दूसरे अंक में- 10 दृश्य है।
  • (इसकी शुरुआत-उद्भाण्ड में सिंधु-तट पर ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे कार्नेलिया)
  • तीसरे अंक में- 9 दृश्य है।
  • (इसकी शुरुआत-विपाशा-तट के शिविर में राक्षस टहलता हुआ)
  • चौथे अंक में-14 दृश्य है।
  • (इसकी शुरुआत-मगध में राजकीय उपवन में कल्याणी)
  • इसमें में 13 गीत है
  • चाणक्य का ही नाम- (विष्णुगुप्त है)
  • प्रसाद का उद्देश्य-पराधीनता से मुक्ति के लिए प्रदेशों,क्षेत्रों,जातियों, धर्मों,आदि की निजताओं ,स्वातंत्र्य कामनाओं और अहन्ताओं को भुलाकर विशाल आर्यवर्त को स्वाधीन और अजेय बनाना है।

पुरुष-पात्र
चाणक्य (विष्णुगुप्त)  : मौर्य साम्राज्य का निर्माता
चन्द्रगुप्त  :  मौर्य सम्राट
नन्द  :  मगध-सम्राट
राक्षस  :  मगध का अमात्य
वररुचि (कात्यायन)  :  मगध का अमात्य
शकटार  :  मगध का मंत्री
आम्भीक  :  तक्षशिला का राजकुमार
सिंहरण  :  मालव गणमुख्य का कुमार
पर्वतेश्वर :  पंजाब का राजा (पोरस)
सिकन्दर : ग्रीक विजेता
फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप
मौर्य्य-सेनापति : चन्द्रगुप्त का पिता
एनीसाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर
देवबल, नागदत्त, गणमुख्य : मालव गणतंत्र के पदाधिकारी
साइबर्टियस, मेगास्थनीज : यवन दूत
गान्धार-नरेश : आम्भीक का पिता
सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति
दाण्ड्यायन : एक तपस्वी

नारी-पात्र

अलका : तक्षशिला की राजकुमारी
सुवासिनी : शकटार की कन्या
कल्याणी : मगध राजकुमारी
नीला, लीला : कल्याणी की सहेलियाँ
मालविका : सिन्धु देश की राजक्मारी
कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या
मौर्य्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता
एलिस : कार्नेलिया की सहेली

  • यह एक ऐतिहासिक नाटक है
  • इतिहास की तीन घटनाओं का उल्लेख-
    1.अलक्षेन्द्र का आक्रमण
    2.नंदकुल की पराजय
    3.सिल्यूकस का पराभव
  • इस नाटक में नाटक राजनीति, कूटनीति, षड़यंत्र, घात-आघात-प्रतिघात, द्वेष, घृणा, महत्वाकांक्षा, बलिदान और राष्ट्र-प्रेम का भाव देखने को मिलता है।
  • नाटक में अतीत के कथाचित्रों के द्वारा वर्तमान के संकट को समझने की कोशिश की गयी है।
  • नाट्यशास्त्र के अनुसार चन्द्रगुप्त का अंगी रस-वीर ठहरता है।
  • विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में-
  • “चन्द्रगुप्त नाटक में एक ओर तो राजनैतिक चालें और चाणक्य का सूत्र-संचालन है और दूसरी ओर इनका इन सब से विरक्त ब्राम्हण व्यक्तित्व है।इससे उस पात्र में अंतर्द्वंद्व तो आ ही गया है,शील वैचित्र्य भी आ गया है।

प्रथम अंक – पहला  दृश्य 

संसार भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंने यही समझा है कि आत्मसम्मान के लिए मर मिटना ही दिव्य जीवन है- चन्द्रगुप्त का कथन 

प्रायः मनुष्य,दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है,और अपना चलना बंद कर देता है – अलका का कथन 

जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षा करते हुए जो ठहरता हुआ चलता है,वह दूसरों को लाभ पहुँचाता है।यह क्श्त्दायक तो है; परंतु निष्फल नहीं-सिंहरण का कथन 

द्वितीय दृश्य-

  • तुम कनक किरन के अंतराल में,लुक छिप कर चलते हो क्यों ?- सुवासिनी 
  • निकल मत बाहर दुर्बल आह,लगेगा तुझे हंसी का शीत।- राक्षस 

तीसरा दृश्य

  • तुझे उलट दूँगा! नया बनाऊँगा,नहीं तो नाश ही करूँगा -चाणक्य 

चतुर्थ दृश्य

  • मुझे विश्वास है कि दुराचारी सदाचार के द्वारा शुद्ध हो सकता है,और बौद्ध मत इसका समर्थन करता है – सुवासिनी 

पंचम दृश्य –

  • राजनीति महलों में नहीं रहती,इसे हमें लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए।- राक्षस का कथन 

षष्टम दृश्य

  • तुम राजद्रोही हो – यवन का कथन सैनिक के प्रति 

सप्तम दृश्य

  • दया किसी से न माँगूँगा और अधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर न करूँगा -चाणक्य का कथन 
  • भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ – चाणक्य का कथन 
  • मैं कुत्ता साधारण युवक और इंद्र कभी एकसूत्र में नहीं बाँध सकता – चाणक्य का कथन 

अष्टम दृश्य –

  • उन्नति के शिखर पर नाक की सीधे चढ़ने में बड़ी कठिनता है – राजा का कथन  

नवम दृश्य –

  • ब्राह्मणत्व एक सार्वभौमिक शाश्वत बुद्धि-वैभव है – चाणक्य का कथन 

दशम दृश्य-

  • भारतीय कृतघ्न नहीं होते- चंद्रगुप्त का कथन

एकादशम दृश्य-

  • जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता,उसे ले लेने की स्पर्द्धा से बढ़कर दूसरा दम्भ नहीं।- (दाण्डायन का कथन)
  • देखो यह भारत का भावी सम्राट तुम्हारे सामने बैठा है।- (दाण्डायन का कथन)

द्वितीय अंक-(प्रथम दृश्य)

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।-(कार्नेलिया का कथन)

  • ग्रीक लोग केवल देशों को विजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदय पर पर भी अधिकार कर लिया।- (कार्नेलिया का कथन)
  • स्वच्छ हृदय भीरु कायरों की-सी वंचक शिष्टता नहीं जानता।-(चन्द्रगुप्त का कथन)

द्वितीय दृश्य-

  • पौधे अंधकार में बढ़ते हैं,और मेरी नीतिलता भी उसी भाँति विपत्ति-तम में लहलही होगी।-(चाणक्य का कथन)
  • मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वश में लड़ सकता है परंतु मनुष्य को नहीं।- (कल्याणी का कथन)

तृतीय दृश्य-

  • धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षा माँगने वाले भिखारी हम नहीं।जाओ,उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो।-(पर्वतेश्वर का कथन)
  • वीरता भी एक सुंदर कला है, उस पर मुग्ध होना आश्चर्य की बात नहीं-(पर्वतेश्वर का कथन)

चतुर्थ दृश्य-

  • युद्ध ही हमारी आजीविका है।-(चन्द्रगुप्त का कथन)

पंचम दृश्य-

  • मालव देश की स्वतंत्रता तुम्हारी आशा में है-(अलका का कथन सिंहरण से)


प्रथम यौवन-मदिरा से मत्त, प्रेम करने की थी परवाह
और किसको देना है ह्रदय, चीन्हने की न तनिक थी चाह।-(अलका का कथन)


षष्टम दृश्य-

  • प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनो सैन्यो में एकाधिपत्य का होना आवश्यक है।-(चाणक्य का कथन

सप्तम दृश्य-

बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिंता लेख,
छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।-(अलका का कथन)

  • पराधीनता से बढ़कर विडम्बना और क्या है-(अलका का कथन)

तृतीय अंक-

  • चाणक्य विलक्षण बुद्धि का ब्राम्हण है,उसकी प्रखर प्रतिभा कूट-राजनीति के साथ रात-दिन जैसे खिलवाड़ किया करती है।-(राक्षस का कथन)
  • यह स्वप्नों का देश ,यह त्याग और ज्ञान का पालना,यह प्रेम की रंगभूमि-भारत-भूमि क्या भुलाई जा सकती है?कदापि नहीं।अन्य देश मनुष्यों की जन्मभूमि है;भारत मानवता की जन्मभूमि है।-(कार्नेलिया का कथन)
  • यह युद्ध ग्रीक और भारतीयों के अस्त्र का ही नहीं,इसमें दो बुद्धियाँ भी लड़ रही है।-(कार्नेलिया का कथन)

तृतीय दृश्य-

  • मैं तलवार खींचे हुए भारत में आया,हृदय देकर जाता हूँ।-(सिकंदर का कथन)

पंचम दृश्य


आज इस यौवन के माधवी कुंज में कोकिल बोल रहा।
मधु पीकर पागल हुआ,करता प्रेम-प्रलाप

षष्टम दृश्य-

  • समझदारी आने पर यौवन चला जाता है-(चाणक्य का कथन)

सप्तम दृश्य-

  • राजा प्रजा का पिता है-(स्त्री का कथन)
  • नंद नीच-जन्मा है न! यह विद्रोह उसी के लिए किया जा रहा है,तो फिर उसे भी दिखा देना है कि मैं क्या हूँ,यह नाम सुनकर लोग काँप उठें।प्रेम न सही,भय का ही सम्मान हो।
  • (नंद का कथन)

अष्टम दृश्य-

  • सफलता का एक ही क्षण होता है।आवेश और कर्तव्य में बहुत अंतर है।- (चाणक्य का कथन)
  • उत्पीड़न की चिनगारी को अत्याचारी अपने ही अंचल में छिपाए रहता है।- (चाणक्य का कथन)

चतुर्थ अंक-(प्रथम दृश्य)


सुधा-सिकर से नहला दो
लहरें डूब रही हों रस में।-(कल्याणी)

  • प्रणय के प्रेम-पीड़ा-को मैं पैरों से कुचल कर,दबाकर खड़ी रही!अब मेरे लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहा।- (कल्याणी का कथन)
  • महत्वकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है।-(चाणक्य)

द्वितीय दृश्य

  • मैं अनाथ थी ,जीविका के लिए मैंने चाहे कुछ भी किया हो;पर स्वीत्व नहीं बेचा।-(सुवासिनी का कथन)
  • तुम मेरे रूप और गुण के ग्राहक हो,और सच्चे ग्राहक हो-(सुवासिनी)


कैसी बड़ी रूप की ज्वाला?
पड़ता है पतंग-सा इसमें मन होकर मतवाला।-(नेपथ्य से किसी का गान)

  • परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है-(चाणक्य)

चतुर्थ दृश्य-


मधुप कब एक कली का है!
पाया जिसमें प्रेमरस,सौरभ और सुहाग।-(मालविका का कथन)


बज रही वंशी आठों याम की।
अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।-(मालविका का कथन)

  • जीवन एक प्रश्न है और मरण है उसका अटल उत्तर।-(मालविका का कथन)


ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अंतर के आतुर अनुराग! बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?- मालविका का कथन

पंचम दृश्य

  • मेरा साम्राज्य करुणा का था,मेरा धर्म प्रेम का था।-(चाणक्य का कथन)
  • अधिक उन्नति के बाद ही तो अधिक दुःख और पतन की बारी आती है।-(चन्द्रगुप्त का कथन)
  • भारत की नियति मेरे हृदय पर जलद-पटल में बिजली के समान नाच उठती है।-(चाणक्य)


हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती—
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है— बढ़े चलो, बढ़े चलो !-(अलका का गायन)

  • स्वतंत्रता के युद्ध में सैनिक और सेनापति का भेद नहीं-(अलका का कथन)
  • मनुष्य साधारणधर्मा पशु है,विचारशील होने से मनुष्य होता है और निःस्वार्थ कर्म करने से वही देवता भी हो सकता है।- (सिंहरण का कथन)
  • जीवन अपना संग्राम अंधा होकर लड़ता है।-(सिंहरण का कथन)


मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्व का चिन्ह है।-(राक्षस का कथन)

  • तर्क और राजनीति में भेद है।-(राक्षस का कथन)
  • मुझे दार्शनिक से तो विरक्ति हो गयी है।क्या ही अच्छा होता है कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न होकर केवल योद्धा ही होते।-(सिल्यूकस का कथन)
  • प्रेम में स्मृति का सुख हैं एक टीस उठती है,वही तो प्रेम का प्राण है।-(सुवासिनी का कथन)
  • स्मृति बड़ी निष्ठुर हैं यदि प्रेम ही जीवन का सत्य है,तो संसार ज्वालामुखी है।-(कार्नेलिया का कथन)


सखे!वह प्रेममयी रजनी
आँखों में स्वप्न बनी।-(सुवासिनी का कथन)

  • सम्राट हो जाने पर आँखे रक्त देखने को प्यासी हो जाती है।-(कार्नेलिया का कथन)

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