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उत्तर मध्यकाल (संवत् 1700-1900)-रीतिकाल के 22 प्रमुख कवि- मुख्य अंश

उत्तर मध्यकाल (संवत् 1700-1900)-रीतिकाल के 22 प्रमुख कवि- मुख्य अंश

प्रकरण 1 (सामान्य परिचय)

  • चरखारी के मोहनलाल मिश्र ने ‘श्रृंगारसागर’, नामक एक ग्रंथ श्रृंगारसंबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथी करनेस कवि ने 'कर्णाभरण',श्रुतिभूषण' और 'भूपभूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार संबंधी लिखे।
  • हिन्दी में रीतिग्रंथों की अविरल और अखंडित परंपरा का प्रवाह केशव की ‘कविप्रिया’ के प्राय: 50 वर्ष पीछे चला।
  • हिन्दी रीतिग्रंथों की परंपरा ‘चिंतामणि त्रिपाठी’ से चली, अत: रीतिकाल का आरंभ उन्हीं से मानना चाहिए।
  • हिंदी में लक्षणग्रंथ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते।वे वास्तव में कवि ही थे।
  • हिन्दी के अलंकारग्रंथ अधिकतर ‘चंद्रालोक’ और ‘कुवलयानंद’ के अनुसार निर्मित हुए।
  • हिन्दी में लक्षणग्रंथ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते।
  • केशवदास ने रूपक के तीन भेद दंडी से लिए,अद्भुत रूपक, विरुद्ध रूपक और रूपक रूपक।
  • महाराजा जसवंत सिंह ने अपने ‘भाषाभूषण’ की रचना ‘चंद्रालोक’ के आधार पर की, पर उसके अलंकार की अनिवार्यता वाले सिद्धांत का समावेश नहीं किया।
  • भूषण अच्छे कवि थे। जिस रस को उन्होंने लिया उसका पूरा आवेश उनमें था, पर भाषा उनकी अनेक स्थलों पर सदोष है।
  • सूरदास की भाषा में यत्र-तत्र पूरबी प्रयोग, जैसे-मोर, हमार, कीन,अस, जस इत्यादि,बराबर मिलते हैं। 
  • रीतिकाल के कवियों के प्रिय छंद कवित्त और सवैये ही रहे।
  • वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार की ही रही। इससे इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगारकाल कहे तो कह सकता है।
  • रीतिग्रंथों का विकास अधिकतर अवध में हुआ।
  • इसमें संदेह नहीं कि काव्यरीति का सम्यक समावेश पहले-पहल आचार्य केशव ने किया।

प्रकरण 2


रीति ग्रंथकार कवि

  • 1.चिंतामणि त्रिपाठी-
  • तिकवाँपुर (जिला-कानपुर) के रहनेवाले थे।
  • रचनाएँ- छंदविचार, काव्य-विवेक,कविकल्पतरु, काव्यप्रकाश, रामायण,रामायण कवित्त।
  • इनके संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ‘ये बहुत दिन तक नागपुर में सूर्यवंशी भोसला मकरंदशाह के यहाँ रहे और उन्हीं के नाम पर ‘छंद विचार’ नामक पिंगल का बहुत भारी ग्रंथ बनाया।
  • बाबू रुद्रसाहि सोलंकी, शाहजहाँ बादशाह और जैनदीं अहमद ने इनको बहुत दान दिए हैं।
  • इन्होंने अपने ग्रंथ में कहीं कहीं अपना नाम मणिमाल भी कहा है।
  • इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी।

कविता:-


●”येई उधारत हैं तिन्हैं जे परे मोह महोदधि के जल फेरे।
जे इनको पल ध्यान धारैं मन, ते न परैं कबहूँ जम घेरे।”
●”इक आजु मैं कुंदन बेलि लखी मनिमंदिर की रुचिवृंद भरैं।
कुरविंद के पल्लव इंदु तहाँ अरविंदन तें मकरंद झरैं।”
●”आँखिन मुँदिबे के मिस आनि अचानक पीठि उरोज लगावै।
कैहूँ कहूँ मुसकाय चितै अंगराय अनूपम अंग दिखावै।”

  • 2.महाराज जसवंत सिंह-
  • ये हिंदी साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका ‘भाषाभूषण’ ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत प्रचलित पाठ्यग्रंथ रहा है।
  • (भाषाभूषण पर बिल्कुल चंद्रालोक की छाया दिखाई देती है)
  • अन्य ग्रंथ- अप्रोक्षसिद्धान्त,अनुभवप्रकाश,आनन्दविलास,सिद्धांतबोध,सिद्धांतसार,प्रबोधचंद्रोदय नाटक। (संस्कृत रचना – प्रबोध चंद्रोदय – कृष्ण कवि की है )
  • ‘भाषाभूषण’ हिन्दी काव्य रीति के अभ्यासियों के बीच वैसा ही सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक ।
  • अलंकार निपुणता से संबंधित भाषाभूषण के दो दोहे –
    अत्युक्ति – अलंकार अत्युक्ति यह, बरनत अतिसय रूप
    आचक तेरे दान तें, भए कल्पतरु भूप ।

    पर्यस्तापह्नुति – पर्यस्त जु गुण एक को, और विषय आरोप
    होई सुधाधर नाहिं यह, वदन सुधाधर ओप ।
  • भाषाभूषण पर पीछे तीन टीकाएं रची गयी – अलंकार रत्नाकर – वंशीधर ने इसकी टीका लिखी
    प्रताप सिंह की टीका
    गुलाब कवि की – ‘भूषणचंद्रिका’
  • 3.बिहारीलाल-
  • (माथुर चौबे)-जन्म-ग्वालियर-1660(संवत)
  • जयपुर के मिर्जा राजा जयसाह (महाराज जयसिंह) के दरबार में रहा करते थे।
  • “श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं।इसका एक-एक दोहा हिंदी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है।”
  • बिहारी सतसई पर कुछ मुख्य टीकाएँ-
  • 1.कृष्ण कवि की टीका जो कवित्तों में है
  • 2.हरिप्रकाश टीका
  • 3.लल्लूजी लाल की लाल चंद्रिका
  • 4.सरदार कवि की टीका
  • 5.सूरति मिश्र की टीका
  • अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' में सब दोहों के भावों को पल्लवित करके रोला छंद लगाए हैं।
  • पण्डित परमानंद ने 'श्रृंगार सप्तशती' के नाम से दोहों का संस्कृत अनुवाद किया है। 
  • बिहारी का सबसे उत्तम और प्रामाणिक संस्करण बड़ी मार्मिक टीका आधुनिक कवि बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ ने निकाला। 
  • किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं। 
  • यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। 
  • जिस कवि में कल्पना की समाहारशक्ति के साथ भाषा की समाहारशक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी।
  • बिहारी के संदर्भ में शुक्ल जी- इनके दोहे क्या हैं, रस के छोटे छोटे छींटे हैं। 
  • बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभावों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्तिकौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान से इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई श्रृंगारी कवि नहीं कर सका है
  • बिहारी के बहुत से दोहे 'आर्यासप्तशती (गोवर्धनाचार्य)' और 'गाथासप्तशती (हाल कवि)' की छाया लेकर बने हैं
  • बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। 
  • दूसरी बात यह है कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्ता स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।

दोहा-


1.नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सों बँधयो आगे कौन हवाल।


2.सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखत में छोटे लगैं बेधौं सकल शरीर- (इसी से किसी ने कहा है
– (सतसई के लिए किसी ने कहा है)


3.बतरस लालच लाल की मुरली धारि लुकाइ।
सौंह करै, भौंहनि हँसे, देन कहै, नटि जाइ

असंगति’ और ‘विरोधाभास’ की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं,
4.दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
करे चाह सों चुटकि कै खरे उड़ौहैं मैन।

5.लाज नवाए तरफरत करत खूँद सी नैन-(रूपक व्यंग्य है)
-श्रृंगार के संचारी भावों की व्यंजना:-
6.सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
-सूक्तियों में वर्णनवैचित्रय या शब्दवैचित्रय:-
7.यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुणौ दीपक देह।

  • 4.मतिराम
  • तिकवाँपुर (जिला, कानपुर)के थे।संवत् 1674 जन्म
  • बूँदी के महाराज ‘भावसिंह’ के यहाँ रहकर 'ललितललाम' लिखे थे।
  • ‘इनका सच्चा कविहृदय था’
  • इनका ‘छंदसार’ नामक पिंगल ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। 
  • बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होंने एक ‘मतिराम सतसई’ भी बनाई।
  • ग्रंथ-  रसराज,साहित्यसार और 'लक्षण श्रृंगार‘। 
  • मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरलता अत्यंत स्वाभाविक है, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की।
  • भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ।
  • रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। 
  • दोहा-

1.कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
ऑंखिन में अलसानि चितौनि में मंजु विलासन की सरसाई
2.क्यों इन ऑंखिन सों निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै।
नेकु निहारे कलंक लगै यहि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै
3.केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो, भीतर बैठि कै बात सुनाई
4.दोऊ अनंद सो ऑंगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई
5.सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चमू, 
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।

  • 5.भूषण
  • चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें ‘कविभूषण‘ की उपाधि दी थी।
  • महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में अपना कंधा लगाया था जिस पर इन्होंने कहा था-
  • ‘सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।’ 
  • उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई। 
  • भूषण के वीररस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए।
  • जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी, जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।
  • वे हिन्दू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।
  • भूषण की कविता कविकीर्ति सम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है।

ग्रन्थ- शिवराजभूषण,शिवाबावनी,छत्रसालदसक,भूषणउल्लास', दूषणउल्लास,भूषणहजारा।

दोहा-
1.इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
2.डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की। 
3.सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,
ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे।
4.दारा की न दौर यह, रार नहीं खजुबे की,
बाँधिबो नहीं है कैधौं मीर सहवाल को।
5.चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठै बार बार,
दिल्ली दहसति चितै चाहि करषति है।
6.जिहि फन फूतकार उड़त पहार भार,
कूरम कठिन जनु कमल बिदलिगो।

6.कुलपति मिश्र 
ये महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे। 
ग्रन्थ-
द्रोणपर्व,युक्तितरंगिणी,नखशिख, संग्रहसार,गुण रसरहस्य
ये संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। 
रसरहस्य मम्मट के काव्यप्रकाश का छायानुवाद है।
दोहा-
ऐसिय कुंज बनी छबिपुंज रहै अलि गुंजत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिए बनमाला बिलोकत रूप सुधा भरि पीजै।

7.सुखदेव मिश्र-
ग्रंथ-
वृत्तविचार,छंदविचार,फाजिलअलीप्रकाश, रसार्णव,श्रृंगारलता,अध्यात्मप्रकाश(ब्रम्हज्ञान सम्बन्धी बातें कही है)दशरथ राय।
ये असोथर (जिला,फतेहपुर) के राजा भगवंतराय खीची तथा डौडियाखेरे के राव मर्दनसिंह के यहाँ रहे। कुछ दिनों तक ये औरंगजेब के मंत्री फाजिलअलीशाह के यहाँ भी रहे। अंत में मुरारमऊ के राजा देवीसिंह के यहाँ गए जिनके बहुत आग्रह पर ये सकुटुंब दौलतपुर में जा बसे।
राजा राजसिंह गौड़ ने इन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी थी।
फाजिलअली प्रकाश’ और ‘रसार्णव’ दोनों के अंश
1.ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहै रैन अंधिायारी भरी, सूझत न करु है।
2.
जोहैं जहाँ मगु नंदकुमार तहाँ चलि चंदमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनो सब फूलि रही जनु कुंद की डार है।

8.कालिदास त्रिवेदी-
संवत् 1745 वाली गोलकुंडे की चढ़ाई में ये औरंगजेब की सेना में किसी राजा के साथ गए थे। 
औरंगजेब की प्रशंसा-
गढ़न गढ़ी से गढ़ि, महल मढ़ी से मढ़ि,
बीजापुर ओप्यो दलमलि सुघराई में।


जंबूनरेश जोगजीत सिंह के लिए ‘वर-वधु-विनोद’ लिखा
बत्तीस कवित्तों की इनकी एक छोटी सी पुस्तक ‘जँजीराबंद’ भी है।
संग्रह-कालिदास हजारा
1.चूमौं करकंज मंजु अमल अनूप तेरो,
रूप के निधान कान्ह! मो तन निहारि दै।
2.हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी,
देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की

9.देव-

  • ये इटावा के थे।इनका पूरा नाम देवदत्त था।
  • ग्रन्थ-
  • भवानीदत्त वैश्य के नाम पर- भवानी विलास
  • कुशल सिंह के नाम पर- कुशल विलास
  • मर्दन सिंह के पुत्र उद्योत सिंह के नाम पर- प्रेमचन्द्रिका
  • मोतीलाल के नाम पर-रस विलास
  • यात्रा अनुभव पर- जातिविलास
  • अन्य ग्रन्थ-अष्टयाम,रागरत्नाकर,

आचार्य और कवि दोनों हैं।
रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में शायद सबसे अधिक ग्रंथ रचना देव ने की है। कोई इनकी रची पुस्तकों की संख्या 52 और कोई 72 तक बतलाते हैं।
कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि विशेष प्राय: बाधक हुई है।
रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासम्पन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं।
1.मोतीलाल भूप लाख पोखर लेवैया जिन्ह लाखन खरचि रचि आखर खरीदे हैं।
2.अभिधा उत्तम काव्य है; मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन।
3.सुनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी।
4.डार द्रुम पलना, बिछौना नवपल्लव के, 
सुमन झ्रगूला सोहै तन छबि भारी दै।
5.सखी के सकोच, गुरु सोच मृगलोचनि, 
रिसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयोगात।
6.झहरि झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो, 
घहरि घहरि घटा घेरी है गगन में
7.साँसन ही में समीर गयो अरु ऑंसुन ही सब नीर गयो ढरि।
तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि।
8.जब तें कुवँर कान्ह रावरी कलानिधान!
कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी।
9.
‘देव’ मैं सीस बसायो सनेह सों भाल मृगम्मद बिंदु कै भाख्यौ।
कंचुकि में चुपरयो करि चोवा लगाय लियो उर सों अभिलाख्यो।

10.सूरति मिश्र-
ये नसरुल्ला खाँ नामक सरदार के यहाँ तथा दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आया जाया करते थे। इन्होंने ‘बिहारी सतसई’, ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया पर विस्तृत टीकाएँ रची हैं।
ग्रन्थ- अलंकारमाला,रसरत्नमाला,रससरस,रसग्राहकचंद्रिका,नखशिख,काव्यसिध्दांत,रसरत्नाकर।


1.हिम सो, हर के हास सो जस मालोपम ठानि


2.सो असंगति, कारन अवर, कारज औरै थान।


3.तेरे ये कपोल बाल अतिही रसाल, 
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।

  • 11.भिखारी दास-
  • ‘काव्यनिर्णय’ में दासजी ने प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीसिंह के भाई बाबू हिंदूपतिसिंह को अपना आश्रयदाता लिखा है।
  • ग्रन्थ-
  • रससारांश,छंदार्णव पिंगल,काव्यनिर्णय,श्रृंगारनिर्णय, नामप्रकाश कोश,विष्णुपुराण भाषा (दोहे चौपाई में);छंद प्रकाश,शतरंजशतिका,अमरप्रकाश (संस्कृत अमरकोष भाषा पद्य में)
  • साहित्यदर्पण में नायिकाओं के स्वभावज अलंकार 18 कहे गए हैं,लीला, विलास, विच्छित्तिा, विव्वोक, किलकिंचित, मोट्टायित्ता, कुट्टमित्ता, विभ्रम, ललित, विहृत, मद, तपन, मौग्धय, विक्षेप,कुतूहल,हसित, चकित और केलि। 
  • दासजी ने साहित्यिक और परिमार्जित भाषा का व्यवहार किया है।
  • इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है। 
  • कविता:-
  • 1.श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी और।
  • तिनहूँ को सुकियाह में गनैं सुकवि सिरमौर।


2.वाही घरी तें न सान रहै, न गुमान रहै, न रहै सुघराई।
दास न लाज को साज रहै न रहै तनकौ घरकाज की घाई


3.नैनन को तरसैए कहाँ लौं, कहाँ लौ हियो बिरहागि मै तैए।
एक घरी न कहूँ कल पैए, कहाँ लगि प्रानन को कलपैए?


4.ऊधो! तहाँई चलौ लै हमें जहँ कूबरि कान्ह बसैं एक ठौरी।
देखिए दास अघाय अघाय तिहारे प्रसाद मनोहर जोरी


5.कढ़ि कै निसंक पैठि जाति झुंड झुंडन में,
लोगन को देखि दास आनंद पगति है।


6.अब तो बिहारी के वे बानक गए री, तेरी
तन दूति केसर को नैन कसमीर भो।


7.अंखियाँ हमारी दईमारी सुधि बुधि हारीं, 
मोहूँ तें जु न्यारी दास रहै सब काल में।

  • 12.रसलीन-
  • इनका नाम सैयद गुलाम नबी था।
  • अंगदर्पन– इसमें अंगों का,उपमा उत्प्रेक्षा से युक्त चमत्कारपूर्ण वर्णन है। सूक्तियों के चमत्कार के लिए यह ग्रंथ काव्यरसिकों में बराबर विख्यात चला आया है। 
  • रसप्रबोध के संदर्भ में-रसलीन ने स्वयं कहा है कि इस छोटे से ग्रंथ को पढ़ लेने पर रस का विषय जानने के लिए और ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता न रहेगी।
  • 1.अमिय हलाहल मदभरे सेत स्याम रतनार।
  • जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार।
  • 2.धारति न चौकी नगजरी यातें उर में लाय।
  • छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धरम नसाय।
  • (चमत्कार और उक्तिवैचित्रय की ओर इन्होंने अधिक ध्यान रखा है)
  • 13.बेनी प्रवीन-
  • ये लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवलकृष्ण उर्फ ललन जी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से संवत् 1874 में इन्होंने ‘नवरसतरंग‘ नामक ग्रंथ बनाया। 
  • इससे पहले श्रृंगारभूषण नामक एक ग्रन्थ ये बना चुके थे।
  • महाराज नानाराव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर ‘नानारावप्रकाश‘ नामक ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। 
  • दूसरे वाले बेनी बंदीजन(भँड़ौवाले) ने इन्हें ‘प्रवीन” की उपाधि दी।
  • भाषा इनकी बहुत साफ सुथरी और चलती है, बहुतों की भाषा की तरह लद्दू नहीं।
  •  ये ब्रजभाषा के मतिराम ऐसे कवियों के समकक्ष हैं और कहीं कहीं तो भाषा और भाव के माधुर्य में पद्माकर तक से टक्कर लेते हैं। जान पड़ता है, श्रृंगार के लिए सवैया ये विशेष उपयुक्त समझते थे। 
  • कविता-
  • 1.भोर ही न्योति गई ती तुम्है वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी।
  • आधिक राति लौं बेनी प्रवीन कहा ढिग राखि करी बरजोरी।


2.सोभा पाई कुंज भौन जहाँ जहाँ कीन्हों गौन, 
सरस सुगंधा पौन पाई मधुपनि है।

14.पद्माकर भट्ट-

  • ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ दूसरा नहीं हुआ है। 
  • देश में जैसा इनका नाम गूँजा वैसा फिर आगे चलकर किसी और कवि का नहीं
  • जयपुर नरेश महाराजा प्रतापसिंह के यहाँ इन्हें ‘कविराजशिरोमणि’की पदवी और अच्छी जागीर मिली
  • इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हावभावपूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक मानो प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है।
  • ऐसी सजीव मूर्तिविधान करनेवाली कल्पना बिहारी को छोड़कर और किसी कवि में नहीं पाई जाती।
  • कहीं तो इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर पदावली द्वारा एक सजीव भावभरी प्रेममूर्ति खड़ी करती है, कहीं भाव या रस की धारा बहाती है, कहीं अनुप्रासों की मीलित झंकार उत्पन्न करती है।
  • ये उहा के बल पर कारीगरी के मजमून बाँधाने के प्रयासी कवि न थे। 
  • जिस प्रकार ये अपनी परम्परा में परमोत्कृष्ट कवि है उसी प्रकार प्रसिद्धि में अंतिम भी।
  • मतिराम जी के रसराज के समान पदमाकर जी का जगतविनोद भी काव्यरसिकों और अभ्यासियो दोनों का कण्ठहार रहा है।

कविता:-
1.मीनागढ़ बंबई सुमंद मंदराज बंग, 
बंदर को बंद करि बंदर बसावैगो।(ग्वालियर महाराज दौलतराव सिंधिया के लिए पढ़े थे)


2.फागु की भीर, अभीरिन में गहि गोंवदै लै गई भीतर गोरी।


3.आई संग आलिन के ननद पठाई नीठि, 
सोहत सोहाई सीस ईड़री सुपट की। 


4.गोकुल के, कुल के, गली के गोप गाँवनके
जौ लगि कछू को कछू भाखत भनैनहीं।


5.आरस सो आरत, सँभारत न सीस पट, 
गजब गुजारति गरीबन की धार पर।


6.मोहि लखि सोवत बिथोरिगो सुबेनीबनी, 
तोरिगो हिए को हार, छोरिगो सुगैया को।


7.एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल, 
हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे जुरि जायगी।

 
8.चालो सुनि चंदमुखी चित में सुचैन करि, 
तित बन बागन घनेरे अलि घूमि रहे। 


9.ऐ ब्रजचंद गोविंद गोपाल! सुन्यो क्यों न एते कलाम किए मैं।
त्यों पद्माकर आनंद के नद हौ नंदनंदन! जानि लिए मैं

प्रकरण- 3


रीतिकाल के अन्य कवि

  • इस प्रकार के अच्छे कवियों की रचनाओं में प्राय: मार्मिक और मनोहर पद्यों की संख्या कुछ अधिक पाई जाती है।
  • सबलसिंह का महाभारत, छत्रासिंह की विजय मुक्तावली, गुरु गोविंदसिंहजी का चंडीचरित्र, लाल कवि का छत्रप्रकाश, जोधराज का हम्मीररासो, गुमान मिश्र का नैषधचरित, सरयूराम का जैमिनीपुराण, सूदन का सुजान चरित्र, देवीदत्ता की वैतालपच्चीसी, हरनारायण की माधावानल कामकंदला, ब्रजवासी दास का ब्रजविलास, गोकुलनाथ आदि का महाभारत,मधुसूदनदास का रामाश्वमेध,कृष्णदास की भाषा भागवत, नवलसिंह कृत भाषा सप्तशती, आल्हारामायण, आल्हाभारत, मूलढोला तथा चंद्रशेखर का हम्मीरहठ, श्रीधार का जंगनामा, पद्माकर का रामरसायन, ये इस काल के मुख्य कथानक काव्य हैं।
  • रीतिकाल के भीतर संवत् 1798 में रामप्रसाद निरंजनी ने ‘भाषा योगवाशिष्ठ’ बहुत ही परिमार्जित गद्य में लिखा।
  • इसी काल में महाराज विश्वनाथ सिंह ने हिन्दी का प्रथम नाटक (आनंदरघुनंदन) लिखा।
  • 15.आलम-
  • जाति के ब्राह्मण थे, पर शेख नाम की रँगरेजिन के प्रेम में फँसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे।
  • ग्रन्थ- ‘आलमकेलि’ 
  • औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे जो पीछे बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा।
  •  ‘कनक छरीसी कामिनी काहे को कटि छीन’-आलम जेब में इन पंक्तियों की चीट मिली थी।शेख ने इसे ऐसे पूरा किया-
  • ‘कटि को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन’।
  • ‘आलमकेलि’ में बहुत से कवित्त शेख के रचे हुए हैं।
  • प्रेम की पीर’ या ‘इश्क का दर्द’ इनके एक-एक वाक्य में भरा पाया जाता है। 
  • रेखता या उर्दू भाषा में भी इन्होंने कवित्त कहे हैं। 
  • प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ और ‘घनानंद’ की कोटि में ही होनी चाहिए।


1.जा थल कीने बिहार अनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो करैं
2.कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि, 
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं, एदई।
3.रात कें उनींदे अरसाते, मदमाते राते, 
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं।
4.दाने की न पानी की, न आवै सुधा खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है।

16.गुरु गोविंदसिंह-

  • यद्यपि सिख संप्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है।
  •  ये हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे।
  • रचनाएँ- सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। 
  • कविता:-
  • निर्जर निरूप हौ, कि सुंदर सरूप हौ,
  • कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
  • 17.घनानंद-
  •  ये साक्षात् रस मूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तंभों में हैं। 
  • ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मीर मुंशी थे। 
  • ये वृंदावन जाकर निंबार्क संप्रदाय के वैष्णव हो गए।
  • इनकी सी विशुद्ध , सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ।
  • विप्रलंभश्रृंगार ही अधिकतर इन्होंने लिखा।
  • ‘प्रेम की पीर’ ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ।
  • प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धाीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ। 
  • प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्धाटन जैसा इनमें है वैसा हिन्दी के अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं।
  • घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहरी उछलकूद दिखाई है।
  • यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं। 
  • अपनी भावनाओं के अनूठे रूपरंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधाड़क प्रयोग करनेवाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। 

ग्रन्थ- सुजानसागर, विरहलीला, कोकसागर, रसकेलिवल्ली और कृपाकंद,कृष्णकौमुदी, नाममाधुरी, वृंदावनमुद्रा, प्रेमपत्रिका, रसबसंत।

1.गुरनि बतायो, राधा मोहन हू गायो सदा,
सुखद सुहायो वृंदावन गाढ़े गहि रे।

2.बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
खरे अरबरन भरे हैं उठि जान को।

3.नेही महा, ब्रजभाषाप्रवीन और सुंदरताहु के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद, भावना भेद स्वरूप को ठानै।
4.रीझ सुजान सची पटरानी, बची बुधि बापुरी ह्वै करि दासी।
5.रुचि के वे राजा जान प्यारे हैं आनंदघन,
होत कहा हेरे, रंक! मानि लीनो मेल सो’
6.अरसानि गही वह बानि कछू, सरसानि सो आनि निहोरत है।

7.ह्वै है सोऊ घरी भाग उघरी अनंदघन सुरस बरसि, लाल! देखिहौ हरी हमें! 
8.उघरो जग, छाय रहे घन आनंद, चातक ज्यों तकिए अब तौ।
9.कहिए सु कहा, अब मौन भली, नहिं खोवते जौ हमें पावते जू।
10.झूठ की सचाई छाक्यौ, त्यों हित कचाई पाक्यो, ताके गुनगन घनआनंद कहा गनौ।

11.उजरनि बसी है हमारी अंखियानि देखो, सुबस सुदेस जहाँ रावरे बसत हो।
12.गति सुनि हारी, देखि थकनि मैं चली जाति, थिर चर दसा कैसी ढकी उघरति है।
13.तेरे ज्यों न लेखो, मोहि मारत परेखो महा, जान घनआनंद पे खोयबो लहत हैं।
14.और प्रांजल ब्रजभाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है , 
कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की वेदन जानौ कहा तुम?
15.कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूकि-कूकि अबही करेजो किन कोरि रै।
16.ए रे बीर पौन! तेरो सबै ओर गौन, वारि
तो सों और कौन मनै ढरकौं ही बानि दै।
17.पूरन प्रेम को मंत्र महा पन जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यो।
18.आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौलौं?
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै?

19.अंतर में बासी पै प्रवासी कैसो अंतर है, 
मेरी न सुनत दैया! आपनीयौ ना कहौ।
20.मूरति सिंगार की उजारी छबि आछी भाँति,
दीठि लालसा के लोयननि लैलै ऑंजिहौं।
21.निसि द्यौस खरी उर माँझ अरी छबि रंगभरी मुरि चाहनि की।
तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैं, ढरिगो हिय ढोरनि बाहनिकी।

22.परकारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करौ, सबही बिधि सुंदरता सरसौ

23.अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलै तजि आपनपौ, झिझकैं कपटी जो निसाँक नहीं

18.रसनिधि-(पृथ्वी सिंह)
इन्होंने बिहारी सतसई के अनुकरण पर ‘रतनहजारा’ नामक दोहों का ग्रन्थ लिखा।

कविता:-
1.अद्भुत गति यहि प्रेम की, बैनन कही न जाय।
दरस भूख लागै दृगन, भूखहिं देत भगाय
2.चतुर चितेरे तुव सबी लिखत न हिय ठहराय।
कलस छुवत कर ऑंगुरी कटी कटाछन जाय।

19.महाराज विश्वनाथ सिंह-

ब्रजभाषा में नाटक पहले-पहले इन्होंने लिखा।
भारतेंदु ने आनंद रघुनंदन को पहला नाटक माना।
इनकी कविता वर्णनात्मक तथा उपदेशात्मक है।

कविता-
1.भाइन भृत्यन विष्णु सो रैयत, भानु सो सत्रुन काल सो भावै।
सत्रु बली सों बचे करि बुद्धि औ अस्त्रा सों धर्म की रीति चलावै
2.बाजि गज सोर रथ सुतूर कतार जेते, 
प्यादे ऐंड़वारे जे सबीह सरदार के।
3.उठौ कुँवर दोउ प्रान पियारे।
हिमरितु प्रात पाय सब मिटिगे नभसर पसरे पुहकर तारे।

20.गिरधर कविराय

  • इनकी नीति की कुंडलियाँ ग्राम ग्राम में प्रसिद्ध हैं। 
  • अनपढ़ लोग भी दो-चार चरण जानते हैं। 
  • सीधी सादी भाषा में तथ्यमात्र का कथन।
  • इनमें न तो अनुप्रास आदि द्वारा भाषा की सजावट है, न उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का चमत्कार।
  • वृंद कवि में और इनमें यही अंतर है। वृंद ने स्थान स्थान पर अच्छी घटती हुई और सुंदर उपमाओं आदि का भी विधान किया है। पर इन्होंने कोरा तथ्यकथन किया है।

कविता-
1.साईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरनाकुस अरु कंस को गयो दुहुन को राज।
2.रहिए लटपट काटि दिन बरु घामहिं में सोय।
छाँह न वाकी बैठिए जो तरु पतरो होय।

  • 21.सूदन
  • सूदन भरतपुर के महाराज बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहाँ रहते थे।
  • उन्हीं के पराक्रमपूर्ण चरित्र का वर्णन इन्होंने ‘सुजानचरित‘ नामक प्रबंधकाव्य में किया है।
  • सूरजमल की वीरता की जो घटनाएँ कवि ने वर्णित की हैं वे कपोलकल्पित नहीं, ऐतिहासिक हैं।
  • अध्यायों का नाम जंग रखा है।सुजानचरित में 7 चैप्टर है।


कविता-
1.बखत बिलंद तेरी दुंदुभी धुकारन सों,
दुंद दबि जात देस देस सुख जाही के। 
2.दुहुँ ओर बंदूक जहँ चलत बेचूक,
रव होत धुकधूक, किलकार कहुँ कूक।
3.दब्बत लुत्थिनु अब्बत इक्क सुखब्बत से।
चब्बत लोह, अचब्बत सोनित गब्बत से।
4.धड़धद्ध रं धड़धद्ध रं भड़भब्भरं भड़भब्भरं।
5.सोनित अरघ ढारि, लुत्थ जुत्थ पाँवड़े दै, 
दारुधूम धूपदीप, रंजक की ज्वालिका।
6.इसी गल्ल धारि कन्न में बकसी मुसक्याना।
हमनूँ बूझत हौं तुसी ‘क्यों किया पयाना’
7.डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे, 
कुड़िए न बेखी अणी मी गुरुन पावाँ हाँ।

  1. द्विजदेव-
    ऋतुओं के वर्णन इनके बहुत ही मनोहर हैं।
    पुस्तकें- श्रृंगारबत्तीसी और श्रृंगारलतिका।
    ब्रजभाषा के श्रृंगारी कवियों की परंपरा में इन्हें अंतिम प्रसिद्ध कवि समझना चाहिए।
    जिस प्रकार लक्षण ग्रंथ लिखनेवाले कवियों में पद्माकर अंतिम प्रसिद्ध कवि हैं उसी प्रकार समूची श्रृंगार परंपरा में ये।
    बहुत से कवियों के ऋतुवर्णन हृदय की सच्ची उमंग का पता नहीं देते, रस्म सी अदा करते जान पड़ते हैं। पर इनके चकोरों की चहक के भीतर इनके मन की चहक भी साफ झलकती है।
    1.मिलि माधावी आदिक फूल के ब्याज विनोद-लवा बरसायो करैं।
    रचि नाच लतागन तानि बितान सबै विधि चित्त चुरायो करैं।
    2.सुर ही के भार सूधो सबद सुकीरन के
    मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौन।
    3.बोलि हारे कोकिल, बुलाय हारे केकीगन, 
    सिखै हारी सखी सब जुगुति नई नई।
    4.आजु सुभायन ही गई बाग, बिलोकि प्रसून की पाँति रही पगि।
    ताहि समय तहँ आये गोपाल, तिन्हें लखि औरौ गयो हियरो ठगि
    5.घहरि घहरि घन सघन चहूँधा घेरि, 
    छहरि छहरि विष बूँद बरसावै ना।