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चिनार के पेड़ों से
पक्षियों की भी आवाजें अब नहीं आती
न केसर के बगान
छेड़ते हैं
चुप्पियों भरे दिनों में राग
अपने रंगों से
झेलम दूर से देखती है
कि कब से मायूस सा
चुपचाप किसी किनारे चला जाता है
कोई मासूम बच्चा
उसकी ज़बान से अब अल्फ़ाज़ नहीं फूटते
कि शहर धारा 144 में तब्दील है
कोई बताता है तो वह घण्टों तक
दुहराता रहता है अपनी तोतली
आवाज़ में इक सो चवालीस
जाड़े के मौसम में
दूर तक गूँजती है
वादी की खामोशियाँ
पारदर्शी बर्फ़ कभी नहीं गिरती
किसी भी मौसम में
किसी भी पहाड़ पर
झीलें जम गई हैं
दिसबंर आते -आते
और मार्च तक पिघलने लगती हैं
पिछले साल उसने पहली बात
यही जानी थी ज़िंदगी के बारे में
इस बार उसके कायदे में
कैद है कबूतर
वे उड़ते हुए दिखते नहीं उसे आसमान
के किसी भी किनारे तक
उसकी बारीक आँखें अँधेरे में देखती हैं
दूर तक जलते हुए अलाव
और रौशनी की तलाश में
जाना चाहती हैं दूर
अबदुल्ला के घर
पर माँ उससे कहती है
धारा 144 लगी है
पिता उसे समझाते हैं
घर से बाहर नहीं जाना
और वह अपनी तोतली ज़बान में
किसी वर्दी वाले के पास जाकर
चीख़ता है
धारा 144 !
वर्दी वाले को शक है ,वह उसे मारने को पत्थर उठा सकता है
उसके हाथ में सिर्फ़ एक तख्ती है
जिस पर लिखा है उसने चॉक से
धारा 144
सदी का सबसे बड़ा शब्द उसे मुँह ज़ुबानी याद हो गया है
जिसने कुछ दिन पहले लिखना सीखा ही था
क – से कबूतर
पूर्णिमा वत्स