1.दिल्ली दरबार दर्पण-भारतेंदु हरिश्चंद्र
●मैं श्रीमती महारानी की तरफ से यह झंडा खास आपके लिए देता हूं,जो उनके हिंदुस्तान की राजराजेश्वरी की पदवी लेने का यादगार रहेगा।श्रीमती को भरोसा है कि जब कभी यह झंडा खुलेगा आपको उसे देखते ही केवल इसी बात का ध्यान न होगा कि इंगलिस्तान के राज्य के साथ आपकी खैरखाह राजसी घराने का कैसा दृढ़ सम्बंध है।
●खाँ साहिब के मिज़ाज में रूखापन बहुत है।एक प्रतिष्ठित बंगाली इन के डेरे पर मुलाकात के लिए गए थे।खाँ ने पूछा,क्यों आये हो?बाबू साहिब ने कहा,आप की मुलाकात हो।इस पर खाँ बोले कि अच्छा, आप हमको देख चुके और हम आपको,अब जाइए।
●वाइसराय ने उत्तर दिया कि हम आप की अँग्रेजी विद्या पर इतना मुबारकबाद नहीं देते जितना अँग्रेजों के समान आप का चित्त होने के लिए।
●1 जनवरी को दरबार का महोत्सव हुआ।
2.भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है:भारतेंदु हरिश्चंद्र
●इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है।
●हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी है।
●हिंदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते।
●”तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली।
चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम खाली॥
●हम लोग निरी चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं।
●यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जाएगा फिर कोटि उपाय किए भी आगे न बढ़ सकेगा। लूट की इस बरसात में भी जिस के सिर पर कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही कहना चाहिए।
●भगवान कहते हैं कि पहले तो मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा और उस पर मेरी अनुकूलता।
●विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं।
●”अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए सबके दाता राम॥”-मलूकदास
●दरिद्र कुटुंबी इस तरह अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवंती बहू फटें कपड़ों में अपने अंग को छिपाए जाती है। वही दशा हिंदुस्तान की है।
●”अब की चढ़ी कमान को जाने फिर कब चढ़े।
जिन चूके चहुआज इक्के मारय इक्क सर।”-चंद कवि ने पृथ्वीराज को कहा था
●धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में,बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो।
●इससे सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है।
●लोगों ने धर्मनीति और समाजनीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है
●वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरणकमल का भजन है।
●जो बात हिंदुओं का नहीं मयस्सर है वह धर्म के प्रभाव से मुसलमानों को सहज प्राप्त है।
●”शौक तिल्फी से मुझे गुल की जो दीदार का था।
न किया हमने गुलिस्ताँ का सबक याद कभी॥”
●जो हिंदुस्तान में रहे चाहे किसी जाति, किसी रंग का क्यों न हो वह हिंदू है।
●परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत रखो अपने में अपनी भाषा में उन्नति करो।
3.शिवमूर्ति:प्रतापनारायण मिश्र
●महात्मा कबीर ने इस विषय में जो कहा है वह निहायत सच है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथी आवै और कोई उसका नाम बता दे,तो अब उसे टटोलेंगे।
●हम पूरा-पूरा वर्णन व पूरा साक्षात कर लें तो वह अनन्त कैसे और यदि निरा अनन्त मान के अपने मन और वचन को उनकी ओर से बिल्कुल फेर लें तो हम आस्तिक कैसे?
●हमारा यह लेख केवल उनके विनोद अर्थ है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं और ईश्वर के साथ जीवित संबंध रख के ह्रदय में आनंद पाते हैं।
●मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है जिसका प्रयोजन यह है कि उनसे हमारा दृढ़ संबंध है।
●हमारे विश्वास की नींव पत्थर पर है।हमारा धर्म पत्थर का है।
●हुनरमंदों से पूछे जाते हैं बाबे हुनर पहिले।
●गोबर की मूर्ति यह सिखाती है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है,ह्रदय मंदिर की कुवासना रूपी दुर्गंध को हरता है। पारे की मूर्ति में यह भाव है कि प्रेमदेव हमारा पुष्टि कारक है- सुगंधि पुष्टिवर्धनम!यह मूर्ति बनाने वा बनवाने को सामर्थ्य ना हो तो पृथ्वी और जल आदि अष्टमूर्ति बनी-बनाई पूजा के लिए विद्यमान है।
●श्वेत जिसका अर्थ यह है कि परमात्मा शुद्ध है,स्वच्छ है, उसकी किसी बात में किसी का कुछ मेल नहीं।पर सभी उसके ऐसे आश्रित हो सकते हैं जैसे उजले रंग पर सब रंग।
दूसरा लाल रंग है जो रजोगुण का वर्ण है। कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है।
तीसरा रंग काला है उसका भाव सब सोच सकते हैं कि सबसे पक्का यही रंग है इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता ऐसे ही प्रेम देव सबसे अधिक पक्के हैं उन पर और रंग क्या चढ़ेगा।
अधिकतर शिव मूर्ति लिंगा कार होती है जिसमें हाथ पांव मुख कुछ नहीं होते।
क्योंकि लिंग शब्द का अर्थ ही चिन्ह है।
●लोग कह गए हैं कि ईश्वर को वाद में ना ढूंढो पर विश्वास में।
●यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आस-पास हैं उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है।
●ईश्वर के विषय में बुद्धि बढ़ाने वाले सब कहीं सब काल में मनुष्य ही है।
●हमारा प्रभु हमारे शत्रुओं के लिए भयजनक है।
●शिर पर गंगा का चिन्ह होने से यह भाव है कि गंगा हमारे देव की सांसारिक और पारमार्थिक सर्वस्व है और भगवान् सदाशिव विश्वव्यापी है।
●शिवजी को परम वैष्णव कहा है।
●वास्तव में विष्णु अर्थात व्यापक और शिव अर्थात कल्याणमय यह दोनों एक-ही प्रेमरूप के नाम है।
●यदि धर्म से अधिक मतबाले पन पर श्रद्धा हो तो अपने प्रेमाधार भगवान भोलानाथ को परम वैष्णव एवं गंगाधर कहना छोड़ दीजिए।
●सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को अपना देवता समझा।
●भारतवासी मात्र केवल तुम्हारे हो जाएं और यह पवित्र भूमि फिर कैलाश हो जाय?
तो जब हमारे हृदय में शिव होंगे तो हमारा हृदय मंदिर क्यों ना कैलाश होगा।
●प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़,धर्म बे-सिर-पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल,मुक्ति प्रेत की बहन है।
●ईश्वर का तो पता ही लगना कठिन है ब्रह्म शब्द ही नपुंसक है।और हृदय मंदिर में यदि प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है;क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिव-मूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है।
4.शिवशम्भु के चिट्ठे:बालमुकुंद गुप्त
◆बनाम लार्ड कर्जन
●आज शिवशम्भु बुलबुलों का राजा ही नहीं, महाराजा है।
●आपने माई लार्ड! जबसे भारतवर्ष में पधारे हैं, बुलबुलों का स्वप्न ही देखा है या सचमुच कोई करनेके योग्य काम भी किया है
●आप बारम्बार अपने दो अति तुम तराक से भरे कामों का वर्णन करते हैं। एक विक्टोरिया मिमोरियल हाल और दूसरा दिल्ली-दरबार।
●इस देशकी प्रजा के हृदयमें कोई स्मृति-मन्दिर बना जाने की शक्ति आप में है।
●इस दरिद्र देशके बहुत-से धन की एक ढेरी है, जो किसी काम नहीं आ सकती।
◆श्रीमान्-का स्वागत
●जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है।
●”जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखना।”
●जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊंचे हाथीपर बैठ चुके हैं, उससे ऊंचा हाथी यदि सारी पृथिवीमें नहीं तो भारतवर्ष में तो और नहीं है। इसी से फिर किसी हाथी पर बैठनेका श्रीमान्-को और क्या चाव हो सकता है?-लॉर्ड कर्जन के संदर्भ में
●उपकार का बदला देना महत् पुरुषों का काम है।
●अब तक गरीब पढ़ते थे, इससे धनियों की निन्दा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब गरीब न पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े न पढ़े उनकी निन्दा न होगी।
●चायके प्रचार की भांति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देश में बहुत जरूरत है।
●भारतवासी जरा भय न करें, उन्हें लार्ड कर्जन के शासनमें कुछ करना न पड़ेगा। आनन्द ही आनन्द है। चैन से भंग पियो और मौज उड़ाओ। नजीर खूब कह गया है –
●कुंडीके नकारे पे खुतकेका लगा डंका।
नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका।।
पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल न जाना।
[‘भारतमित्र’, 26 नवम्बर, 1904 ई]
◆वैसराय का कर्तव्य
●विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है।
●आपमें उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राजशक्तिका
है।
●शिवशम्भुको कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अनजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता।
●यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानी का देश नहीं कर्तव्य का देश है।
●यह वह देश है, जहां की प्रजा एक दिन पहले रामचन्द्र के राजतिलक पानेके आनन्द में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचन्द्र बनको चले तो रोती रोती उनके पीछे जाती थी।
●[‘भारतमित्र’, 17 सितम्बर, 1904 ई.]
◆पीछे मत फेंकिये
●प्रजा की चाहे कैसी ही दशा हो, पर खजाने में रुपये उबले पड़ते हैं।
●सारांश यह कि लार्ड कार्नवालिस के समय और आपके समय में बड़ा ही भेद हो गया है।
●हिन्दुस्थानी फारसी पढ़के ठीक फारिस वालों की भांति बोल सकते हैं, कविता कर सकते हैं।
●एक भी अंग्रेज ऐसा नहीं है, जो हिन्दुस्थानियों की भांति साफ हिन्दी बोल सकता हो। किसी बातमें हिन्दुस्थानी पीछे रहनेवाले नहीं हैं। हां दो बातों में वह अंग्रेजोंकी नकल या बराबरी नहीं कर सकते हैं। एक तो अपने शरीरके काले रंगको अंग्रेजों की भांति गोरा नहीं बना सकते और दूसरे अपने भाग्यको उनके भाग्यमें रगड़कर बराबर नहीं कर सकते।
●समयके महासमुद्र में मनुष्य की आयु एक छोटी-सी बूँदकी भी बराबरी नहीं कर सकती।
●[‘भारतमित्र’, 17 दिसम्बर,1904 ई.]
◆आशा का अन्त
●रोगी को रोग से कैदी को कैद से, ऋणी को ऋणसे कंगाल को दरिद्रता से, – इसी प्रकार हरेक क्लेशित पुरुषको एक दिन अपने क्लेशसे मुक्त होने की आशा होती है।
●किस्मत पे उस मुसाफिरे खस्ताके रोइये।
जो थक गया हो बैठके मंजिलके सामने।’
●माई लार्ड! इस देश की दो चीजों में अजब तासीर है। एक यहां के जलवायु की और दूसरे यहां के नमक की।
●इस देश के कितने ही अभागे सचमुच अभागे नहीं, वरंच अच्छी मजदूरी के लालच से जबरदस्ती अकाल पीड़ितों में मिलकर दयालु सरकारको हैरान करते हैं। इससे मजदूरी कड़ी की गई।
●गिरा के ठोकर मारना क्या सज्जन और सत्यवादी का काम है? अपनी सत्यवादिता प्रकाश करने के लिये दूसरे को मिथ्यावादी कहना ही क्या सत्यवादिता का सबूत है?●पराधीनता की सबके जी में बड़ी भारी चोट है।
●[‘भारतमित्र’, 25 फरवरी, 1905 ई.]
◆एक दुराशा
●चलो-चलो आज, खेलें होली कन्हैया घर।
●माई लार्ड को ड्यूटी का ध्यान दिलाना सूर्य को दीपक दिखाना है।
●सारे भारत की बात जाय, इस कलकत्ते ही में देखने की इतनी बातें हैं कि केवल उनको भली भांति देख लेनेसे भारतवर्षकी बहुतसी बातोंका ज्ञान होसकता है।
●माई लार्ड अपने शासन-काल का सुन्दर से सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं,वह प्रजाके प्रेम की क्या परवा करेंगे?
●बमुलाजिमाने सुलतां कै रसानद, ईं दुआरा?
कि बशुक्रे बादशाही जे नजर मरां गदारा।
【’भारतमित्र’,18 मार्च, 1905 ई.】
◆विदाई सम्भाषण
●बिछड़न-समय बड़ा करुणोत्पादक होता है।
●अलिफलैला के अलहदीन ने चिराग रगड़कर और अबुलहसन ने बगदाद के खलीफा की गद्दी पर आंख खोलकर वह शान न देखी, जो दिल्ली दरबार में आपने देखी।
●[‘भारतमित्र’, 2 सितम्बर, 1905 ई.]
◆बंग विच्छेद
●गत 16 october को बंगविच्छेद या बंगालका पार्टीशन हो गया।
●आपके शासनकाल में बंगविच्छेद इस देशके लिए अन्तिम विषाद और आपके लिए अन्तिम हर्ष है।
●मुर्शिदाबाद जो आज एक लुटा हुआ सा शहर दिखाई देता है, कुछ दिन पहले इसी बंग देश की राजधानी था।
●दो हजार वर्ष नहीं हुए इस देश का एक शासक कह गया है -“सैकड़ों राजा जिसे अपनी-अपनी समझकर चले गये, परन्तु वह किसीके भी साथ नहीं गई, ऐसी पृथिवी के पाने से क्या राजाओं को अभिमान करना चाहिये?
●यह बंगविच्छेद बंगका विच्छेद नहीं है। बंगनिवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये।
●भारतवासियों के जी में यह बात जम गई कि अंग्रेजों से भक्तिभाव करना वृथा है, प्रार्थना करना वृथा है और उनके आगे रोना गाना वृथा है। दुर्बलकी वह नहीं सुनते।
●[‘भारतमित्र’, 21 अक्तूबर, 1905 ई.]
◆लार्ड मिन्टो का स्वागत
●भाग्यवानों से कुछ न कुछ सम्बन्ध निकाल लेना संसार की चाल है।
●आशा मनुष्यको बहुत लुभाती है, विशेषकर दुर्बलको परम कष्ट देती है।
●[‘भारतमित्र’, 23 सितम्बर, 1905 ई.]
◆मार्ली साहबके नाम
●निश्चित विषय।
विज्ञवरेषु, साधुवरेषु!
●एक विद्वान सज्जन भारत का सर्व प्रधान शासक होता है।
●राजनीति बड़े-बड़े सत्यवादी साहसी विद्वानोंको भी गधा गधी एक बतलाने वालों के बराबर कर देती है।
● अब भारतवासियों के जी में भली-भांति पक्की होती जाती है कि उनका भला न कन्सरवेटिव ही कर सकते हैं और न लिबरल ही।
●झूठा है वह हकीम जो लालचसे मालके,
अच्छा कहे मरीजके हाले तबाहको।
●अपने सिरका तो हमें कुछ गम नहीं,
खम न पड़ जाये तेरी तलवारमें।
●[‘भारतमित्र’, 16 फरवरी, 1907 ई.]
◆आशीर्वाद
●भारत! तेरी वर्तमान दशामें हर्षको अधिक देर स्थिरता कहां?
●बर जमीने कि निशानेकफे पाये तो वुवद।
सालहा सिजदये साहिब नजरां ख्वाहद बूद।।
(जिस भूमिपर तेरा पदचिह्न है, दृष्टिवाले सैकड़ों वर्षतक उसपर अपना मस्तक टेकेंगे।)
●जो जेल, चोर डकैतों, दुष्ट हत्यारोंके लिये है जब उसमें सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजातिके शुभचिन्तकोंके चरण स्पर्श हों तो समझना चाहिये कि उस स्थानके दिन फिरे।
●[‘भारतमित्र’, 30 मार्च, 1907 ई.]
◆शाइस्ताखांका खत – 1
●यह कायदा है कि दूसरी कौम की हुकूमत हीको लोग जुल्म से भी बढ़कर जुल्म समझते हैं।
●खयाल रखो कि दुनिया चन्द रोजा है।अखिर सबको उस दुनिया से काम है, जिसमें हम हैं। सदा कोई रहा न रहेगा। नेकनामी या बदनामी रह जावेगी।
●शाइस्ताखां – अज जन्नत।
【भारतमित्र’, 25 नवम्बर, 1905 ई.】
◆शाइस्ताखांका खत – 2
●बहकर दूर निकल गया हुआ नदीका पानी क्या कभी फिर लौटा हैं?
●अपने मुल्कको जाओ और खुदा तौफीक दे तो हिन्दुस्तानके लोगोंको कभी कभी दुआये खैरसे याद करना। वस्सलाम्!
●शाइस्ताखां – अज जन्नत।
[‘भारतमित्र’, 18 अगस्त, 1906 ई.]
◆सर सैय्यद अहमदका खत
●अलीगढ़ कालिजके लड़कों के नाम-
मेरे प्यारो, मेरी आंखों के तारो, मेरी कौम के नौनिहालो!
जिन्दगी में मैंने इज्जत,नामवरी बहुत कुछ हासिल की,मगर यह कहूंगा और मेरा यह कहना बिलकुल सच है कि तुम्हारी बेहतरी की तदबीर ही में मैंने अपनी उमर पूरी कर दी।
●चि मिकदार खूं दर अमद खुर्दा बाशम।
कि बर खाकम आई ओ मन मुर्दा बाशम।।
●यह जंजीरें कौमी तरक्की के पांवों में अपने ही हाथों से डाली गई हैं, दूसरा कोई इसके लिये कसूरवार नहीं ठहर सकता।
●न जिल्लतसे नफरत न इज्जतका अरमां।
●हिन्दुओं से मेल रखना मुझे नापसन्द नहीं था।
●मेरे अजीजो! जमानेकी रफ्तारको कोई रोक नहीं सकता। वह सबको अपने रास्तेपर घसीट ले जाती है।
●सय्यद अहमद – अज जन्नत
[‘भारतमित्र’, 9 मार्च, 1907 ई.]
5.कविता क्या है-भाग एक:आचार्य रामचंद्र शुक्ल
●मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों को लिए दिए दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अंत तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है।
●जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।
●जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक भावात्मक है।
◆सभ्यता के आवरण और कविता
●सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्यों के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए त्यों-त्यों उनके मूल रूप बहुत कुछ आच्छन्न होते गए।
●क्रोध, घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के विषय भी अपने मूल रूपों से भिन्न रूप धारण करने लगे। कुछ भावों के विषय तो र्अमूर्त तक होने लगे, जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्धदर्शन में ‘अरूपराग’ कहतेहैं।
●काव्य-दृष्टि से कोई भेद नहीं है-भेद है केवल विषय के थोड़ा रूप बदलकर आने का। इसी रूप बदलने का नाम है सभ्यता।
●ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जायगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जायगा।
●जब तक भावों से सीधा और पुराना लगाव रखनेवालेर् मूर्त और गोचर रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तविक ढाँचा खड़ा न हो सकेगा।
●काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिंबग्रहण अपेक्षित होता है।
◆कविता और सृष्टि-प्रसार
●काव्य दृष्टि कहीं तो (1) नरक्षेत्र के भीतर रहती है, कहीं (2) मनुष्येतर वाह्य सृष्टि के और, (3) कहीं समस्त चराचर के।
1.पहले नरक्षेत्र को लेते हैं। संसार में अधिकतर कविता इसी क्षेत्र के भीतर हुई है। नरत्व की वाह्य प्रकृति और अंत:प्रकृति के नाना संबंधों और पारस्परिक विधाानों का संकलन या उद्भावना ही काव्यों में-मुक्तक हों या प्रबंधा-अधिकतर पाई जातीहै।
2.मनुष्येतर वाह्य प्रकृति का आलंबन के रूप में ग्रहण हमारे यहाँ संस्कृत के प्राचीन प्रबंधा-काव्यों के बीच-बीच में ही पाया जाता है। कहाँ प्रकृति का ग्रहण आलंबन के रूप में हुआ है, इसका पता वर्णन की प्रणाली से लग जाता है।
●नाटक यद्यपि मनुष्य ही की भीतरी-बाहरी प्रवृत्तियों के प्रदर्शन के लिए लिखे जाते हैं और भवभूति अपने मार्मिक और तीव्र अंतर्वृत्ति विधान के लिए ही प्रसिद्ध हैं, पर उनके ‘उत्तररामचरित’ में कहीं-कहीं वाह्य प्रकृति के बहुत ही सांग और संश्लिष्ट खंड-चित्र पाए जाते हैं। पर मनुष्येत्तर वाह्य प्रकृति को जो प्रधानता मेघदूत में मिली है, वह संस्कृत के और किसी काव्य में नहीं।
●मेघदूत न कल्पना की क्रीड़ा है, न कला की विचित्रता।
●केवल असाधारणत्व की रुचि सच्ची सहृदयता की पहचान नहीं है।
◆मार्मिक तथ्य
●जहाँ तथ्य केवल आरोपित या संभावित रहते हैं वहाँ वे अलंकार रूप में ही रहते हैं।
●कहने की आवश्यकता नहीं कि विच्छिन्न दृष्टि की अपेक्षा समष्टि-दृष्टि में अधिक व्यापकता और गंभीरता रहती है। काव्य का अनुशीलन करनेवाले मात्र जानते हैं कि काव्य-दृष्टि सजीव सृष्टि तक ही बद्ध नहीं रहती है। वह प्रकृति के उस भाग की ओर भी जाती है जो निर्जीव या जड़ कहलाता है।
●ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है।
◆काव्य और व्यवहार
●मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त करनेवाली मूल वृत्ति भावात्मिका है। केवल तर्क-बुद्धि या विवेचना के बल से हम किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होते।
●शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की उत्तेजना नहीं होती।
●कवि और भावुक हाथ-पैर न हिलाते हों, यह बात नहीं है। पर अर्थियों के निकट उनकी बहुत-सी क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं होता।
◆मनुष्यता की उच्च भूमि
●पशुत्व से मनुष्यत्व में जिस प्रकार अधिक ज्ञान-प्रसार की विशेषता है उसी प्रकार अधिक भाव-प्रसार की भी।
●इस हृदय-प्रसार का स्मारक स्तंभ काव्य है जिसकी उत्तेजना से हमारे जीवन में एक नया जीवन आ जाता है।
●कवि-वाणी के प्रसार से हम संसार के सुख-दु:ख, आनंद-क्लेश आदि का शुद्ध स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं।
●कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत् के बीच क्रमश: उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है।
◆भावना या कल्पना
●उपासना’ भावयोग का ही एक अंग है।
●जिस प्रकार भक्ति के लिए उपासना या ध्यान की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार और भावों के प्र्रवत्तान के लिए भी भावना या कल्पना अपेक्षित होती है।
●कल्पना दो प्रकार की होती है-विधायक और ग्राहक! कवि में विधायक कल्पना अपेक्षित होती है और श्रोता या पाठक में अधिकतर ग्राहक।
◆मनोरंजन
●कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य-हृदय का सामंजस्य-स्थापन है।
●मनुष्य के कुछ कर्मों में जिस प्रकार दिव्य सौंदर्य और माधुर्य होता है, उसी प्रकार कुछ कर्मों में भीषण कुरूपता और भद्दापन होता है।
●कविता की इसी रमानेवाली शक्ति को देखकर जगन्नाथ पंडितराज ने रमणीयता का पल्ला पकड़ा और उसे काव्य का साध्य स्थिर किया तथा योरोपीय समीक्षकों ने ‘आनंद’ को काव्य का चरम लक्ष्य ठहराया।
◆सौंदर्य
●सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है।
●जैसे, वीरकर्म से पृथक् वीरत्व कोई पदार्थ नहीं वैसे ही सुंदर वस्तु से पृथक् सौंदर्य कोई पदार्थ नहीं।
●जिस वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से तदाकार परिणति जितनी ही अधिक होगी, उतनी ही वह वस्तु हमारे लिए सुंदर कही जायगी।
●हमें तो केवल यही कहना है कि हमें अपने मन का और अपनी सत्ता का बोध रूपात्मक ही होताहै।
●किसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान या भावना से हमारी अपनी सत्ता के बोध का जितना ही अधिक तिरोभाव और हमारे मन की उस वस्तु के रूप में जितनी ही पूर्ण परिणति होगी उतनी ही बढ़ी हुई हमारी सौंदर्य की अनुभूति कही जाएगी।
●न सुंदर को कोई एकबारगी कुरूप कहता है और न बिलकुल कुरूप को सुंदर।
●कवि की दृष्टि तो सौंदर्य की ओर जाती है चाहे वह जहाँ हो-वस्तुओं के रूप-रंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में।
◆चमत्कारवाद
●चमत्कार मनोरंजन की सामग्री है, इसमें संदेह नहीं
●इससे जो लोग मनोरंजन को ही काव्य का लक्ष्य समझते हैं, वे यदि कविता में चमत्कार ही ढूँढ़ा करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
●बहुत से लोग काव्य और सूक्ति को एक ही समझा करते हैं।
●उक्ति ही काव्य होती है, यह तो सिद्ध बात है।
●लक्षणा के द्वारा स्पष्ट और सजीव आकार-प्रदान का विधान प्राय: सब देशों के कवि-कर्म में पाया जाता है। कुछ उदाहरण देखिए-
(क) धान्य भूमि बनपंथ पहारा। जहँ-जहँ नाथ पाँव तुम धारा -तुलसी
(ख) मनहु उमगि ऍंग-ऍंग छबि छलकै -तुलसी
(ग) चूनरि चारु चुई सी परै।
(घ) बनन में बागन में बगरो बसंत है। -पद्माकर
(ड.) वृंदावन बागन पै बसंत बरसो परै। -पद्माकर
(च) हौं तो श्यामरंग में चोराय, चित्त चोरा-चोरी
बोरत तो बोइयों पै निचोरत बनै नहीं। -पद्माकर
(छ) एहो नंद लाल ऐसी व्याकुल परी है बाल,
हाल ही चलौ तौ चलौ, जोरे, जुरि जाएगी।
कहै पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगे,
ओरे लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जाएगी।
तौ ही लगि चैन जौलौं चेतिहैं न चंद्रमुखी,
चेतैगी कहँ तौ चाँदनी में चुरि जाएगी।
●काव्य एक बहुत ही व्यापक कला है। जिस प्रकार मूर्त विधान के लिए कविता चित्र-विद्या की प्रणाली का अनुसरण करती है उसी प्रकार नादसौष्ठव के लिए वह संगीत का कुछ-कुछ सहारा लेती है
●नाद-सौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है।
◆अलंकार
●भरत मुनि ने रस की प्रधानता की ओर ही संकेत किया था; पर भामह, उद्भट आदि कुछ प्राचीन आचार्यों ने वैचित्रय का पल्ला पकड़ अलंकारों को प्रधानता दी।
●अलंकार प्रस्तुत वर्ण्य-वस्तु नहीं, बल्कि वर्णन की भिन्न-भिन्न प्रणालियाँ हैं, कहने के खास-खास ढंग हैं।
◆कविता पर अत्याचार
●कविता पर अत्याचार भी बहुत कुछ हुआ है। लोभियों, स्वार्थियों और खुशामदियों ने उसका गला दबाकर कहीं अपात्रों की-आसमान पर चढ़नेवाली स्तुति कराई है, कहीं द्रव्य न देनेवालों की निराधार निंदा।
●सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढ़ा करते। वे फूस के झोंपड़ों, धूल-मिट्टी में सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते हुए पक्षियों, दौड़ते हुए कुत्तो और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी-कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं जिसकी छाया भी महलों और दरबारों तक नहीं पहुंच सकती। श्रीमानों के शुभागमन पर पद्य बनाना, बात-बात में उनको बधाई देना, कवि का काम नहीं। जिनके रूप या कर्मकलाप जगत् और जीवन के बीच में उसे सुंदर लगते हैं, उन्हीं के वर्णन में वह ‘स्वांत: सुखाय’ प्रवृत्त होता है।
◆कविता की आवश्यकता
●मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी न-किसी रूप में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो, पर कविता का प्रचार अवश्य रहेगा।
●कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी। जानवरों को इसकी जरूरत नहीं।
6.नाखून क्यों बढ़ते हैं?:हजारी प्रसाद द्विवेदी
●अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है।
●ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर ये इतने बेहया क्यों हैं?
●पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है।
●वे कंबख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है।
●मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर-युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है।
●मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
●गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दाक्षिणात्य लोग छोटे नखों को।
●नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है। और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान की स्मृतियाँ को ही कहते हैं।
●मेरी निर्बोध बालिका ने मानो मनुष्य जाति से ही प्रश्न किया है – जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह हमारी पशुता के अवशेष हैं।
●इंडिपेंडेन्स’ का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर ‘स्वाधीनता’ शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना।
●सहजात वृत्ति अनजानी स्मृतियों का ही नाम है।
●पुराने का ‘मोह’ सब समय वांछनीय ही नहीं होता।
● कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते।
●महाभारत में इसीलिए निर्वेर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्य धर्म कहा है :
-एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत।
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च।।
●गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह सबके दुख सुख को सहानुभूति के साथ देखता है। यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।
●प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृंखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है।
●मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है।●नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
7.मेरे राम का मुकुट भीग रहा है:विद्यानिवास मिश्र
●दिन ऐसे बीतते हैं, जैसे भूतों के सपनों की एक रील पर दूसरी रील चढ़ा दी गई हो और भूतों की आकृतियाँ और डरावनी हो गई हों।
●”मोरे राम के भीजे मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटहिं।”
●और लड़की तो हर एक पराई होती है, धोबी की मुटरी की तरह घाट पर खुले आकाश में कितने दिन फहराएगी, अंत में उसे गृहिणी बनने जाना ही है।
●क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं?
●पर मुकुट तो लोगों के मन में था, कौसल्या के मातृ-स्नेह में था, वह कैसे उतरता।
●लागति अवध भयावह भारी,
मानहुँ कालराति अँधियारी।
●राम का निर्वासन वस्तुत: सीता का दुहरा निर्वासन है।
●पुरा यत्र स्रोत: पुलिनमधुना तत्र सरितां
विपर्यासं यातो घनविरलभाव: क्षितिरुहामू।
8.मजदूरी और प्रेम:सरदार पूर्ण सिंह
◆हल चलाने वाले का जीवन
●हल चलाने वाले और भेड़ चराने वाले प्रायः स्वभाव से ही साधु होते हैं।
●कहते हैं, ब्रह्माहुति से जगत् पैदा हुआ है। अन्न पैदा करने में किसान भी ब्रह्मा के समान है। खेती उसके ईश्वरी प्रेम का केंद्र है।
●वृक्षों की तरह उसका भी जीवन एक प्रकार का मौन जीवन है।
●गुरु नानक ने ठीक कहा है – ”भोले भाव मिलें रघुराई”
◆गड़रिये का जीवन
●किसी के घर कर मैं न घर कर बैठना इस दारे फानी में।
ठिकाना बेठिकाना और मकाँ वर ला-मकाँ रखना॥
●हुए थे आँखों के कल इशारे इधर हमारे उधर तुम्हारे।
चले थे अश्कों के क्या फवारे इधर हमारे उधर तुम्हारे॥
●जो खुदा को देखना हो तो मैं देखता हूँ तुमको।
मैं देखता हूँ तुमको जो खुदा को देखना हो॥
●मैंने उससे कहा – ”भाई, अब मुझे भी भेड़ें ले दो।” ऐसे ही मूक जीवन से मेरा भी कल्याण होगा। विद्या को भूल जाऊॅँ तो अच्छा है। मेरी पुस्तकें खो जायँ तो उत्तम है। ऐसा होने से कदाचित इस वनवासी परिवार की तरह मेरे दिल के नेत्र खुल जायँ और मैं ईश्वरीय झलक देख सकूँ।
●गड़रिये के परिवार की प्रेम-मजदूरी का मूल्य कौन दे सकता है?
◆मजदूर की मजदूरी
●मजदूरी का ऋण तो परस्पर की प्रेम-सेवा से चुकता होता है।
◆प्रेम-मजदूरी
●मुझे तो मनुष्य के हाथ से बने हुए कामों में उनकी प्रेममय पवित्र आत्मा की सुगंध आती है।
●होटल में बने हुए भोजन यहाँ नीरस होते हैं क्योंकि वहाँ मनुष्य मशीन बना दिया जाता है।
●प्रेम से जीवन सदा गदगद रहता है।
◆मजदूरी और कला
●आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है।
●मनुष्य-पूजा ही सच्ची ईश्वर-पूजा है।
●उत्तम से उत्तम और नीच से नीच काम, सबके सब प्रेम-शरीर के अंग हैं।
●आजकल की कविता में नयापन नहीं। उसमें पुराने जमाने की कविता की पुनरावृत्ति मात्र है।
●चरखा कातने वाली स्त्रियों के गीत संसार के सभी देशों के कौमी गीत होंगे।
◆मजदूरी और फकीरी
●मजदूरी तो मनुष्य के समष्टि-रूप परिणाम है, आमा रूपी धातु के गढ़े हुए सिक्के का नकदी बयाना है जो मनुष्यों की आत्माओं को खरीदने के वास्ते दिया जाता है। सच्ची मित्रता ही तो सेवा है।
●इसलिए मजदूरी और फकीरी का अन्योन्याश्रय संबंध है।
●मजदूरी करना जीवनयात्रा का आध्यात्मिक नियम है।
◆समाज का पालन करने वाली दूध की धारा
●एक जापानी तत्त्वज्ञानी का कथन है कि हमारी दस करोड़ उँगलियाँ सारे काम करती हैं। उन उँगलियों ही के बल से, संभव है हम जगत् को जीत लें।
●शिवजी के तांडव नृत्य को और पार्वतीजी के मुख की शोभा को पत्थरों की सहायता से वर्णन करना जड़ को चैतन्य बना देना है। इस देश में कारीगरी का बहुत दिनों से अभाव है।
●बिना शूद्र-राजा के मूर्ति-पूजा किंवा, कृष्ण और शालिग्राम के छिछोरेपन से दरिद्रता को प्राप्त हो रहे हैं। यही कारण है, जो आज हम जातीय दरिद्रता से पीड़ित हैं।
◆पश्चिमी सभ्यता का एक नया आदर्श
●इंजनों की वह मजदूरी किस काम की जो बच्चों, स्त्रियों और कारीगरों को ही भूखा नंगा रखती है।
●भारतवर्ष जैसे दरिद्र देश में मनुष्य के हाथों की मजदूरी के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा।
●है रीत आशिकों की तन मन निसार करना।
रोना सितम उठाना और उनको प्यार करना॥
9.उत्तराफाल्गुनी के आसपास:कुबेरनाथ राय
●वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी।
●फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं।
●फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है।
●परंतु जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है। इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद ‘फलागम’ या ‘निमीसिस’ (Nemesis) की प्रतीक्षा है।
●देह भले ही ‘एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु’ साठ वर्ष तक भोगती चले।
●तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक।
● जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है। जो सर्जक है, पिता है, ‘प्रॉफेट’ है, नई लीक का जनक है, प्रजाता है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है?
●जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है।
●तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरुक्षेत्र है।
●चालीस वर्ष ही तो असली जीवन-काल है।
●दरअसल चालीस से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है।
●’साठा तब पाठा’
●शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।
●भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा।
●मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : ‘बरसै मघा झकोरि-झकोरी। मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।’
●इस अड़तीसवें पावस में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब कितनी देर ही है।
●क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है।
●काम भुजंग के डँसने पर तो नीम भी मीठी लगती है।
●एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई बूँद स्थिर नहीं।
●अध्यापक भी ‘स्थापित व्यवस्था’ का एक अंग है और ‘व्यवस्था’ का भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है।
●ययाति’ पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो पुरूरवा नई पीढ़ी का।
●कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी।
●मैं मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है।
●अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर।
●1922 ई. मैं लेनिन ने लिखा था, ‘उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा… हम सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। ‘सर्वहारा संस्कृति’ अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। ‘सर्वहारा संस्कृति’ उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।
●मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे?
●अतः मै धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है, रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या रचनाकार के लिए ‘नॉनकनफर्मिस्ट’ होना जरूरी है।
●योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़, निरुद्ध और आरूढ़।
●यह पुतलीघर ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है।
●अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।
10.उठ जाग मुसाफ़िर:विवेकी राय
●जवानी की आँखों में ज्वाला होती है, बुढ़ापे की आंखों में प्रकाश होता है
।
●लो गाँववालों,बहुत लगन के साथ जवानी में संचित किया यह विशाल पुस्तकालय आयु के पंचानबे पड़ाव पर तुम्हें सौंप रहा हूँ,सम्भालो अपनी थाती।
●जवानी संचय होती है
बुढापा दान होता है
जवानी सुंदर होती है
बुढ़ापा महान होता है।
●बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करे?
लेकिन न आती मौत तो बूढ़े भी क्या करें?
●शरीर है ना ठीक हो जाता है।
●क्या सचमुच बुढ़ापा अचानक धमककर चकित कर देता है।
●मरिते चाहि ना आमि सुंदर भुवने/मानवेर माझे आमि बाँचिकरे…
●माता बिन आदर कौन करे?
बरखा बिन सागर कौन भरे?
राम बिना दुःख कौन हरे?
●मन के हारे हार है,मन के जीते जीत।
●गुण और संस्कार ही नहीं,अपना यह ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व,कल्पित सम्बंध और अर्जित ज्ञान भी महामारक बंधन।
●अपना दीप अपने आप अपना जीआ अपना वेद
अपने अनुभवों की राशि विपुल पुराण।
●माता बिन आदर कौन करे?
●जीवन यात्रा से थका प्रत्येक यात्री विश्राम चाहता है।
●माँ चंदन की गंध है,माँ रेशम का तार,
बँधा हुआ जिस तार में,सारा ही घर द्वार।
●जो स्वस्थ होगा,वही शांत होगा।
●भारतवासी कितने सौभाग्यशाली हैं और हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है कि आदर,प्यार और दुलार सहित जीवनदात्री हमारी माताओं की विस्तृत सूची है।
●उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है
●जब खेती चिड़िया चुग डारी
फिर पछताए क्या होवत है।
●जन्म दिया माता सा जिसने,किया सदा लालन-पालन
जिसकी मिट्टी जल से ही है,रचा गया हम सबका तन।
●स्वयं दुःखी ना होना, और न दूसरे को दुःखी करना बड़ी बात है।
●जिसको दुनिया डूबते सूरज की साँझ कहती है,वह उसका प्रभात होता है।
11.संस्कृति और सौंदर्य:नामवर सिंह
●’अशोक के फूल’ केवल एक फूल की कहानी नहीं, भारतीय संस्कृति का एक अध्याय है।
●देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है। सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है।’ और सच कहा जाए तो आर्य संस्कृति की शुद्धता के अहंकार पर चोट करने के लिए ही ‘अशोक के फूल’ लिखा गया है, प्रकृति-वर्णन करने के लिए नहीं। यह निबंध द्विवेदीजी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि संस्कृति-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है।
●अज्ञेय ने लिखा है: ‘काव्य की पड़ताल में तो दिनकर ‘शुद्ध’ काव्य की खोज में लगे थे, लेकिन संस्कृति की खोज में उनका आग्रह ‘मिश्र संस्कृति’ पर ही खोज में लगे थे, लेकिन संस्कृति की मिश्रता को ही उजागर करने का प्रयत्न है, उसकी संग्राहकता को नहीं। संस्कृति का चिंतन करनेवाले किसी भी विद्वान के सामने यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं, अपने अनुभव को समृद्धतर बनाती हैं, लेकिन यह प्रक्रिया मिश्रण की नहीं है। संस्कार नाम ही इस बात को स्पष्ट कर देता है। यह मानना कठिन है कि संस्कृति की यह परिभाषा दिनकर की जानी हुई नहीं थी; उनका जीवन भी कहीं उस मिश्रता को स्वीकार करता नहीं जान पड़ता था, जिसकी वकालत उन्होंने की। तब क्या यह संदेह संगत नहीं कि उनकी अवधारणा एक वकालत ही थी, दृष्टि का उन्मेष नहींᣛ? और अगर वकालत ही थी तो उनका मुवक्किल क्या समकालीन राजनीति का एक पक्ष ही नहीं था, जिसके सांस्कृतिक कर्णधार स्वयं भी मिश्रता का सिद्धांत नहीं मानते थे, लेकिन अपनी स्थिति दृढ़तर बनाने के लिए उसे अपना रहे थे?’ (स्मृतिलेखा, पृ.118)
●इस बात से तो संभवत: अज्ञेय भी इनकार न करेंगे कि द्विवेदीजी के लिए वह एक अमूर्त बौद्धिक ‘अवधारणा’ नहीं थी, बल्कि ‘दृष्टि का उन्मेष’ था।
●’शुद्ध है केवल मनुष्य की जिजीविषा।’
●’मनुष्य की जीवनी-शक्त्िा बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह जीवनधारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है।’
●आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है’ उसे किस प्रकार ध्वस्त किया जाय?
●अतर्क्य भावों, अनुभूतियों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के स्तर पर संस्कृतियों का वास्तविक मिलन अत्यंत कठिन होता है।’ (पृ.18-19)
●द्विवेदीजी की दृष्टि में संस्कृति का यह आग्रह भी एक प्रकार का ‘मोह’ है जो बाधा उपस्थित करता है।
●हिंदी साहित्य की भूमिका’ के उपसंहार में उन्होंने लिखा : ‘आए दिन श्रद्धापरायण आलोचक यूरोपियन मतवादों को धकिया देने के लिए भारतीय आचार्य-विशेष का मत उद्धृत करते हैं और आत्मगौरव के उल्लास से घोषित कर देते हैं कि ‘हमारे यहाँ’ यह बात इस रूप में मानी या कही गई है। मानो भारतवर्ष का मत केवल वही एक आचार्य उपस्थापित कर सकता है, मानो भारतवर्ष के हजारों वर्ष के सुदीर्घ इतिहास में नाम लेने योग्य एक ही कोई आचार्य हुआ है, और दूसरे या तो हैं ही नहीं, या हैं भी तो एक ही बात मान बैठे हैं। यह रास्ता गलत है। किसी भी मत के विषय में भारतीय मनीषा ने गड्डलिका-प्रवाह की नीति का अनुसरण नहीं किया है। प्रत्येक बात में ऐसे बहुत से मत पाए जाते हैं जो परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं।’ (पृ. 129)
●प्रसाद ने ‘रहस्यवाद’ शीर्षक निबंध में सौंदर्यानुभूति की परंपरा को पुननिर्मित करने का प्रयास किया।
●एक भक्तिकाव्य को छोड़कर प्रसाद और हजारीप्रसाद द्विवेदी में इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं है कि क्या-क्या सुंदर है?
●प्रसाद ने ‘रहस्यवाद’ शीर्षक निबंध में स्पष्ट लिखा है: ‘आनंद पथ को उनके कल्पित भारतीयोचित विवेक में सम्मिलित कर लेने से आदर्शवाद का ढाँचा ढीला पड़ जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनंद है, ज्ञान से वा अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनंद और उसके पथ के लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कहकर स्वीकार करने में बाधक है।
●द्विवेदीजी की व्याख्या का एक अंश प्रस्तुत है : ‘जो संपत्ति परिश्रम से नहीं अर्जित की जाती, और जिसके संरक्षण के लिए मनुष्य का रक्त पसीने में नहीं बदलता, वह केवल कुत्सित रुचि को प्रश्रय देती है। सात्विक सौंदर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं।
●क्लासिकी परंपरा से फूटती हुई आधुनिकता! संस्कृति को भी संस्कार देनेवाली यह एक और परंपरा है जो अनजाने ही निराला की ‘श्याम तन भर बँधा यौवन’ वाली ‘वह तोड़ती पत्थर’ से जुड़ जाती है।
●एक सत्ख्यातिवादी की तरह द्विवेदीजी कहते हैं कि जनता के अंत:करण में अगर सौंदर्य के प्रति सम्मान का भाव नहीं है, तो जनता कभी भी सौंदर्य-प्रेमी नहीं बनाई जा सकती।
●जो जाति ‘सुंदर’ का सम्मान नहीं कर सकती वह यह भी नहीं जानती कि बड़े उद्देश्य के लिए प्राण देना क्या चीज है। वह छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ती है, मरती है और लुप्त हो जाती है।
●परंपरा और आधुनिकता’ शीर्षक लेख में वे कहते हैं : ‘जो मनुष्य को उसकी सहज वासनाओं और अद्भुत कल्पनाओं के राज्य से वंचित करके भविष्य में उसे सुखी बनाने के सपने देखता है वह ठूँठ तर्कपरायण कठमुल्ला हो सकता है, आधुनिक बिल्कुल नहीं। वह मनुष्य को समूचे परिवेश से विच्छिन्न करके हाड़-मांस का यंत्र बनाना चाहता है। यह न तो संभव है, न वांछनीय।’ (ग्रंथावली 9/363)
●इस प्रयास का पहला सूत्र है कि वे सौंदर्य को सौंदर्य न कहकर ‘लालित्य’ कहना चाहते हैं, क्योंकि ‘प्राकृतिक सौंदर्य से भिन्न किंतु उसके समानांतर चलनेवाला मानवरचित सौंदर्य’ (ग्रंथावली 7/34) उनकी दृष्टि में विशेष महत्वपूर्ण है।
●द्विवेदीजी की लालित्य-मीमांसा का दूसरा सूत्र यह है कि यह ‘बंधन के विरुद्ध विद्रोह’ है और ‘बंधनद्रोही व्याकुलता को रूप देने का प्रयास’ है। (7/38) नृत्य के संदर्भ में इसी बात को ‘जड़ के गुरुत्वाकर्षण पर चैतन्य की विजयेच्छा’ कहा गया है। (7/28)
●द्विवेदीजी की लालित्य-मीमांसा का तीसरा सूत्र यह है कि सौंदर्य एक सर्जना है – मनुष्य की सिसृक्षा का परिणाम।
●भाषा में, मिथक में, धर्म में, काव्य में, मूर्ति में, चित्र में बहुधा अभिव्यक्ति मानवीय इच्छाशक्ति का अनुपम विलास ही वह सौंदर्य है जिसकी मीमांसा का संकल्प लेकर हम चले हैं।(7/34)
●जीवन का समग्र विकास ही सौंदर्य है।
●सौंदर्य विद्रोह है – मानव-मुक्ति का प्रयास है। (1982)