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दिपेश कुमार की कविताएँ

दिपेश कुमार की  कविताएँ

1.खादी

कुछ लोगों ने मुझे ख़ून करते देखा
उन्होंने कहा ‘हमने कुछ नहीं देखा’

उन लोगों ने कुछ नहीं देखा
मैंने कुछ नहीं किया
बस पोंछना है ये ख़ून
ताकि उसे शक़ ना हो
मेरे हत्यारे होने पर
जिसकी पीठ में छुरा घोंपने जाना है अभी

अजब ख़ून है ये
कमाल का गाढ़ापन, सुर्ख़ लाल
छूटता ही नहीं

तौलिया, धोती, गमछा, ब्लाउज, पेटीकोट
किसी से साफ नहीं हुआ ख़ून
मेरी नज़र पिताजी के फ़टे खादी कुर्ते पर पड़ी
मैं मुस्कुराया
अब तक मुस्कुरा रहा हूँ…..

2.पेट

भूख ने कड़ा इम्तिहान लिया, तो
एक रोज अपना पेट उतारकर रख आऊँगा
किसी शहंशाह के जर्जर होते महल के दरवाजे पर
जहाँ बरसों से
गूँजती सिसकियाँ
दीवार से रिसते ख़ून
घुँघरुओं के टुकड़े
सलीब की निष्ठुरता
जवाहरातों की खनक
और एक चमकती तलवार
सबकुछ महफूज़ हैं

वहाँ
मेरा पेट भी महफूज़ रहेगा
इसे साथ रखूँगा
तो मुमकिन है
पेट तड़पता हुआ
चढ़ जाएगा चिता पर
समा जाएगा मिट्टी में

3.बासी माँस

उसे नहीं आता
बुलाना
नहीं सीख पाई
रिझाना
जानती नहीं राहगीरों को लुभाना
व्यापार करना नहीं आता
उसे माँस बेचना नहीं आता

बड़ी दुकानों के अलावे भी
जगह-जगह
बेचे जाते हैं माँस
खुले आसमान के नीचे
जहाँ मँडराते हैं
चील-कौए
कभी-कभी इक्का दुक्का ही
आ पाता है
चीथड़े में लिपटा खरीददार
बाकी का माँस तो
बासी ही रह जाता है।

मुझे देखकर
उसने आग जलाई
अपनी आबरू
मर्यादा
इंसानियत
अस्तित्व
सबकुछ जलाकर
इशारा किया
शायद
उसे मुझमें एक खरीददार दिखा हो
एक पल ठिठककर
मैंने गौर से देखा
उस साँस लेती हुई लाश को
जो कबसे
अपने ही कन्धों पर
अपनी ही माँस की बोटियाँ लिए
भटक रही हैं।

दुर्भाग्य है
एक भी स्कूल नहीं
एक भी कॉलेज नहीं
कोई व्यवस्था नहीं
जहाँ इनको सिखाया जा सके
बुलाना
रिझाना
लुभाना
पेट पालने की तमाम कलाएँ
माँस बेचने की तमाम तकनीक।

4.दुपहरिया

मूस के बिल से
मिट्टी निकालकर
सूप में लेकर
रोज सुबह
फटकने बैठ जाती हो
मुट्ठी-भर धान भी तो नहीं निकलता!
फिर क्यों करती हो
बार-बार
वही असफल प्रयास

तलवे जलाकर
सड़कों पर गोबर बीनकर
उपले बनाती हो,
बाँस के सूखे कोंपल,
गाछ की सूखी लकड़ियाँ
मेड़ से अरहर की बूटियाँ तक उखाड़ लाती हो
फिर भी, न जाने क्यों?
रोटी तो कच्ची ही रह जाती है

एक बार पीछे मुड़कर देखो
जीभ निकालकर हाँफते कुत्ते
झुलसा हुआ पीपल का पत्ता
सूखा हुआ तालाब
सभी तुम्हें सचेत कर रहे हैं
किन्तु, तुम भी तो विवश हो
बिलकुल भीष्म की-सी विवशता

युद्ध हारकर
हर शाम घर लौटते ही
बेबसी, लाचारी और बदनसीबी के साथ
झोंक देती हो खुद को
ठंडे चूल्हे में
मुझे बेस्वाद भात खिलाकर
स्वादिष्ट माँड़ खुद पी जाती हो,
उसी काल के गाल में
फिर से समाने के लिए
सो जाती हो
दीवार घड़ी की
टिक-टिक, टिक-टिक करती सुइयों पर

आँचल को आँखों पर छाँह करके
आसमान में क्या निहारती हो?
क्या कोई उम्मीद दिखी?
दिखा कोई बादलों का टुकड़ा?
क्या बरसात होगी आज?
लेकिन, मैं नहीं चाहता की बरसात हो
चाहता हूँ कि दुपहरिया और प्रचंड हो
सूरज आग उगले
भयंकर लू चले
तुम अब बहुत थक गई हो
तुम्हें अब आराम की आवश्यकता है
माँ, तुम इस दुपहरिया की लू में
मर जाओ

5.खेत जोतती कविताएँ

एक मशहूर कवि का कविता-संग्रह
छज्जे पर धूल से सना हुआ मिला
उसमें से मैंने कुछ कविताएँ पढ़ीं,
कुछ किसानों पर
कुछ खेतों पर।

मैंने सोचा
क्यों न इन कविताओं को खेत घुमाऊँ!
उन्हें बताऊँ कि उनके भीतर का खेत
वास्तव में कैसा दिखता है!

कंधे पर हल
हाथ में बैल की रस्सी
कमर में कविता-संग्रह खोंसकर
खेत पहुँचा।

कविता-संग्रह खोलकर
मेड़ पर रख दिया।
“देख लो
यह असली खेत हैं
यहाँ तुम्हारे शब्दों को
सही अर्थ मिलेगा”
यह कहकर
चीरने लगा धरती की छाती।

उस कवि की झूठ पर परदा डालने
सूरज तमतमाता हुआ आया
उसने चाहा कि किताब ही जला दें
ताकि कविताएँ सच न देख पाए,
लेकिन मैंने गमछे से छाया कर दी
……और कविताएँ बच गईं।

वह कोई बड़ा कवि रहा होगा
उसने हवाओं को भेजा,
ताकि किताब बन्द हो जाए
बन्द हो जाएँ कविताओं की आँखें,
तभी मैंने किताब पर रख दिया
मिट्टी का बड़ा ढेला
क्योंकि मिट्टी का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता
……कविताएँ देखती रहीं
खेत का सच।

आधा खेत जोतने के बाद
सुस्ताने लगा
शीशम के नीचे।
थोड़ा खेत बाकी है,
पल-भर में जोत लूँगा
सोचते-सोचते आँख लग गई।

मैं खेत जोत रहा हूँ
लेकिन यह क्या?
इतनी बड़ी-बड़ी कविताएँ?
बैल से भी बड़ी!
बैलों को हटाकर
खुद आ गईं पालो के नीचे,
मैंने जोर से चाबुक मारा
कविताओं का शब्द-शब्द बिखर गया,
बैल को पकड़कर लाता कि
उससे पहले
कविताएँ फिर जुत चुकी थीं,
मैंने फिर चाबुक मारा
अबकी वे मुस्कुराईं,
मैं चाबुक मारता गया
वे खिलखिलाती गईं।

मैं सन्न हूँ,
देह में जान नहीं,
काटो तो खून नहीं।

उसका खिलखिलाना बन्द हुआ
गंभीर होकर बोलीं-
“कब तक पुस्तकालयों में सड़ती रहूँगी?
दम घुँटता है वहाँ,
कचोटता है हमें
जो लिखा गया है हमारे भीतर
झूठ, झूठ और केवल झूठ।
हमें रहने दो इन्हीं खेतों में
बहने दो इन्हीं हलों में।
दोबारा उस नर्क में नहीं जाना चाहती,
जहाँ हमें निर्जीव समझा जाता है
जहाँ हमारा कोई अस्तित्व नहीं
जहाँ मैं भोगी जाती हूँ
सम्पादकों द्वारा
कवियों द्वारा
पाठकों द्वारा।”

बैल घर की तरफ चल पड़े
मैं फिर शीशम तले आ गया,
एक कविता ने हल की मुठिया पकड़ ली
एक कविता चाबुक बन गई
दो कविताएँ हल खींचने लगीं।
कविताएँ आज़ाद हो गईं
वे खेत जोत रही हैं।

दिपेश कुमार
छात्र, दिल्ली विश्वविद्यालय