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मानस का हंस-अमृतलाल नागर। प्रमुख बिंदु

मानस का हंस-अमृतलाल नागर। प्रमुख बिंदु

1.)”घर,गाँव,जन्मभूमि ,यह शब्द बाबा के मन में तीन फांसों से चुभे, व्यंग फूटा,हँसी आई,कहा-“घर घरैतिन के साथ गया।गाँव तुम्हारे नाम से बजता है और रही जन्मभूमि… वह तो सूकर खेत में है भाई.. यहाँ से तो कुटिल कीट की तरह
माता-पिता ने मुझे जन्मते ही निकाल फेंका था ।”

2.)”अवतार धारण करने पर अविनाशी ईश्वर को भी मृत्यु के माध्यम से ही अपनी लीला संवरण करनी पड़ती है।”

3.)”फिर ईके साथ खेलै लगे,ऐं।ससुर नीच जात भिखारी,जिसकी देह से बास आती है, उसके साथ ब्राह्मण-उत्री के बेटे खेलते हैं,जो है सो हजार बार मना किया ससुरों को ।”

4.)”बच्चे के सिर और पीठ पर प्रेम से हाथ फेरकर बुढ़िया बोली-“यह दुख नहीं,तपस्या है बेटा। पिछले जनमों में जो पाप किए हैं वो इस जनम में तपस्या करके
हम धो रहे हैं कि जिससे अगले जनम में हमें सुख मिले ।”
“तो क्या सारे पाप हमने ही किए थे अम्माँ? औ ये सुखचैनसिंह ठाकुर, पुत्तन महराज, जो हम गरीबों को मारते-पीटते हैं; वो क्या पाप नहीं कर रहे हैं अम्माँ?”

5.)”दुख का भी अपना एक सुख होता है।”

6.)”पेट को कोई स्वाद न चाहिए।यह तो बीच की दलाल जिह्वा ही है जो स्वाद की दलाली करती है।”

7.)पराए फूलों से अपने राम को देखेगा?पहले अपने मन की बगिया लगा ले फिर तुझे राम अवश्य दिखाई पड़ेंगे।”

8.)”सौंदर्य व्यक्त भी है,अव्यक्त भी।”

9.)”यह बालक सत्व को पहले प्रतिष्ठित करके ही सत्य को स्वीकारता है।यह सत्य को पहचानता है।”

10.)”पेट ही तो राम जी की माया है।पेट और नारी इन्हीं दो से संसार नाचता है।”

11.)”रामराज्य कैसा होता है बाबा ?” बालक तुलसी ने प्रश्न किया।
“बाघ और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं। राह में सोना उछालते चलो।तो भी कोई तुमसे छीनेगा नहीं ।जैसा न्याय राम जी करते हैं वैसा कोई नहीं कर सकता है बेटा ।रामराज्य में कोई दीन-दर्बलों को सता नहीं सकता। कोई भूखा नहीं रहता, कहीं भी चोरी-चकारी और अन्य अपराधजनित कार्य नहीं होते।”

12.)”दुख को शब्दों की जामा पहन लेने की आदत पड़ गई है।”

13.)”स्त्री और धन की लूट का नाम ही कलिकाल है।”

14.)”तुलसी शब्दों से अधिक स्वर स्व बंधे थे।”

15.)”प्यार की दुनिया में व्यवहार की दुनिया अपना रूप और ध्वनि बदलकर कुछ और ही हो जाती है।”

16.)भगवान की भक्ति और परनारी प्रेम में पड़कर मनुष्य की एक ही-सी दशा होती है,वह निकम्मा हो जाता है।”

17.)”प्रेमिका सचमुच धोबिन ही होती है।वह कामी पुरुष के मन को ऐसे पछाड़-पछाड़कर धोती है कि बस पूछो मत।”

18.)”कभी-कभी बातों के अर्थ में और यथार्थ में अद्भुत अंतर होता है।”
19.)’प्रतिष्ठा हृदय की होनी चाहिए, जवाहर वही है।बुद्धि-अहंकार आदि तो केवल जौहरी मात्र है।”

20.)”तेरे पास तलवार है,मेरे पास ज्ञान है।”

21.)”शाह की हैसियत अगर हारती है तो फकीर की हैसियत से ही हारती है।”

22.)”प्रेम शुद्ध हो तो लोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं।”
23.)”प्रेम विचार-वितरण मात्र से नहीं होता ब्रम्हचारी जी,वह मनुष्य को कर्म-संलग्न करना जानता है।”

24.)”अपनी परिस्थितियों पर विचार न करनेवाला व्यक्ति मूर्ख होता है।”

25.)”नियति का चक्र मनुष्यों से अधिक ताकतवर होता है।”

26.)”भक्ति प्रेम है और माया प्रेम की परीक्षा।”

27.)”पीहर का पक्ष लेना नारी-मन का नैसर्गिक न्याय है।”

28.)”रावणों की आड़ लेकर राम को नकारने वाले,कभी पंडितों की श्रेणी में नहीं गिने जाते।”

29.)”स्त्री और पुरुष में यही तो अन्तर होता है। नारी भले ही कामवश माता क्यों न बने किन्तु माता बनकर वह एक जगह निष्काम भी हो जाती है।और पुरुष पिता बनकर भी दायित्व-बोध भली प्रकार से अनुभव नहीं करता। सच पूछो तो वह किसी के प्रति अपना दायित्व अनुभव नहीं करता। वह निरे चाम का लोभी है, जीव में रमे राम का नहीं।”

30.)लाखों ऊँचे-ऊँचे वक्षों की ओर न देखो।बेनीमाधव, धरती पर जमकर फैली हुई दूब को देखो। ये ऊँचे-ऊँचे बृक्ष किसी भी आँधी में उखड़कर गिर सकते हैं । पर दूब को चाहे जितना भी रौंदो या काटो वह धरती पर उतनी ही गहरी जड़ें जमाकर फैलती चली जाती है ।”

31.)”वर्णाश्रम धर्म को मानता हूँ परंतु प्रेम धर्म को वर्णाश्रम से भी ऊपर मानता हूँ।”