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राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयवाद परस्पर अनन्य या विरोधी:जितेन्द्र कुमार

राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रीयवाद परस्पर अनन्य या विरोधी:जितेन्द्र कुमार

‘‘राष्ट्रवाद राष्ट्र निर्माण करने की क्षमता रखता है। अंध राष्ट्रवाद राष्ट्र और वहां के लोगों को नष्ट करने की क्षमता रखता है। वहीं अंतर्राष्ट्रीयवाद का परिणाम राष्ट्रों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।’’


यह एक ऐसी भावना है जो देश के प्रति प्रेम, समर्पण, त्याग और बलिदान प्रकट करती है। राष्ट्रवाद की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं दी जा सकती है परंतु शब्दों में प्रस्तुत करें तो- जब कोई व्यक्ति देश के सभी नागरिकों के विकास और भलाई के विषय में समान रूप से बिना किसी धार्मिक, जातिगत और लैंगिक भेदभाव के विचार करे, देश के समग्र विकास के बारे में बात करे तो उसकी यह भावना ही राष्ट्रवाद कहलाती है। यह देश को एकता के सूत्र में बांधता है। राष्ट्रवाद ही है जो देश के सभी नागरिकों को परम्परा, भाषा, जातीयता एंव संस्कृति की विभिन्नताओं के बावजूद एक साथ बांधकर रखता है।
अंतर्राष्ट्रीयवाद एक राजनीतिक सिद्धांत है जो राष्ट्रवाद को स्थानांतरित करता है और राष्ट्रों एवं लोगों के बीच अधिक से अधिक राजनीतिक या आर्थिक सहयोग की वकालत करता है इस सिद्धांत के समर्थकों को अंतर्राष्ट्रीयवादी के रूप में जाना जाता है।आमतौर पर यह माना जाता है कि दुनिया के लोगों को अपने सामान्य हितों को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नस्लीय तथा वर्ग की सीमाओं को एकजुट करना चाहिए।
राष्ट्रवाद का उदय यूरोप(जर्मनी) से हुआ है। सर्वप्रथम जर्मनी राष्ट्र ने राष्ट्रवाद के सिद्धांत को अपनाया उसके पश्चात् धीरे-धीरे विश्व भर में राष्ट्रवाद की भावना विकसित हुई है। राष्ट्रवाद के कई रूप हैं जैसे- जातीयता पर आधारित राष्ट्रवाद (जर्मनी में राष्ट्रवाद का यही रूप प्रचलित हुआ, जर्मनी को विश्व में शीर्ष स्थान दिलाना), राज्य और संविधान के प्रति निष्ठा, विदेशियों के प्रभुत्व से आजादी को लेकर राष्ट्रवाद, धर्म के साथ समीकृत (उदाहरण के लिए विश्व के समस्त इस्लामिक स्टेट), स्वतंत्रता प्राति के पश्चात् राष्ट्रवाद।


राष्ट्रवाद के निर्माण में उनेक तत्व सहायक होते हैं जैसे- जातीय एकता, भाषाई एकता, धर्म की एकता, भौगोलिक एकता, विचारों और आदर्शों की एकता अर्थात् सामाजिक, संस्कृति, कठोर व विदेशी शासन के प्रति सामान्य अधीनता इत्यादि।
अंतर्राष्ट्रीयवाद का उदय 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन में उत्पन्न राजनीतिक विचार का एक उदार अंतर्राष्ट्रीयवादी विचार था।उदाहरण – मुक्त व्यापार की नीति जिसमें अलग-अलग देशों की बांधाओं को तोड़कर विश्व भर में आधारभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सकता था। यह दुनियाभर में निर्भरता की नीति में शांति बनाएगा।


नैतिक कानून के विचार में विश्वास और मानव स्वभाव में निहित सदगुणों ने भी अंतर्राष्ट्रीयवाद में विश्वास को प्रेरित किया। परंतु समाजवादियों एंव कट्टरपंथियों द्वारा इसकी कड़ी आलोचना की गयी।
राष्ट्रवाद एक महान संयोजी तत्व के रूप में देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाला प्रमुख तत्व है। शक्तिशाली राष्ट्रों के उत्थान ने अपनी प्रमुख भूमिका निभायी है।19वीं तथा 20वीं शताब्दी में राष्ट्रवाद सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया था। साम्राज्यवादी प्रभुत्व व उपनिवेशवाद से मुक्ति राष्ट्रवाद के प्रभाव से मिली है।
राष्ट्रवाद एक नैतिक आधार को प्रदर्शित करता है जिस प्रकार व्यक्ति राष्ट्र का अंग है। राष्ट्रवाद विश्वभर में अपने राष्ट्र को विशेष पहचान व विशेष स्थान दिलाने में सहायता करता है। यह शांतिपूर्ण अतर्राष्ट्रीय सम्मान के निर्माण में रचनात्मक योगदान देता है। शांतिपूर्ण राष्ट्रवाद भवन की पहली मंजिल तथा दूसरी मंजिल अंतर्राष्ट्रीय विकास है। यदि राष्ट्रवाद की भावना में सर्वहित का सिद्धांत समाहित है तो यह संपूर्ण विश्व के लिए लाभकारी सिद्ध होती है।


अंतर्राष्ट्रीयवाद महान संयोजी तत्व के रूप में विश्व के विभिन्न राष्ट्रों को एक पथ पर लाने वाला प्रमुख तत्व है। इसके कारण विश्व के विभिन्न राष्ट्र एक दूसरे की आवश्यकताओं तथा समस्याओं को सांझा कर उनके समाधान पर चर्चा करते हैं तथा एक दूसरे के हितों के लिए कार्य करते हैं।विश्व में अनेक ऐसी संस्थाओं को स्थापित किया गया है जो अंतर्राष्ट्रीयवाद की भावना में विश्वास पैदा करें तथा विश्व के अधिकतम राष्ट्र व अंतर्राष्ट्रीयवाद के सिद्धांत को अपना सकें।
अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन विश्व के पहले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में से एक हैं। यह संगठन राष्ट्रीय सीमाओं के पार मजदूर वर्ग के राजनीतिक हितों की उन्नति के लिए प्रस्तुत तथा उदारवादी अंतर्राष्ट्रीयवाद के तनाव के प्रत्यक्ष विरोध में था। विश्व युद्ध द्वितीय के पश्चात् अनेक ऐसी संस्थाओं का गठन किया गया है जो अंतर्राष्ट्रीयवाद को बढ़ावा दें- संयुक्त राष्ट्र सभा (वर्तमान में 195 देश), विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, तथा अनेक भेत्रीय संगठन जैसे- यूरोपीयन यूनियन, सार्क बिम्सटेक, नाटो तथा रिम असोशिएशन इत्यादि।
‘कहते हैं कि प्रत्येक चीज की अति दुष्परिणाम का द्योतक होती है।’’ इसी प्रकार राष्ट्रवाद जब अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो इसमें व्याप्त गुण, अवगुण को दर्शाने लगते हैं। अर्थात राष्ट्रवाद की चरम सीमा अतिराष्ट्रवाद अथवा अंधराष्ट्रवाद कहलाती है। राष्ट्रवाद विकृत होकर विस्तारवादी आक्रामक व उग्रसाम्राज्यवादी नीति एंव विश्व शांति का संहारक बन जाता है।


रविंद्रनाथ टैगौर के अनुसार- ‘‘राष्ट्रवाद एक द्विधारी तलवार के रूप में हैं जो दोनों ओर से काटती है; इसका एक पक्ष रचनात्मक तथा दूसरा पक्ष संहारात्मक है।’’


राष्ट्रवाद ने सैनिकवाद को प्रबल बनाया है इसके द्वारा सबल राष्ट्रों में शक्तिशाली को बल मिलता है। जिसके फलस्वरूप प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध हुए हैं। यूरोपीय देशों द्वारा अन्य राष्ट्रों को औपनिवेश बनाना तथा वर्तमान में चीन तथा अमेरिका के मध्य स्वयं को शक्तिशाली प्रदर्शित करने की होड़ अतिराष्ट्रवाद के उदाहरण हैं।
विकृत राष्ट्रवाद विश्व शांति मार्ग में बाधक हैं अहंकारी राष्ट्रवाद के प्रभाव में देश का बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों के हितों पर प्रहार करता है। राष्ट्रवाद जातीयता का अवांछनिय रूप धारण कर स्वयं को अन्य राष्ट्रों से श्रेष्ठ मानने लगता है।
अंतर्राष्ट्रीयवाद भी स्वयं में अनेक अवगुणों को समाहित करता है। इसके कारण किसी राष्ट्र की अन्य राष्ट्रों पर निर्भरता अत्यधिक बढ़ जाती है। जिससे वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य देशों से आयात पर निर्भर रहता है। महत्वपूर्ण संसाधनों से परिपूर्ण राष्ट्र (जैसे- पैट्रोलियम से परिपूर्ण राष्ट्र, ओपेक संगठन तथा अमेरिका एंव रूस) संसाधनों को अपने अनमाने ढंग से बाजार में उपलब्ध कराते हैं।
अंतर्राष्ट्रीयवाद अनेक अन्य समस्याओं का कारण भी बनता है जैसे- ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण प्रदूषण, हाल ही में फैली महामरी कोविड-19 भी अंतर्राष्ट्रीयवाद का ही परिणाम है।
भारत में राष्ट्रवाद का उदय किसी निश्चित घटना का परिणाम नहीं है बल्कि सदियों से चले आ रहे असंतोष का परिणाम है। भारत में राष्ट्रवाद की भावना प्राचीन काल से ही विद्यमान रही है। प्राचीनकालीन धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज व परंपराओं में देश को राष्ट्रीयता के सूत्र में बांधा। भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय का प्रमुख कारण भारत में बौद्धिक पुनर्जागरण होना था। राष्ट्रवाद के प्रसार और प्रभाव से स्वराज्य प्राप्ति की लालसा गयी और अंत में राष्ट्रवादी विचारधारा ने ही भारत को स्वतंत्रता दिलायी।

भारत के राष्ट्रवाद के उदय के प्रमुख कारणों में 1857 की क्रांति, सामाजिक व धार्मिक आंदोलन, मुस्लिम सुधारवादी आंदोलन, ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीति, संचार व यातायात की सुविधाओं का विकास, पाश्चात्य शिक्षा संस्कृति, भारतीय प्रेस व साहित्य, आर्थिक कारण इत्यादि प्रमुख है।

भारत राष्ट्रवाद के साथ ही अंतर्राष्ट्रवादी नीतियों को भी साथ में लेकर चलता है जिससे देश संसाधनों के अभाव की पूर्ति की जा सके तथा अन्य देशों को अपने संसाधनों को उपलब्ध कराया जा सके। भारत विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, बिम्सटेक, सार्क, विश्व स्वास्थ्य संगठन आदि में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करता है। भारत की नीति ‘‘राष्ट्रवाद पर आधारित अंतर्राष्ट्रीयवाद’’ है।

डॉ भीमराव अम्बेडकर कहते हैं, ‘‘राष्ट्रवाद मानवजाति के उच्चतम आदर्शों- सत्यम शिवम सुंदरम से प्रेरित होना चाहिए।’’
किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए उसके नागरिकों में राष्ट्रवाद की भावना का होना अतिआवश्यक है, परंतु वर्तमान परिस्थितियों में अंतर्राष्ट्रवादी विचारधारा ने राष्ट्रीय चितंन को काफी हद तक प्रभावित किया है। क्योंकि इंटरनेट, मोबाईल तथा प्रौद्योगिकी के आगमन ने राष्ट्रीय सीमाओं के महत्व को कम कर दुनिया में व्याप्त फ़ासलों को बहुत कम कर दिया है। कह सकते हैं कि राष्ट्र के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए राष्ट्रवाद की भावना महत्वपूर्ण है परंतु अंतर्राष्ट्रीयवाद की भूमिका को अनदेखा कर वर्तमान युग में विकास संभव नहीं है।

जितेन्द्र कुमार

दिल्ली विश्वविद्यालय, छात्र, हिंदी विभाग