भक्तिकाल (संवत 1375-1700)
प्रकरण 1.(सामान्य परिचय)
- देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया।
- अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?
- धर्म का प्रभाव कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीनों धाराओं में चलता है।
- कर्म और भक्ति ही सारे जनसमुदाय की संपत्ति होती है।
- हिंदी साहित्य के आदिकाल में कर्म तो अर्थशून्य विधिविधान, तीर्थाटन और पर्वस्नान इत्यादि के संकुचित घेरे में पहले बहुत कुछ बद्ध चला आता था।
- धर्म की भावात्मक अनुभूति या भक्ति, जिसका सूत्रपात महाभारतकाल में और विस्तृत प्रवर्तन पुराणकाल में हुआ था, कभी कहीं दबती, कभी कहीं उभरती किसी प्रकार चली भर आ रही थी।
- अर्थशून्य बाहरी विधिविधान, तीर्थाटन, पर्वस्नान आदि की निस्सारता का संस्कार फैलाने का जो कार्य वज्रयानी सिद्धों और नाथपंथियों जोगियों के द्वारा हुआ।
- पर उनका उद्देश्य ‘कर्म’ को उस तंग गड्ढे से निकालकर प्रकृत धर्म के खुले क्षेत्र में लाना न था बल्कि एकबारगी किनारे ढ़केल देना था।
- जनता की दृष्टि को आत्मकल्याण और लोक कल्याण विधायक सच्चे कर्म की ओर ले जाने के बदले उसे वे कर्मक्षेत्र से ही हटाने में लग गए थे।( वज्रयानी सिद्ध तथा नाथपंथी योगियों के संदर्भ में 3,4 )
- गोरख जगायो जोग भक्ति भगायो लोग – (तुलसीदास द्वारा रचित)
- सारांश यह है कि जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय सच्चे धर्मभाव का बहुत कुछ ह्यस हो गया था। परिवर्तन के लिए बहुत बड़े धक्कों की आवश्यकता थी।
- कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को संभालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दू जनता ही नहीं, देश में बसनेवाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए।
- प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिंदू और मुसलमानों दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया।
- भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के ह्रदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।
- गुजरात के स्वामी मध्वाचार्य जी ने अपना द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय चलाया।
- भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई, उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगायी।
- पर नाथपंथियो की अंतः साधना ह्रदयपक्ष शून्य थी,उसमें प्रेमतत्व का अभाव था।
- झिलमिल झगरा झूलते बाकी रही न काहू काहू,
गोरख अटके कालपुर कौन कहावे साहू?”–कबीर - अतः कबीर ने जिस प्रकार एक निराकार ईश्वर के लिए भारतीय वेदांत का पल्ला पकड़ा, उसी प्रकार उस निराकार ईश्वर की भक्ति के लिए सूफियों का प्रेमतत्व लिया और अपना ‘निर्गुण’ धूमधाम से निकाला।
- इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था।
- निर्गुण पन्थ के संदर्भ में – इन संतो के ईश्वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप न हो पाये।
- साधना के तीन अवयव- कर्म, ज्ञान, भक्ति
- भक्ति की निष्पत्ति श्रद्धा और प्रेम के योग से होती है।
- तुलसी की भक्ति पद्धति में कर्म (धर्म) और ज्ञान का पूरा सामंजस्य और समन्वय रहा। इधर आजकल अलबत्ता कुछ लोगों ने कृष्णभक्ति शाखा के अनुकरण पर उसमें भी ‘माधुर्य भाव’ का गूढ़ रहस्य’ घुसाने का उद्योग किया है जिससे ‘सखी संप्रदाय’ निकल पड़े हैं और राम की भी ‘तिरछी चितवन’ और ‘बाँकी अदा’ के गीत गाए जाने लगे हैं।
- यह सामान्य भक्तिमार्ग एकेश्वरवाद का एक निश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ, जो कभी ब्रह्मवाद की ओर ढ़लता था तो कभी पैगम्बरी खुदावाद की ओर।
नामदेव के विषय में–
- नामदेव का जन्म संवत 1192 और मृत्यु काल संवत 1272 प्रसिद्ध है यह दक्षिण के नरूसीबमनी सतारा जिला के दर्जी थे।पीछे पंढरपुर के विठोबा (भगवान विष्णु)के मंदिर में भागवत भजन करते हुए अपना दिन बिताते थे।
- इनकी रचनाओं में एक विशेष बात यह पाई जाती है कि कुछ तो सगुणोपासना से संबंध रखती है और कुछ निर्गुणोपासना से।
- नामदेव सीधे-साधे सगुण भक्ति मार्ग पर चलते चले जा रहे थे,पर पीछे उस नाथपंथ के प्रभाव के भीतर भी ये लाए गए, जो अंतमुर्ख साधना द्वारा सर्वव्यापक निर्गुणब्रह्म के साक्षात्कार को ही मोक्ष का मार्ग मानता था।लाने वाले थे ज्ञानदेव।
- अंत में बेचारे नामदेव ने नागनाथ नामक शिव के स्थान पर जाकर बिसोबा खेचर नामक एक नाथपंथी कनपटे से दीक्षा ली ।इसके संबंध में उनके यह वचन है:-
मन मेरी सुई, तन मेरा धागा ।
नामदेव
खेचर जी के चरण पर नामा सिंपी लागा।
“सुफल जन्म मोके गुरु कीना।दुख बिसार सुख अंतर दीना।।”
नामदेव
किसू हूं पूजू दूजा नजर न आई ।
नामदेव
एके पाथर किज्जे भाव।दूजे पाथर धरिए पाव।।
माई ना होती, बाप ना होते, कर्म्म न होता काया।
नामदेव
हम नाहि होते,तुम नाहि होते, कौन कहां से आया।
पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी।
नामदेव
हिंदू पूजै देहरा,मुसलमान मसीद।
नामदेव
नामा सोई सेविया जहँ देहरा न मसीद।
- नामदेव की रचनाओं में यह बात साफ दिखाई पड़ती है कि सगुण भक्ति पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्य भाषा है,पर ‘निर्गुण बानी’ की भाषा नाथपंथी द्वारा गृहित खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा।
- नामदेव की रचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणपंथ के लिए मार्ग निकालने वाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव थे।
- जहां तक पता चलता है कि ‘निर्गुण मार्ग’ के’ निर्दिष्टप्रवर्तक कबीर ही थे।
अतः तत्त्विकता से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते है और न एकेश्वरवादी
। दोनों का मिलाजुला भाव इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार था जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो। - इस शाखा की रचनाएं साहित्यिक नहीं है – फुटकल दोहों या पदों के रूप में हैं जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और उटपटांग है।(- निर्गुण पंथ के संदर्भ में)
- बात यह है कि इस पंथ का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा, क्योंकि उसके लिए न तो इस पंथ में कोई नयी बात थी, न नया आकर्षण। संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता। पर अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन संत-महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की शुद्धता पर जोर देकर, आडंबरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया, पाश्चात्यों ने इन्हें जो ‘धर्मसुधारक’ की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर।
- दूसरी शाखा शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों की है,जिनकी प्रेमगाथाएं वास्तव में साहित्य कोटि के भीतर आती है।
- दिल्ली के बादशाह सिकंदरशाह (संवत 1546–1574) के समय मे कवि
ईश्वरदास
ने'सत्यवती कथा'
नाम की एक कहानी दोहे,चैपाई में लिखी थी, जिसका आरंभ तो व्यास -जनमेजय के संवाद से पौराणिक ढंग पर होता है,पर जो अधिकतर कल्पित,स्वच्छंद और मार्मिक मार्ग पर चलने वाली है। सत्यवती कथा में पांच-पाँच चौपाई के बाद एक दोहा होता है।
इस प्रकार 58 दोहे पर यह समाप्त हो गई है।भाषा अयोध्या के आस-पास की ठीक अवधी है।- आख्यान काव्यों के लिए चौपाई, दोहे की परंपरा बहुत पुराने(विक्रम की ग्यारहवीं शती के) जैन चरित काव्यों में मिलती है, इसका उल्लेख पहले हो चुका है।
- कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है वह बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओं के आधार पर वेदांत और हठयोग में निर्दिष्ट है ।
- शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों की शाखा में सबसे प्रसिद्ध
जायसी
हुए, जिनकीपद्मावत
हिंदी काव्यक्षेत्र में एक अद्भुत रत्न है। - रसेश्वर दर्शन का उल्लेख ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में है।
प्रकरण–2(निर्गुण धारा)
- कबीर
- कहते हैं कि आरंभ से ही कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी, जिसे उसे पालने वाले माता-पिता न दबा सके।कबीरपंथी में मुसलमान भी हैं। उनका कहना है कि कबीर ने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फ़कीर शेख तकी से दीक्षा ली थी।
- अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को राम नाम रामानंद जी से प्राप्त हुआ, पर आगे चलकर कबीर के राम रामानंद के राम से भिन्न हो गए।
- सारांश यह कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढ़र्रे पर उपासना का ही विषय नही, प्रेम का भी भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठ -योगियों की साधना का समर्थन किया।
इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। - कबीर की बानी ‘निर्गुण बानी’ कहलाती है, पर उपासना के क्षेत्र में ब्रह्म निर्गुण नहीं बना रह सकता।
पंडित मिथ्या करहु बिचारा ।
ना वह सृष्टि,ना सिरजनहारा।। - आपहु देवा आपहु पाती।
आपहु कुल आपहु है जाती ।। - साईं के सब जीव है कीरी कुंजर दोय
- कबीर में ज्ञानमार्गी की जहां तक बातें हैं वे सब हिंदू शास्त्रों की है जिनका संचय उन्होंने रामानंद जी के उपदेशों से किया है।माया, जीव, ब्रह्म, तत्त्वमसि, आठ, मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छह रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ, क्योंकि वे, जैसा कि प्रसिद्ध है, कुछ पढ़े-लिखे न थे। उपनिषद् को ब्रह्मविद्या के संबंध में वे कहते हैं-
- तत्त्वमसी इनके उपदेसा। ई उपनीसद कहैं संदेसा।।
यहीं तक नहीं, वेदांतियों के कनक-कुंडल-न्याय आदि का व्यवहार भी इनके वचनों में मिलता है।
गहना एक कनक तें गहना, इन महँ भाव न दूजा।
- उन्होंने हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद के कुछ सांकेतिक शब्द (जैसे,चंद्र, सूर्य,नाद, बिंदु,अमृत, कुआं) को लेकर अद्भुत रूपक बांधे हैं जो सामान्य जनता की बुद्धि पर पूरा आतंक जमाते हैं। जैसे –
सूर समाना चंद में दहूँ किया घर एक।
मन का चिंता तब भैया कछु पुरबिला लेख ।।
- वैष्णव संप्रदाय से उन्होंने अहिंसा का तत्व ग्रहण किया है जो कि पीछे होने वाले सूफी फकीरों को भी मान्य हुआ। हिंसा के लिए वे मुसलमानों को बराबर फटकारते रहे –
दिन भर रोज़ा रहत है राति हनत है गाय।
यह तो खून वह वन्दगी,कैसे खुसी खुदाय।।
- ज्ञानमार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधु- संन्यासियों से ग्रहण की जिसमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने ‘प्रेम- तत्व’ का मिश्रण किया और अपना एक अलग पंथ चलाया।
- यद्यपि वे (कबीर)पढ़े-लिखे ना थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुंह से बड़ी चुटकीली और व्यंग- चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थी। इनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था।जैसे-
है कोई गुरुज्ञानी जगत महँ उलटि बेद बुझा।
नैया बिच नैया डूबती जाए ।●जिस प्रकार कुछ वैष्णवों में ‘माधुर्य’ भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियों में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी प्रियतम या माशूक मानकर हृदय से उद्गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया।
कबीर की बानी में स्थान-स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की जो झलक मिलती है,वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है।
मुझको तू क्या ढूंढे बंदे मैं तो तेरे पास में।
साईं के संग सासुर आई।
संग न सुती,स्वाद न जाना,
गा जीवन सपने की नाई।
- कबीर अपने श्रोताओं पर यह अच्छी तरह भासित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, इसी से वे प्रभाव डालने के लिए बड़ी लंबी- चौड़ी गर्वोक्तियाँ भी कभी-कभी कहते थे।
- कबीर ने मगहर में जाकर शरीर त्याग किया जहां इनकी समाधि अब तक बनी है। इनका मृत्युकाल संवत् 1575 में माना जाता है।
- कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है, जिसके तीन भाग किये गये हैं-
रमैनी, सबद और साखी।
- इसमें वेदांततत्त्व, हिंदू-मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि, प्रेमसाधना की कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि की असारता, हज, नमाज, व्रत, आराधना की गौणता इत्यादि अनेक प्रसंग हैं। सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश मुख्यतः ‘साखी’ के भीतर हैं जो दोहों में हैं। इसकी भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है। खुसरो के गीतों की भाषा भी हम ब्रज दिखा आये हैं इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गीतों के लिए काव्य की ब्रजभाषा भी स्वीकृत थी।
हौ बलि कब देखौगी तोहि।
अहनिस आतुर दरसन कारिनि ऐसी व्यापी मोहि।
- भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियां में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमे बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।
- रैदास
- रामानंद जी के
12
शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं,जो जाति के चमार थे।
कह रैदास खलास चमारा।
ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।
- ऐसा जान पड़ता है कि ये कबीर के बहुत पीछे स्वामी रामानंद के शिष्य हुए क्योंकि अपने एक पद में इन्होंने कबीर और सेन नाई दोनों के तरने का उल्लेख किया है –
- नामदेव कबीर तीलोचन साधना सेन तरै।
- कह रविदास, सुनहु रे संतहु! हरि जिउ ते सबहि सरै।
- रैदास-रैदास का नाम
धन्ना
मीराबाई
ने बड़े आदर के साथ लिया है। - रैदास का अपना अलग प्रभाव पछाँह की ओर जान पड़ता है। ‘साधो’ का एक संप्रदाय, जो फर्रुखाबाद और थोड़ा-बहुत मिर्जापुर में भी पाया जाता है, रैदास की ही परंपरा में कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी स्थापना (संवत् 1600) करने वाले बीरभान उदयदास के शिष्य थे और उदयदास रैदास के शिष्यों में माने जाते हैं।
रैदास
का कोई ग्रंथ नहीं मिलता,फुटकल पर ही ‘बानी’ के नाम से, ‘संतबानी सीरीज‘ में संग्रहित है।
दूध त बछरै थनह बिडारेउ।
फुलु भाँवर, जलु मीन बिगारहेउ।।
जब हम होते तब तू नाही,अब तू ही,मैं नाही।
माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा,
जैसा मानिए होइ न तैसा।"
- धर्मदास
- यह बांधवगढ़ के रहने वाले और जाति के बनिए थे।
- संवत् 1575 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली। ये कबीरदास की गद्दी पर 20 वर्ष के लगभग रहे
- कबीरदास के शिष्य होने पर इन्होंने होने पर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति जो बहुत अधिक थी,लुटा दी।
- इनकी रचना थोड़े होने पर भी कबीर की अपेक्षा अधिक सरल भाव लिए हुए हैं,उनमें कठोरता और कर्कशता नहीं है।
- इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने खंडन -मंडन से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है।
“झरि लागै मलिया गगन घहराय।
कबीरदास
खन गरजै, खन बिजुली चमकै, लहरि उठै शोभा बारनि न जाय।”
“अपना बलम परदेस निकरि गैलो,
कबीरदास
हमरा के कुछुवै न गुन दै गैलो।”
- नानक
- नानक का जन्म संवत 1526 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन तलवंडी ग्राम-जिला लाहौर में हुआ। इनके दो पुत्र थे-श्रीचंद और लक्ष्मीचंद ,
श्रीचंद
आगे चलकरउदासी उदासी संप्रदाय
के प्रवर्तक हुए। - पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्योग किया, पर ये सांसारिक व्यवहारों में दतचित्त न हुए। एक बार इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय के लिए कुछ धन दिया जिसको इन्होंने साधुओं और गरीबों में बाँट दिया। पंजाब में मुसलमान बहुत दिनों से बसे थे जिससे वहाँ उनके कट्टर एकेश्वरवाद का संस्कार धीरे-धीरे प्रबल हो रहा था। लोग बहुत-से देवी-देवताओं की उपासना की अपेक्षा एक ईश्वर की उपासना को महत्त्व और सभ्यता का चिह्न समझने लगे थे। शास्त्रों के पठन-पाठन का क्रम मुसलमानों के प्रभाव से प्रायः उठ गया था जिससे धर्म और उपासना के गूढ़ तत्त्व को समझने की शक्ति नहीं रह गयी थी। अतः जहाँ बहुत-से लोग जबर्दस्ती मुसलमान बनाये जाते थे वहाँ कुछ लोग शौक से भी मुसलमान बनते थे। ऐसी दशा में कबीर द्वारा प्रवर्तित ‘निर्गुण संतमत’ एक बड़ा भारी सहारा समझ पड़ा।
- कबीर के समान वे भी कुछ विशेष पढ़े-लिखे न थे। भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे उनका संग्रह (संवत 1661)
ग्रंथ साहब
में किया गया है। ये भजन कुछ तो पंजाबी भाषा में है और कुछ देश की सामान्य काव्यभाषा हिंदी में है। - भक्ति या विनय के सीधे-सादे भाव सीधी-सादी भाषा में कहे गए हैं,कबीर के समान अशिक्षितो पर प्रभाव डालने के लिए टेढ़े मेढ़े रूपकों में नहीं।
इस दम दा मैनू कीबे भरोसा,आया आया न आया आया।
*** *** *** *** ***
जो नर दुख में दुख नाहि मानै।
सुख स्नेह अरु भय नहि जाके, कंचन माटी जानै।।
- दादूदयाल
- इन्होंने अपना एक अलग पंथ चलाया जो ‘दादू- पंथ‘ के’ के नाम से प्रसिद्ध है।
- दादू की वाणी मेंनिर्गुणपंथियों के समान दादूपंथी लोग भी अपने को निरंजन निराकार का उपासक बताते हैं। ये लोग न तिलक लगाते हैं, न कंठी पहनते हैं, साथ में एक सुमिरनी रखते हैं और ‘सत्तराम’ कहकर अभिवादन करते।
- यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की वाणी में मिलता है, पर प्रेमभाव का निरूपण अधिक सरस और गंभीर है।कबीर के समान खंडन और वाद-विवाद में इन्हें रुचि नहीं थी।
घीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब ही ठौर।
दादू बकता बहुत है मथि काढे ते और।।
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भाई रे!ऐसा पंथ हमारा।
द्वे पंख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।।
- सुंदरदास
-ये खंडेलवाल बनिए थे और चैत्र शुक्ल 9, संवत् 1653 में द्यौसानामक स्थान (जयपुर राज्य) में उत्पन्न हुए थे।
- संस्कृत के अतिरिक्त ये फारसी भी जानते थे। काशी से लौटने पर ये राजपूताने के फतहपुर (शेखावाटी) नामक स्थान पर आ रहे। वहाँ के नवाब अलिफ खाँ इन्हें बहुत मानते थे।
- इनका डीलडौल बहुत अच्छा, रंग गोरा और रूप बहुत सुंदर था।स्वभाव अत्यंत कोमल और मृदुल था। ये बाल ब्रहमचारी थे और स्त्री की चर्चा से सदा दूर ही रहते थे।
- निर्गुणपंथियों में यही एक ऐसे व्यक्ति हुए है जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी और जो काव्यकला की रीति आदि में अच्छी तरह परिचित थे।”
- इनकी रचना साहित्यिक और सरस है। भाषा भी काव्य की मँजी हुई ब्रजभाषा है।
- यों तो छोटे-मोटे इनके अनेक ग्रंथ हैं पर सुन्दरविलाप ही सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें कवित्त, सवैये ही अधिक हैं। इन
- संत तो ये थे ही पर कवि भी थे।
- सुशिक्षा द्वारा विस्तृत दृष्टि प्राप्त होने से इन्होंने और निर्गुणवादियों के समान लोकधर्म की उपेक्षा नहीं की है।
पति ही सूं प्रेम होय, पति ही सूं नेम होय,
पति ही सूं छेम होय, पति ही सूं रत है।।
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बोलिए तै तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,
ना तै मुख मौन गहि चुप होय रहिए ।।
ब्रह्म तें पुरुष अरु प्राकृति प्रकट भइ,
प्रकृति तें महत्वत्व,पुनि अहंकार है।।
- मलूकदास
- ये औरंगजेब के समय में दिल के अंदर घुसने वाले निर्गुण मत के नामी संतों में हुए हैं।
- इनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुईं।
- कहते हैं कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयों का तोड़ा गंगाजी में तैरा कर कड़ा से इलाहाबाद भेजा था।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।।इनकी दो प्रसिद्ध पुस्तकें हैं –रत्नखान और ज्ञानबोध।
अब तो अजपा जपु मन मेरे।
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गंधर्व है जाके चेरे।
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कबहूँ न करते बनगी, दुनिया मे भूले।
आसमान को ताकते, घोड़े चढ़ फुले।।
अक्षय अनन्य
यह दतिया रियासत के अंतर्गत सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद
के दीवान थे।
●प्रसिद्ध छत्रसाल
इनके शिष्य हुए।
●इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ- राजयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, सिद्धांतबोध, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्य प्रकाश आदि लिखे और दुर्गा सप्तशती का भी हिंदी पद्यों में अनुवाद ।
●शिक्षितों का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिक के ही काम की है, उनमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जनसमाज को आकर्षित कर सकें।
दादूदयाल की शिष्य परंपरा में जगजीवनदास
या जगजीवन साहब हुए जो संवत 1818
के लगभग वर्तमान थे। इन्होंने अपना एक सतनामी संप्रदाय
चलाया।इनके शिष्य दूलमदास
थे।
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निर्गुण पंथ के संतों के संदर्भ में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है।
निर्गुण पंथ में जो थोड़ा-बहुत ज्ञानपक्ष
है वह वेदांत से लिया हुआ है,जो प्रेमतत्व है, वह सूफियों का है, न कि वैष्णव का। ‘अहिंसा’ और ‘प्रपत्ति’ के अतिरिक्त व वैष्णवत्व का और कोई अंश उसमें नहीं है।
●बौद्धधर्म के अष्टांग मार्ग हैं-सम्यक स्मति और सम्यक् समाधि । ‘सम्यक् स्मृति’ वह दशा है जिसमें क्षण-क्षण पर मिटनेवाला ज्ञान स्थिर हो जाता है और उसकी श्रृंखला बँध जाती है। ‘समाधि’ में साधक सब संवेदनों से परे हो जाता है। अतः ‘सुरति’, ‘निरति’ शब्द योगियों की बानियों से आये हैं वैष्णवों से उनका कोई संबंध नहीं।
प्रकरण -3(निर्गुणधारा)
निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मानने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है।
कुतबन
ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान
के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे।
इन्होंने ‘मृगावती’ नाम की एक कहानी चौपाई- दोहे के क्रम से संवत 1558 में लिखी थी,जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रुपमुरारि की कन्या मृगावती
की प्रेमकथा का वर्णन है।
मंझन
इनकी केवल ‘मधुमालती
‘ रचना मिलती है।
मृगावती
के समान मधुमालती
में भी 5 चौपाइयों के उपरांत 1 दोहे का क्रम रखा गया है।पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और ह्रदयग्राही है।
इसमें कनेसर नगर के राजा सूर्यभान के पुत्र मनोहर तथा महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की कहानी का चित्रण है।
कवि ने नायक और नायिका के अतिरिक्त उपनायक और नायिका की भी योजना करके कथा को तो विस्तृत किया ही है,साथ में प्रेमा और ताराचंद के चरित्र द्वारा सच्ची सहानुभूति, अपूर्व संयम और नि:स्वार्थ भाव का चित्र दिखाया है।
जन्म-जन्मांतर और योन्यन्तर के बीच प्रेम की अखंडता दिखाकर मंझन ने प्रेमतत्व की व्यापकता और नित्यता का भाग दिखाया है।
देखत ही पहिचनेउ तोही, एही रूप जेहिं छदरयो मोही।।
पद्मावत’ की हस्तलिखित प्रतियां प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं।पद्मावत
के पहले मधुमालती
भी बहुत अधिक प्रसिद्ध थी।
दक्षिण के शायर नसरती ने (संवत 1700) ‘मधुमालती’ के आधार पर दक्षिणी उर्दू में गुलशने-इश्क़ के नाम से एक प्रेम कहानी लिखी।
- मलिक मोहम्मद जायसी
- यह प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी के शिष्य थे और जायस में रहते थे।
- इनकी प्राय: तीन रचना पाई जाती है -‘
आखिरी कलाम
‘ जिसमें बाबर की प्रशंसा की गई है। दूसरा ‘पद्मावत‘ जिसमें शेरशाह की प्रशंसा की गई है और तीसरा ‘अखरावट‘ जिसमे वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सिद्दांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाई कही गयी है। - कबीर ने अपने झाड़-फटकार के द्वारा हिंदूओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ,ह्रदय को स्पर्श करने वाला नहीं।
- जायसी,कुतबन आदि कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिसका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है।
- हिंदू हृदय और मुस्लमान आमने- सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।”
- इन्होंने मुसलमान होकर हिंदूओ की कहानियां हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।
- कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी, यह जायसी द्वारा पूरी हुई।
- इस रचना में इतिहास और कल्पना का योग है। कहानी का पूर्वार्ध तो बिल्कुल कल्पित है और उत्तरार्ध ऐतिहासिक आधार पर है।
- प्रेमगाथा की परंपरा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है, प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके ब्यूरो से भी साधना के मार्ग, उनकी कठिनाइयों और सिद्धि के स्वरूप आदि की जगह-जगह व्यंजना होती है।
पद्मावत
की रचना संस्कृत प्रबंधकाव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नही है,फारसी की मसनवी शैली
पर है, श्रृंगार ,वीर आदि के वर्णन चली आई हुई भारतीय काव्यपरंपरा के अनुसार ही है ।- इसका पूर्वार्द्ध तो एकांत प्रेममार्गी का ही आभास देता है, पर उत्तरार्द्ध में लोक पक्ष का भी विधान है।
- उसमान
- ये जहांगीर के समय में वर्तमान थे ।इन्होंने अपना उपनाम ‘मान’ लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजी बाबा के शिष्य थे।
- इन्होंने ‘चित्रवाली’ पुस्तक लिखी है जो कि 1613 ईसवी लिखी गई थी।
- कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है जो-जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उन विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है। कहीं-कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही है।
- जायसी से पहले के कवियों ने पांच-पांच चौपाइयों के पीछे एक दोहा रखा है पर जायसी ने 7 चौपाइयो का क्रम रखा और यही क्रम उसमान ने भी रखा है।
- शेख नबी
- यह जौन जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ में रहते थे।ये जहांगीर के समय 1676 में वर्तमान थे।
- इन्होंने ‘ज्ञानदीप‘ नामक एक आख्यान काव्य लिखा, जिसमें राजा
ज्ञानदीप और रानी देवयानी की कथा है।
- यहीं से प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए।
- अतः शेख नबी से प्रेमगाथा परंपरा समाप्त समझना चाहिए।
कासिमशाह
यह दरियाबाद के रहने वाले थे।इन्होंने ‘हंस जवाहिर‘ नाम की कहानी लिखी, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की कथा है।
इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है।उन्होंने जगह-जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नही है।
- नूर मोहम्मद
- यह दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और ‘सबरहद’ नामक स्थान के रहने वाले थे।
- नूर मोहम्मद” फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियों से अधिक था। फारसी में इन्होंने एक दीवान के अतिरिक्त ‘रौजतुत हकायक‘ इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थी जो असावधानी के कारण नष्ट हो गई है और इनका एक और ‘इंद्रावती’ नाम का एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कलिंजर के राजा राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम कहानी है।
- इन्होंने अपने काव्य में वर्तमान
मुहम्मदशाह
की प्रशंसा की है। - इसी ग्रंथ को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
- इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा गया है जिसका नाम ‘अनुराग बांसुरी‘है।यह पुस्तक कई दृस्टि से विलक्षण है। पहली बात भाषा सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृतगर्भित है, दूसरी बात यह है- हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव।
- अनुराग बांसुरी‘का रचनाकाल 1821 है।इसमे शरीर,जीवात्मा और मनुष्यों को लेकर पूरा अध्यवसितरूपक खड़ा करके कहानी बांधी गई है। एक विशेषता और है-चौपाइयों के बीच- बीच में इन्होंने दोहे ना लिखकर बरवै रखे हैं। प्रयोग भी ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियों में नहीं आए हैं।
- काव्य भाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं-कहीं ब्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं।
- जैसा कि कहा जा चुका है कि “
नूर मोहम्मद
” को हिंदी भाषा में कविता करने के कारण जगह-जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वह इस्लाम के पक्के अनुयायी थे।
- यह बांसुरी सुनै सो कोई ।
हृदय स्त्रोत खुला जेहि होई।। - सूफी मत के अनुयायी सूरदास नामक एक पंजाबी हिंदू ने शाहजहां के समय में ‘नल- दमयंती कथा’ नाम की एक कहानी लिखी थी,पर इसकी रचना अत्यंत निकृष्ट है।
प्रकरण.4 (सगुणधारा)
रामभक्ति शाखा
●रामानुज जी के शिष्य परंपरा देश में बराबर फैलती गयी और जनता भक्ति मार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुज जी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है।
●वैरागियों की परंपरा में रामानंद जी का मानिकपुर के शेख तकी पीर के साथ वाद- विवाद होना माना जाता है।ये शेख तकी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में थे।
●कबीर के समान सेन भगत भी रामानंद जी के शिष्यों में प्रसिद्ध हैं। ये सेन भगत बांधवगढ़ नरेश के नाई है।रामानंद जी से दीक्षा लेने के उपरांत ही सेन पक्के भगत हुए होंगे। पक्के भगत हो जाने पर ही उनके लिए भगवान के नाई का रूप धरने वाली बात प्रसिद्ध हुई होगी।
●’रामार्चन पद्धति‘ में रामानंद जी ने अपनी पूरी गुरुपरंपरा दी है।उनके अनुसार रामानुजाचार्य जी रामानंद जी से 14 पीढ़ी ऊपर थे।
●उन्होंने उपासना के लिए बैकुंठ निवासी विष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया।इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम नाम ।
●रामानुजाचार्य जी ने जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया उसके प्रवर्तक शठकोपाचार्य उनसे पांच पीढ़ी पहले हुए हैं।
●रामानुज संप्रदाय में दीक्षा केवल द्विजातियों को ही दी जाती थी,पर स्वामी रामानंद रामभक्ति के द्वार सब जातियों के लिए खोला दिया।
●समाज के लिए वर्ण और आश्रय की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न-भिन्न कर्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सबका समान अधिकार स्वीकार किया। भगवदभक्ति में वे किसी भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे ।कर्म के क्षेत्र में शास्त्र- मर्यादा उन्हें मान्य थी, पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबंध ये नहीं मानते थे।
●रामानंद जी के ये शिष्य प्रसिद्ध है–कबीर, रैदास, सेन नाई और गागरैनगढ़ के राजा पीपा,जो विरक्त होकर पक्के भक्त हुए।
●रामानंद जी के रचे हुए केवल दो संस्कृत के ग्रंथ मिलते हैं –’वैष्णवमताब्ज भास्कर’ और ‘श्री रामाचर्न पद्यति’ और कोई ग्रंथ इनका आज तक नहीं मिला है।
● भक्तमाल में रामानंद जी के 12 शिष्य कहे गए हैं:- अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद नरहयानंद,भावानन्द, पीपा, कबीर,सेन,धन्ना,रैदास, पद्मावती और सुरसुरी।
●अनन्तानन्द जी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यह पहली और प्राचीन प्रधान गद्दी हुई।
●नाथपंथी योगियों के कारण जनता के हृदय में योग- साधना और सिद्धि के प्रति आस्था जमी हुई थी। इससे पयहारी की शिष्यपरंपरा में योगसाधना का भी कुछ समावेश हुआ। पयहारी के दो प्रसिद्ध शिष्य हुए –अग्रदास और किल्हदास।
●किल्हदास जी की प्रवृति रामभक्ति के साथ -साथ योगाभ्यास की ओर भी हुई।इन्होंने ‘तपसी शाखा‘ नाम से वैरागी परम्परा खोला, जिसे आगे चलकर उनके शिष्य द्वारकादास ने पल्लवित किया।
◆तुलसीदास
●तुलसी संवत 1631 में अयोध्या जाकर इन्होंने रामचरितमानस का आरंभ किया,और उसे 2 वर्ष 7 महीने में समाप्त किया। रामायण का कुछ अंश, विशेषत: किष्किंधाकांड, काशी में रचा गया है।
●गोस्वामी जी के मित्रों और स्नेहियों में नवाब अब्दुल रहीम खानखाना, महाराज मानसिंह,नाभादास और सरस्वती आदि कहे जाते है।
●रामचरितमानस’ के अयोध्याकांड में वह स्थल देखिए जहाँ प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम जमुना पार करते हैं और भरद्वाज के द्वारा साथ लगाये हुए शिष्यों को विदा करते हैं। राम सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि-
“तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा ।। कवि अलषित गति बेष बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी।।”
“सजल नयन तन पुलक निज इष्ट देउ पहिचानि। परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि।।”
यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुँचाया है और ठीक उसी प्रदेश में जहाँ के वे निवासी थे, अर्थात् राजापुर के पास।
सूरदास ने भी भक्तों की इस पद्धति का अवलंबन किया है। यह तो निर्विवाद है कि बल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेने के उपरांत सूरदास जी गोवर्द्धन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम् स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अपने ढाढी के रूप में नंद के द्वार पर पहुँचाया है।
“नंद जू! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन तें आयो। तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि के अति आतुर उठि धायो।।”
“जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि के घर जाऊँ हों तो तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ।।”
● सब का सारांश यह है कि तुलसीदास का जन्म- स्थान राजापुर,जो प्रसिद्ध चला आता है वही, ठीक है।
●
●वे रामोपासक वैष्णव अवश्य थे,पर स्मार्त वैष्णव थे।
●गोस्वामी के प्रादुर्भाव को हिंदी काव्य क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए।
●कबीरदास ने चलती बोली में अपनी वाणी कहीं। पर वह बोली बेठिकाने की थी।उसका कोई नियत रूप न था। शौरसेनी, अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिए स्वीकृत था उससे कबीर का लगाव न था ।
●उनका कोई साहित्यिक लक्ष्य न था और वह पढ़े- लिखे लोगों से दूर-ही-दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे।(कबीर के संदर्भ में)
●भक्त सूरदास जी ब्रज की चलती भाषा को परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा को लोकव्यवहार के मेल में लाये।
●अवधी की सबसे पुरानी रचना ईश्वरदास की ‘सत्यवती कथा‘है।
●गोस्वामी तुलसी ने अपने समय में काव्यभाषा के दो रूप प्रचलित पाये– एक ब्रज और दूसरी अवधी। दोनों में उन्होंने समान अधिकार के साथ रचनाएं की।
● भाषा पद्य के स्वरूप को लेते हैं तो गोस्वामी जी के सामने कई शैलियां प्रचलित थी जिनमें से मुख्य ये हैं– (1)वीरगाथा काल की छप्पय पद्धति(2)विद्यापति और सूरदास की गीत पद्धति (3)गंग आदि भाटों की कविता-सवैया पद्धति (4)कबीरदास की नीति संबंधी वाणी की दोहा पद्धति (5)ईश्वरदास की दोहे, चौपाई वाली प्रबंध पद्धति ।
●तुलसीदास जी के रचनाविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपने दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्यक्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए।
●हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पद्मावत में मिलती है वही जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, बरवैरामायण और रामललानछह में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर।
●प्रचलित रचना शैलियों पर उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।
(क) वीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति पर इनकी रचना थोड़ी है पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे-
“कतहुँ विटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत। कतहुँ बाजि सो बाजि मर्दि गजराज करक्खत।।”
(ख) विद्यापति और सूरदास की गीत पद्धति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदास जी की रचना में संस्कृत की ‘कोमलकांत पदावली’ और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामी जी की रचना में है। दोनों भक्त शिरोमणियों की रचना में यह भेद ध्यान देने योग्य है और इस पर ध्यान अवश्य जाता है। गोस्वामी जी की रचना अधिक संस्कृतगर्भित है। पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनके पदों में शुद्ध देशभाषा का माधुर्य नहीं है। इन्होंने दोनों प्रकार की मधुरता का बहुत ही अनूठा मिश्रण किया है। विनयपत्रिका के प्रारंभिक स्तोत्रों में जो संस्कृत पदविन्यास है उसमें गीतगोविंद के पदविन्यास से कहीं कर्कश देखने योग्य है। हृदय के त्रिविध भावों की व्यंजना गीतावली के मधुर पदों में देखने में आता है। कौशल्या के सामने भरत अपनी आत्मग्लानि की व्यंजना किन शब्दों में करते हैं, देखिए-
“जौ हौं मातुमते महँ ह्वैहौं। तौ जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वहौं? क्यौं हौं आजु होत सुचि सपथनि, कौन मानिहै साँची?”
●इसी प्रकार चित्रकूट में राम के सम्मुख जाते हुए भरत की दशा का सुंदर चित्रण है-
बिलोके दूरि तें दोउ वीर।मन अगहुँइ तन पुलक सिथिल भयो, नयन नलिन भरे नीर।
‘गीतावली’ की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास जी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अंतर है। लंकाकांड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथा अनुरूप है। पर उत्तरकांड में जाकर सूर पद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित-सा हो गया है। जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। ‘सूरदास’ में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाये गये हैं। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की ओर पूज्यभाव ही प्रकट होता है। राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत-से पदों में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे इसका ख्याल गोस्वामी जी को न रहा।
(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त, सवैया पद्धति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामी जी कह गये हैं जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदास जी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्दयोजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदास जी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते हैं
“राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परछाहीं याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारति नहीं।।”
“गोरो गरूर गुमान भरो, यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?”
“जल को गये लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय छाँह घरीक स्वै ठाढ़े। “
●वे वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते हैं।
“प्रबल प्रचंड बरिखंड बाहुदंड बीर, धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरिकै। महाबल पुंज कुंजरारि क्यों गरजि भट, जहाँ तहाँ पटके लंगूर फेरि फेरिकै।”
●कैधों ब्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु, बीररस बीर तरवारि सी उघारी है।।
(घ) नीति के उपदेश की भक्ति पद्धति पर बहुत-से दोहे रामचरितमानस और दोहावली में मिलेंगे जिनमें बड़ी मार्मिकता से और कहीं-कहीं बड़े रचनाकौशल से व्यवहार की बातें कही गयी हैं और भक्तिप्रेम की मर्यादा दिखाई गयी है-
रीझि आपनी बूझि पर, खीझ विचार विहीन । ते उपदेस न मानहीं, मोह महोदधि मीन।
(ङ) जिस प्रकार चौपाई, दोहे के क्रम से जायसी ने अपना पद्मावत नाम का प्रबंधकाव्य लिखा उसी क्रम पर गोस्वामी जी ने अपनी परम प्रसिद्ध काव्य रामचरितमानस, जो लोगों के हृदय का हार बनता चला आता है, रचा। भाषा वही अवधी है, केवल पदविन्यास का भेद है। गोस्वामी जी शास्त्रपारंगत विद्वान् थे अतः उनकी शब्दयोजना साहित्यिक और संस्कृतगर्भित है। जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामी जी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है।
नीचे दी हुई कुछ चौपाइयों में दोनों की भाषा का भेद स्पष्ट देखा जा सकता है-
जब हुँत कहिगा पंखि संदेसी। सुनिउँ कि आवा है परदेसी।। -जायसी
अमिय मूरिमय चूरन चारू। सुमन सकल भवरुज परिवारू ।। – तुलसी
●सारांश यह कि हिंदी काव्य की सब प्रकार की रचना- शैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊंचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।
●अपने दृष्टिविस्तार के कारण ही तुलसीदास जी उत्तर भारत के समग्र जनता के हृदयमंदिर में पूर्ण प्रेमप्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं। भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को।पर इनकी वाणी की पहुंच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है।एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विराटपूर्ण शुद्ध भागवतभक्ति का उपदेश करती है, दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है।
●सगुण धारा की भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर,दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने।
●गोस्वामी जी को निर्गुणपंथियो की बानी में लोकधर्म की उपेक्षा का भाव स्पष्ट दिखाई पड़ा।
●घट के भीतर साक्षात्कार करने की बात कहने वाले प्राय: अपने को गूढ़ रहस्यदर्शी प्रकट करने के लिए सीधी-सादी बात को भी रूपक बांधकर और टेढ़ी पहेली बनाकर कहा करते हैं। पर इस प्रकार के दुराव- छिपाव की प्रवृत्ति को गोस्वामी जी भक्ति के विरोधी मानते हैं। सरलता या सीधेपर को वे भक्ति का नित्य लक्षण कहते हैं– मन की सरलता, वचन की सरलता और कर्म की सरलता। तीनों को –
“सूधे मन,सूधे सचन,सूधे सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुवर प्रेम प्रसूति।।”
●वे भक्ति मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे “लखै कोई बिरलै” । वे उसे ऐसा सीधा-सादा स्वभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके सामने दिखाई पड़ता है। वह संसार में सबके लिए ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल-
निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।। अंबु असन अवलोकियत, सुलभ सबहि जग माँह ।।
अभिप्राय यह कि जिस हृदय से भक्ति की जाती है वह सबके पास है। हृदय की जिस पद्धति से भक्ति की जाती है वह भी वही है जिससे माता-पिता की भक्ति, पुत्र कलत्र का प्रेम किया जाता है। इसी से गोस्वामी जी कहते हैं कि-
यहि जग महँ जहँ लगि या तन की प्रीति प्रतीति सगाई।
अत: रमते जोगियों की रहस्यभरी बानियाँ सुनते- सुनते जनता के हृदय में भक्ति की सच्ची भावना दब गई थी, उठने ही नहीं पाती थी। लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामी जी को कहना पड़ा था–
” गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायों लोग।”
●गोस्वामी जी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।जीवन के किसी एक पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है, सभी पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है।
●तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं।योग का भी उसमें समन्वय है, पर उतने ही का जितना ध्यान के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए आवश्यक है।
●आज राजा से रंक तक के घर में गोस्वामी जी का रामचरितमानस विराज रहा है और प्रत्येक प्रसंग पर उनकी चौपाइयां कहीं जाती है।
●अपनी सगुणोपासना का कई ढंग से किया है। रामचरितमानस में नाम और रूप दोनों को ईश्वर की उपाधि कहकर वे उन्हें उसकी अभिव्यक्ति मानते है-
“नाम रूप दुइ ईस उपाधि। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
●दोहावाली में भक्ति की सुगमता बड़े ही मार्मिक ढंग से गोस्वामी जी ने इस दोहे के द्वारा सूचित की है- तोहि लागहिं राम प्रिय, की तुम रामप्रिय होहि । दुई महँ रुचै जो सुगम होइ, कीबे तुलसी तोहि ।।
●इसी प्रकार रामचरितमानस उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है।
● रचनाकौशल,प्रबंधपटुता,सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है।
–पहली बात जिस पर ध्यान जाता है,वह कथाकाव्य के सब अवयवों का उचित समीकरण।कथाकाव्य या प्रबंधकाव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु व्यापार-वर्णन, भावव्यंजना और संवाद, ये अवयव होते हैं।
–दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान
– तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा ।
–चौथी बात है श्रृंगार की शिष्ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।
● इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का आभास भी यह कह कर दिया है –
“सियाराममय सब जग जानी।करौ प्रणाम जोरि जुग पानी।”
● जगत को केवल राममय न कहकर उन्होंने ‘सियाराममय’ कहा है।सीता प्रकृतिस्वरूपा है और राम ब्रह्म है,प्रकृति अचित पक्ष है और ब्रह्म चित पक्ष।
●गीतावली तो प्रबंध काव्य न थी। उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु-व्यापार-वर्णन का बहुत विस्तार है। उसके भीतर छोटे-छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना का पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाये जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलने वाली थी, नये-नये प्रसंगों की उद्भावना करने वाली नहीं।
●’रामचरितमानस’ में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।
● कुछ ग्रंथों के निर्माण के संबंध में जो जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं, उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है। कहते हैं कि बरवा रामायण गोस्वामी जी ने अपने स्नेही मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के कहने पर उनके बरवा (बरवै नायिकाभेद) को देखकर बनाया था | कृष्णगीतावली वृंदावन की यात्रा के अवसर पर बनी कही जाती है। पर बाबा
● कृष्णगीतावली वृंदावन की यात्रा के अवसर पर बनी कही जाती है।
●गोस्वामी जी के एक मित्र पं. गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रह्लाद घाट पर रहते थे। रामाज्ञाप्रश्न उन्हीं के अनुरोध से बना माना जाता है। हनुमानबाहुक से तो प्रत्यक्ष है कि वह बाहुओं.. में असह्य पीड़ा उठने के समय रचा गया था। विनयपत्रिका के बनने का कारण यह कहा जाता है कि जब गोस्वामी जी ने काशी में रामभक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदास.. जी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिए वह पत्रिका या अर्जी लिखी।
●गोस्वामी जी की काव्यरचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है, एक भी शब्द फालतू नहीं ( खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होने वाले बहुत कम कवियों में रह गयी। सब रसों की सम्यक् व्यंजना उन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है।
●हम निस्संकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।
◆स्वामी अग्रदास
●कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदास जी थे। इन्हीं अग्रदास जी के शिष्य भक्तमाल के रचयिता प्रसिद्ध नाभादास जी थे।
●इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता चलता है–
हितोपदेश उपाखाणा बावनी
-ध्यानमंजरी
-रामध्यानमंजरी
-कुंडलियां
●इनकी कविता उसी ढंग की है जिस ढंग की कृष्ण उपासक नंददास जी की।
” कुंडल ललित कपोल जुगल अस परम सुदेसा।
तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।”
◆नाभादास जी
● इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल संवत 1642 के पीछे बना और संवत 1769 में प्रियादास दास जी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कारपूर्ण चरित्र 316 छप्पयो में लिखे गयी हैं ।
●इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है,केवल भक्ति की महिमासूचक बातें कही गई है।
●इनका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्यबुद्धि का प्रचार जान पड़ता है।वह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ।
◆प्राणचंद चौहान
●संस्कृत में रामचरित संबंधी कई नाटक है जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार है और कुछ केवल संवाद रूप में होने के कारण नाटक कहे गए हैं। इसी पिछली पद्धति पर संवत 1667 में इन्होंने ‘रामायण महानाटक’ लिखा।
◆हृदयराम
●ये पंजाब के रहने वाले थे और कृष्णदास के पुत्र थे। इन्होंने संवत 1680 में संस्कृत के हनुमन्ननाटक के आधार पर भाषा हनुमन्ननाटक लिखा।
●प्रेम और श्रद्धा अर्थात पूज्यबुद्धि दोनों के मेल से भक्ति की निष्पत्ति होती है।श्रद्धा धर्म की अनुगामिनी है।जहां धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है वहीं श्रद्धा टिकती है।धर्म ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्ति प्रवृत्ति है, उस स्वरूप की क्रियात्मक अभिव्यक्ति है, जिसका आभास अखिल विश्व की स्थिति में मिलता है।
● भीतर का ‘चित्’ जब बाहर ‘सत्’ का साक्षात्कार कर पाता है तब ‘आनंद’ का आविर्भाव होता है और ‘सदानंद’ की अनुभूति होती है।
●जो भक्तिमार्ग श्रद्धा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा,धर्म से उसका लगाव न रह जाएगा।
●तुलसीदास ने भक्ति को अपने पूर्ण रूप में, श्रद्धा प्रेम समन्वित रूप में,सबके सामने रखा और धर्म या सदाचार को उसका नित्यलक्षण निर्धारित किया।
प्रकरण-5(सगुण धारा)
कृष्णभक्ति शाखा
●श्रीबल्लभाचार्य जी-पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्रीबल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे। आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ। ये वैदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान् थे।
●बल्लभ रामानुज से लेकर बल्लभाचार्य तक जितने भक्त दार्शनिक या आचार्य हुए हैं, सबका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और विवर्त्तवाद से पीछा छुड़ाना था।
●शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। ने ब्रह्म में सब धर्म माने सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा।
●शंकर ने निर्गुण को ही ब्रह्म का पारमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण की व्यवहारिक या मायिक।बल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली परमार्थिक रूप बताया और निर्गुण को उसका अंशतः तिरोहित रूप कहा।
●प्रेमसाधना में बल्लभ ने लोकमर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया।इस प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे ‘पोषण’ या ‘पुष्टि’ कहते हैं। इसी से बल्लभाचार्य जी ने अपने मार्ग का नाम ‘पुष्टिमार्ग’ रखा है।
●पुष्टि जीव, जो भगवान् के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और ‘नित्यलीला’ में प्रवेश पाते हैं।
- मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते … हैं और
- प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं।
●कृष्णाश्रय’ नामक एक प्रकरण ग्रंथ’ में बल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यंत विपरीत दशा का वर्णन किया है जिसमें उन्हें वेदमार्ग या मर्यादामार्ग का अनुसरण अत्यंत कठिन दिखाई पड़ा है।
●वल्लभाचार्य के मुख्य ग्रंथ ये हैं:-
– पूर्वमीमांसा भाष्य
–उत्तर मीमांसा या ब्रह्मसूत्र भाष्य जो अणुभाष्य नाम से प्रसिद्ध है।
– श्रीमदभागवत के सूक्ष्म टीका तथा सुबोधिनी टीका।
– तत्वदीपनिबंध तथा।
–सोलह छोटे-छोटे प्रकरण ग्रंथ।
●इनमें से पूर्वमीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा-सा अंश मिलता अणुभाष्य आचार्य जी पूरी न कर सके थे। अतः अंत के डेढ़ अध्याय उनके पुत्र गोसाईं बिट्ठलनाथ ने लिखकर ग्रंथ पूरा किया। भागवत की सूक्ष्म टीका नहीं मिलती, सुबोधिनी का भी कुछ अंश ही मिलता है. प्रकरण ग्रंथों में ‘पुष्टिप्रवाहमर्यादा’ नाम की प्रसिद्ध पुस्तक मूलचंद तुलसीदास तेलीवाला ने संपादित करके प्रकाशित करायी है।
●अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी का बड़ा भारी मंदिर निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मंडन बाँधा । बल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्धति या सेवा पद्धति ग्रहण की गयी उसमे भोग, राग तथा विलास की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही।
●उनके पुत्र गोसाई बिठ्ठलनाथ जी हैं।
●जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर-सुंदर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहायी उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्लित किया।इस संगीतधारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्णभक्तों ने भी पूरा योग दिया।
●सब संप्रदायों के कृष्णभक्त भागवत में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर रूप ही पर्याप्त समझा।
● फल यह हुआ कि कृष्णभक्त कवि अधिकतर फुटकल श्रृंगारी पदों की रचना में ही लगे रहे। उनकी रचनाओ में न तो जीवन के अनेक गंभीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुए, न अनेकरूपता आयी।
●भागवत् धर्म का उदय यद्यपि महाभारत काल में ही हो चुका था और अवतारों की भावना देश में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी।
● श्रीमद् भागवत में श्रीकृष्ण के मधुर रूप के विशेष वर्णन होने से भक्तिक्षेत्र में गोपियों के ढंग के प्रेम का माधुर्य भाव का रास्ता खुला।
●दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध भक्तिन हो गयी हैं जिनका जन्म संवत् 773 में हुआ था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में ‘तिरुप्पावइ’ नामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है, (अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।’)
●मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पार प्रभाव पाया जाता है।
◆सूरदास
●गोवर्द्धन पर श्रीनाथ जी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार बल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आये और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। आचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य किया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया।
●श्रीनाथ जी के मंदिर निर्माण के थोड़ा ही पीछे सूरदास जी बल्लभ संप्रदाय में आए।
●तुलसी ने तो अपने कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में।
●बल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं बिट्ठलनाथ के सामने गोवर्धन की तलहटी के पारसोली ग्राम में सूरदास की मृत्यु हुई।
● सूरदास की प्रमुख रचनाएं हैं– सूरसागर, सूरसारावली साहित्यलहरी।
● साहित्यलहरी में अलंकारों और नायिकाभेद के उदाहरण दिए गए हैं।
●साहित्य लहरी’ के अंत में एक पद है जिसमें सूर अपनी वंशपरंपरा देते हैं।उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे।
●यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्यक्रीड़ा यह ग्रंथ ‘सूरसागर’ से छुट्टी पाकर ही सूर ने संकलित किया होगा।(साहित्यलहरी के संदर्भ में)
●साहित्य लहरी के संदर्भ में अष्टछाप के कवि है:- कुंभनदास, सूरदास, परमानंददास, कृष्णदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास,नंददास ।
● कृष्णभक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है, उसके लोगपक्ष का समावेश उनमें नहीं है।
●तुलसीदास जी के समान लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की परवाह ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए जिस शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखनेवाले विषय वासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया।
●अतः इन कृष्ण भक्त कवियों के संबंध में यह कह देना आवश्यक है कि वे अपने रंग में मस्त रहने वाले जीव थे।
●कृष्णचरित के गान में गीतकाव्य की जो धारा पूरब में जयदेव और विद्यापति ने बहाई, उसी का आलंबन ब्रज के भक्त कवियों ने भी किया।
●ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के ढंग पर दोहों, चौपाइयों में प्रबंधकाव्य के रूप में कृष्णचरित का वर्णन किया, पर ग्रंथ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका।
●कृष्ण संबंधिनी कविता का स्फुरण मुक्तक के क्षेत्र में ही हुआ, प्रबंध के क्षेत्र में नहीं।
● कृष्णभक्त कवियों ने श्रीकृष्ण भगवान के चरित का जितना अंश लिया वह एक अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए पर्याय न था।उनमे मानव जीवन की वह अनेकरूपता न थी जो एक प्रबंधकाव्य के लिए आवश्यक है।
● कृष्ण भक्त कवियों की परंपरा अपने इष्टदेव की केवल बाललीला और यौवन लीला लेकर ही अग्रसर हुई जो गीत और मुक्तक के लिए ही उपयुक्त थी। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त कवियों तथा अलंकारिक कवियों ने श्रृंगार और वात्सल्य रस को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया, इसमें कोई संदेह नहीं।
●पहले कहा गया है कि श्री बल्लभाचार्य जी की आज्ञा से सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत् की कथा को पदों में गाया। इनके सूरसागर में व्यस्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपतः इतिवृत्त के रूप में थोड़े-से पदों कह दी गयी है सूरसागर में कृष्णजन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गायी गयी है।
●इनके सूरसागर में वास्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपत: इतिवृत्त के रूप में थोड़े -से पदों कह दी गयी है।
● चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्य रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परीमार्जित है। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की श्रृंगारी और वात्सल्य की उक्तियां सूर की जूठी-सा जान पड़ती है। अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का-चाहे वह मौखिक ही रही हो-पूर्ण विकास-सा प्रतीत होता है।
● सूर के श्रृंगारी पदों की रचना बहुत कुछ विद्यापति की पद्धति पर हुई है।
” अनुखन माधव- माधव सुमिरइत सुंदरी भेलि मधाई।।”
● सूरसागर में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं ,यह भी विद्यापति का अनुकरण है।
” सारंग नयन,बयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने।
सारंग ऊपर उगल दस सारंग केलि करथि मधु पाने।।”
● कबीर के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी साखी की भाषा तो साधुक्कड़ी है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है।यह एक पद कबीर और सूरदास दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है–
” है हरिभजन को परवान।
नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते निसान।।
●राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी।
● जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिंदी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं।जो तन्मयता इन दोनों भक्त-शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिंदी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया।सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है-
” उत्तम पद कवि गंग के,कविता को बल वीर।
केशव अर्थ गंभीर को ,सूर तीन गुन धीर।।
●इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है-
किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर।
किधौं सूर को पद लग्यो, बेध्यो सकल सरीर।।
● यद्यपि तुलसी के समान सूर का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि जिनमें जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा।
● श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहां तक इनकी दृष्टि पहुंची वहां तक और कोई किसी कवि की नहीं।
● गोस्वामी तुलसीदास जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार दिया सही, पर उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नही आयी, उसमे रूप वर्णन की ही प्रचुरता रही।बालक चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार कहीं नहीं।
” काहे को आरि करत मेरे मोहन!यो तुम आंगन लोटी?
सिखवत चलन जसोदा मैया।
अबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धरै पैया।।”
● वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचार विस्तार और किसी कवि में नहीं ।
” करि लयै न्यारी,हरि आपनि गैया।”
●सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आनंद छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है।
● परंपरा से चली आते हुए चंद्रोपालंभ आदि सब विषयों का विधान सूर्य के वियोगवर्णन के भीतर है, कोई बात छूटी नहीं है।
●सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते।बाललीला और प्रेमलीला दोनों के अंतर्गत कुछ दूर तक चलने वाले न जाने कितने छोटे-छोटे मनोरंजन वृतों की कल्पना सूर ने की है।
● सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्धपूर्ण अंश ‘भ्रमरगीत’ है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता।
●उद्धव के बहुत बकने पर वे कहती है-
ऊधौ! तुम अपनो जतन करौ ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
●इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से-हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं किया।
●जब उद्धव बहुत-सा वाग्विस्तार करके निर्गुन ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं तब गोपियाँ बीच में रोककर इस प्रकार पूछती हैं-
निर्गुन कौन देस को बासी?
और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुणसत्ता का निषेध करके क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक-बक करता है-
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि-पचि बात बनावत। सगुन सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत।
उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई संबंध हो सकता है, यह तो बताओ-
रेख न रूप, बरन जाके नहि ताको हमैं बतावत अपनी कहौं, दरस ऐसो को तुम कबहूँ हो पावत?
अंत में यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुणों में ही अधिक रस जान पड़ता है
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, मदिरा मत्त प्रमाद।। सूर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद ।।
◆नंददास
●अष्टछाप में सूरदास जी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है।
नाभा जी के भक्तमाल में इन पर जो छप्पय है उसमें जीवन के संबंध में इतना ही है-
“चंद्राहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पथ में पगे।
●उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास जी सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गये। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गये। वहाँ भी वे जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं बिट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गये। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं बिट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। ध्रुवदास जी ने भी अपनी ‘भक्तनामावली में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।
●इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।’
●इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक रासपंचाध्याई है जो रोला छंद में लिखी गई है।
●कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है।
इनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें है– भागवत दशम स्कंध,रुक्मणीमंगल,सिद्धांत पंचाध्याई, रूपमंजरी, अनेकार्थकनाममाला,दानलीला मानलीला, ,श्यामासगाई, भ्रमरगीत ,सुदामाचरित्र।
● इनके मात्र 4 पुस्तके ही अब तक प्रकाशित हुई है– रासपंचाध्याई,भ्रमरगीत, अनेकार्थकनाममाला और अनेकार्थमंजरी।
रासपंचाध्यायी से-
“ताही छिन उड्डराज उदित रस-रास-सहायक।। कुमकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि नायक ।।
“कहन श्याम संदेश एक मैं तुम पै आयो।
कहन सयम संकेत कहू अवसर नाहि पायो।।”- (भ्रमर गीत)
“जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नेति बखानै।। निरगुन सगुन आतमा रुचि ऊपर सुख सानै।।”
“जो उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते। बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहो कहाँ ते।।
◆कृष्णदास
●ये भी बल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप में थे। यद्यपि ये शुद्र थे पर आचार्य जी के बड़े कृपा पात्र और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे।
● ‘जुगलमान चरित्र’ नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है ।इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं-भ्रमरगीत और प्रेमतत्वनिरूपण।
” तरनि तनया तट आवत है प्रात समय,
कंदूक खेलत देख्यो आनंद को कंदवा।।”
** ** **
कंचन मनि मरकत रस ओपी।
नंद सुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी।।”
◆परमानंददास
●यह भी बल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप में थे। यह संवत1606 के आसपास में विराजमान थे।
●इनका एक ही ग्रंथ मिलता है ‘परमानंदसागर’ जिसमें 835 पद है ।
“कहा करै बैकुंठी जाय?
जहां नहि नंद, जहां न जसोदा, नहि जहां गोपी ग्वाल न गाय।।”
“राधे जू हारावलि टूटी।
उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल लट छूटी।।”
◆ कुंभनदास
● ये भी अष्टछाप के कवि थे और परमानंद जी के ही समकालीन थे।
● इनके विषय में एक घटना प्रचलित है कि एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सिकरी जाना पड़ा जहां इनका बड़ा सम्मान हुआ पर इनका इन्हें बराबर खेद ही रहा–
“संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत मुख पहनियाँ टूटे,बिसरि गयो हरी नाम।।”
” तुम नीके दुहे जानत गैया।
चलिए कुंवर रसिक मनमोहन लागै तिहारे पैयां।।”
◆चतुर्भुजदास
●यह कुंभनदास जी के पुत्र और गोसाईं बिट्ठलनाथ जी के शिष्य थे और ये भी अष्टछाप के कवि में थे।
●इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है ।
●इनके बनाये तीन ग्रंथ पाए जाते हैं -द्वादशयश, भक्तिप्रताप तथा हितजू को मंगल।
“जसोदा!कहा कहौं हौ बात?
तुम्हारे सुत के करतब मो पै कहत कहे कहे नहि जात।।”
◆छीतस्वामी
●स्वामी बिट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे।
●पहले ये मथुरा के एक सुसम्पन्न पंडा थे और राजा बीरबल ऐसे लोग इनके जजमान थे।पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उदंड थे, पीछे गोस्वामी बिट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के बाद परम शांत भक्त हो गए ।
●’हे विधना तोसों अंचरा पसारि मांगों जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’ इन्हीं का है।
“भोर भए नवकुंज सदन तें, आवत लाल गोवर्धनधारी,
लटपट पाग मरगजी माला,सिथिल अंग डगमग गति न्यारी।।”
◆ गोविंदस्वामी
● यह अंतरी के रहने वाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भांति आकर महावन में रहने लगे थे और पीछे बिट्ठलनाथ जी के शिष्य होकर पदों की रचना करने लगे थे ।
●ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविंदस्वामी की कदंबखंडी’ कहलाता है।
●ये कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे।तानसेन कभी-कभी इनका संगीत सुनने के लिए आया करते थे।
” प्रातः समय उठी जसुमति जननी गिरधर सुत को उबटिन्हवावति।”
◆ हितहरिवंश
● राधाबल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोस्वामी हितहरिवंश का जन्म संवत 1559 में मथुरा में हुआ।
● हितहरिवंश जी गौड़ ब्राह्मण थे।ये पहले माधवानुपायी गोपाल भट्ट के शिष्य थे। पीछे इन्हें स्वप्न में राधिका जी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया।अतः हित संप्रदाय को माधव संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं।
●हितहरिवंश जी के चार पुत्र और एक कन्या हुई। पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्णचंद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे। गोसाईं जी ने संवत् 1582 में श्री राधाबल्लभ जी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे (ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे)170 श्लोकों का ‘राधासुधानिधि’ आप ही का रचा कहा जाता है। ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, तथापि है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी। आपके पदों का संग्रह ‘हित चौरासी’ के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि उसमें 84 पद हैं। प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (500 पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है।
●सेवकजी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर रचना कर गये हैं।
●अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंश जी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं।
●‘हितचौरासी’ के नाम से इनका ग्रंथ प्रसिद्ध है जिसमें 84 पद है, प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टिका ब्रजभाषा गद्य में है।
●इनके ‘हितचौरासी’ पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है।
●वृंदावन ने इनकी स्तुति और वंदना में ‘हित जी की सहस्रनामावली) और चतुर्भुजदास ने ‘हितजू को मंगल’ लिखा है
“रहो कोउ काहू मनहि दिए।
मेरे प्राणनाथ श्री श्यामा सपथ करौ तिन छिए।।”
“बिपिन घन कुंज रति केलि भुज केलि रुचि,
स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी।”
◆गदाधर भट्ट
●इनके बारे में ये प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे।इनका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है–
” भागवत सुधा बरखै बदन,काहू को नाहिन दुखद।
गुणनिकर गदाधर भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद।”
●महाप्रभु के जिन छह विद्वान् शिष्यों ने गौड़ीय संप्रदाय के पन्न संस्कृत गन्थों की रचना की थी उनमें जीव गोस्वामी भी थे। ये वृन्दावन में रहते थे।एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधर भट्ट जी का यह पद सुनाया-
“सखी हौ स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाइ गई वह मूर्ति ,सूरत माहि पगी।।”
●इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्ट जी के पास यह श्लोक लिख भेजा-
अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्पदाङ्कम्अ। सम्भाष्य तद्भावगम्भीरचित्तान कुतःश्यामासिन्धोः रहस्यावगाहः।।
●यह श्लोक पढ़कर भट्ट जी मूर्छित हो गये फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। संस्कृत के चूड़ांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तूलसीदास जी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृतगर्भित भाषा कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिये जाते हैं-
जयति श्री राधिके, सकल सुख साधिके,
◆मीराबाई
●ये मेड़तिया राठौड़ रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदा जी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधा जी की प्रपौत्री थी।इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज के साथ हुआ था।
●घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी को यह पद लिखकर भेजा-
“स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषन हरन गोसाईं।
बारहि बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई ।।”
●इस पर गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा-
“जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर ताजिय कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही।।”
● मीराबाई की उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी अर्थात वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थी। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है।
“● मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभा जी,ध्रुवदास, व्यास जी, मलूक दास आदि सब भक्तों ने किया है।
● इनके पद कुछ तो राजस्थान मिश्रित भाषा में है और विशुध्द साहित्यिक ब्रजभाषा में।
● इनके बनाएं चार ग्रंथ कह जाते हैं– नरसी जी का मायरा, गीतगोविंद टीका,राग गोविंद,राग सोरठ के पद।
” बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरी सू,रति नैना बने रसाल ।।
मन रे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविध ज्वाला हरन।।”
◆स्वामी हरिदास
● ये महात्मा वृंदावन में निंबार्क मतांतर्गत ठट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिध्द भक्त और संगीत कला कोविंद माने जाते थे।
●प्रसिद्ध तानसेन इनको गुरुवत सम्मान करते थे।
◆सूरदास मनमोहन
● ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे और गौड़ीय संप्रदाय के वैष्णव थे। प्राय: साधुओं की सेवा में लगा रहते थे।
●इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाये, बहुत से पद सूरसागर में मिल गये।
” मधु के मतवारे स्याम ।खोलौ प्यारे पलकै।
सीस मुकुट लटा छूटी और छूटी अलकै।।”
◆श्रीभट्ट
●यह निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान केशव कश्मीरी के प्रधान शिष्य थे।
● इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में थी।
●‘युगल शतक’ नामक 100 पदों का एक ग्रंथ पाया जाता है।’ युगल शतक’ के अतिरिक्त इनकी एक छोटी सी पुस्तक ‘आदि बानी’ भी मिलती है।
“भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरंग चुनरी,मोहन को उपरैना।।”
◆व्यास जी
●यह हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त थे।
●ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच-बीच में संसार पर दृष्टि डाला करते थे।इन्होंने तुलसीदास जी के समान खलों, पाखंडियो आदि को स्मरण किया है और रसखान के अतिरिक्त तत्वनिरूपण में भी प्रवृत्त हुए हैं ।
●प्रेम को इन्होंने शरीर व्यवहार से अलग ‘अतन’अर्थात मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है।
● इन्होंने एक ‘रासपंचाध्याई’भी लिखी है, जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है।
◆रसखान
●ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने ‘प्रेमवाटिका’ में अपने को शाही खानदान का कहा है।
● ये बड़े भारी कृष्णभक्त थे और गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी के बड़े कृपा पात्र शिष्य थे ।
●उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए के लड़के पर आसक्त थे।
●इनकी भाषा बहुत चलती सरल और शब्दाडंबरमुक्त होती थी।शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अन्यत्र दुर्लभ है।
●इनकी 2 छोटी-छोटी पुस्तके प्रकाशित हुई है–प्रेमवाटिका(दोहे) और सुजानरसखान(कवित्त-सवैया)।
●अनुप्रास की सुंदर छटा होते हुए भी भाषा की चुस्ती और सफाई कही नही जाने पायी है।
“मानुष हों तो वही रसखान बसौ सँग गोकुल गांव के ग्वारन।”
“जेहि बिनु जाने कछुहि नहि जान्यो जात बिसेस।
सोइ प्रेम जेहि जान कै रहि न जात कछु सेस।।”
◆ध्रुवदास
●ये श्री हितहरिवंश जी के शिष्य स्वप्न में हुए थे।
●नाभा जी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने ‘भक्तनामावाली‘ लिखी है जिसमें अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है।
“रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के,
अंग अंग भौंरन की अति गहराई है।”
“प्रेम बात कछु कहि नहि जाई
उलटि चाल तहाँ सब भाई।”
प्रकरण-6(सगुणधारा)
भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ
●अतः सूर और तुलसी ऐसे भक्त कविश्वरों के प्रादुर्भाव के कारणों में अकबर द्वारा संस्थापित शांतिसुख को गिनना भारी भूल है।
●छीहल– ‘पंचसहेली’ (ग्रंथ)
●लालचदास–’हरिचरित्र’ और ‘भागवत दशम स्कंध भाषा’
●कृपाराम –’हिततरंगिणी’
●महापात्र नरहरि बंदीजन–’रुक्मणीमंगल’ और ‘छप्पय नीति’
●नरोत्तमदास– ‘सुदामाचरित‘
◆आलम
●ये अकबर के समय के एक मुसलमान कवि थे, जिन्होंने ‘माधवानल कामकांदला’ नाम की प्रेमकहानी दोहा-चौपाई में लिखी।
● यह श्रृंगार रस की दृष्टि से ही लिखी जान पड़ती है, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं।
◆गंग
●ये अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखाना इन्हें बहुत मानते थे।
●ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से ये हाथी से चिरवा डाले गए थे और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था–
“कबहुँ न भडुआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब
सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग।।”
●गंग कवि बहुत निर्भीक होकर बात कहते थे।वे अपने समय के नरकाव्य करने वाले कवियों में सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे।
● कहते हैं कि रहीम खानखाना ने इन्हें एक छप्पय पर छत्तीस लाख रुपए दे डाले थे–
“चकित भाँवरि रहि गयो,गम नहि करत कमलवन।
अहि फन मनि नहि लेत, तेज नहि बहत पवन वन।।”
◆बलभद्र मित्र
●ये केशवदास के बड़े भाई थे।
● कृपाराम ने जिस प्रकार रसरीति का अवलम्ब कर नायिकाओं का वर्णन किया उसी प्रकार बलभद्र नायिका के अंगों का एक स्वतंत्र विषय बनाकर चले थे।
● इनका ‘नखशिख’ श्रृंगार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिनमें नायिकाओं के अंगो का वर्णन उपमा,उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों के प्रचुर विधान द्वारा किया है।
◆ केशवदास
●ये सनाढ्य ब्राह्मण कृष्णदत्त के पौत्र और काशीनाथ के पुत्र थे। ओरछानरेश महाराज राम के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में रहते थे।
● केशवदास संस्कृत के पंडित थे अतः शास्त्रीय पद्धति से साहित्यचर्चा का प्रचार भाषा में पूर्ण रूप से करने की इच्छा इनके लिए स्वाभाविक थी।
● ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है-
” जदपि सुजाति सुलच्छनी,सुबरन सरस सुवृत
भूषण बिनु ना बिराजई कविता बनिता मीत।।”
●अपने इसी मनोवृति के अनुसार इन्होंने भामह, उद्भट और दंडी आदि प्राचीन आचार्यों का अनुसरण किया जो रास,रीति आदि सब कुछ अलंकार के अंतर्गत ही लेते थे।वास्तविक अलंकार इनके विशेष अलंकार ही हैं।
●काव्य के स्वरूप के संबंध में तो वह रस की प्रधानता मानने वाले काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण के पक्ष पर रहे और अलंकारों के निरूपण में उसने अधिकतर चंद्रलोक और कुवलयानंद का अनुसरण किया। इसी से केशव के अलंकारलक्षण हिंदी में प्रचलित अलंकार से नहीं मिलते। केशव ने अलंकारों पर ‘कविप्रिया’ और रस पर ‘रसिकप्रिया’ लिखी।
● केशव को कभी कविहृदय नहीं मिला था।उनमें वह सहृदयता और भावुकता भी न थी जो एक कवि में होनी चाहिए।
● केशव की कविता जो कठिन कही जाती है, उसका प्रधान कारण उनकी यह त्रुटि है –उनकी मौलिक भावनाओं की गंभीरता या जटिलता नहीं।
●केशव ने दो प्रबंधकाव्य लिखे- एक वीरसिंहदेवचरित, दूसरा ‘रामचंद्रिका‘।
● रामचंद्रिका अवश्य एक प्रसिद्ध ग्रंथ है।पर यह समझ रखना चाहिए कि केशव उक्तिवैचित्र्य और शब्दक्रिड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी।
● संबंधनिर्वाह की क्षमता केशव में नहीं थी।
●केशव के लिए प्राकृतिक दृश्यों में कोई आकर्षण नहीं था। चारों ओर फैली हुई प्रकृति के नाना रूपों के साथ के साथ केशव के हृदय का सामंजस्य कुछ भी न था।
●प्रबंधकाव्य रचना के योग न तो केशव में अनुभूति ही थी,न शक्ति।
● रामचंद्रिका के लंबे-चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी।
●केशव की रचना सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करने वाली वस्तु है, अलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति जिसके कारण न तो भावों की प्रकृति व्यंजना के लिए जगह बचती है,न सच्चे हृदयग्राही वस्तुवर्णन के लिए।
●रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफल हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध,उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है।उनका रावण-अंगद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है ।
●केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला है।
◆ रहीम
●ये अकबर बादशाह के अभिभावक प्रसिद्ध मुगल सरदार बैरम खां खानखाना के पुत्र थे।
●ये संस्कृत,अरबी और फारसी के पूर्ण विद्वान और हिंदी काव्य के पूर्ण मर्मज्ञ कवि थे।
● ये दानी और परोपकारी ऐसे थे कि अपने समय के कर्ण माने जाते थे।
● इनकी सभा विद्वानों और कवियों से सदा भरी रहती थी।अकबर के समय में ये प्रधान सेनानायक और मंत्री थे और अनेक बड़े-बड़े युद्ध में भेजे गए थे।
● गोस्वामी तुलसीदास जी से भी इनका बड़ा स्नेह था। तुलसी के वचनों के समान रहीम के बचन भी हिंदी भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुँह पर रहते थे।
● जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी वही जनता का प्यारा कवि होगा।
● भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार हम रहीम का भी पाते हैं।
●‘बरवै नायिकाभेद’ बड़ी सुंदर अवधी भाषा में है। इसके उक्तियां ऐसी लुभावनी हुई कि बिहारी आदि परवर्ती कवि भी बहुतों का अपहरण करने का लोभ न रोक सके।
◆ सेनापति
● ऋतुवर्णन तो इनके जैसा और किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया।इनके ऋतुवर्णन में प्रकृति निरीक्षण पाया जाता है।
● अपने समय के ये बड़े भावुक और निपुण कवि थे।
● इनका दो ग्रंथ पाया जाता है– ‘कवित्तरत्नाकर’ और दूसरा ‘काव्यकल्पद्रुम’।
● इनकी कविता बहुत मर्मस्पर्शी और रचना बहुत ही प्रौढ़ और प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे ही दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी।
● भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पायी है।
● सेनापति जी के भक्तिप्रेरित उद्गार बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण है।
◆पुहकर कवि –’रसरत्न’
◆सुंदर –’सुंदरश्रृंगार’
◆लालचंद –’पद्मिनीचरित्र’
◆मुबारक–’अलकशतक’ और ‘तिलशतक’