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रिचा खर्कवाल की कविताएँ

रिचा खर्कवाल की कविताएँ

1.प्यार

मैं तुमसे करती हूँ प्यार
उन पलों में
जिनमें तुम एकदम बिखरे से हो!
तब, 
जब, तुम्हारी मुस्कान सिमटती हुई
हौले से मुझमें समाने लगती है,
तब
जब मैं दुनिया देख रही होती हूँ
और तुम तसल्ली से 
मेरे संसार में, मुझमें, खो जाते हो
तब
जब, ढेरों बातों के बाद 
हमारे दरमियाँ नहीं रह जाता है 
कुछ सिवाय मौन के!
तब
जब तुम्हारी नींदों को
मैं सोने लगती हूँ!
तब 
जब, तुम्हारा हाथ थामे
मैं और तुम
असंख्य कदम चल देते हैं
पर राहें ख़त्म नहीं होती!
तब
जब, मैं खोना चाहती हूँ
और तुम
बच्चे की तरह
ज़िद लगाए, 
मुझे पा लेना चाहते हो! और तब भी
जब मैं
प्यार के मायने खोजती हूँ,
इक धुंधली तस्वीर
तुम्हारे होने का एहसास करवाती है!
अब वो तुम सी है या तुम हो
ये रहस्य मैं नहीं सुलझाना चाहती,
उसी गुत्थी में,
उन्हीं चंद लम्हों में
जिंदगी को नज़रअंदाज़ करती हुई
मैं तुमसे प्यार करती हूँ!

2.इंतज़ार

इंतज़ार नहीं मुझे…
कि मेरी चुनरी के धागे
तुम्हारे आस्तीन से चिपके बटन पर अटके
न ये मैं चाहती हूँ कि
तुम्हारी नज़र तकती हुई
करें इंतज़ार मेरे मुड़ने का !
न मुन्तज़िर मैं किसी ऐसी डोर की
जो सहसा फांस ले हमें
अजनबी से बंधन में!
कभी भागे तुम यूँ ही चले आ रहे हो,
मैं भी व्यस्त स्वयं में
टकरा जाएं हम!
और खिल उठे गुल आंखों ही आंखों में
ये नहीं होगा !
कभी देखकर मुझे अनदेखा कर दो तुम
आवाज़ को भी अनसुना कर दो तुम
और सोचने लगो कि
इस बेरुख़ी से प्यार का बीज फूटेगा
नहीं, ये भी नहीं होगा!
तुम्हें पाने के लिए
किसी मौसम से दरकार नहीं मुझे
तुम क्यों न पतझड़ में आओ,
उतरती- बिखरती पत्तियों के साथ,
बरसात में बरसती बूंदों के साथ,
तुम चाहो तो…
ग्रीष्म की ऊष्मा में आओ
और क्यों न आ जाओ,
शिशिर की थरथराती सिहरन के साथ।

मुझे नहीं कामना किसी जादूई प्रेम की
वो क्या है न!
ये तरीके मिलन के
हैं चादर धूल की ओढ़े हुए,
जो चाहो मिलना सचमुच अगर
आओ कभी…
पुरानी किताबों की महक में,
पहाड़ों की किसी धार में,
अशांत शहर के शांत कोने में,
किसी चाय की चर्चा में,
या कभी
तुम्हारी बातें सुनते हुए,
मेरे अल्फ़ाज़ दोहराते हुए,
क्या पता कर बैठूँ मैं प्यार
तुमसे!
तुमसे पहले तुम्हारे लफ़्ज़ों से
बिना किसी हड़बड़ी के
सहज-सरल स्वीकारूँ तुम्हें
वैसे ही, जैसे तुम हो
इस पल, संग मेरे
सिर्फ तुम और मैं।
और…
तुम्हारी बांहें भी, खुले मन से
सिमटा लें
मेरी रूह को,
मेरे नारीत्व को,
मेरे भीतर के बचपन को,
मेरे अनोखे प्यार को,
‘मुझको’ !
शायद यही प्यार होगा!
मेरा-तुम्हारा, ‘हमारा’
सबसे भिन्न,
सीमाएं लांघता हुआ,
रूढ़ियाँ तोड़ता हुआ,
निडर, निश्छल,
वो हमारा प्यार होगा !

3.सुनो चाँद

सुनो चाँद
तुम्हारी शीतलता से
कई बार हो जाती हूँ मैं ठंडी इस कदर
कि बेकद्री से रखी
माँ की पुरानी शॉल
आ जाती है बाहर
उस पुराने कार्टन से
जो सर्दी के कपड़ों से ज़्यादा
भरा है, यादों की महक से। मैं तुम्हें तकती हूँ
रोज़ से कुछ क्षण ज़्यादा
नहीं कि तुम सुंदर से
बस थोड़े से सुंदर हो
इसलिए कि
तुम्हारी बेख्याली से
मेरी आँखों को प्यार है। और तुम,
तुम न जाने क्यों
एक मुस्कान हर शब
मेरे नाम छोड़ जाते हो उधार
असीम आकाश की अनंत गहराई में
मैं ढूंढती हुई अक्सर उसे
थककर वहीं छोड़ देती हूँ
धारण कर भोर में जिसे
सूरज दिन भर हँसता है।

रिचा खर्कवाल
छात्रा, किरोड़ीमल महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय