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रजत सिंह ‘कबीरा’ की कविताएँ

रजत सिंह ‘कबीरा’ की कविताएँ

1.पीढ़ियों का अंतर

उसने जिया है बचपन
उन्मुक्तता से
अल्हड़पन में गुज़ारी है
जवानी,
और उबलते लहू को
उतारा है
अपनी गर्म सांसो में
वो शरीर अब बूढ़ा हो गया है
ज़िन्दगी की किताब के
बीचों बीच सूख
गए हैं 85 बरस
किसी ताज़े गुलाब की तरह
जब रोटियाँ चबाई नहीं
सिर्फ़ गले में उतारी जा रही हैं
वह अब मुखिया नहीं है
वह अब दुखिया है
डेढ़ इंच की खाल सिमट
आई है उसके माथे पर,
और
बेटे की मार से
मुँह पोपला हो गया है
पीठ पर पड़ गए
अनगिनत चकत्ते
बहु की
ऊंची एड़ी वाली चप्पल से,
आंखों में घर कर गया है
मोतियाबिंद
जैसे कमीज में टांका गया है
नन्हा बटन कोई
और मार खाते
कभी कभार उगल देता है
ख़ून के एक आध ग़ुबार
जो ज़ार होते कुर्ते पे छोड़
जाते हैं अपने दाग़
और
जब तलक दाग
लाल से हरे नहीं हो जाते
तब तक वह याद करता रहता है
कि
कल तक वो उसकी
उँगली पकड़ कर चलता था
आज उसे उँगलियों पे
चलाता है
एक टुकड़े के लिए
हज़ारों गालियाँ सुनाता है
खैर,
अब उसके पास
खुला आंगन नहीं है
न अपनी छत है
हैं तो बस
सीलन से टपकती दीवारें
और जंग लगे किवाड़ का
6 by 3 वाला कमरा,
लगता है किसी
ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो
को
एक नपे तुले फ्रेम में
चस्पा कर दिया गया है
और जल्द ही
उसपे टांग दी जाएगी
कोई नई घड़ी,
और वो फ्रेम
जा चिपकेगा किसी
वृद्धाश्रम के कोने में,
जहाँ वह रोज़
झाकेगा नीचे जमीन में
और गिनेगा के
कुल कितनी साँसे हैं
मेरी जेब में
जब उसे यहाँ धकेला जा रहा था
तो एक आध साँस गिर गई
थी,
उसकी प्रेयसी
उसकी बुढ़िया की फ़ोटो पे
अब वह खाली नहीं बैठता है
अलस्सुबह अपने दुःख को
टोकरी में भर दरवाज़े के
बाहर रख देता है
ताकि
खरीद ले इनको कोई
उधार ही सही
और शाम तक
राहगीरों के पेशाब से
और अधिक भर जाती है टोकरी
उसे वह अपना दुःख समझ
सिरहाने रख
और बूढा हो जाता है
सोचता है
शायद यही है
पीढयों का अंतर।

2.इत्तेफ़ाक़

यह महज एक इत्तेफ़ाक़ नहीं कि
उनकी टाँगों के बीच से निकला
रंग और हमारी रगों में दौड़ता रंग
लाल है
और इत्तेफ़ाक़ यह भी नहीं कि
ज़िस्म के जिस लोथड़े पे तुमको
ग़ुरूर है
वह भी उसी लाल रंग की बदौलत है।

3.सर्द रात

कल रात सर्द थी बहुत
कोहरा झड़ रहा था
शाखों से…!
दो ज़िस्म लिपटे थे
इक मुट्ठी में
रूहें साँस लेती थीं एक साथ
और हवा दफ़्न होती थी सीने में
एक ओर अलाव में
जल रहा था अतीत
तपन जिसकी
एक गोले में सिमटकर
गर्माहट कर रही थी
मखमली कम्बल पे थे
कुछ दाग़ गिले शिकवों के
बदन पे उलझी हुई
लकीरें,हूबहू
मिलती थीं
बिस्तर की सलवटों से
जब जब लौ कम होती
हम झोंक देते थे
बहुत सारे बीते लम्हों
के ईंधन को
आग जलती रही
अतीत पिघलता रहा
अलसुबह…!
तकिये पर थे दो टप्पेके
दरवाजा खुला था
माथे पे मेरे
उसके होंठो की ख़ुश्बू थी
खिड़की के बाहर ,
ओस टपक रही थी
पत्तों से।
उसके न होने का एहसाह
कमरे में पसरा था।

4.बे’सुध

कुछ दिन से होश नहीं है मुझे,
ज़िस्म फ़रार है
कई दिनों से,
रूह बिखरी हुई है
तुममें,
हाँ तुम्हारी यादों का बदन
नीला पड़ गया है।
तुमने नहीं भेजी हैं
वो खुशबुएँ बहुत दिनों से
जिनके सहारे करवट
लेती थीं आँखें,
और नहीं लिखा होगा कोई ख़त
जिसे पढ़कर
उजली सुबहों का इक दौर
जारी था।
कमरे की तस्वीरों पर
अरसों से उजाला नहीं पड़ा
लगता है कि
अब तुम वहाँ नहीं आती,
बिस्तर की सलवटों को
उड़ेल दिया है
इक काँच की डिबिया में
कभी कभार रख देता हूँ
धूप में भी
फफूंद से बचने के लिए।
वो कहांनियों के किस्से
अधूरे रह गए,
उन किताबों के
पन्ने अभी उतने ही मैले हुए हैं
जितने तुमने सुनाये थे मुझे
उस झील के किनारे
उस रात को कैसे तुमने
सुबह में तब्दील किया था,
अब तलक नहीं भूला हूँ।
तमाम उलझे हुए
कागज़ के टुकड़े फेंके हैं
मैंने कमरे की फर्श पर
कुछ न कुछ लिखा भी होगा जिनमें
पर अब याद नहीं,
पता नहीं क्यों
कुछ दिन से होश नहीं है मुझे
ज़िस्म फ़रार है
कई दिनों से
रूह बिखरी हुई है।

रजत सिंह ‘कबीरा’

छात्र, रामजस महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय