◆तीसरा क्षण
1.मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है।
2.तथ्य का अनादर करना,छुपाना,उससे परहेज करके दिमागी तलघर में डाल देना न केवल गलत है,वरन उससे कई मानसिक उलझनें उत्पन्न होती है।
3.मुझे लगता है कि मन एक रहस्यमय लोक है।उसमें अंधेरा है।अंधेरे में सीढ़ियां हैं।सीढ़ियां गीली है।सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है।वहाँ अथाह काला जल है।उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है।इस अथाह काले जल में कोई बैठा है।वह शायद मैं ही हूँ।
4.गांधीवाद ने भावुक कर्म की प्रवृत्ति पर कुछ इस ढंग से जोर दिया है कि सप्रश्न बौद्धिक प्रवृत्ति दबा दी गई है।असल में यह गांधीवादी प्रवृत्ति प्रश्न,विश्लेषण और निष्कर्ष की बौद्धिक क्रियाओं का अनादर करती है।
5.किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौंदर्य-बोध होता है।सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट, वस्तु और उसका दर्शन,इन दो पृथक तत्वों का भेद मिटकर जब सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्मय प्राप्त कर लेता है तब सौंदर्य भावना उद्बुद्ध् होती है।
6.सारे दर्शन का मूल आधार सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट रिलेशनशिप की कल्पना है-स्व-पक्ष और वस्तु-पक्ष की परिकल्पनाएँ और उन दो पक्षों के परस्पर संबंध की कल्पना के आधार पर ही दर्शन खड़ा होता है।
7.हिंदी में मन में बाह्य वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है।
8.तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए ऐसा कहते हो।किंतु सभी लोग लेखक नहीं है।दर्शक हैं,पाठक है श्रोता हैं।वे हैं,इसलिए तुम भी हो-यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं वे तुम्हारे लिए नहीं है।तुम उनके संबंध से हो। पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बात शुरू करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
9.मैं चाहता हूं कि साहित्य-संबंधी धारणाएँ वास्तविक साहित्य में विश्लेषण के आधार पर बनाई जायें।जिस प्रकार विज्ञान में इंडक्शन से डिडक्शन पर आया जाता है-तथ्यों के संग्रह से उनके विश्लेषण द्वारा,उनके सामान्यीकरण से अनुमान और निष्कर्ष निकाले जाते हैं-उसी प्रकार साहित्य में इंडक्शन से डिडक्शन पर क्यों ना आया जाए?इंडक्शन का क्षेत्र केवल हिंदी साहित्य तक ही सीमित क्यों रहे? उपन्यास क्या है,या पढ़ाते समय हम विश्व के प्रमुख उपन्यासों के उपरांत थी यह ठहरायें कि उपन्यास किसे कहते हैं और उसका शिल्प क्या है अथवा उसके प्रधान अंग क्या होते हैं…इसी प्रकार साहित्य में सौंदर्य किसे कहते हैं, इस प्रश्न के उहापोह का क्षेत्र केवल हिंदी की आत्मपरक कविता और हिंदी साहित्य तक सीमित न रखें।
10.केवल तटस्थ व्यक्ति ही तदाकार हो सकता है।
11.संकट काल में मेहमान दुश्मन होता है।
12.मेरे ख्याल से महत्वपूर्ण बात यह है कि कला के तीन क्षण होते हैं।यदि उनमें जरा-सी भी भीतरी कमजोरी रही तो-चाहे वह बौद्धिक आकलन की कमजोरी हो या संवेदन- क्षमता की हो-कृति पर उसका तुरंत प्रभाव होगा।
13.कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट दिव्य अनुभव-क्षण।दूसरा क्षण है इस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो।तीसरा और अंतिम क्षण है इस फेंटेसी के शब्द-बद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।
14.फैंटेसी को शब्द-बद्ध करने की प्रक्रिया के दौरान जो-जो सृजन होता है-जिसके कारण कृति क्रमशः विकसित होती जाती है-वहीं कला का तीसरा और अंतिम क्षण है।
15.सौंदर्य प्रतीति का संबंध सृजन-प्रक्रिया से है।सृजन-प्रक्रिया से हटकर सौंदर्य प्रतीति असंभव हो जाती है।
16.प्राकृतिक सौंदर्य या नारी सौंदर्य का अवलोकन व्यक्ति-बद्ध होने से सही अर्थों में सौन्दर्यानुभव नहीं कहा जा सकता।
17.कवि शब्दों के अर्थ परंपरा से आरंभ होकर भाषा की सफाई और चमक के निर्वाह के लिए प्रकृति करण के हेतु आदर भाव तत्वों को ही काट देते हैं।
18.अर्थ स्पन्दनों के पीछे सार्वजनिक सामाजिक अनुभवों की परंपरा होती है।
19.कवि की यह फैंटेसी भाषा को समृद्ध बना देती है।उसमें नये अर्थ-अनुषंग भर देती है,शब्द को नये चित्र प्रदान करती है।इस प्रकार,कवि भाषा का निर्माण करता है।जो कवि भाषा का निर्माण करता है,विकास करता है,वह निस्संदेह महान कवि है।
◆एक लम्बी कविता का अंत
1.यथार्थ के तत्व परस्पर गुम्फित होते हैं,साथ ही पूरा यथार्थ गतिशील होता है।अभिव्यक्ति का विषय बनकर जो यथार्थ प्रस्तुत होता है वह भी ऐसा ही गतिशील है,और उसके तत्व भी परस्पर गुम्फित हैं यही कारण है कि मैं छोटी कविताएँ लिख नहीं पाता और जो छोटी होती हैं वे वस्तुतः छोटी न होकर अधूरी होती है।
2.क्योंकि अनास्था का जन्म आस्था ही से होता है।फ़र्क यह है कि आज के पहले दर्शकों के सामने रंग-मंच पर आस्था नाटक खेला करती थी और अनास्था नेपथ्य में सूत्र-संचालन करती थी तो आजकल रंग-मंच पर अनास्था नाटक करती है और आस्था नेपथ्य में बैठकर सूत्र-संचालन करती है।
3.जो व्यक्ति फटेहाल और फटीचर हैं,उसे मान्यता देने के लिए कोई तैयार नहीं,चाहे वह कितना ही नैतिक क्यों न हो।
4.हमारे बहुत से कवि और कथाकार,मारे डर के,उस वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं,क्योंकि ये वास्तव में इतना अधिक जानते हैं कि अति-परिचय के कारण भी उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं।
5.समझदारी का यह तकाजा है कि जिस दुनियां में हम रहते हैं उससे हम समझौता करें।
6.भारत की एकमात्र आशा उसकी जनता है।उच्चतर वर्ग दैहिक और नैतिक रूप से मृतवत हो गये हैं।
7.मैं एक समाजवादी हूँ,इसलिए नहीं कि वह एक सर्वगुण-संपन्न संपूर्ण व्यवस्था है।बल्कि इसलिए कि रोटी के अभाव की अपेक्षा आधी रोटी बेहतर होती है।अन्य व्यवस्थाओं की परीक्षा की जा चुकी और उनमें अभाव ही अभाव पाये गए।अब इस (व्यवस्था) की भी परीक्षा कर ली जाए-अगर और किसी बात के लिए नहीं तो केवल नवीनता के लिए ही क्यों न सही-(रूसी राज्यक्रांति से पहले स्वामी विवेकानंद का यह कथन है)
8.कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्र असंगठित जनता भीड़ नहीं है।क्योंकि वह संगठित है। जहां संगठन है वहां एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है।जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है वहां एक स्फीत और सक्रिय चेतना है।
9.जब तक समाज पर धन का शासन रहेगा तब तक यह चारित्रिक संकट अधिक से अधिक असंतोष और अव्यवस्था उत्पन्न करने के अतिरिक्त मानव मूल्यों की हानि के साथ ही लाभ लोग से प्रेरित समझदारी को प्रधानता देता जाएगा आदमी ज्यादा से ज्यादा तुच्छ और अच्छा होता चला जाएगा।
10.कविता कोई निबंध तो है नहीं कि जिससे लोगों को आज के हालात की जानकारी मिले;न वह कोई नाटक है जिसमें पात्र प्रस्तुत होकर मूर्त रूप से जीवन-यथार्थ उपस्थित करते हैं।कविता एक संगीत को छोड़,अन्य सब कलाओं से अधिक अमूर्त है।वहाँ जीवन-यथार्थ केवल भाव बनकर प्रस्तुत होता है, या बिंब बनकर या विचार बनकर। कविता के भीतर की सारी नाटकीयता वस्तुतः भावों की गतिमयता है।उसी प्रकार,कविता के भीतर का कथा-तत्व भी भाव का इतिहास है।
◆डबरे पर सूरज का बिम्ब
1.एक सच्चा लेखक जानता है कि वह कहां कमजोर है कि उसने कहां सच्चाई से जी चुराया है,कि उसने कहां लीपा-पोती कर डाली है, कि उसने कहां उलझा-चढ़ा दिया है, कि उसे वस्तुतः कहना क्या था और कह क्या गया है,कि उसकी अभिव्यक्ति कहां ठीक नहीं है।वह इसे बखूबी जानता है। क्योंकि वह लेखक सचेत है। सच्चा लेख्क अपने खुद का दुश्मन होता है।
2.आलोचक साहित्य का दरोगा है।
3.हर जमाने में गरीबों की मुश्किल रही है,हर जमाने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है-बहुत विशाल श्रेणी का ,भारतीय जनता का ,मेहनतकश का।“ वह आगे कहता गया, “पिछला कौन-सा ऐसा युग था जिसमें कुण्ठा न हरी हो ?… और फिर…और फिर…कुण्ठा का मतलब क्या है ? उसने समझाते हुए कहा, कुण्ठा का आधिपत्य तो तब समझना चाहिए जब कुण्ठा के बुनियादी कारणों को दूर करने की बेसब्री और विक्षोभ न हो। हाँ, कुण्ठा का अगर फ्रॅायडवाद और मार्क्सवाद की संकर सन्तान है।
4.आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं स्वयं सच्चाई ही है। क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सज्जनता को साथ लेकर चलती है।आजकल के जमाने में वह है आउट ऑफ डेट।
◆हाशिये पर कुछ नोट्स
1.पसन्दगी को मैं कसौटी नहीं मानता।
2.आलोचना हमेशा तटस्थ और निष्पक्ष नहीं हुआ करती।वह बहुधा दृष्टि की बजाय मात्रा एक भावावेश होती।
3.अंधी श्रद्धा से अंधी आलोचना एक भयंकर चीज़ है।
4.आलोचना का सम्बंध बुद्धि से और श्रद्धा का हृदय से होता है।मार्क्सवाद पर लोगों की श्रद्धा हृदय से नहीं बुद्धि से उत्पन्न हुई है।
5.मानव-यथार्थ का ताना-बाना बहुत गहरा और सूक्ष्म होता है।
6.आलोचना का कार्य वस्तुतः सिद्धांतों के प्रकाश के अलावा एक सूक्ष्म कौशल भी है।
◆सड़क को लेकर एक बातचीत
1.जो व्यक्ति साहित्यिक दुनिया से जितना दूर रहेगा,उसमें अच्छा साहित्यिक बनने की संभावना उतनी ही ज्यादा बढ़ जाएगी।साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन आवश्यक है।
2.नई कविता आधुनिक भाव बोध पर चलती है।
3.काव्य सत्य भावना प्रसूत है,परंतु उस काव्य सत्य का नैतिक उत्तरदायित्व है।हम उसे केवल काव्य-सत्य कह कर नहीं टाल सकते।वह सत्य हमारे व्यक्तित्व से कुछ मांग करता है।
◆एक मित्र की पत्नी का प्रश्न-चिन्ह
1.व्यक्तित्व निर्माण में चेतन मन का रोल बहुत ही कम होता है और उसमें कम रोल संकल्प शक्ति का।दोनों के रोल निस्संदेह कम होते हैं लेकिन होते हैं बहुत ही महत्वपूर्ण-इतने महत्वपूर्ण कि उन्हीं के कारण मनुष्य मनुष्य है।
2.साहित्य पर आवश्यकता से अधिक भरोसा रखना मूर्खता है।
◆नये की जन्म-कुण्डली: एक
1.मैं परिवर्तन के परिणामों को देखने का आदी था,परिवर्तन की प्रक्रिया को नहीं।
2.सामाजिक सुधार का कार्य केवल अप्रत्यक्ष प्रभावों को सौंप देने के कारण ही साहित्य में भी गड़बड़ है।
◆नये की जन्म-कुण्डली: दो
1.भारतीय जीवन की भीतरी गति का आपके साहित्य में प्रतिबिम्ब हो या न हो,उसकी तालाश हो या न हो,वह गति आपसे कन्नी काटकर निकल जायेगी।साहित्य में संघर्ष अधूरा रह जाएगा, क्योंकि वह जीवन में अधूरा रहा।
◆वीरकर
- साहित्य में तत्व कम है,वारन यह है कि जीवन में बहुत अधिक है।वह जीवन जो जिया या भोगा जाता है,उसमें इतने अधिक तत्व है-सुबह से लेकर शाम तक मन पर उन तत्वों का इतना अधिक संवेदनात्मक प्रहार होता रहता है कि उत्तेजित हो-होकर मस्तिष्क की रगें मस्तिष्क के तंतु, अपने आराम के लिए उन तत्वों को टाल देते हैं।
2.लेखक अपने ह्रदय मन को बधिर करने के लिए अपने मन में किसी शुन्यत्व का निर्माण कर लेता है और वह स्वयं भी उस में खो जाता है।
3.एक व्यक्ति-भावना का,एक ज़िन्दगी का,अपने जीवन का दृश्य दिखता है कि वह कितनी झुठाई में जी रहा है।वह न केवल एक झूठ निर्माण कर रहा है।
◆विशिष्ट और अद्वितीय
1.हमारे अधिकांश कवि अद्वितीय हैं।वे स्वयं इस अद्वितीयता की रक्षा करते हैं।
2.भावात्मकता का कारण केवल लेखक की विवाहहीन,संतानहीन स्थिति में नहीं खोजा जा सकता।वैफल्य तरह-तरह के होते हैं।
◆कुटुयान और काव्य-सत्य
1.पढ़ी-लिखी स्त्री,आवश्यकता से अधिक शिक्षा-प्राप्त;लेकिन उसमें दम नहीं है,उसके पास रीढ़ की हड्डी नहीं है।
2.काव्य में हमेशा अनिवार्य रूप से जीवन के मूल्य या आदर्श प्रकट नहीं होते।मात्र भाव प्रकट होते हैं।
3.मन-वचन-कर्म के सामंजस्य की भारतीय साहित्यिक परम्परा के वह विरुद्ध जाता है।
4.साहित्य को हमें विविधपक्षीय दृष्टियों में देखना आवश्यक है और वस्तुतः साहित्य की कसौटी एक नहीं,न अनेक हैं;वरन अनेकों अभेद्य इकाई है।इसलिए केवल यह कह देना कि साहित्य में प्रकट जीवन-मूल्य उसके साहित्यिक गुणों की कसौटी नहीं,मात्र एक अस्थायी कार्यकारी मान्यता के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए।
5.ज्ञान-शक्ति की सीमाओं का गहरे से गहरा से गहरा ज्ञान होना चाहिए, जिससे कि गलतियाँ टाल सकें,अपने कार्यों को अधिक फलप्रद बना सके।
◆कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी:एक
1.जिन्दगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है। वह एक प्राइमरी स्कूल है, जहा टाट पट्टी पर बैठना पड़ता हैं।
2.लेखन कार्य में आत्मपरक पक्ष को महत्व देकर वस्तुपरक पक्ष की उपेक्षा की जाती है। चित्रण करते समय आत्मपरक पक्ष को प्रधानता दी जाती है, वस्तुपरक पक्ष को नहीं।
3.मध्ययुगीन भारतीय काव्य में कुछ महत्वपूर्ण अपवादो को छोड़, प्रधान प्रवृत्ति वस्तुपक्ष के वर्णन की ओर ही अधिक रही। इस प्रवृत्ति ने आत्मपक्ष को गौण स्थान दिया। नये छायावादी युग ने आत्मपक्ष को ही प्रधान स्थान दिया और वस्तुपक्ष को गौण। यदि हिन्दी की नयी कविता को साहित्य के इतिहास में, या यूँ कहिये कि संस्कृति के इतिहास में, कोई महत्वपूर्ण पार्ट अदा करना है, तो उसे काव्य की प्रकृति तथा शिल्प में आत्मपक्ष का समन्वय उपस्थित करना होगा।
4.ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है।
◆कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी:दो
1.फ्रॅाड भी एक कला है- ललित कला।
2.कला के क्षेत्र में व्यक्तिगत ईमानदारी स्वयं सिद्ध नहीं वरन् प्रयत्न-साध्य होती है।
3.कवि का यह धर्म है कि उसके दिल में जो नकारशील खटके हैं, जो अन्तर्निषेधों हैं, उन्हें विवेकसंगत बनाया जाये। केवल विशेषाभिरुचि के वशीभूत होकर का विकास न किया जाये । ध्यान रहे कि ये अन्तर्निषेध लेखक स्वयं अपने लेखन-कार्य के दौरान में विकसित करता है। उनका विकास किस प्रकार होता है, यह विषय ही अलग है। महत्व की बात यह है कि अन्तर्निषेधों का विवेकसंगत विकास हो। व्यक्तिगत ईमानदारी का यह बहुत बड़ा तकाजा है। यदि काव्य के वस्तुतत्व की प्रकृति और कवि की प्रकृति दोनों का समाहार करनेवाली कवि-दृष्टि ऐसी है जो जीवन के लिए उस कवि दृष्टि का महत्व अत्यन्त सीमित है तो उस काव्य को हम भले ही सुन्दर कह लें, वह हमारे जीवन पर विशेष प्रभाव नहीं डाल सकता अर्थात् वह हमारे जीवन-विवेेक को सविकसित और पुष्ट नहीं कर सकता। ध्यान रखिए कि कवि-दृष्टि के रूप में ही ले रहा हूँ।