hello@mukhyansh.com

कब तक चुप रहेंगे…? सोनिया सिंह

कब तक चुप रहेंगे…? सोनिया सिंह

हालांकि,

इतिहास में भी महिलाओं पर और उनके किये योगदान पर काफी ज्यादा काम नहीं हुआ..पर फिर भी उनकी धुंधली होती तस्वीर न चाहते हुए भी काफी कुछ कह देती हैं।एक वक़्त था जब ‘मंटो’ को भी औरतों पर उनकी बेबाकी के लिए काफी विवादों का सामना करना पड़ा,पर ये भी सच है कि आज का समाज कहीं न कहीं उस बेबाकी को सच्चे अर्थों में समझ पा रहा है।शायद यही वजह है कि आज हिंदुस्तान में महिलाओं पर लिखे जा रहे साहित्य तथा उनकी अदाकारियों को काफी हद तक सराहा जा रहा है।

औरतें समाज का आईना होती हैं।

और हमारा समाज भी काफी हद तक अब बदल चुका है पर क्या कारण है कि आइने के इस ठहराव को काफी हद तक आज भी महसूस किया जाता है।आज से बीस साल पहले,जब सामाजिक मुद्दों जैसे- विधवा विवाह, पुनर्विवाह पर फिल्में बनती थी तो काफी हद तक इन फिल्मों पर भारत में ये कहकर इनके प्रसारण पर रोक लगा दी जाती थी कि –“इस तरह का सिनेमा हिन्दू विधवाओं में वेश्यागमन की बात करता है और भारतीय-संस्कृति पर कीचड़ उछालता है।”

ऐसे राजनीतिक-सामाजिक बयानों पर भारतीय-बुद्धिजीवियों ने पहली बार ‘सभ्याचारक फासीवाद’ नाम दिया,इसकी आलोचना की, जिसमे अमर्त्यसेन,रविशंकर,महाश्वेता देवी आदि हैं।इन लोगों ने कानूनी कदम उठाते हुए कहा था कि ‘सवाल सिर्फ फिल्मों का नहीं है बल्कि कदम-कदम पर,घटना दर घटना पर भीड़तंत्र द्वारा सामाजिक आलोचना की आज़ादी में दखलअंदाजी करना और उसपर हावी होते जाना काफी चिंताजनक बात है।’ भारत को आजादी मिलने के इतने वर्षों बाद भी हिन्दू-विधवाओं की शारीरिक- शोषण की बात करना, इन धर्म के ठेकेदारों को चुभता था तो आज के धर्मगुरुओं द्वारा बलात्कार जैसी घटनाओं को इस लिए दबा दिया जाता है क्योंकि ऐसी बातों से भारत की छवि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैली होती है।ये संस्कृति के रखवाले कभी इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि हमारी मातृभाषा में ‘रंडी’ शब्द के दो अर्थ क्यों होते हैं?…

सिर्फ भारत में ही क्यों विधवा और वेश्या का फर्क इतना धुंधला पड़ चुका है कि दोनों को एक ही लफ़्ज़ दे कर काम चला लिया जाता है?…तेज़ाब फेंकने की घटनाएं सिर्फ भारत जैसे देशों में ही क्यों होती हैं?
‌दरअसल ‘भारतमाता और नारीशक्ति के नाम पर औरतों के सारे हकों को संस्कृति के बोझ तले दबा दिया जाता है। हाल ही मे गुजरात के एक कॉलेज में 68 लड़कियों के कपड़े इसलिए उतरवा दिए गए कि कहीं वो माहवारी के दिनों में तो कॉलेज नहीं आ रहीं…ये कोई हैरानी की बात नही होनी चाहिए,वहीं का एक मठाधीश इस घटना को जायज भी करार देता है और कहता है कि माहवारी के हाथ का खाना खाने से वो अगले जनम मे जानवर बनकर पैदा होंगे। कुछ लोग हैं जो इस तरह की घटना को मूर्खता भरा बोलते,पर लाखों लोग ऐसे भी पैदा किए जाते हैं जो भीडतंत्र का हिस्सा बनकर “मॉब लिंचिंग” के नाम पर लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाते हैं।


‌आरएसएस के संचालक मोहन भागवत ने अभी कुछ दिनों पहले बयान दिया था कि "समाज में खुशहाली होने का कारण समाज की सशक्त औरतें तो हैं पर दुसरी तरफ तालाक का एक कारण लड़कियों का ज्यादा पढ़ना भी है,इसीलिए संस्कारो को बचा के रखना बहुत जरुरी है।" ‌अगर सरकारी शह पर “सांस्कृतिक सुरक्षा” के ऐसे गलत बयानों को ऐसे ही प्रचारित किया जाता रहा और “धार्मिक संस्कारों” के नाम पर ऐसे राजनीतिक विचारों को और हवा दी जाती रही तो वो दिन दूर नहीं जब सड़कों पर हमारी किताबों और साहित्यों की होली जलाई जाएगी क्योंकि ऐसे सरफिरों को साहित्यकारो के कामों में से भी “संस्कारों और संस्कृति के ह्रास” की बु आएगी।
‌अफसोस है कि- आज बीस बरस बाद भी हम संकुचित सोच में बदलाव के बदले और भी बीमार मानसिकता वाले होते जा रहे हैं।शायद इसीलिए ये लड़ाई हमें अपने आप से भी लड़नी पड़ेगी और अपनों के साथ भी…
आखिर कब तक चुप बैठे रहेंगे…?

सोनिया सिंह