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गुज़रा हुआ जमाना:सर सैयद अहमद खां

गुज़रा हुआ जमाना:सर सैयद अहमद खां

भारत में उर्दू नस्र को जिन्होंने नई सूरत बख्सी उनका नाम ‘सर सैयद अहमद खां‘ है।
आधुनिक शिक्षा के प्रेरक और आधुनिक उर्दू नस्र के प्रवर्तक ‘सर सैयद अहमद खां’ ने सिर्फ शैली ही नहीं,बल्कि हिंदुस्तानियों के एहसास के ढंग को भी बदला।
उन्होंने वैज्ञानिक कथात्मक और तर्कपूर्ण विचारों को बढ़ावा दिया।उन्होंने आवाम को पारंपरिक शिक्षा के स्थान पर आधुनिक ज्ञान हासिल करने के लिए प्रेरित किया।क्योंकि वह जानते थे,कि आधुनिक शिक्षा के बिना प्रगति संभव नहीं है।
उनके आंदोलनों ने शायरों और नस्र लिखने वालों की एक बड़ी संख्या को प्रभावित किया उनकी गिनती हिंदुस्तान के बड़े सुधारवादियों में होती है।
जहां वे उस वक्त थे वहां उनकी बिरादरी की सामूहिक परिस्थिति ने उन्हें बेचैन कर दिया।राष्ट्र के कल्याण के लिए वे सोचने पर मजबूर हुए।1864 ई• में गाजीपुर में ‘साइंटिफिक सोसाइटी‘ की स्थापना की।
1870 ई• में ‘तहजीबुल अखलाक‘ जारी किया।1875 ईस्वी में अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम फिर ‘मोहम्मडन ओरिएंटल कॉलेज' की स्थापना की।और आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में सर सैयद अहमद खां के ख्वाबों का परचम दुनिया में लहरा रहा है।
उन्होंने छोटी-बड़ी लगभग 30 पुस्तकों की रचना की जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं।
आसारुससनादीद’ ‘असबाबे बगावते हिन्द’,खुत्बाते अहमदिया’,’तफसीरुल क़ुरान’,’तारीख़े सरकशी बिजनौर’।

गुजरा हुआ जमाना‘ उनकी महत्वपूर्ण कहानी है।जो उपदेशात्मक है।जिसमें वक्त की अहमियत को समझाने का प्रयास किया गया है।ताकि बाद में पछताने की नौबत ना आए।सर सैयद अहमद खां यहां से-शिक्षाप्रद कहानी की शुरुआत करते हैं।
-बरस की आखिरी रात है एक बूढा अपने घर में अकेले बैठा हुआ है।रात डरावनी और अंधेरी है,वह अपने पिछले जमाने को याद कर रहा है।वह जितनी बार उसे याद करता है आंखों से आंसू बहते जाते हैं।उसका लड़कपन उसे याद आता है।वह सोचता है सारा घर मां-बाप उसे कितना प्यार करते थे।
फिर उसे अपनी जवानी याद आती है जब वह उमंगों से भरा बेफिक्र रहता था।मां-बाप जगने की और खुदा परस्ती की नसीहत देते तो कहता–बहुत वक्त है…
अब उसे मां-बाप दोस्त आशनां सब याद आते हैं जो इस दुनिया में नहीं है।वह सोचता है कि क्यों ना उस वक्त सब की नसीहत मानी,अब पछताने से क्या होगा?
जिन भूखों को वह खाना खिलाता था,जिन फकीरों दरवेशों की खिदमत की थी सबको मदद के लिए पुकारता है पर उसकी आवाज कोई नहीं सुनता।
वह ज्योंहि खिड़की को खोलता है उसे आसमान में एक खूबसूरत दुल्हन नजर आती है।वह टकटकी बांधे उसे देखता जाता है।वह उस दुल्हन से पूछता है-तुम कौन हो?
दुल्हन ने जवाब दिया मैं हमेशा जिंदा रहने वाली ‘नेकी‘ हूं।
वह उससे पूछता है तुम्हारी तसख़ीर की भी कोई अमल है?
जिस पर वह कहती हुई बताती है कि निहायत आसान है पर बहुत मुश्किल भी है।
जो इंसान खुदा की फर्ज अदा कर इंसान की भलाई और उसकी बेहतरी में कोशिश करता है।मैं उसकी मुसख्वर होती हूं।
दुनिया में सिर्फ इंसान ही है जो आखिर तक रहेगा।
जो भलाई इंसान की बेहतरी के लिए की जाती है वहीं नस्ल-दर-नस्ल आखिर तक चलती आती है।नमाज,रोजा हज या फिर ज़कात उसी तक खत्म हो जाते हैं।

वह दुल्हन कहती है- “मैं तमाम इंसानों की रूह हूँ,जो कोई इंसानों की भलाई में कोशिश करेगा मैं उसकी हो जाऊंगी।
यह कहकर वह गायब हो जाती है। बूढ़ा फिर अपने 55 वर्ष की उम्र में कोई नेक काम अपने कौम के लिए नहीं करने पर पछताता है।वह वक्त को फिर लौटाने को सोचता ही है कि बेहोश हो जाता है। उसके कानों में मां की मीठी आवाज आती है।बाप भाई छोटी बहन सब इर्द-गिर्द खड़े हैं।सब उसे 9 रोज (ईरानी त्योहार)की खुशियां मनाने को कह रहे थे।तब वह लड़का भ्रम से जागता है।और सोचता है कि यह सारा सिलसिला मैंने ख्वाब में देखा था।उसकी मां उसे सलाह देती है कि बेटा इससे कुछ सीख ले।तू वह मत कर जो उस बूढ़े ने किया।और बार-बार उसे पछताना पड़ा वक्त लौटकर नहीं आता।इसलिए तू वह कर जो तेरी ‘दुल्हन’ ने तुझसे कहा।वह लड़का खुशी से उछल पड़ता है कि आज मेरे जिंदगी का पहला दिन है।मैं उस बूढ़े की तरह कभी नहीं बनूंगा और नेकी करूंगा।आमीन!
कहानी के अंत में सर सैयद अहमद खां अपने आवाम के बच्चों को यह सलाह देते हैं कि इस बुड्ढे की तरह मत बनो कि अंत में पछताना पड़े अपने कौम की भलाई की कोशिश करो।
तभी तो सर सैयद अहमद खां ने सदा ही यह बात अपने भाषणों में कही थी कि-“हिंदू और मुसलमान भारत की दो आंखें हैं।"
हम कह सकते हैं कि गुजरा हुआ जमाना एक शिक्षाप्रद कहानी है।जिससे सब को सीख लेनी चाहिए।क्योंकि बीता हुआ वक्त फिर दोबारा नहीं आता।हिंदी का एक कहावतहै जो इसे चरितार्थ करती है “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।”
अर्थात बाद में पछताने से बेहतर है वक्त रहते समय की अहमियत को समझा जाए मां-बाप बड़ों की नसीहत पर ध्यान दिया जाए।मनुष्यता(इंसानियत)से बढ़कर कोई नमाज पूजा धर्म नहीं।इसलिए इंसानों की भलाई में कोशिश करनी चाहिए।तभी तो हिंदी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं-“मनुष्य मात्र बंधु हैं,यही बड़ा विवेक है।“अतः हम कह सकते हैं कि ‘गुजरा हुआ जमानामनुष्यता को बचाए रखने और वक्त की अहमियत देने की कथा है।