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स्कन्दगुप्त नाटक: जयशंकर प्रसाद : मुख्य अंश

स्कन्दगुप्त नाटक: जयशंकर प्रसाद : मुख्य अंश

स्कन्दगुप्त-जयशंकर प्रसाद

●प्रकाशन-1928
●अंक-5
पहले अंक में 7 दृश्य है।
दूसरे अंक में भी 7 दृश्य है।
तीसरे अंक में 6 दृश्य है
चौथे अंक में 7 दृश्य है
पाँचवे अंक में 6 दृश्य है।
●पात्र-(पुरुष पात्र)
स्कन्दगुप्त,कुमारगुप्त,गोविंदगुप्त,पर्णदत्त,चक्रपालित,बन्धुवर्म्मा,भीमवर्म्मा,मातृगुप्त,प्रपंचबुद्धि,शर्वनाग,धातुसेन, पुरगुप्त, भटार्क,पृथ्वीसेन,मुद्गल,प्रख्यातकीति।
●स्त्री पात्र
देवकी,देवसेना,विजया,अन्नतदेवी,जयमाला,कमला,
रामा,मालिनी।

◆मुख्य बिंदु:-

●हिंदी नवजागरण के समय की रचना है।
●इतिहास के आवरण को लेकर वतर्मान की समस्याओं को दिखाया गया है।
●मुख्य रूप से तीन समस्याएँ हैं:-
1.राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या।
2.स्त्री-पुरुष समानता की बात।
3.जीवन जीने का उद्देश्य क्या है?जीवन की सार्थकता क्या है?
●छायावादी कृति हैं और काव्यभाषा संस्कृतनिष्ठ है।
●प्रसाद के नाटकों पर संस्कृत और पाश्चात्य नाटकों का प्रभाव है।
●नाम के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण किया गया है।
●पात्रों का शील-निरूपण आशावादी भाव का है।
●प्रसाद के नाटकों पर पारसी थिएटर का प्रभाव भी देखने को मिलता है।
●वीरेंद्र नारायण ने सबसे पहले 1960 में प्रसाद के नाटकों पर व्यवस्थित रूप से रंगमंच की दृष्टि से विचार किया।
1968 में शांता गाँधी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में खेला।
1977 में रामगोपाल बज़ाज ने भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में खेला।
●लेकिन सबसे सफल प्रस्तुति 1984 में बाबा कारंत ने किया था।
●दशरथ ओझा हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास में लिखते हैं कि- ” ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक के वस्तु-विन्यास में प्रसाद की प्रतिभा सजीव हो उठी है और उनकी नाट्यकला ने अपना अपूर्व कौशल दिखाया है। इस नाटक में भारतीय और यूरोपीय दोनों नाट्यकलाओं का सहज समन्वय है।”

1.पहला अंक
●अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है!अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है!–(स्कन्दगुप्त का कथन)
●राष्ट्रनीति,दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है। –(पर्णदत्त का कथन)
● स्त्री की मंत्रणा बड़ी अनुकूल और उपयोगी होती है, इसलिए उन्हें राज्य के झंझटों से शीघ्र ही छुट्टी मिल गयी।–( धातुसेन का कथन )
●युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है।–(कुमारगुप्त का कथन )

“न छेड़ना उस अतीत स्मृति से
खिचे हुए बीन-तार कोकिल
करुण रागिनी तड़प उठेगी
सुन ना ऐसी पुकार कोकिल।–(नर्तकियों का गीत)

● कविता करना अनंत पुण्य का फल है। इस दुराशा और अनंत उत्कंठा से कवि-जीवन व्यतीत करने की इच्छा हुई।–( मातृगुप्त का कथन)

” संसृति के वे सुंदरतम क्षण यूं ही भूल नहीं जाना
‘वह उच्छृंखलता थी अपनी’ कहकर मन मत बहलाना।–( मातृगुप्त का कथन)

● परिवर्तन ही सृष्टि है, जीवन है।स्थिर होना मृत्यु है, निश्चेष्ट- शांति मरण है ।प्रकृति क्रियाशील है, समय पुरुष और स्त्री की गेंद लेकर दोनों हाथों से खेलता है।–( धातुसेन का कथन)
● शीघ्र ही अंधकार होगा। परंतु आशा का केंद्र- ध्रुवतारा-एक युवराज ‘स्कंद’ है।– (धातुसेन का कथन)
● जो अपनी साँस से ही चौक उठते हैं, उनके लिए उन्नति का कंटकित मार्ग नहीं है। महत्वाकांक्षा का दुर्गम स्वर्ग उसके लिए स्वप्न है।–(अनंतदेवी का कथन)
● एक दुर्भेद्य नारी- हृदय में विश्व -प्रहेलिका का रहस्य- बीज है। ओह कितनी सहनशीला स्त्री है?–( भटार्क का कथन)

● उतारोगे अब कब भू-भार
बार-बार क्यों कह रखा था लूंगा मैं अवतार।–(मातृगुप्त का कथन )

●हमारे निर्मलों के बल कहां हो
हमारे दिन के संबल कहां हो ।–(स्त्रियों का कथन)

● युद्ध क्या गान नहीं है? रुद्र का श्रृंगीनाद, भैरवी का तांडवनृत्य और शास्त्रों का वाद्य मिलकर एक भैरव- संगीत की सृष्टि होती है।–(जयमाला का कथन)
● हम लोगों की चिंता ना करो, वीर!स्त्रियों की, ब्राह्मणों की, पीड़ितों और अनाथो की रक्षा में प्राण -विसर्जिन करना, क्षत्रिय का धर्म है।–(जयमाला का कथन)

2.दूसरा अंक


● संसार में छल, प्रवंचना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत ही नरक है, कृतघ्नता और पाखंड का साम्राज्य यहीं है।–( विजया का कथन )
●पवित्रता की माप है मलिनता,सुख का आलोचक है दु:ख, पुण्य की कसौटी है पाप।–( देवसेना का कथन)
● विजय की क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा देगा? कभी नहीं। वीरों का भी क्या ही व्यवसाय है, क्या ही उन्मत्त भावना है।–( स्कंदगुप्त का कथन)
● संपूर्ण संसार कर्मण्य वीरों की चित्रशाला है। वीरत्व एक स्वावलंबी गुण है। प्राणियों का विकास संभवत: इसी विचार के ऊर्जित होने से हुआ है।–(चक्रपालित का कथन)
● यदि राजशक्ति के केंद्र में ही अन्याय होगा, तब तो समग्र राष्ट्र अन्यायों का क्रीड़ा- स्थल हो जाएगा। आपको सब के अधिकारों की रक्षा के लिए अपना अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा।(चक्रपालित का कथन)
● धनवानों के हाथ में माप ही एक है,वे विद्या, सौंदर्य, बल, पवित्रता और तो क्या, हृदय भी उसी से नापते हैं। वह माप है–उनका ऐश्वर्य।–( देवसेना का कथन )
●रोग तो एक-न-एक सभी को लगा है परंतु यह रोग अच्छा है,इससे कितने रोग अच्छे किए जा सकते हैं।–( देवसेना का कथन)
● तुम किसी कर्म को पाप नहीं कह सकते, वह अपने नग्न रूप में पूर्ण है, पवित्र है।संसार ही युद्ध-क्षेत्र है, इससे पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ?–( प्रपंचबुद्धि का कथन)
●समष्टि में भी व्यष्टि रहती है। व्यक्तियों से ही जाति बनती है। विश्व प्रेम, सर्वभूत-हित- कामना परम धर्म है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो।–( जयमाला का कथन)
● कृतध्न! वीरता उन्माद नहीं है, आंधी नहीं है, जो उचित-अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्र- बल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है। उसकी ढृढ़ भित्ति है–न्याय।( गोविंदगुप्त का कथन)

3.तीसरा अंक

●”उमड़ कर चली भिगाने आज
तुम्हारा निश्चल अंचल छोर।–(विजया का कथन)

● संसार का मूक शिक्षक ‘श्मशान’ क्या डरने की वस्तु है? जीवन की नश्वरता के साथ ही सर्वात्मा के उत्थान का ऐसा सुंदर स्थल और कौन है।–( देवसेना का कथन)

” सब जीवन बीता जाता है
धूप-छांह के खेल सदृश्य -सब”

4.चौथा अंक


● क्षमा और उदारता वही सच्ची है जहां स्वार्थ की भी बलि हो।अपना अतुल धन और ह्रदय दूसरों के हाथ देकर चलू– कहां?( विजया का कथन)

“भाव- निधि में लहरियाँ उठती तभी
भूल कर भी जब स्मरण होता कभी।–
( नर्तकी गाती है)

●भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुंधरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है।अनादिकाल से ज्ञान की, मानवता की ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है।(धातुसेन का कथन)
● राष्ट्र और समाज मनुष्य के द्वारा बनते हैं–उन्हीं के सुख के लिए। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख -शांति में बाधा पड़ती हो, उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा।(श्रमण का कथन)

5.पाँचवाँ अंक


● देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे
हारते ही रहे,न है कुछ अब
दांव पर आपको न हारोगे।( देवसेना गाती है)

● “वीरों! हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार।
उषा ने हंस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।”

●” आह !वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित
मधुकरियों की भीख लुटाई।( देवसेना का गीत)

● कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है, सम्राट! यदि इतना भी न कर सके तो क्या!सब क्षणिक सुखों का अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो,इसलिए सुख करना ही न चाहिए।–(देवसेना का कथन)